Book Title: Upasak Anand
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपासक आनन्द Fo प्रवचनकार : राष्ट्र सन्त उपाध्याय अमर मुनि सम्पादक : विजय मुनि शास्त्री साहित्यरत org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपासक-आनन्द Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मति-साहित्य-रत्नमाला का चौवालीसवाँ रत्न - उपासक-आनन्द IIIIIIIIIIIIII प्रवचनकार राष्ट्र-सन्त उपाध्याय श्री अमर मुनि संपादक शास्त्री विजय मुनि (साहित्यरत्न) Ixxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx सन्मति ज्ञान पीठ, आगरा Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक सन्मति ज्ञान पीठ लोहा मंडी, आगरा। सम्वत् २०५१ सन् १९९५ ई. मूल्य ३० रूपये द्वितीय संस्करण मुद्रक रतन आर्ट्स संजय प्लेस, आगरा Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय . . PAARADHA ..... .. 'सन्मति-ज्ञान-षीठ' के इस अनुपम तथा अमूल्य रत्न को पाठकों के कर-कमलों में अर्पित करते हुए मेरा अन्तर्मन हर्षोल्लास से भर रहा है, शरीर का रोम-रोम पुलकित हो रहा है। घरगृहस्थी में भी कुछ कर गुजरने की स्फूर्त चेतना को अनुप्राणित करने के कारण सन्मति-प्रकाशनों में इस नव्य-भव्य प्रकाशन का अपना एक अलग ही महत्व है-यह दिन के उजाले की तरह स्पष्ट प्रस्तुत प्रकाशन में श्रमण भगवान् महावीर के सर्वोपरि गृहस्थ साधक आनन्द श्रावक के जीवन की सजीव झलकियाँ हैं, जो गृहस्थ जीवन की तस्वीर पर अपना सीधा प्रकाश फैंकती हैं, और "हम तो गृहस्थी हैं, हम क्या कर सकते हैं ?"--इस प्रकार अपने-आप में उलझे हुए भ्रान्त मनमस्तिष्कों को कुछ देर ठहर कर सही दिशा में यह सोचने के लिये मजबूत करती हैं, कि "गृहस्थ जीवन भी स्वार्थी एवं लोकैषणाओं का खेल खेलने के लिए नहीं है। वहाँ तो जीवन की बागडोर को अपने मजबूत हाथों में संभाल कर रखना होता है, जीवन के प्रत्येक मोड़ पर संयम, विवेक तथा मर्यादा के प्रकाश की मशाल को आगे लेकर चलना पड़ता है। यह जीवन की ऐसी स्थिति है, जहाँ जीवन-वीणा के तारों को न एकान्त कसना ही होता है, और न एकदम ढीला ही छोड़ा जा सकता है। वहाँ तो जीवन की गाड़ी को ब्रेक लगाकर चलना होता है, जिससे वह चलने की जगह चल सके और रुकने की जगह रुक सके।" कितना अध्यात्म-चमत्कार से परिपूर्ण था, उस महान् गृहस्थ-साधक का जीवन; जो आज भी आगम के स्वर्णिम पृष्ठों पर अपनी पूर्ण आभा के साथ चमक रहा है। कवि श्री जी की तेजस्वी वाणी पर चढ़कर तो आनन्द के जीवन की रेखाओं का रूप-स्वरूप और भी उद्दीप्त हो उठा है। कवि श्री जी के सूक्ष्म चिन्तन, प्रतिभा पूर्ण विश्लेषण, प्रवाह-शील भाषण-शैली और ओजस्वी भाषा से उस महान् गृहस्थ कर्म योगी के जीवन का अन्तस्तत्त्व इतनी स्पष्टता के साथ उभर कर ऊपर आ गया है, कि हम उसे साफ तौर से देख-जान सकते हैं, और यथाशक्ति उन प्रकाशमयी किरणों को आत्मसात् कर अन्तर्जीवन का अन्धेरा मिटा सकते हैं। इन पृष्ठों में आनन्द श्रावक का शृंखला-बद्ध जीवन तो हमें न मिल सकेगा। यहाँ तो गहरे पानी में पैठकर जीवन के शिक्षात्मक एवं ग्रहणात्मक पहलुओं को लेकर कवि श्री जी के चिन्तन की इतनी गहरी डुबकियाँ लगाई हैं, कि देखते ही बनता है। आनन्द के जीवन की धारा से भगवान् महावीर की जादू-भरी वाणी से किस प्रकार एक नया मोड़ लिया, उस भरे-पूरे वैभव-विलास के बीच बैठकर भी किस प्रकार उस महान् गृहस्थ साधक ने अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण किया, मन को साधा और आत्मा को मांजा, और यह सब कुछ करते हुए भी किस तरह अपने पारिवारिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन के सन्तुलन को अडोल रखा, किस पटुता एवं सतर्कता के साथ सामाजिक दायित्वों का पूर्णत: निर्वहन किया—यही सब कुछ देखने को मिलेगा, हमें आनन्द की इन हलकी-सी जीवन झाँकियों में। अन्य प्रकाशनों की भाँति हमारा यह अद्वितीय प्रकाशन भी पाठकों के अन्तर्हदय में जीवन के आध्यात्मिक मूल्यों के प्रति निष्ठा और उच्चतर आकांक्षाओं की ऊर्जस्वल भावना को जगा सकेगाऐसा हमें पूर्ण विश्वास है। ८, जनवरी, १९५५ ओम प्रकाश Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत पच्चीस-सौ वर्ष पहले की बात है, भगवान् महावीर के समय में वाणिज्य ग्राम नामक एक नगर था। इस नगर में आनन्द गाथा-पति नाम का एक अत्यन्त समृद्ध गृहस्थ रहता था, उसके पास चालीस सहस्र गायें और बहु-संख्यक भैसें तथा बकरियाँ थीं। पाँच-सौ हलों की खेती होती थी। आनन्द बड़ा उदार था, उसने मानवता का वास्तविक अर्थ और उद्देश्य समझ कर उसे अपने जीवन में ढालने की पूरी चेष्टा की थी। वह अपने आप में सीमित नहीं था, वरन् उसने अपने आप को प्राणि-मात्र में बिखेर दिया था। जीवधारी मात्र के लिए उसकी आत्मीयता थी। सारी जनता आनन्द को अपना समझती थी। वह अत्यन्त नीति-निष्ठ, प्रामाणिक, विश्वास-पात्र और उदार था। अगणित जन उससे लाभ उठाते, सुख पाते और उसके गुण गाते थे। ऐसा होना ही चाहिए था, क्योंकि आनन्द की सहस्रों गायें, विपुल सम्पत्ति और विशाल शक्तिमता दूसरों के लिए ही थी। उसके लोक-प्रिय होने की यही सबसे बड़ी विशेषता थी। एक दिन भगवान् महावीर स्वामी पर्यटन करते-करते वाणिज्य ग्राम में भी पधारे। उनके शुभागमन की सूचना पाकर सर्वत्र धूम मच गई। सारी जनता दर्शन और प्रवचन श्रवण करने के लिए उमड़ पड़ी। आनन्द गाथा-पति जैन नहीं था, तथापि भगवान् महावीर के चरणों में उसकी अगाध श्रद्धा थी। वह बड़े भक्ति-भाव से प्रेरित प्रभावित होकर, सरलता और श्रद्धा को हृदय में लिये, प्रभु-दर्श के लिए चला। सभा-स्थल में पहुँच विधिवत् प्रभु की परिक्रमा की और विनम्रता पूर्वक श्रोतृ-समुदाय में बैठ गया। भगवान् महावीर के मुख से निःसृत प्रवचन के एक-एक शब्द को उसने बडे ध्यान से सना. और उस पर चिन्तन तथा मनन भी किया। आनन्द पर उस प्रवचन का ऐसा प्रभाव पड़ा, कि वह तत्काल प्रभु का अनन्य अनुयायी बन गया। वह सहृदय और श्रद्धा-सम्पन्न भक्त था। उसका जीवन इतना विकसित हो चुका था, कि वह भगवान् की सेवा में उपस्थित होते ही साधक-कोटि में पहुँच गया। श्रावक बनना भी ऊँची साधना है। प्रस्तुत पुस्तक का प्रधान विषय या मूल प्रसंग इतना ही है। इसी कथा को विद्वान लेखक ने अपने प्रवचनों का रूप दिया है। ये प्रवचन, व्यावर (अजमेर) के 'कुन्दन भवन' में लेखक द्वारा समय-समय पर दिये गये हैं। इन प्रवचनों की विशेषता यह है कि उनमें आनुषंगिक प्रसंगों की भी चर्चा बड़ी विवेचना और विशदता के साथ हुई है। श्रद्धा क्या है, वन्दना (अभिवादन) की प्राचीन विधि, सिद्धान्त-रक्षा, उद्देश्य-पालन, श्रवण, मनन और चिन्तन, मानव-जीवन-नीति गोपालन का मर्म, पुण्य-पाप की गुत्थी आदि अनेक महत्त्वपूर्ण और उपयोगी विषयों पर गम्भीरता पूर्वक विचार किया गया है। पुस्तक में जहाँ आनन्द गाथा-पति द्वारा, अपने को प्रभु चरणों में सश्रद्ध समर्पित कर देने की चारु चर्चा है, वहाँ उसमें विविध विषयों की व्याख्या भी बड़ी सुन्दर है। जैन ही नहीं, सब ही विचारों और धर्म सम्प्रदायों से सम्बन्ध रखने वाले पाठक इससे यथेष्ठ लाभ उठा सकते हैं। पुस्तक में मानवता तत्त्व बड़ी सरलता और सूक्ष्मता से समझाया गया है। आस्तिकवाद की व्यापक परिभाषा की है। निर्ग्रन्थ से क्या अभिप्राय है, इसके सम्बन्ध में बताया है, कि गाँठ-रहित होना ही 'निर्ग्रन्थ' Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । जिसका हृदय और जिसकी वाणी दोनों स्वच्छ और निर्मल है, वही 'निर्ग्रन्थ' है। यानी जो जिसके भीतर है, वही उसके बाहर भी हो। मन, वचन और कर्म तीनों में समता या सामञ्जस्य होना ही 'निर्ग्रन्थ' भावना है। वासनाओं की वशवर्तिता का उल्लेख करते हुए विद्वान लेखक ने बताया है, कि वासनाओं में फँसकर जीवन इतना निःसार और निकृष्ट हो जाता है, कि वह अनेक रूपों में स्वतन्त्र होकर भी स्वतन्त्र नहीं रहता। पुस्तक के अनमोल प्रवचनों में सबसे अधिक बल मानवता और आत्म जागरण पर दिया गया है । वस्तुत: एक सच्चा साधक या श्रावक का शरीर मन या इन्द्रियों की परवाह न कर जब आत्मप्रेरणा की ओर ही प्रवृत्त होगा, तभी उसे आत्म जागृति का सुअवसर प्राप्त हो सकता है। अभिप्राय यह है, कि आत्मा के जगाने से ही मनुष्य का कल्याण होगा। कैसी सुन्दर सूक्ति और कितनी उत्कृष्ट भावना है। जो लोग स्वयं सुख-सागर में निमग्न होकर संकटग्रस्त पड़ोसी का चीत्कार या हा - हा कार नहीं सुनते, उनके कष्टों की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते, क्या वे मनुष्य कहे जा सकते हैं ? क्या उन्हें मानव कहना उचित होगा ? विश्व बन्धुत्व का भाव ही मानवता है । जो व्यवहार या जो बातें अपने अनुकूल नहीं, उन्हें दूसरों के लिए भी उचित या आवश्यक न समझो— उनके साथ भी प्रतिकूल व्यवहार न करो। यही मानवता का मर्म और यही धर्म का सार है। फिर मनुष्य, मनुष्य तक ही, अनुकूल व्यवहार करने में, क्यों सीमित रहे, उसे अपने पड़ोसी पशु-संसार के साथ भी स्नेह - पूर्ण व्यवहार करना चाहिए। गाय, भैंस, बकरी, अश्व, गज, ऊँट, श्वान आदि जिन पशुओं से भी मानव को पोषण या साहाय्य प्राप्त होता है, उनके प्रति भी उसे सदय हो सन्मित्र का-सा ही स्नेह पूर्ण व्यवहार करना चाहिए। इसी या ऐसे ही तत्त्वों पर इन प्रवचनों में बल दिया गया है । पुस्तक के लेखक या प्रवचनों के दाता कविरत्न श्री अमर मुनि महाराज भारत-विख्यात जैन साधु हैं। आपकी लेखनी और वाणी में शक्ति और ओज-तेज है। इन दोनों के आधार में हैकविरत्न जी का तपःपूत जीवन और उदार एवं उदात्त चरित्र - बल, इसीलिए उनकी लेखनी और