Book Title: Upasak Anand
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 214
________________ |बुद्ध-वचन । २०१ । क्रोध को अक्रोध से असाधुता को साधुता से कृपण को दान से और असत्य को सत्य से जीते। १७ अहिंसका ये मुनयो, निच्चं कायेन संबुता। ते यन्ति अच्चुतं ठानं, यस्थ गन्तवा न सोचते॥ जो मुनि अहिंसक है। जो शरीर से सदा संयत रहते हैं। वे उस पतन-रहित स्थान को प्राप्त होते हैं, जहाँ जाने पर शोक नहीं होता। १८ संतकायो संतवाचो, सन्त वा सुसमाहितो। जन्त लोकामि सो भिक्खु, उप सन्तोति वुच्चति॥ जिसका शरीर शान्त है, जिसकी वाणी शान्त है, जिसका मन शान्त है, जो समाधियुक्त है, जिसने लौकिक भागों को छोड़ दिया है, वह भिक्षु उपशान्त है। मेत्ता विहारी यो भिक्खु, __पसन्नों बुद्ध-सासने। अधिगच्छे पदं सन्तं, संखा रुप समं सन्तं॥ मैत्री भावना से विहार करता हुआ, जो भिक्षु बुद्ध के उपदेश में श्रद्धावान् है, वह सभी संस्कारों के शमन, सुख स्वरूप शान्त पद को प्राप्त करता है। २० धम्मारामो धम्म-रतो, धम्मं अनुविचिन्तयं। धम्मं अनुस्सरं भिक्खु, सद्धम्मा न परिहायति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


Page Navigation
1 ... 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222