________________
सत्य-सूत्र । १८७ ।
श्रेष्ठ साधु पापकारी, निश्चयकारी और दूसरों को दुःख पहुँचाने वाली वाणी न बोले। श्रेष्ठ मानव इसी तरह क्रोध, भय और हास्य से भी पापकारी वाणी न बोर । हँसते हुए भी पाप वचन नहीं बोलना चाहिए।
दिलु मियं असंदिद्धं, पडिपुण्णं वियं जियं।
अयंपिरमणुब्बिग्गं, भासं निसिर अत्तवं॥ आत्मार्थी साधक को दुष्ट (सत्य), परिमित, असंदिग्ध, परिपूर्ण, स्पष्ट, अनुभूत, वाचालता-रहित, और किसी को भी उद्विग्न न करने वाली वाणी बोलनी चाहिए।
भासाए दोसे य गुणे य जाणिया,
तीसे य दुढे परिवज्जए सया। छसु संजए सामणिए सया जए,
वएज्ज बुद्धे हियमाणुलोमियं॥ भाषा के गुण तथा दोषों को भलीभाँति जानकर दूषित भाषा को सदा के लिए छोड़ देने वाला, षट्काय जीवों पर संयत रहने वाला, तथा साधुत्व-पालन में सदा तत्पर बुद्धिमान साधक एक मात्र हितकारी मधुर भाषा बोले।
सयं समेच्च अदुवा वि सोच्चा,
भासेज्ज धम्मं हिययं पयाणं। जे गरहिया सणियाणप्पओगा,
न ताणि सेवन्ति सुधीरधम्मा॥ श्रेष्ठ धीर पुरुष स्वयं जानकर अथवा गुरुजनों से सुनकर प्रजा का हित करने वाले धर्म का उपदेश करे। जो आचरण निन्द्य हों, निदान वाले हों, उनका कभी सेवन न करे।
सवक्कसुद्धिं समुपेहिया मुणी,
गिरं च दुटुं परिवज्जए सया। मियं अदुटुं अणुवीइ भासए,
सयाण मज्झे लहइ पसंसणं॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org