वाणी का प्रभाव सहृदय श्रोताओं के हृदय पटल पर अङ्कित हुए बिना नहीं रहता । कवि जी की लेखन - शैली स्वाभाविक, सरल और आकर्षक है। शब्दों में प्राण और भावों में अनुभूति है। पुस्तक पढ़ते-पढ़ते ऐसा भान होने लगता है, मानो कोई महान् पुरुष प्रवचनामृत की विमोहक वर्षा कर रहा है, और उसके हृदय में निकला एक-एक वाक्य और एक-एक शब्द पाठक को बलात् अपनी ओर खींचे लिए जाता है । कवि की भाषा में कवित्व की झलक तो होनी ही चाहिए, इस दृष्टि से भी पुस्तक सुन्दर है। आशा है, यह पुस्तक हिन्दी साहित्य भण्डार में समुचित स्थान प्राप्त करेगी और लोगों में जो स्वार्थ, अनैतिकता तथा कालुष्य की दुर्भावना फैल चुकी है, उसे नष्ट-भ्रष्ट या न्यून करने में सबल सहायक सिद्ध होगी । मानव-कल्याण की मृदु-भावना से दिये गये पुण्य प्रवचनों की इस छोटी, किन्तु प्रभाव पूर्ण पुस्तक के लिए हम कविरत्न अमर मुनि जी महाराज का बड़ी श्रद्धा से हार्दिक अभिनन्दन करते हैं । ८ जनवरी १९५५ शङ्कर-सदन, आगरा हरिशङ्कर शर्मा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य माता तथा पिता की पुण्य स्मृति में परम योगी, परम विद्वान्, प्रखर चारित्रधनी और तेजस्वी व्यक्तित्व परम गुरु पूज्य प्रवर रत्न चन्द्र जी महाराज अपने युग के एक महान् साधक सन्त थे। आगरां लोहामंडी श्री श्वेताम्बर स्थानक वासी जैन लोहिया श्री संघ पर आपकी अपार कृपा की वर्षा थी। लोहामंडी आपकी पावन साधना भूमि और अन्तिम संलेखना भूमि रही है। यहाँ के कण-कण में, रज-रज में, आपके तपः पूत एवं परम पावन जीवन में अनन्त आस्था तथा श्रद्धा रही है। आपके उपदेशों का अमृत पान करके लोहामंडी आगरा के श्वेताम्बर, स्थानक वासी, जैन लोहिया श्री संघ ने प्राचीन युग से लेकर आज तक आपकी पुण्यवती स्मृति में अनेक संस्थाओं की संस्थापना की है, जैसे कि श्री रत्नमुनि माध्यमिक बाल विद्यालय, तथा श्री रत्नमुनि माध्यमिक कन्या विद्यालय। बगीची, छत्री, पौषधशाला और शिशु विद्यालय आदि-आदि। आज भी यहाँ पर स्थानक वासी जैन लोहिया श्री संघ आपके चमत्कारी व्यक्तित्व में अगाध आस्था और अनन्त श्रद्धा के भाव रखता है। ____ आपके श्रावकों में लाला शहजाद लाल जी और श्राविकाओं में श्रीमती विद्या जी धर्म पत्नी श्रीमान् शहजाद लाल जी का नाम मुख्य माना जाता है। परम गुरु के आप दोनों परम भक्त थे। साधु-सन्तों की सेवा-भक्ति करने में, आप दोनों पति-पत्नी सदा अग्रसर रहते थे। धर्म में आपका अटूट विश्वास था। दीन-हीन जनों की सहायता सदा करते रहते थे। पूज्य गुरुदेव उपाध्याय, राष्ट्र-सन्त, अमर मुनि जी द्वारा राजगृही विहार में संस्थापित वीरायतन में, उसके निर्माण में, आपने और आपके समस्त परिवार में उन्मुक्त हाथों से समय-समय पर पूरा सहयोग एवं क्रियात्मक कार्य किया है। श्रीमती विद्या जी समय-समय पर आगरा एवं कलकत्ता से आकर काफी समय तक वीरायतन में रहकर, वहाँ सेवा कार्य करती रही हैं। अपने पुत्र तथा पुत्र-वधुओं को भी प्रेरणा देकर, वीरायतन के निर्माण कार्य कराती रही हैं। पूज्य गुरुदेव, राष्ट्र-सन्त उपाध्याय अमर मुनिजी का जरा-सा संकेत पाकर आप एवं आपके आज्ञाकारी पुत्र, गुरुदेव की सेवा में जा पहुँचते थे। अत: वीरायतन में आपकी स्मृति सदा बनी रहेगी। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत पुस्तक राष्ट्र सन्त उपाध्याय पूज्य गुरुदेव अमर मुनिजी के प्रवचनों की है। उपासक आनन्द अथवा श्रावक आनन्द महाश्रमण महावीर भगवान् का परम भक्त था। आनन्द भगवान महावीर के संपर्क में कैसे आया ? वह जैन कैसे बना? तीर्थंकर महावीर का उपदेश सनकर, उसने व्रत-ग्रहण कैसे किए ? उनका पालन कैसे किया ? जीवन के अन्त में साधना किस प्रकार की ? गणधर इन्द्रभूति का परिसंवाद कैसे हुआ? भोगवान् जीवन को छोड़कर त्यागवान् जीवन जीकर आनन्द ने क्या पाया ? इन सब बातों का रोचक वर्णन प्रस्तुत पुस्तक उपासक आनन्द में किया है। प्रवचन अत्यन्त उपयोगी एवं जीवन-स्पर्शी हैं। प्रस्तुत पुस्तक का प्रकाशन सन्मति ज्ञान पीठ आगरा की ओर से हो रहा है। इसके प्रकाशन में अर्थ सहयोग श्री आजाद कुमार जैन, कलकत्ता की ओर से और कमलेश कुमार जैन (कक्कू), भावनगर की ओर से दिया गया है। दोनों सहोदर बन्धुओं को बहुत-बहुत धन्यवाद है। दोनों बन्धु श्रीमान् स्व: शहजाद लाल तथा स्व. श्रीमती विद्याजी के सुपुत्र हैं। भविष्य में भी दोनों सत्कर्म में अपना सहयोग प्रदान करते रहेंगे। -विजय मुनि शास्त्री जैन भवन, लोहामंडी, आगरा १ जनवरी, १९९५ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची १. आनन्द की जीवन-नीति २. गो-पालक आनन्द ३. प्रभु का पदार्पण ४. गुणिषु प्रमोदम् ५. आनन्द का प्रस्थान ६. पुण्य-पाप की गुत्थियाँ ७. समवसरण में प्रवेश ८. वन्दना ९. श्रोता आनन्द १०. आस्तिक आनन्द ११. इच्छायोग-'जहासुहं' १२. मा पडिबंधं करेह १३. जीवन के छेद १०१ ११५ १३० १४२ परिशिष्ट १५९ १६७ १७२ १७५ १७९ १. मनुष्यत्व का विकास २. शुभ भावना ३. भारतीय जीवन और योग ४. ध्यान-योग साधना ५. अध्यात्म योग ६. उपासक-प्रतिमाएँ महावीर वाणी ७. अहिंसा-सूत्र ८. सत्य-सूत्र ९. अस्तेय-सूत्र १०. ब्रह्मचर्य-सूत्र ११. अपरिग्रह-सूत्र १२. बुद्ध-वचन १३. कृष्ण-गीता १८३ १८६ १८९ १९१ १९७ २० Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द की जीवन-नीति यह श्री उपासक दशांग सूत्र है । श्रमण भगवान् महावीर ने जगत्-कल्याण की दृष्टि से जो उपदेश दिया, उसे उनके शिष्यों गणधरों ने द्वादशांगी के रूप में कंठस्थ कर लिया था। यह उन दिनों की बात है, जब हमारे यहां भिक्षु संघ में लिखने की पद्धति प्रचलित नहीं हुई थी। उन दिनों महापुरुषों के सन्देश, उनके शिष्यों के द्वारा इसीलिए कंठस्थ कर लिए जाया करते थे। गुरु अनुग्रह-पूर्वक उन्हें कंठस्थ करा भी दिया करते थे । इस प्रकार गुरु-शिष्य परम्परा से वह उपदेश यथावत् कायम रहता था । प्रत्येक जिज्ञासु, जो आगम का अध्ययन करना चाहता था, अपने गुरु से सुनकर ही अध्ययन करता था। इसी कारण भारत के प्राचीन शास्त्र 'श्रुत' या ' श्रुति' कहलाते हैं। सूक्त भी कहा जाता है । जैन परम्परा का श्रुत यों तो बहुत विशाल है, किन्तु उस समग्र श्रुत - राशि का आदि-स्रोत द्वादशांगी है। द्वादशांगी का द्वादश अर्थ है-आचारांग आदि शास्त्र | जैन परम्परा के अनुसार यह अंग-सूत्र साक्षात् भगवान् महावीर के उपदेश हैं और गौतम आदि गणधरों ने उन्हें शब्द - बद्ध किया है। श्रुत की महिमा : कालचक्र के अप्रतिहत प्रभाव से आज वह आगम अविकल रूप में हमें उपलब्ध नहीं है। फिर भी उसका जितना अंश शेष बचा है, वह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। उससे प्राचीन भारतीय विचार-धारा के एक अत्यन्त उज्जवल और मौलिक अङ्ग का हमें परिचय मिलता है। ये वही विचार हैं, जिन्होंने भारतवर्ष के निष्प्राण क्रियाकाण्डमय और बहिर्मुख धार्मिक जीवन में एक बार उथल-पुथल मचा दी थी। जिन विचारों ने जगत् को धर्म का एक प्राणमय आन्तरिक स्वरूप प्रदान किया था। जिन विचारों की बदौलत ही जनता को अपने अन्तर में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने के लिए एक नूतन दृष्टिकोण मिला था । वास्तव में, आगमों में ये ही विचार संगृहीत हैं । जीवन की दृष्टि से तो ये आगम उपयोगी हैं ही; धार्मिक, सामाजिक एवं इतिहास Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FI उपासक आनन्द आदि के दृष्टिकोण से भी वे कम उपयोगी नहीं हैं। यह सत्य ही है, कि जैनागमसाहित्य उस समय की एक व्यापक क्रान्तिकारी विचार-धारा का प्रतीक है। वास्तव में, जैनागम प्रतिपादित विचारों ने उस समय प्रत्येक क्षेत्र में अनेक मौलिक परम्पराओं को जन्म दिया है। जो सभी युगों में समान रूप से सभी के लिये उपयोगी सिद्ध हुई हैं। यह उपासकदशांग-सूत्र द्वादशांगी का सातवां अङ्ग है। मगर इस अङ्ग में जिज्ञासुओं के लिए भी महत्त्वपूर्ण सामग्री विद्यमान है, यद्यपि इसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय कतिपय उपासकों अर्थात् गृहस्थ-श्रवकों की दशाओं का वर्णन है। उपासक दशांग के कुल दस अध्ययन हैं और उनमें दस उपासकों की जीवन-चर्या का विवरण है। चम्पा नगरी का इतिहास : __ उस समय अङ्ग जनपद में ही नहीं, बल्कि समग्र भारतवर्ष में चम्पापुरी अत्यन्त प्रख्यात नगरी थी। उन दिनों अक्सर भारत के अधिकांश भाग का शासन-सूत्र वहीं से संचालित होता था। चम्पा नगरी अत्यन्त प्राचीन नगरियों में से एक है। तीर्थंकर वासुपूज्य की वह जन्मभूमि, साधना-भूमि और निर्वाणभूमि है। सोलह सतियों में सुप्रसिद्ध सुभद्रा सती भी चम्पा की ही रहने वाली थी। भगवान् महावीर के परम भक्त सम्राट कूणिक ने राजगृह से हटाकर चम्पा को ही अपनी राजधानी बनाया था। प्रख्यात शीलवती सुदर्शन सेठ यहीं के निवासी थे। इस प्रकार चम्पा का राजनीतिक और सांस्कृतिक महत्त्व तो है ही, साहित्यिक महत्त्व भी कम नहीं है। शय्यंभव सूरि ने प्रसिद्ध दशवैकालिक सूत्र की रचना इसी नगरी में की थी। - चम्पा नगरी के नामोच्चारण के साथ इस प्रकार की न जाने कितनी ऐतिहासिक घटनाएँ हमारे मस्तिष्क में चित्रपट की भांति घूम जाती हैं ! वास्तव में, चम्पा नगरी ने भारतीय इतिहास के निर्माण में भी महत्त्वपूर्ण योग प्रदान किया है। हजारों लाखों वर्ष पहले भी भारत की संस्कृति उच्चश्रेणी पर पहुँच चुकी थी, जैनागमों के वर्णन इस तथ्य की साक्षी हैं। प्रत्येक बड़े नगर के बाहर उस समय नाना प्रकार के वृक्षों, लताओं और पौधों से हरे-भरे अतिशय रमणीय उद्यान बनाए जाते थे। वे नागरिकों के आमोद-प्रमोद के स्थल होते थे, और उन दिनों चम्पानगरी के बाहर भी 'पूर्णभद्र' नामक एक उद्यान था। