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१६६। उपासक आनन्द
जैसा चिन्तन करता है, वैसा ही बन जाता है। अतः प्रमोद भावना के द्वारा प्राचीन काल के महापुरुषों के उज्जवल एवं पवित्र गुणों का चिन्तन हमेशा करते रहना चाहिए। गज सुकुमार मुनि की क्षमा, धर्मरुचि मुनि की दया, भगवान् महावीर का वैराग्य, शालिभद्र का दान किसी भी साधक को विशाल आत्मिक शक्ति प्रदान करने के लिए पर्याप्त है।
(३) करुणा भावना-किसी दीन दुखी को पीड़ा पाते हुए देखकर दया से गद्गद हो जाना, उसे सुख शान्ति पहुँचाने के लिए यथाशक्ति प्रयत्न करना, अपने प्रिय से प्रिय स्वार्थ का बलिदान देकर भी उसका दुःख दूर करना, करुणा भावना है। अहिंसा की पुष्टि के लिए करुणा भावना अतीव आवश्यक है। बिना करुणा के अहिंसा का अस्तित्व कथमपि नहीं हो सकता। यदि कोई बिना करुणा के अहिंसक होने का दावा करता है, तो समझ लो वह अहिंसा का उपहास करता है। करुणाहीन मनुष्य, मनुष्य नहीं, पशु होता है। दुखी को देखकर जिसका हृदय नहीं पिघला, जिसकी आँखों से आँसुओं की धारा नहीं बही, वह किस भरोसे पर अपने को धर्मात्मा समझता है।
(४) माध्यस्थ्य भावना जो अपने से असहमत हों, विरुद्ध हों, उन पर भी द्वेष न रखना, उदासीन अर्थात् तटस्थ भाव रखना; मध्यस्थ भावना है। कभी-कभी ऐसा होता है कि साधक को बिल्कुल ही संस्कार-हीन एवं धर्म-शिक्षा ग्रहण करने के सर्वथा अयोग्य क्षुद्र, क्रूर, निन्दक, विश्वासघाती, निर्दयी, व्यभिचारी तथा वक्र स्वभाव वाले मनुष्य मिल जाते हैं, और पहले पहल साधक बड़े उत्साह भरे हृदय से उनको सुधारने का, धर्म पथ पर लाने का प्रयत्न करता है; परन्तु जब उनके सुधारने के सभी प्रयत्न निष्फल हो जाते हैं, तो मनुष्य सहसा उद्विग्न हो उठता है, क्रुद्ध हो जाता है, विपरीताचरण वालों को अपशब्द तक कहने लगता है। भगवान् महावीर मनुष्य की इस दुर्बलता को ध्यान में रखकर माध्यस्थ्य भावना का उपदेश करते हैं कि संसार-भर को सुधारने का केवल अकेले तुमने ही ठेका नहीं ले रखा है। प्रत्येक प्राणी अपने-अपने संस्कारों के चक्र में है। जब तक भव-स्थिति का परिपाक नहीं होता है, अशुभ संस्कार क्षीण होकर शुभ संस्कार जागृत नहीं होता है, तब तक कोई सुधर नहीं सकता। तुम्हारा काम तो बस प्रयत्न करना है सुधरना और न सुधरना, यह तो उसकी स्थिति पर है। प्रयत्न करते रहो, कभी तो अच्छा परिणाम आएगा ही।
विरोधी और दुश्चरित्र व्यक्ति को देखकर घृणा भी नहीं करनी चाहिए। ऐसी स्थिति में माध्यस्थ्य भावना के द्वारा समभाव रखना, तटस्थ हो जाना ही श्रेयस्कर है। प्रभु महावीर को संगम आदि देवों ने कितने भयंकर कष्ट दिए, कितनी मर्मान्तक पीड़ा पहुँचाई; किन्तु भगवान् की माध्यस्थ्यं वृत्ति पूर्ण रूप से अचल रही। उनके हृदय में विरोधियों के प्रति जरा भी क्षोभ एवं क्रोध नहीं हुआ। वर्तमान युग के संघर्षमय वातावरण में माध्यस्थ्य भावना की बड़ी भारी आवश्यकता है। .
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