Book Title: Upasak Anand
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 221
________________ २०८1 उपासक आनन्द । इससे हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ सब प्रकार इन्द्रियों के विषयों से वश में की हुई होती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर होती है। या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥ और हे अर्जुन! सम्पूर्ण भूतप्राणियों के लिये जो रात्रि है उस नित्य शुद्ध बोधस्वरूप परमानन्द में भगवत् को प्राप्त हुआ योगी पुरुष जागता है और जिस नाशवान् क्षणभंगुर सांसारिक सुख में सब भूतप्राणी जागते हैं, तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि है। १७ आपूर्यमाणमचल प्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्। तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥ और जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र के प्रति नाना नदियों के जल उसको चलायमान न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही जिस स्थिर बुद्धि पुरुष के प्रति सम्पूर्ण भोग किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं, वह पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, न कि भोगों को चाहने वाला। १८ विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः। ह निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति॥ क्योंकि जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममता रहित और अहंकार रहित, स्पृहारहित हुआ बर्तता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है। एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति । स्थित्वास्यानन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥ हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर मोहित नहीं होता है और अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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