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द की जीवन-नीति । ३ एक बार आर्य सुधर्मा स्वामी विहार करते-करते चम्पा में पधारे। उनके सुप्रसिद्ध शिष्य जम्बू मुनि ने सुधर्मा स्वामी से सातवें अङ्ग को श्रवण करने की इच्छा प्रकट की। आर्य सुधर्मा ने अपने शिष्य की इच्छा के हेतु उपासक दशांग का बखान किया। वाणिज्यग्राम में आनन्द : भगवान् महावीर के समय में वाणिज्यग्राम नामक एक नगर था, जिसमें उन दिनों आनन्द नामक एक गाथापति निवास करता था । उन दिनों विशेष रूप से प्रतिष्ठित और जन-समूह द्वारा प्रशंसित गृहस्थ गाथापति कहलाता था । आनन्द गाथापति थाक्योंकि उसके धन-धान्य, ऋद्धि, वैभव तथा उसके व्यवहार को देखकर लोग उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा किया करते थे। उसके ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं : अड्डे दित्ते वित्थिण्ण विउल भवण - सयणासन - जाण - वाहणाइण्णे, बहु- धण बहुजायरूवरयए, आओग-पओग संपउत्ते, विच्छडिड्य - विउल- भत्त- पाणे, बहुदासी - दास गोमहिस गवेलप्पभूए, बहु-ज -जणस्स अपरिभूए । 1 आनन्द विशाल समृद्धि से युक्त था । स्वभाव से भी ओजस्वी, आजकल के अनेक बनियों की भाँति दब्बू नहीं । वास्तव में दब्बूपन का कारण प्रायः संस्कारहीनता, बुद्धि की कमी अथवा अनैतिकता है। जिसमें सभ्य और शिष्ट पुरुषों के बीच बैठने और उचित बर्ताव करने की योग्यता नहीं है, जो बुद्धि-हीन है अथवा जिसके व्यापार-व्यवहार में अनैतिकता है, उसे दूसरों के सामने दब कर रहना पड़ता है जिसमें जीवन सम्बन्धी ऐसी कोई दुर्बलता नहीं, वह किसी से दबेगा भी नहीं । आनन्द के विषय में, शास्त्र में जो कहा गया है, उससे प्रतीत होता है, कि वह बड़ा ही सभ्य - शिष्ट, बुद्धिशाली, तेजस्वी और नीति-निष्ठ था । उस समय में व्यापारियों में अग्रणी होने के कारण वह विपुल धन-सम्पत्ति का स्वामी था । शय्या, आसन, घोड़ा गाड़ी आदि भोग की प्रचुर सामग्री से भरे-पूरे उसके अनेक विशाल महल थे। नित्य प्रति उसके यहां बहुत-सा भोजन बच जाया करता था, बहुत से गरीबों की भूख की ज्वाला शान्त हुआ करती थी । हमारे देश में पहले इतनी उदार भावना थी, कि गृहस्थ-जन नाप-नाप कर और तोल-तोल कर भोजन नहीं बनाते थे। ऐसा करना बुरा समझा जाता था। गीताकार ने तो स्पष्ट कहा था, कि लोग अपने उदर की पूर्ति करने के लिए केवल भोजन बनाते हैं, और उसका थोड़ा-सा भी भाग अतिथिअभ्यागतों को दान नहीं करते, वे अध-भोजी हैं, पाप का भोजन करते हैं । वह भोजन अमृत नहीं, विष है। श्रावक को अमृत भोजी होना चाहिए । अमृत- भोजी आनन्द : भोजन बनाने में बहुत-सा आरंभ-समारंभ होता है और आरंभ-समारंभ से पाप होता है। मगर बुद्धिमान गृहस्थ उस पाप के द्वारा भी पुण्य का उपार्जन किस प्रकार Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - |४| उपासक आनन्द । कर सकता है, यह कला आनन्द के इस वर्णन से सीखी जा सकती है। मगर इस कला को सीखने से पहले, उसकी पृष्ठभूमि को समझ लेना आवश्यक है। यही कारण है, कि शास्त्रकार ने स्वयं ही उस पृष्ठभूमि का उल्लेख कर दिया है। आनन्द के भोजनालय में प्रतिदिन बहुत-सा जो भोजन बचा रह जाता था, उसका कारण उसकी आन्तरिक उदारता तो थी ही, किन्तु उस उदारता का भी एक विशेष कारण था। वह यह कि आनन्द को भोजन सामग्री बाजार से खरीद कर नहीं लानी पडती थी। प्रधान भोजन सामग्री के विषय में वह पूरी तरह स्वावलम्बी था। भोजन की पहली सामग्री अन्न है और अन्न उत्पन्न करने के लिए वह विशाल पैमाने पर खेती कराता था। उसके यहां पाँच-सौ हल की खेती होती थी। भोजन की दूसरी सामग्री घी-दूध समझी जा सकती है और उसके लिए भी वह परावलम्बी नहीं था। उसके यहां चालीस हजार गायें पलती थीं। गायों की संख्या को बतलाते हुए कहा गया है, कि चत्तारि वया, दस गो-साहस्सिएणं वएणं होत्था। आनन्द के यहाँ दस हजार गायों के एक ब्रज के हिसाब से चार ब्रज थे! कृषि महारम्भ नहीं : उसके यहाँ की भैंसों की संख्या को शास्त्रकार ने नहीं बतलाया है। जिसके घर पाँच-सौ हल चलते हों और चालीस हजार गायें तथा बहुत-सी भैंसें हों, उसके यहाँ अन्न, घी, दूध और छाछ की क्या कमी हो सकती है? ऐसी स्थिति में उसकी भोजन-शाला में अपनी आवश्यकता से भी अधिक भोजन बनाया जाना और उससे याचकों एवं अनाथों का पालन-पोषण होना स्वाभाविक ही है। बाजार से मोल अन्न, घी, दूध, आदि खरीदने वालों में यह उदारता आना बहुत कठिन है। आनन्द के यहाँ गायों और भैंसों के अतिरिक्त बकरों, बकरियों और भेड़ों की भी एक बड़ी संख्या थी। प्रश्न हो सकता है, कि जहाँ गायों और भैंसों की इतनी बड़ी संख्या हो उसे बकरियाँ और भेड़ रखने की क्या आवश्यकता थी? इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर तो आनन्द से ही माँगा जा सकता है, मगर क्योंकि आज आनन्द हमारे बीच में मौजूद नहीं है, इसलिए इस सम्बन्ध में केवल दो ही बात कही जा सकती हैं___पहली बात यह कि पाँच-सौ हलों की विशाल खेती करने वाले वैश्य को खाद की बड़ी आवश्यकता रहती होगी और खाद उत्पन्न करने के लिए उसने बकरियों और भेड़ों का पालन आवश्यक समझा होगा। कृषि-विशारदों के कथनानुसार खाद के अभाव में खेत यथोचित फसल प्रदान नहीं करते। खेत रखना, किन्तु उनका पर्याप्त Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द की जीवन-नीति । ५ उपयोग न करना, उनसे पूरा लाभ न उठाना अथवा उन्हें यों ही पड़ा रखना भी एक प्रकार का देशद्रोह है, प्रजा के प्रति अनैतिकता है। आनन्द जैसा चतुर एवं विवेकशील गृहस्थ इस तथ्य को भलीभाँति समझता था । संभवत: इसी विचार से उसने बहुत-सी भेड़ों और बकरियों का पालन करना आवश्यक समझा होगा। शास्त्रकार ने भी आनन्द के इस दृष्टि को महत्त्व प्रदान करने के लिए शास्त्र में इसका उल्लेख करना आवश्यक समझा । इस सम्बन्ध में दूसरी बात विशेष रूप से हमारा ध्यान आकृष्ट करती है । अधिकांश लोग उपयोगिता के दृष्टिकोण से प्रत्येक बात पर विचार करते हैं । अमुक कार्य करने से हमें क्या लाभ होगा, इससे हमारे किस स्वार्थ की सिद्धि होगी, यही लोगों के सोचने का ढङ्ग बन गया है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है, कि लोगों ने स्वार्थ-साधन को ही अपने कर्त्तव्य की कसौटी बना रखा है। मगर सोचना यह है, कि क्या उच्च - जीवन की दृष्टि से यह कसौटी अभ्रान्त है ? क्या इसकी एकमात्र यही कसौटी हो सकती है? क्या इसके अतिरिक्त किसी अन्य कसौटी पर मानव अपने कर्त्तव्य का निर्धारण नहीं कर सकता ? मुझे लगता है, जीवन और कर्त्तव्य-निर्धारण के लिए यह कसौटी अभ्रान्त नहीं है। इस कसौटी पर कस-कस कर कर्त्तव्य का निश्चय करने वाला स्वार्थी है और उसकी दृष्टि अपने तक ही सीमित रहती है । इस कसौटी की बदौलत व्यक्ति का विराट ‘अहम्' सिकुड़ कर अल्पतम परिधि में बन्द हो जाता है । वह सर्व भूतात्मभूत नहीं बन सकता। अपने ही लाभ की बात विचारने वाला व्यक्ति अपनी सहानुभूति और समवेदना विश्व को प्रदान नहीं कर सकता । अभिप्राय यह है, कि स्वार्थ की कसौटी मनुष्य के विकास की अवरोधक है । जगत् में जो महान् पुरुष हुए हैं, हम समझते हैं, उन्होंने स्वार्थ साधना को नहीं, प्रत्युत स्वार्थ के उत्सर्ग को ही अपने जीवन का प्रधान लक्ष्य समझा था और यही कारण है, कि वे अपने अन्तरतर की समस्त शक्तियाँ और उन शक्तियों का एक-एक कण जगत् के मङ्गल के लिए प्रदान कर कृत-कृत्य बने । वास्तव में, उन्होंने अपने कार्य-कलापों के भव्य प्रासाद स्वार्थ की भूमिका पर नहीं, सेवा और परोपकार की नींव पर खड़े किए हैं। इस प्रकार जीवन की कृतार्थता इस बात में नहीं, कि प्रत्येक कार्य करते समय मनुष्य अपने ही लाभ की बात सोचे; वरन् इसमें है, कि वह दूसरों की भलाई की दृष्टि से विचार करे । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पशु पालन एक कर्त्तव्यः ___ आनन्द ने बहुसंख्यक भैसों और चालीस हजार गायों का पालन करते हुए भी भेडें और बकरियां क्यों पाल रखीं थीं, इस प्रश्न का उत्तर हमें इस दूसरे दृष्टिकोण में अनायास ही मिल जाता है। भेड़ों और बकरियों की उसे कुछ आवश्यकता हो या न हो, उनसे उसकी कोई स्वार्थ-साधना हो या न हो, फिर भी पशु-पालन करना उसका कर्तव्य था एक वणिक के नाते भी और उन पशुओं का पालन करना अपने आप में ही उसका लाभ था। वह पशु जगत् के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करना चाहता था। अपने ही लाभ की दृष्टि होती, तो आनन्द चालीस हजार गायों का भी क्यों पालन करता? उसके और उसके परिवार के लिए तो दस-बीस गायें भी पर्याप्त थीं। फिर भी वह चालीस हजार गायों का पालन-पोषण करता था। इससे भी यह प्रतीत होता है, कि आनन्द अपने लाभ की दृष्टि से नहीं, किन्तु पशुओं के प्रति अपना कर्तव्य-पालन करने की दृष्टि से पशुओं की प्रतिपालना के नाते भी। इस प्रकार हम कह सकते हैं, कि उन पशुओं का पालन करता था। यह उसकी जीवन-नीति थी। नीति और धर्म, दोनों जीवन विकास के लिए आवश्यक हैं। इस प्रकार आनन्द के जीवन पर दृष्टिपात करने से पता चलता है, कि वास्तविक मनुष्यता अपने आप में सीमित होकर रहने में नहीं है। सच्ची मनुष्येता का विकास तभी होता है, जब मनुष्य अपने आपको प्राणीमात्र में बिखेर देता है। जीवन की यही विशाल दृष्टि सच्ची धार्मिकता को जन्म देती है। आनन्द अपनी इस विशाल दृष्टि के कारण ही अवसर के प्राप्त होते ही धर्म की ओर मुड़ गया। आनन्द की जन-प्रियता: आनन्द का हृदय कितना विशाल था, शास्त्रकार अत्यन्त कौशल के साथ इस तथ्य का विवरण हमारे सामने रखते हैं। उन्होंने स्पष्ट कर दिया है, कि आनन्द अपना अथवा अपने परिवार का ही नहीं था; सारा वाणिज्यग्राम नगर और उससे बाहर दूरदूर तक का मानव समूह उसके लिए अपना था। सबके प्रति उसकी आत्मीयता थी और सभी जनता उसे अपना समझती थी। उसके विषय में कहा गया है। 