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कृष्ण-गीता । २०७
और क्रोध से अविवेक अर्थात् मूढ़भाव उत्पन्न होता है और अविवेक से स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है और स्मृति के भ्रमित हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि के नाश होने से यह पुरुष अपने श्रेय: साधन से गिर जाता है।
११
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् । आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥
परन्तु स्वाधीन अन्त:करण वाला पुरुष राग-द्वेष रहित अपने वश में की हुई इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ अन्त:करण की प्रसन्नता अर्थात् स्वच्छता को प्राप्त होता है।
१२
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते । प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥
और उस निर्मलता के होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले पुरुष की बुद्धि शीघ्र ही अच्छी प्रकार स्थिर हो जाती है।
१३
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ।।
और हे अर्जुन! साधन रहित पुरुष के अन्तःकरण में श्रेष्ठ बुद्धि नहीं होती है और उस आयुक्त के अन्त:करण में आस्तिक भाव भी नहीं होता है और बिना आस्तिक भाव वाले पुरुष को शान्ति भी नहीं होती । फिर शान्तिरहित पुरुष को सुख कैसे हो सकता है।
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१४
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते । तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥
क्योंकि जल में वायु नाव को जैसे हर लेता है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के बीच में जिस इन्द्रिय के साथ मन रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हरण कर लेती है।
१५
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
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