'से णं आणंदे गाहावई वहूणं राईसर० जाव सत्थ वाहाणं बहुसु कज्जेसु, कारणेसु, मंतेसु, कुडुम्बेसु, गुझेसु य, रहस्सेसु य, निछएसु य, ववहारेसु य, आपुच्छणिज्जे, सयस्स वि कुडुम्बस्स मेढी, पमाणं, आहारे, आलम्बणे, चक्खु, मेढिभूए जाव सव्व-कज्ज वड्डावणए यावि होत्था।' Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द की जीवन-नीति । ७ इस वर्णन से आनन्द के आन्तरिक जीवन का भली भांति परिचय मिल जाता है। इससे यह पता भी चल जाता है, कि गृहस्थ को श्रावक बनने से पहले अपने जीवन को किस भूमिका तक ऊँचा उठाना चाहिए, और अपने अन्तःकरण को कितना विशाल बनाना चाहिए । श्रावकत्व का आधार गुण कर्म : आज श्रावकपन भी एक साधारण-सी वस्तु बन गई है— जैसे नकली मोती, नकली सोना, नकली दूध, घी, चावल आदि के अविष्कार ने इन वस्तुओं की असलियत को भुला - सा दिया है, उसी प्रकार धार्मिक क्षेत्र में भी नकली सम्यक्त्व • और नकली श्रावकत्व ने असलियत को हमारी आँखों से ओझल कर दिया है । जैसे ब्राह्मण आदि वर्ण, कर्म पर निर्भर थे, किन्तु धीरे-धीरे उनका संबंध जन्म के साथ जुड़ गया, और कर्म चाहे चाण्डाल के ही क्यों न हों, ब्राह्मण की सन्तान होने से ही व्यक्ति ब्राह्मण माना जाने लगा है, वैसे ही शुद्ध समीचीन दृष्टि का उन्मेष हुए बिना ही और श्रावक के वास्तविक गुणों का विकास हुए बिना ही आज जैन परिवार में जन्म लेने से ही मनुष्य 'श्रावक' कहलाने लगता है। इस प्रकार जब अनायास ही सम्यग्दृष्टि और श्रावक की उपाधियाँ मिल सकती हों, तो कौन उनके लिए मँहगा मूल्य चुकाने का प्रयत्न करेगा? जैन शास्त्रों में श्रावक का पद बहुत ऊँचा माना गया है । उस पद को प्राप्त करने से पहले अनेक सद्गुण प्राप्त करने पड़ते हैं । उन सद्गुणों को हमारे यहाँ विभिन्न शब्दों में बतलाया गया है। वे मार्गानुसारी के पैंतीस गुण कहलाते हैं । जैन साहित्य में इन गुणों का अच्छा खासा विवरण मिलता है। अपने व्यावहारिक जीवन में उन गुणों को प्राप्त करने वाला व्यक्ति ही सच्चा श्रावक कहलाने का अधिकारी होता है । नीति और धर्म : खेत में बीज बोने से पहले उसे जोत कर योग्य बनाया जाता है। उसमें पानी का सिंचन भी किया जाता है। तभी उसमें से लहलहाते अंकुर निकलते हैं, और धान्य का समुचित परिपाक होता है। यही बात जीवन में धार्मिकता के अंकुर उगाने के सम्बन्ध में भी है। जीवन को धर्ममय बनाने से पहले नीतिमय बनाना अनिवार्य है। नैतिकता के अभाव में धार्मिकता का प्रदर्शन किया जा सकता है, धार्मिकता प्राप्त नहीं की जा सकती है। आनन्द अत्यन्त नीति-निष्ठ, प्रामाणिक, विश्वासपात्र और उदार था । राजामहाराजा और सेठ- उ- साहूकार से लगाकर साधारण प्रजा का उस पर पूर्ण विश्वास था । सार्वजनिक कार्यों में तो उससे परामर्श किया ही जाता था, घरेलू कामों के विषय में Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1८1 उपासक आनन्द । 'भी अनेक व्यक्ति उसकी सम्मति मांगा करते थे। जो विचार या कार्य गृहस्थी में अत्यन्त गोपनीय समझे जाते हैं, और जिनका प्रकट करना अकीर्तिकर माना जाता है, उनके विषय में भी आनन्द से परामर्श करने से किसी को संकोच नहीं होता था। वह राजा और रंक सभी के लिए प्रमाणभूत था, आधार था, पथ-प्रदर्शक था। इसीलिए वाणिज्य ग्राम की सारी जनता उसी के आस-पास चक्कर काटती रहती थी। उसकी सलाह के बिना नगर के किसी भी कोने में कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं होता था। आनन्द सागर-सा गम्भीर : सहज ही कल्पना की जा सकती है, कि इस प्रकार की स्थिति कब उत्पन्न हो सकती है? अगर आनन्द जनता को अपना कुटुम्ब न समझता, उस पर अपनी सद्भावनाओं के पावन प्रसून न बरसाता, तो कौन उसे अपना सर्वस्व मानता ? वह प्रत्येक व्यक्ति को सदैव सच्ची सलाह दिया करता था, अपने समक्ष प्रकट की हुई किसी की गोपनीय बात को दूसरों के सामने प्रकट नहीं करता था। उसका हृदय सागर के समान गम्भीर न होता, तो कुटुम्ब का कलङ्क कौन उसके सामने प्रकट करता? कौन उसे धो डालने के लिए परामर्श करता ? किन्तु जनता को विश्वास था, कि आनन्द के कानों में पड़ी हुई बात कहीं बाहर नहीं जाएगी। इस विश्वास के बल पर लोग नि:संकोच भाव से उसके पास आते थे, ठीक उसी तरह जिस तरह साधक शिष्य, अपने गुरु के समक्ष अपने रत्ती-रत्ती दोषों को प्रकाशित कर देता है। लोग अपनी गुप्त से गुप्त बात को भी उसके समक्ष प्रकाशित कर देते थे, और आनन्द उनका उचित रूप से मार्ग-प्रदर्शन करता था। साधारणतया लोग दूसरों के छिद्रों के प्रति अतिशय सजग रहते हैं, और किसी की कोई बुराई मिल गई, तो उल्लसित होते हैं, मानो उन्हें कोई धन का भण्डार मिल गया हो। गंदगी का कीड़ा जैसे गंदगी पाकर अपार हर्ष का अनुभव करता है, उसी प्रकार लोग परकीय छिद्रों को खोजकर आनंद का अनुभव करते हैं, और अपनी खोज को सर्व-साधारण में इस प्रकार फैलाते हैं, जैसे उन्होंने मानो अपूर्व और अद्भुत वस्तु खोज निकाली हो। कुछ लोग तो इतने कलुषित विचारों के होते हैं, कि दूसरों में असत् दोषों का आरोपण करने में भी संकोच नहीं करते। मगर जो श्रावक बनने की भूमिका तैयार कर रहा हो, वह ऐसा कदापि नहीं करेगा, और जो श्रावक बन चुका है, उसकी तो दृष्टि Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आनन्द की जीवन-नीति । ९ ही गुणमयी बन जाती है। वह अपनी पैनी नजर से दोषों के वज्र-पटल को भेद कर भी गुणों को ही देखता है। मनुष्य को गुणवान् होना चाहिए। ___आनन्द अभी तक श्रावक नहीं बना था। श्रावक बनने की कल्पना भी, तब तक उसके हृदय में उत्पन्न नहीं हुई थी। फिर भी सहज रूप में उसके जीवन का इतना विकास हो चुका था, कि वह श्रमण भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित होते ही साधक की कोटि में पहुँच गया। कुन्दन-भवन ब्यावर, अजमेर १९-८-५४ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो-पालक आनन्द यह उपासकदशांगसूत्र है और आनन्द का जीवन आपके सामने है । भगवान् महावीर के समय में आनन्द आपके समान ही एक गृहस्थ था । एक गृहस्थ के जो कुछ भी होता है, उसके भी पुत्र, पत्नी, कुटुम्ब - परिवार आदि सभी कुछ था। भगवान् की शरण में आ जाने पर भी वह जीवन पर्यन्त श्रावक ही बना रहा, साधु का जीवन उसने अंगीकार न किया, परन्तु श्रावक के रूप में रहकर जो उसने साधना की, उस साधना ने उसके लिए महामंगल का द्वार खोल दिया। उसकी साधना का पथ क्या था, यह तो आगे आपके समक्ष आएगा ही, परन्तु पहिले यह बतला देना आवश्यक प्रतीत होता है, कि उसकी साधना की आधार भूमिका क्या थी ! आपको संक्षेप में बतलाया जा चुका है, कि आनन्द का जीवन क्षुद्र परिधि से आवृत नहीं था । जीवन की क्षुद्र - परिधि में घिरा रहने वाला मनुष्य शाश्वत सुख और अखण्ड शान्ति का मार्ग नहीं पा सकता । सुख और शान्ति का मार्ग मानवोचित विशाल भावनाओं से निर्मित होता है । हमारे यहाँ कहा गया है आत्मौपम्येन सर्वत्र यः पश्यति सः पश्यति । जो वस्तु, जो बात और जो व्यवहार आप अपने लिए चाहते हैं; वही वस्तु आप दूसरों को भी दीजिए, वही बात आप दूसरों से भी कहिए और वही व्यवहार आप दूसरों के साथ भी कीजिए। यही ज्ञानी का प्रधान लक्षण है। आप तो संसार के सभी प्रकार के सुखों का भोग कर रहे हैं और आपका दुःखी पड़ौसी उसमें से कुछ भी नहीं पा रहा है। आपकी हवेली में रेडियो-संगीत की सुमधुर ध्वनि गूँज रही है, और आपके पड़ौसी की झौंपड़ियों में हाहाकार और चीत्कार मचा है, मगर आप अपने सुख संगीत में इस प्रकार डूबे हैं, कि अपने दुःखी पड़ौसी के चीत्कार की ओर बिल्कुल ध्यान ही नहीं दे रहे, उसे सुनना भी पसंद नहीं कर रहे, सान्त्वना के दो शब्द कहना तो दरकिनार उल्टे आप अपने रौब से उसे बन्द Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | गो-पालक आनन्द । ११ करना चाहें, तो मैं पूछता हूँ, आपकी क्या यही इंसानियत है ? आपकी इंसानियत का क्या यही तकाजा है ? वास्तव में, जैन-धर्म अहिंसा के रूप में मनुष्यता के इसी सन्देश को लेकर आपके सम्मुख उपस्थित है। संसार के अन्य धर्म भी अपने प्रेम के सन्देश में आपसे मनुष्यता की यही बात कर रहे हैं। संसार के सभी महापुरुषों ने अब तक इस एक ही सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, और वही नाना शास्त्रों के रूप में जनता के सामने है। क्या वेद, क्या उपनिषद्, क्या पुराण और क्या आगम और क्या दुसरे धर्म-शास्त्र, सब का निचोड़ इस संबंध में एक ही है। सभी शास्त्रों में से एक ही ध्वनि सुनाई देती है। श्रूयतां धर्म सर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावधार्य ताम्। आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत्। सब धर्मों को सुनो और उनके सार को अपने मन में रखो। तुमने धर्म को सुना और सुन कर रह गए और जीवन में ग्रहण नहीं कर सके, तो उस सुनने का कोई मूल्य नहीं है। धर्म को सुनकर सब बातें स्मरण नहीं रख सकते, तो न सही, उसका जो सार है, निचोड है और मन में रख लेने योग्य जो अंश है, उसे तो अपने मन में रख ही लो। अवसर मिलने पर उसे अपने व्यवहार में उतारो। धर्मों का वह सार या निचोड़ क्या है ? वह यही, कि जो बातें और जो व्यवहार तुम अपने लिए अनुकूल नहीं समझते, वैसा वह व्यवहार दूसरों के प्रति भी मत करो। दूसरे लोग तुम्हारे प्रति जब प्रतिकूल व्यवहार करते हैं, तो तुम्हें पीड़ा होती है। कोई तुम्हें पददलित करता है, तो तुम वेदना का अनुभव करते हो। वैसा व्यवहार तुम दूसरों के प्रति मत करो। दूसरों के व्यवहार से जैसे तुम्हें पीड़ा हुई, वैसे ही तुम्हारे व्यवहार से दूसरों को भी पीड़ा होना स्वाभाविक है। मानवता की प्रथम श्रेणी : __एक मनुष्य के प्रति दूसरे मनुष्य की यह जो नीति है, उसे चाहे अहिंसा कह लीजिए, दया कह लीजिए या इंसानियत कह लीजिए, यही मानवता की पहली सीढ़ी है। एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ कैसा व्यवहार है, उसके उस व्यवहार में कड़वापन है या मिठास है, यही हिंसा और अहिंसा की कसौटी है। यदि व्यवहार में कटुता है और हिंसा का तांडव-नृत्य है, वहाँ मानवता के पनपने के लिए कोई भूमिका नहीं है। जहाँ राक्षसी भावनाओं का वातावरण है, जहाँ एक-दूसरे को चूसना, लूटना, दबोचना और पद-दलित करना ही केवल विद्यमान है, वहाँ अहिंसा कहाँ रहेगी? और मानवता के दर्शन कैसे हो सकेंगे? Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |१२ | उपासक आनन्द हे मनुष्य! जैसे तुझे अपना सुख प्रिय है, वैसे ही दूसरों को भी अपना सुख प्रिय है। तू सुख चाहता है, तो दूसरों को सुख दे। सुख देगा तो सुख पाएगा सुख दीधां सुख होत है, दुख दीधां दुख होय। यह अनुभव-सिद्ध बात है। इसके लिए शास्त्रों को टटोलने की आवश्यकता नहीं है। मानव-शास्त्र अन्तर्मन के द्वारा ही देखा और समझा जाता है। ___ मनुष्य को सोचना चाहिए, कि मैं जो चेष्टाएँ कर रहा हूँ, आस-पास में उनकी प्रतिक्रिया कैसी होगी ? मेरे मन की हरकतों से दूसरों को आनन्द मिलेगा या वे दुख के क्लेश के अथाह सागर में डूब जाएँगे। मनुष्य का मनुष्य के प्रति भाई जैसा सहानुभूति और प्रेमपूर्ण व्यवहार होना चाहिए। मगर आज तो भाई का भाई के प्रति सद्व्यवहार होना भी बड़ी बात समझी जाती है; परन्तु वास्तव में यह बड़ी बात है नहीं। बड़ी बात है, अपने पडौसियों के साथ सद्व्यवहार होना और जिन्हें दूर का समझा जाता है, उनके प्रति भी सहानुभूति रखना। मनुष्य और पशु-पक्षी : मानव जाति का पड़ौसी कौन है? मनुष्य का पडौसी नारकी नहीं है और देवता भी नहीं है; उसका सन्निकटतर पड़ौसी है, पशु-जगत्। आज तक मनुष्य ने जो विकास और प्रगति की है, जिन सुख-सुविधाओं को हासिल किया है, और इस दर्जे तक पहुँचा है, उसमें मनुष्य का पुरुषार्थ तो है ही, परन्तु पशुओं का सहयोग भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। मनुष्यों की सभ्यता की अभिवृद्धि में पशुओं का बहुत बड़ा सहयोग रहा है। पशु अनादिकाल से मानव-जाति के सहयोगी और सहायक रहे हैं। परन्तु उनके सहयोग के मूल्य को आज हम भूल-से गए हैं। भारतवर्ष के इतिहास को देखिए। हमारे पूर्वजों ने जो कुछ भी किया है, वह क्या अकेले ही उन्होंने कर लिया है? क्या अकेले इन्सान की बदौलत ही आज मानवजाति सभ्यता की इस सीढ़ी पर पहुँची है ? क्या उसमें पशुओं का कोई हिस्सा नहीं है? इन प्रश्नों का उत्तर केवल यही है, कि मनुष्य की इस उन्नति में पशुओं ने मनुष्य की बहुत अधिक सहायता की है। मानव-जाति की उन्नति का इतिहास इस बात का साक्षी है। ___मनुष्य अपनी माता का दूध पीता है और थोड़े समय पीकर छोड़ देता है। फिर गौ-माता या अन्य दुधारू जानवरों का दूध पीना शुरू कर देता है। हमारे शरीर में आज दूध से बनी हुई रक्त की जितनी भी बूंदें हैं, उनका अधिकांश गाय, भैंस, बकरी आदि पशुओं के दूध से ही बना है। अगर आप गम्भीरता-पूर्वक विचारें, तो निस्सन्देह Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो-पालक आनन्द | १३ जान सकेंगे, कि पशुओं के दूध से बनी रक्त की बूँदें ही अधिक हैं। मनुष्य माता का दूध तो अत्यल्प काल तक ही पीता है, पर गौ-माता के दूध की धार तो मृत्यु की अन्तिम घड़ियों तक उसके मुँह में जाती रहती हैं । इसी कृतज्ञता से गद्गद होकर पूर्वजों ने कहा है - माता, वृषभ: पिता मे । गाय मेरी माता है और बैल मेरा पिता है। आप अपने चित्त को शान्त करके विचार करेंगे, तो मालूम होगा, कि भावनायें केवल लिखने के लिये ही नहीं लिखी गई हैं। यह बातें जनता के मनोरंजन के लिए भी नहीं कही गई हैं। इन शब्दों के पीछे पूर्वजों की उदार भावनाएँ काम कर रही हैं । गौ माता का जो हमारे ऊपर उपकार है, उसको प्रकट करने के लिए ही, कृतज्ञता के वशीभूत हो, हमारे महान् पूर्वज ने एक दिन यह बात कही थी। फिर, सभी ने उसकी इस बात को स्वीकार किया। जब इतने बड़े दार्शनिक और विचारक कहने को तैयार हुए, कि गाय हमारी माता है, तो यह कोई साधारण बात नहीं है। समझा जा सकता है, गाय को माता के पद पर पहुँचाने वालों में कितनी कृतज्ञता और कितनी उदारता होगी। उन्होंने बड़े ही गम्भीर भाव से यह बात कही है। जिसके मुख से यह महान् वाक्य निकला है, उसके हृदय में गौ-माता के प्रति कितना गहरा प्रेम उमड़ा होगा ? प्राचीन काल में भारतवर्ष में पशुओं के प्रति प्रेमपूर्ण व्यवहार किया जाता था, और अत्यन्त सहानुभूति के साथ उनका पालन-पोषण । आनन्द श्रावक की ही बात लीजिए | उसको अपने समय का एक बड़ा गोपालक कहा जा सकता है। वह चालीस हजार गायों का अकेला पालन-पोषण किया करता था। अगर उस नगर के अन्य सब नागरिकों के पास वाली गायों की संख्या इससे दुगनी या चौगुनी मानली जाए, तो उस समय भारत के एक ही नगर में गायों की संख्या लाखों पर पहुँचती है। जिस नगर में इतनी प्रचुर संख्या में गायें हों, वहाँ की सुख-समृद्धि की कल्पना आप स्वयं कर सकते हैं। वहाँ के निवासियों को दूध और दही की क्या कमी रह सकती है । अमृत की धाराएँ बहती होंगी वहाँ ! दूध की गङ्गा बहती होगी, और लोगों को जीवन - रस मिलता होगा। वहाँ के लोग क्या आज की तरह दूध की एक-एक बूँद के लिए तरसते होंगे ? मानव सेवा और आनन्द : नहीं, स्वप्न में भी नहीं । मगर प्रश्न हो सकता है, कि आनन्द ने गायों की इतनी बड़ी फौज किस लिए रख छोड़ी थी ? आनन्द कोई दैत्य तो नहीं था, कि चालीस हजार गायों का दूध स्वयं गटक जाता हो । चालीस हजार में से, बीस हजार गायें तो Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ | उपासक आनन्द नित्य प्रति दूध देती ही होंगी, और उनके दूध का औसत यदि दो सेर भी समझ लिया जाए तो एक हजार मन दूध सुबह में इतना ही शाम को होता होगा। क्या आनन्द का छोटा-सा परिवार प्रतिदिन दो हजार मन दूध पी जाता होगा ? और इस प्रश्न के उत्तर में प्रत्येक आदमी कहेगा, नहीं, यह असम्भव है । फिर किस लिए आनन्द ने इतनी बड़ी गो-शाला बनाई थी ? आज के लोगों की जो मनोदशा है, उसे देखते हुए इस प्रश्न के उत्तर पर उन्हें शायद विश्वास ही न हो। जो लोग अपने माता-पिता का, उनकी वृद्धावस्था में, पालन-पोषण करना भी परेशानी समझते हैं, जो अपने घर की विधवा को खिलाना - पिलाना भी भार समझते हैं, और जो अपने सहोदर भाई की सन्तान का भी बोझ नहीं उठाना चाहते, उनके प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन नहीं करना चाहते, तो उन्हें किस प्रकार समझाया जाए, कि आनन्द चालीस हजार गायों के प्रति, उनके द्वारा गोमाता के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन किया करता था । उसके अन्तःकरण में करुणा और दया की जो भावना थी, उसे सफल करने और उसे क्रियात्मक रूप देने का उसका यह तरीका कितना सुन्दर था । वास्तव में, आनन्द की दया का प्रवाह मानव जाति तक ही सीमित न रहकर पशुजगत तक बह गया था, और यह एक ऐसा तरीका था, कि जिसके द्वारा पशुओं की दया के रूप में मनुष्यों की दया अपने आप ही पल जाती थी । आखिर, उसके यहाँ दूध और दही की जो धाराएँ बहती थीं, उसका उपयोग तो नगर के छोटे-बड़े सभी मनुष्य करते होंगे। इस प्रकार आनन्द गोपालन करके पशुओं के प्रति भी और मनुष्यों के प्रति भी अपने कर्त्तव्य का पालन करता था । आनन्द की गो-शाला, गो-शाला ही नहीं, दया और करुणा का सबक सीखने के लिए एक पाठशाला थी । उस गो-शाला से आनन्द दया की भावना को पुष्ट किया करता था । अगर अकेले आनन्द श्रावक के यहाँ ही इतनी बड़ी गायों की संख्या होती, तो कोई यह कल्पना भी कर सकता था, कि उसे गोपालन का शौक रहा होगा, और इससे दया एवं करुणा का कोई साक्षात सम्बन्ध नहीं है । किन्तु इस सूत्र में वर्णित सभी श्रावकों के यहाँ हम यही बात देखते हैं। किसी के यहाँ चालीस हजार गायें पाली जा रही थीं, तो किसी के यहाँ साठ हजार । किसी के यहाँ अस्सी हजार गायों का पालन किया जाता था। आनन्द और दूसरे श्रावक जब परिग्रह का परिमाण करते हैं, तब भी गायों की संख्या कम नहीं कर लेते, बल्कि उन्हें उतनी की उतनी ही रख छोड़ते हैं । यह सब बातें मिलकर तथ्यपूर्ण जिस बात की ओर संकेत करती हैं, वह है, एक मनुष्य का पशुओं के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार ! हमें अपने अन्तःकरण की ज्योतिस्वरूपा दया को पालने के लिए अपने चारों ओर किस प्रकार का वातावरण बना लेना Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1000001PAN | गो-पालक आनन्द । १५ चाहिए, उसका सफल निर्देश। अब यह स्पष्ट शब्दों में कहा जा सकता है, कि मनुष्य पशुओं को अपना सहयोगी समझें और उनके प्रति सद्व्यवहार करे। आज अन्न का एक-एक दाना, सोने के दाने से भी अधिक मूल्यवान है। सोने का ढेर पडा है, और अन्न का दाना नहीं है, तो क्या सोना चबाकर प्राणों की रक्षा की जा सकती है? अन्न का दाना बड़े-बड़े राजमहलों से लेकर झोपड़ियों तक उपयोगी है। राजा और भिखारी का जीवन अन्न पर निर्भर है। ऋषियों ने कहा है—अन्नं वै प्राणाः अर्थात् अन्न ही प्राण है। अन्न ही प्राण : किस धर्म का अनुयायी नहीं कहता, कि गहनों के बिना काम चल सकता है, कपड़ों के बिना और मकान के बिना भी प्राणों की रक्षा की जा सकती है, किन्तु पेट में अन्न डाले बिना काम नहीं चल सकता। आज देश के सामने अन्न का प्रश्न बड़ा महत्त्वपूर्ण है, और यह प्रश्न गायों और बैलों की सहायता के बिना हल नहीं हो सकता। अन्न उत्पन्न करने में पशु मनुष्य के सहायक रहे हैं, और आज भी वही सहायता कर रहे हैं। एक-एक अन्न का दाना गो-पुत्र ने दिया है। ट्रेक्टर अब आए हैं, और संभव है, कि भारतीय कृषि-व्यवस्था में वह उपयोगी हों! विशाल ट्रेक्टर बड़े पैमाने पर मिट्टी को खोद कर फेंक देते हैं, किन्तु भारतीय किसानों के पास छोटे-छोटे खेत हैं। हमारे देश में बैलों से ही खेती की जाती है। बैल ही अन्न के ढेर पैदा करते हैं, और उस ढेर को घर तक पहुँचाने में मनुष्य के संगी-साथी बनते हैं। इतनी महत्त्वपूर्ण सहायता के बदले में बैलों ने क्या चाहा है? अन्नोत्पादन में मनुष्य की अपेक्षा अधिक मेहनत उठाकर भी वे अन्न में साझा नहीं चाहते। वे ऐसे उदार साझीदार हैं, कि जो कुछ भी आप उन्हें दे देते हैं उसी को सन्तोष से खा लेते हैं। कृषि और बैल : ___ गायें भारतीय घरों के आँगन की शोभा रही हैं। भारत की संस्कृति में गाय को बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। जब किसी को ऊँट पर सवार होकर जाते देखते हैं, तो अरब की संस्कृति याद आ जाती है। ऊँट अरब की संस्कृति का जीता-जागता प्रतीक है। इसी प्रकार भारतीय संस्कृति का प्रतीक गाय है। हरा-भरा वातावरण है, लहराता हुआ खेत है, गायें हैं, झौंपड़ी है और किसान के बाल-बच्चे खेल रहे हैं। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ । उपासक आनन्द यह भारतीय संस्कृति का रूप है। यह धर्म का प्रश्न नहीं, संस्कृति का प्रश्न है। जाति का प्रश्न है, और इन्सानियत का प्रश्न है। गाय का प्रश्न मानव-जीवन का प्रश्न है। कुछ प्रश्न ऐसे हैं, जो उलझ गए हैं। एक प्रश्न हमारे सामने आया है, गाय को हल में जोता जाए, तो क्या हानि है? वह दूध भी देती रहे, और हल भी जोतती रहे। हल में जुतने पर भी उसके दूध देने की मात्रा में कोई कमी नहीं होगी। वैज्ञानिकों ने परीक्षण करके देख लिया है। ___मैं कहता हूँ, कि दूध कम होगा या नहीं, यह प्रश्न नहीं है। प्रश्न तो भावना का है। गाय के प्रति भारत की जो भावना है, वह ऐसा करने के लिए इजाजत देती है या नहीं ? किसी नारी को दुह लेना जैसे भारत में असह्य समझा जाएगा, उसी प्रकार गायों को हल में जोतना भी असह्य समझा जाएगा। ऐसा करने से कोटि-कोटि मनुष्यों की भावना को ठेस पहुँचेगी, और भारत का एक प्रकार से सांस्कृतिक पतन होगा। जब जोतने के लिए बैल मौजूद हैं, तो फिर गायों को जोतने की क्यों आवश्यकता महसूस होती है? यह तो संभव नहीं, कि गायें रहें, किन्तु उनसे बछड़े न पैदा हों, और वे बड़े होकर बैल न बनें। गायें होंगी, तो बैल होंगे ही। अगर बैलों का काम गाय से लिया जाने लगा, तो बैल क्या काम आएँगे। फिर तो उन्हें मार डालने का ही रास्ता निश्चित किया जाएगा। तात्पर्य यह है, कि गाय दूध देकर, गोबर देकर और इतने बछड़ा-बछड़ी देकर गृहस्थ को बहुत-कुछ दे जाती है। इसके इतने दान से भी न सन्तुष्ट न होना और उसे हल में जोतने की बात कहना असांस्कृतिक है, निर्दयता भी है, और इससे बैलों की हत्या का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है। अतएव यह विचार अनुमोदनीय नहीं है। दूसरा प्रश्न बंदरों का है। आज तक भारत ने पशुओं को अपने संगी-साथी के रूप में ही स्वीकार नहीं किया है, वरन् उन्हें अपना देवी-देवता भी बना लिया है। देवी-देवता बनाकर भारत ने क्या सोचा है, यह बात आज नहीं कहनी है। पर बंदरों को भारत ने हनुमान जी का वंशज माना है। लोग हर मंगलवार को, चाहे अपने लड़कों का मुंह मीठा न करें, परन्तु बंदरों को कुछ न कुछ प्रसाद अवश्य डालेंगे। विषधर पर करुणा : ___ यह भारतीय ही हैं, जो साँप जैसे प्राणियों को भी दूध पिलाते रहे हैं। जो सर्प दूध पीकर भी जहर ही उगलता है, अमृत नहीं, उसे भी श्रद्धा-पूर्वक दूध पिलाना भारतीय भावना की विशेषता है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A moemon गो-पालक आनन्द । १७] आखिर, इन सब परिपाटियों का रहस्य क्या है? रहस्य यही है, कि मनुष्य क्रमशः अपनी दया का और अपने प्रेम का विस्तार करता जाए, और मनुष्य जगत् से भी उन्हें आगे ले जाए, और सर्प जैसे विषधर पर भी अपनी करुणा का अमृत छिड़के। __आज लोग इस उदार भावना को कितने अंशों में ग्रहण करते हैं, और रूढ़ि की गुलामी कितनी करते हैं, यह अलग प्रश्न है। हमें तो असलियत की ओर ही जाना चाहिए। आनन्द के जीवन पर हम गम्भीरता के साथ विचार करेंगे. तो अपको जीवन की सच्ची दृष्टि प्राप्त हो सकेगी। कुन्दन-भवन ब्यावर, अजमेर २०-८-५० Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु का पदार्पण उपासकदशांगसूत्र में गृहस्थ जीवन की जिस महत्त्वपूर्ण झाँकी को चित्रित किया गया है, वह प्रत्येक गृहस्थ के लिए अनुकरणीय, जीवनोपयोगी एवं लाभकारी है। इस सूत्र के प्रारम्भ में सुधर्मा स्वामी ने जिस आनन्द नामक श्रावक के निर्मल चरित्र का चित्रण किया है, वह एक ऐसा व्यक्ति है, जो करोड़ों का स्वामी होने पर भी स्वभावतः दयालु, शिष्ट और कृपालु है। तो, यह समझ लेना तो भारी भूल होगी, कि सुधर्मा स्वामी ने आनन्द का जो वर्णन किया है, वह इसलिए किया है, कि उसके पास करोड़ों की सम्पत्ति थी। अपने नगर और समाज में उसकी बड़ी भारी प्रतिष्ठा थी । वास्तव में, आनन्द को शास्त्र में जो महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है, उसका कारण उसकी कोई लौकिक सफलता या बड़प्पन नहीं, बल्कि उसका कारण है, भोग की दुनियाँ में बैठकर भी चारों ओर से भोग-विलास के उस समुद्र को पार करते हुए अपने जीवन को ऊँचा बनाना । आनन्द ने अपने जीवन में एक चमक पैदा की, एक रोशनी जलाई और उसी के उजाले में उसने अपने जीवन की यात्रा की। आनन्द के जीवन की चमक पच्चीस सौ वर्षों के बाद आज भी हमें मिल रही है । पच्चीस सौ वर्ष कुछ थोड़े नहीं हैं । कहने में तो जल्दी कह जाते हैं, किन्तु गिनने में बहुत हैं । इन पिछले पच्चीस सौ वर्षों में कितनी राज्य- क्रान्तियाँ हुईं, कितने इन्कलाब आए, कितने ही राज्य इधर के उधर हो गए, कितने ही सोने के सिंहासन मिट्टी में मिल गए, मगर इन जीवनियों पर काल का कोई असर न हुआ और राज्य क्रान्तियाँ भी उन पर अपना कोई प्रभाव न डाल सकीं। वास्तव में, आनन्द का जीवन- कमल तो तब खिलता है, जब प्रकाश-पुंज श्रमण भगवान् महावीर का वाणिज्यग्राम में पदार्पण होता है। मूल पाठ में भगवान् का 'समणे भगवं महावीरे' शब्दों से उल्लेख किया गया है। सहज ही जिज्ञासा हो सकती है, कि महावीर से पहले जब 'भगवान्' विशेषण लगा दिया गया है, तब उससे भी पहले 'श्रमण' विशेषण लगाने की क्या आवश्यकता थी? महावीर तो महावीर के नाम से ही विख्यात हैं, और आदर सूचक विशेषण 'भगवान्' भी उनके नाम के आगे लगा हुआ है। साथ ही हनुमान जी, जो महावीर के नाम से जगत में प्रसिद्ध हैं, और Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | प्रभु का पदार्पण |१९|| चौबीसवें तीर्थंकर महावीर में अन्तर स्पष्ट करने के लिए जब यह अकेला विशेषण ही पर्याप्त है, तब इस विशिष्टता-द्योतक विशेषण के होते हुए भी 'श्रमण' जैसे सामान्य विशेषण को उनके नाम के आगे जोड़ने की ऐसी क्या विशेष आवश्यकता प्रतीत हुई ? जिसने भगवान् का पद पा लिया, इसके लिए 'श्रमण' जैसा सामान्य विशेषण प्रयोग में लाने की क्या आवश्यकता है ? - इस जिज्ञासा का समाधान यह है, कि भारतवर्ष के दर्शन-शास्त्रों में भगवान् के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की धारणाएँ हैं। कई दर्शन मानते हैं, कि भगवान् या ईश्वर नित्य-मुक्त होता है। अर्थात् जो भगवान है, वह सदा से ही भगवान् है। कोई भी आत्मा कितनी ही ऊँची साधना क्यों न करे, वह परमात्मा या ईश्वर का पद प्राप्त नहीं कर सकती। परमात्मा की जाति आत्मा से निराली है। जैसे जड़ कभी चेतन नहीं बन सकता, उसी प्रकार लाख-लाख प्रयत्न करके और जन्म जन्मान्तर में साधनाएँ करके भी आत्मा ईश्वर नहीं बन सकती। साधना का फल मुक्ति है, ईश्वरत्व नहीं। और जो ईश्वर है, उसे कभी कोई साधना नहीं करनी पड़ी। वह बिना ही साधना के सदा से ईश्वर है। __ अभिप्राय यह है, कि इस दृष्टिकोण के अनुसार आत्मा सदा आत्मा ही रहने वाली है और ईश्वरत्व को प्राप्त करना उसके वश में नहीं है। जैनधर्म इस दृष्टि को स्वीकार नहीं करता। जैनधर्म के अनुसार ईश्वरत्व किसी एक व्यक्ति के लिए 'रिजर्व' नहीं है। ईश्वरत्व एक पद है और अपनी योग्यता का विकास करके प्रत्येक आत्मा उसे पाने की अधिकारिणी है। जैनधर्म ने बिना किसी प्रकार का भेद किए, प्रत्येक आत्मा को ईश्वरत्व की प्राप्ति का अधिकार दिया है। जैन-दर्शन की यह विशिष्ट मान्यता यहाँ 'श्रमण' विशेषण से ध्वनित होती है। इसका अभिप्राय यह है, कि महावीर ने भगवान् का पद श्रमणत्व के द्वारा प्राप्त किया, साधना के द्वारा प्राप्त किया, वे सनातन ईश्वर नहीं, साधनाजनित ईश्वर या भगवान् थे। कहने को तो जैन लोग भी कहते हैं, कि चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन भगवान् महावीर का जन्म हुआ, किन्तु ऐसा कहना एक अपेक्षा-मात्र है। जैनदर्शन की गहराई में उतरें और तथ्य को खोजने चलें तो प्रतीत होगा, कि उस दिन केवल महावीर का जन्म हुआ, भगवान् महावीर का जन्म नहीं। भगवान् का जन्म तो तब हुआ, जब महावीर को भागवत्-दशा प्राप्त हुई, अर्थात् केवल दर्शन और केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। वह तिथि चैत्र शुक्ला त्रयोदशी नहीं, वैशाख शुक्ला दशमी थी। सार यह है, कि जैनधर्म के अनुसार श्रमण होने के बाद ही भगवान् बना जा सकता है। भगवान् के 'श्रमण' विशेषण से यही तथ्य सूचित किया गया है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० । उपासक आनन्द महावीर स्वामी साधु बने और साधु बने तो भेष बदलने वाले साधु नहीं, जीवन बदलने वाले साधु बने। उन्होंने सोने के महलों को छोड़ा, तो फिर पल भर के लिए भी उनकी ओर नहीं झाँका । वे संसार के सर्वोत्तम वैभव को ठुकरा कर आगे आए। तीस वर्ष तक का जीवन उन्होंने गृहस्थावस्था में बिताया, पर जब उसका त्याग किया, तो सर्वतोभावेन त्याग किया। उन्होंने अपने जीवन के लिए जो राह चुनी, उस पर अग्रसर होते ही चले गए, पल-पल आगे ही बढ़ते गए। वह अपने जीवन का विकास करने के लिए अपने विकारों और अपनी वासनाओं से लड़े और ऐसे लड़े, कि उन्हें खदेड़ कर ही दूर हटाकर ही दम लिया। उन्होंने जीवन की दुर्बलताओं को और बुराइयों को चुनौती दी और उन्हें पराजित भी किया। केवल ज्ञान और केवल दर्शन पाया और तब भगवान् का महान् पद भी प्राप्त किया। उन्हें भगवत्तेज की प्राप्ति हुई । " श्रमण बनने के बाद और कैवल्य प्राप्ति से पूर्व की भगवान् महावीर की साधना की कहानी बड़ी ही रोमांचकारिणी है । उसका आभास हमें शास्त्रों से मिलता है। जब हम उसे पढ़ते हैं तो हृदय सन्न रह जाता है । जिन कथाओं, परीषहों और उपसर्गों के पढ़ने मात्र से हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं, उन सब को उस महान आत्मा ने असाधारण दृढ़ता के साथ सहन किया । देवों, मनुष्यों और पशुओं द्वारा पहुँचाई गई, कोई भी पीड़ा उन्हें अपनी साधना से विरत न कर सकी । यही क्यों, कहना यों चाहिए कि ज्यों-ज्यों बाधाएँ और पीड़ाएँ उनके समीप आईं, तो उन पीड़ाओं और बाधाओं के रूप में उन्होंने अपनी सिद्धि सन्निकट आई समझी, उन्हें उतना ही बल प्राप्त होता गया । हम थोड़ी देर ध्यान लगाते हैं, दो चार 'लोगस्स' की बात जाने दीजिए, एक लोगस्स का कायोत्सर्ग करते हैं और उपसर्ग करने वाले कोई भूत, प्रेत, सिंह या भालू नहीं; किन्तु मच्छर आते हैं, और वे मच्छर कुछ हमें समूचा निगलने के लिए नहीं आते, केवल एक बूँद रक्त की पाने और अपनी भूख मिटाने के लिए आते हैं। मगर ज्योंही मच्छर का डंक हमारे शरीर में लगता है, कि हम लोगस्स का ध्यान करना ही भूल जाते हैं और चमड़ी सिकोड़ने लगते हैं ! सारा चिन्तन ऊपर आ जाता है और जल्दी-जल्दी पाठ बोलने लगते हैं ! कितना क्षुद्रकाय बेचारा मच्छर, हाथ की उँगली लग जाए तो प्राण छोड़ दे। पूँजनी दया के लिए है और उसे जल्दी से फेर दिया जाए तो भी मर जाए। इतने तुच्छ प्राणी के दंश को भी हम सहन नहीं कर सकते। यह दशा हमारी है । और उस महान् आत्मा को संगम जैसे देवता डिगाने आए, और वह भी चुनौती लेंकर आए, संकल्प करके आए, कि डिगाएँगे, बिना डिगाए नहीं रहेंगे, जरूर पथभ्रष्ट Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | प्रभु का पदार्पण । २१ करेंगे। पथभ्रष्ट करके ही रहेंगे। किन्तु छह-छह महीने के दारुण संघर्ष के पश्चात् अन्त में उस विराट् आत्मा के सम्मुख देवता को झख मार कर हार स्वीकार करनी पड़ी और वह महान् आत्मा विचलित नहीं हुई। महावीर जिस राह पर चल रहे थे, उससे एक कदम भी न मुड़े और पीछे मुड़ कर भी उन्होंने न देखा। फिर भी क्या उपसर्ग बन्द हो गए ? नहीं, वह बराबर जारी रहे और महावीर की प्रगति भी ज्यों की त्यों जारी रही। देवता नमस्कार करने को आए, तब भी उन्होंने नहीं देखा। इन्द्रों के मुकुट उनके चरणों में झुके, तब भी वे नहीं रुके और निरन्तर अविश्रान्त गति से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते ही चले गए। उन्हें न निन्दा रोक सकी, न प्रशंसा रोक सकी। न शोक और न दुःख रोक सके। आपत्तियाँ आईं, संकट भी आए, पर किसी से उनकी गति अवरुद्ध न हो सकी। इस प्रकार सत्कार, तिरस्कार, निन्दा, प्रशंसा, शोक और दुःखों की आग में से पार होकर उस महान् आत्मा ने परमात्म-पद प्राप्त किया। आज साधारण तथा साधु-जीवन में भी शोक की आग जलती रहती है। यश और प्रतिष्ठा की कामना की आग भी जलती रहती है। चारों तरफ से जय-जयकार होती है और अगर हम अपनी उस जय-जयकार को सुनने के लिए रुक जाते हैं, उसमें आनन्द का अनुभव करते हैं, तो समझ लीजिए, कि हमारे हृदय में से अभी वासना समाप्त नहीं हुई है और जब यह आग समाप्त नहीं हुई है, तो सत्य मानिए कि उस आग में संयम-साधना का समस्त फल जलकर भस्म हो जाता है। और वासना की भाँति शोक भी एक प्रकार की आग है। वह आग जब साधु को लग जाती है, तो वह बेचैन हो जाता है। दु:ख तो दुःख ही है और आपत्तियाँ भी आपत्तियाँ हैं। जब इन्सान दुःख की आग में जलता है, तब उसका धर्म-कर्म सब जल जाता है। नैतिकता और ईमानदारी के ऊँचे भाव जल कर खाक हो जाते हैं। कोई बिरले भाई के लाल ही इस आग में पड़ कर सकुशल और कंचन बनकर इस आग से बाहर निकलते हैं। जलती आग में एक लकड़ी डाल दो तो क्या वह आग में से यों की यों निकल आएगी ? आग में घास का तिनका डाल दो तो क्या वह निकल कर सही सलामत आता है ? वह खाक बनकर ही लौटता है। किन्तु जब सोने को आग में डालते हैं, तब वह और अधिक चमकता है। वह पहले की अपेक्षा अधिक सचाई, शुद्धि, विभूति और चमक-दमक लेकर बाहर निकलता है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |२२| उपासक आनन्द । इसी प्रकार साधारण आदमी दुःख की आग में पड़ता है, तो जल जाता है। अपने जीवन को बर्वाद कर देता है। उसके संयम का रंग फीका पड़ जाता है; किन्तु जब महान् पुरुष उसी आग में कूदते हैं, तो सोने की तरह चमकते हुए निकलते हैं। अभिप्राय यह है, कि उस महान् पुरुष ने दुःखों की भीषण आग में से निकल कर स्वर्ण की भाँति निखालिस स्वरूप प्राप्त किया और वे भगवान् महावीर के रूप में आए। वे भगवान् के रूप में आए, तो हम उनकी स्तुतियाँ गाते हैं और उन्हें नमस्कार करके अपने जीवन को धन्य मानते हैं। हम उनकी इज्जत इसलिए नहीं करते, कि वे हमारी जाति-बिरादरी के थे, इसलिए भी नहीं कि हमें उनसे कुछ मिल जाएगा। वे अपने स्थान पर पहुंच गए हैं और हम से कह गए हैं कि परो ददातीति विमुञ्च शेमुषीम अर्थात्—इस विचार को छोड़ दो, कि तुम्हें कोई कुछ भी दे सकता है, तुम्हें जो कुछ पाना है, अपने कर्तव्यों से पाना है। फिर भी हम भगवान् महावीर की स्तुति करते हैं तो कृतज्ञता के वशीभूत होकर उनके असामान्य गुणों के आकर्षण ने हमें खींच लिया है। उनके गुणों ने हमारे चित्त पर ऐसा जादू डाला है, कि वह हठात् उनकी स्तुति करने में प्रवृत्त होता है। वहाँ कोई डंडा नहीं है, हुकूमत नहीं है, किन्तु दिल की हुकूमत है, उनके गुण हमारे हृदय पर अधिकार जमाए बैठे हैं, उनके जीवन की महान् छाप हमारे जीवन पर अंकित हो गई है, उनके जीवन की हुँकार हमें बल प्रदान कर रही है और आज २५०० वर्ष के बाद भी उनके प्रति हमारा आकर्षण कम नहीं हुआ है, वह कम होने वाली चीज भी नहीं है, वहाँ वह शान है, जिसकी चमक धुंधली पड़ने वाली नहीं है। ऐसे भगवान् महावीर पहले श्रमण बने, सच्चे साधु बने, जीवन बदलने वाले साधु बने, उन्होंने विकारों को मारा, उन पर विजय प्राप्त की, तो विकार-विजयी होकर विकारों के प्रधान सेनापति मोहनीय कर्म को परास्त किया, वीतरागदशा प्राप्त की, फिर उनका जीवन उस उच्च श्रेणी पर पहुँचा, कि केवल ज्ञान और केवल दर्शन की दिव्य ज्योति से जगमगा उठा, तब उनके ज्ञानदर्शन को न काल की सीमाएँ रोक सकी और न देश की सीमाएँ ही बाँध सकीं। हमारा ज्ञान देश और काल की सीमाओं से बँधा है। मैं देख रहा हूँ, क्योंकि देखना आत्मा का स्वभाव है और स्वभाव का कभी समूल विनाश नहीं होता; किन्तु हमारे देखने की एक सीमा है। हमारे जानने और समझने की भी सीमा है। इस प्रकार हमारा दर्शन और ज्ञान सीमित है, वह देश काल की सीमाओं में सीमित है। किन्तु केवल ज्ञान होने पर देश-काल की कोई भी सीमा कायम नहीं रहती। समग्र विश्व जैसे आँखों के आगे तैरने लगता है। हमारे भारतीय सन्तों ने कहा है Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । प्रभु का पदार्पण | २३] दिक्कालाधनवच्छन्ना -ऽनन्त चिन्मात्र मूर्तये। स्वानुभूत्येकमानाय नमः शान्ताय तेजसे।। जो परिपूर्ण है, जो देश, काल आदि की सीमाओं से सीमित नहीं है, जो इन तमाम सीमाओं को तोड़कर अनन्त-अनन्त काल तक अमित बना रहेगा, वह चैतन्यदीपक जब जलने लगता है, तब सारे संसार को रहस्य झलकने लगता है। उसी परम तेज को नमस्कार है और यह है परमात्मदशा। तो यह परमात्मदशा महावीर को चैत्र सुदी १३ को नहीं प्राप्त हुई। तीस वर्ष महलों में गुजारे और जगत् की विभूति चरणों की चेरी बनी रही, तब भी वह भागवत दशा नहीं आई। वह उस कठोर साधना के बाद,वैशाख सुदी १०वीं को प्रकट हुई, जब केवल दर्शन और केवल ज्ञान से उनकी आत्मा उद्भासित हुई। प्रारम्भ से ही तीर्थंकर का जीवन भागवत जीवन नहीं है। जैन-धर्म के अनुसार भगवान् का जन्म नहीं होता। यह अवश्य है, कि जिस जन्म में आत्मा तीर्थंकर बनने वाली होती है, उससे पहले के अनेक जन्मों में वह सत्संस्कारों को ग्रहण करती रहती है, और कई जन्मों के सुसंस्कारों के फलस्वरूप तीर्थंकर के जन्म में, वह मानवीय विकास की चरम सीमा पर पहुँचती है; फिर भी परमात्मा-दशा तो उसे साधना के पश्चात् और विकारों पर विजय प्राप्त करने के पश्चात ही प्राप्त होती है। इस प्रकार पहले से ही कोई आत्मा पवित्र नहीं होती। तीर्थंकर की आत्मा भी पहले तुम्हारी आत्मा के समान ही गलियों में भटकती थी। उन्होंने जीवन का महत्त्व समझा और अप्रमत्त-जीवन में आए। फिर चरित्र की उच्च-उच्चतर भूमिकाओं का स्पर्श करते हुए भागवत अवस्था प्राप्त की। ___ भगवान् ने अपने जीवन का कोई रहस्य हम से नहीं छिपाया। सम्यक्त्व पाने के बाद भी वे कहाँ-कहाँ भटके, किस-किस जीवन में किस-किस योनि में गए, यह बात उन्होंने हरेक को बतलाई। तो, उन्होंने अपने जीवन की कहानी क्या बतलाई, हमें भगवान् बनने की राह बतलाई। उन्हें जो भी मिला उसी को उन्होंने यह राह दिखाई। अतिमुक्त कुमार जैसे बालक को भी बतलाई और अपने जीवन की अंतिम घड़ियों में रोता-हँसता कोई बूढ़ा मिला, तो उसे भी बतलाई। कोई सम्राट मिला तो उसे भी वही राह बतलाई और पथ का भिखारी आया, तो उसे भी उसी राह पर चलने की सलाह दी। बड़े-बड़े पण्डित, गौतम जैसे ज्ञानी मिले, तो उनसे भी इसी राह के सम्बन्ध में कहा, और एक किनारे से दूसरे किनारे तक अनजान किसान मिला, तो उससे भी यही कहा। तो जो भी जिज्ञासु बन कर भगवान् के चरणों में आया, उसको भगवान् ने भगवान् बनने की वही राह बतलाई, जिस पर चल कर वे स्वयं भगवान् बन सके थे। इस दृष्टिकोण से भगवान् तरण-तारण कहलाए। वे स्वयं तिरे Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ | उपासक आनन्द और दूसरों को भी तारा। वे राग, द्वेष और विषय, विकार को स्वयं जीत कर जिन बने और दूसरों को भी जिन बनाया। उन्होंने, स्वयं अप्रतिहत बोध पाया और दूसरों को भी बोध दिया। स्वयं मुक्त हुए और दूसरों को मुक्त होने का मार्ग सुझाया। ___ तो, ऐसे श्रमण भगवान् महावीर एक शुभ दिन वाणिज्यग्राम नगर में पधारे। भगवान् किसी नगर में पधार जाएँ और जनता सोई पड़ी रहे, दुकान वाले दुकानदारी में लगे रहें और बहिनें चूल्हा सँभाले बैठी रहें, यह नहीं हो सकता था। भगवान् के पधारते ही नगर में हलचल मच गई। जनता के हृदय में आनन्द की हिलोरें उठने लगीं। बड़े-बड़े महलों में भी और मामूली झौंपड़ियों में भी जागृति-सी आ गई। बालक और बूढ़े, नर और नारी सभी अपना-अपना काम, छोड़कर प्रभु के दर्शन के लिए रवाना हुए, और उनके निकट जाकर बैठ गए तो एक बड़ी भारी सभा जुड़ गई। - बात भी ठीक ही थी। आपको ही अगर मालूम हो जाए कि ब्यावर में या ब्यावर से दस-बीस-तीस कोस की दूरी पर किसी खेत में कल्पवृक्ष उगा है, तो क्या आप अपने घर में बैठे रहेंगे ? या कल्पवृक्ष के पास दौड़ेंगे? ____ कल्पवृक्ष की बात जाने दीजिए। देवी-देवताओं की कल्पित मूर्तियाँ हैं और कोई नहीं जानता, कि वे मनोकामना की पूर्ति करेंगी या नहीं, फिर भी कितने लोग उनके पास दौड़े जाते हैं ? कितने लोग उनके सामने अपने मस्तक झुकाते हैं? तब जहाँ साक्षात् देवाधिदेव प्रभु पधार जाएँ, वहाँ की तो बात ही क्या है। प्रभु तो जीते-जागते और सच्चे कल्पवृक्ष थे। लोग उनके दर्शन के लिए जाएँ, यह स्वाभाविक ही था। उनके मुखारविंद से रत्नों की वर्षा जो हो रही थी! भला कौन न दौड़ कर जाता? जिसमें धर्म के प्रति श्रद्धा है, वह धर्म-कार्य में देर क्यों करना चाहेगा? भगवान् वाणिज्यग्राम में पधारे तो नगर के बीच किसी गली-कूचे में नहीं ठहरे, किन्तु नगर के बाहर उद्यान में विराजमान हुए। लोगों ने यह नहीं सोचा, कि अभी तो काम-काज का वक्त है, फिर जाएँगे। इतनी दूर जाना पड़ेगा और फिर आना पड़ेगा! जाएँगे तो काम पड़ा रह जाएगा! ___ आज यह स्थिति है, कि लोग बेकाम बैठे रहेंगे, पर सन्त-समागम करने नहीं जाएँगे। भूले-भटके कभी आ गए और किसी सन्त ने पूछ लिया, श्रावकजी! आज तो बहुत दिनों बाद दीख पड़े। क्या इन दिनों काम-काज अधिक करना पड़ा। तो श्रावकजी कहते हैं- 'महाराज, काम तो कुछ नहीं है, यों ही नहीं आया गया।' जब काम काज नहीं है और निठल्ले बैठे हैं, तब तो यह दशा है; अगर काम हो तो न जाने क्या दशा हो? Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | प्रभु का पदार्पण । २५] वाणिज्य ग्राम नाम से अनुमान होता है, कि वहँ विशाल पैमाने पर व्यापार आदि का काम होता था, और राजा-महाराजाओं के यहाँ भी काम की कमी नहीं थी। परन्तु फिर भी लोग पहुँचे और राजा जितशत्रु भी पहुँचा। सब ने भगवान् के दर्शन किए। जिसे धर्म की लगन लग जाती है और धर्म के प्रति प्रेम उत्पन्न हो जाता है, वह हिसाब-किताब नहीं देखता, जहाँ सत्य मिलता है, अहिंसा मिलती है और वह चीज मिलती है, जो मनुष्य को भगवान् बना देती है, अनन्त-अनन्त काल के बन्धनों को काट देती है, वहाँ कौन आत्महितैषी न जाना चाहेगा ? ___ बड़ी बात श्रद्धा की है। जब श्रद्धा की ज्योति मन्द पड़ जाती है या जलती-जलती बुझ जाती है, तो अंधकार ही अंधकार फैल जाता है। जो श्रद्धाशील हैं, वे निरन्तर बढ़े चले जाते हैं और जो श्रद्धा को तोड़ देता है उसे बगल में बैठे हुए देवता का भी पता नहीं चलता। यह बात जैनधर्म के लिए नहीं, धर्म-मात्र के लिए है। किसी भी धर्म को यदि जीवित रखना है तो उसके प्रति श्रद्धा की भेंट आवश्यक है। श्रद्धा और प्रेम के अभाव में कोई भी धर्म जिन्दा नहीं रह सकता। अतएव जो अपने धर्म को जीवित रखना चाहता है, से अपने धर्म के प्रति नम्रतापूर्वक श्रद्धा की भेंट समर्पित करनी ही चाहिए। आपको भरत चक्रवर्ती का स्मरण है ? वे भगवान् ऋषमदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे। जब वह सिंहासन पर आसीन थे, उसी समय उन्हें समाचार मिला, कि उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई है ! ज्योतिषी पत्रा लेकर बैठ गए और ग्रह-नक्षत्रों की गणना कर उनका फलादेश बतलाते हुए कहने लगे-नवजात शिशु महान् सौभाग्यशाली है वह। और भरत जी अपने पुत्र का भविष्य सुन रहे हैं, कि दूसरी तरफ से समाचार मिलता है—आपकी आयुध-शाला में चक्र रत्न प्रकट हुआ है। उसकी पूजा करने पधारिए। तीसरी ओर से संवाद मिलता है. भगवान् आदिनाथ को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई। समवसरण लग रहा है। पुत्र-प्राप्ति का अपार हर्ष हृदय में समा नहीं रहा है, कि उसी समय चक्रवर्ती होने का संदेश देने वाला चक्ररत्न प्रकट होता है। भला इस हर्ष की कहीं सीमा है? कोई प्यादा हो और उसे जमादार बना दिए जाने की खबर मिले तो कितना प्रसन्न होता है, वह ? आज हजार कमाया और सूचना मिल जाए कि कल दस हजार और परसों लाख कमाओगे, तो हृदय कैसा बंदर की तरह नाचने लगता है। फिर भरत जी को तो पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ है और चक्रवर्त्तित्व भी मिला है। दुनियाँदारी के लिहाज से इससे बढ़कर और क्या बड़ा लाभ और सुख हो सकता, किसी को! तीर्थंकर का Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |२६ । उपासक आनन्द । पद तो आध्यात्मिक दृष्टि से उच्च है, किन्तु संसार के बड़े से बड़े वैभव के नाते तो चक्रवर्ती का पद ही सर्वोत्कृष्ट है। ___ इस तरह तीन तरफ से आनन्द-प्रद सूचनाएँ पाकर भरत को कितनी प्रसन्नता हुई होगी, आज यह कौन कह सकता है? परन्तु भरत सोचते हैं, यह संसार है और यहाँ पिता-पुत्र के नाते तो बनते रहते ही हैं। यह संसार के नाते अनादि काल से चले आ रहे हैं—बनते और बिगड़ते रहे हैं। तो इस नाते मैं भगवान् का दर्शन करने में ढील नहीं कर सकता। उस आत्मिक आनन्द को नहीं छोड़ सकता। और वह चक्र-रत्न, पजा न की जाएगी, तो रुष्ट होकर चला जाएगा। मगर क्या कर सकता हूँ ? प्रभु की उपासना का परित्याग तो उसके लिए भी नहीं कर सकता। वह रहे तो रहे और जाए तो जाए। भाग्य में है तो जाएगा कहाँ ? न होता तो आता ही कैसे? आया है तो दास बन कर आया है, गुलाम होकर आया है, और धर्म के प्रताप से ही तो आया है। जिस धर्म के प्रताप से चक्र-रत्न आया है, चक्र-रत्न के लिए क्या उसी धर्म का परित्याग कर दूँ ? नहीं, चक्र-रत्न के लिए भरत रुकने वाला नहीं ! ___ और भरत, पुत्र और चक्र-रत्न दोनों को छोड़कर, भगवान् के दर्शन के लिए पहुँचे। भगवान् के परमानन्द-दायक प्रवचन-पीयूष का पान करने के लिए पहँचे। उन्होंने चक्रवर्ती पद की अपेक्षा भगवान् की वाणी के श्रोता के पद को महत्त्वपूर्ण समझा। __ आपके विचार में कौन-सा पद महत्त्वपूर्ण है, यह आप जानें, मगर भरत ने तो चक्रवर्ती पद को ठुकरा कर श्रोता बनना ही श्रेयस्कर समझा, और वह त्वरा के साथ उस ओर चले तो; इसलिए नहीं कि जल्दी पहँचेंगे तो बैठने को सिंहासन मिलेगा? देर से जाएँगे, तो जमीन पर बैठना पड़ेगा? नहीं, वहाँ ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। भगवान् के दरबार में राजा-रंक में कोई भेद नहीं था। भगवान् का दरबार ही तो दुनियाँ भर में ऐसी एक जगह थी जहाँ मनुष्य-मात्र को समान दर्जा प्राप्त था; जहाँ मानव सब प्रकार के कल्पित भेद-भावों को भूलकर असली मानव के रूप में स्थान पाता था! आप तो यहाँ दरियाँ बिछा लेते हैं और कोई श्रीमन्त आजाएँ तो गलीचा बिछा देने से भी नहीं चूकते। पर भगवान् के दरबार में दुनियाँ के वैभव को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। जहाँ चक्रवर्ती सम्राट अपरिग्रही भिक्षु के चरणों में मस्तक झुकाता है, वहीं परिग्रह के प्रतिनिधि की पूजा की जाती है। ऐसा बे-मेल और परस्पर विरोधी व्यवहार बुद्धिमान् नहीं करते। इस विशाल भू-मण्डल में सर्वत्र अधर्म और असत्य की पूजा हो रही है और परिग्रह पुज रहा है। कम से कम धर्मस्थान तो इस मिथ्याचार से अछूते बने रहें। धर्मके लिए एक जगह तो टिकने को बाकी रहने दीजिए। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | प्रभु का पदार्पण । २७ भरत स्वयं भी कहाँ चाहते थे कि वे अन्य मनुष्यों से अपने आपको अलग समझें। मनुष्य-मात्र से अलग करने वाला तो चक्रवर्ती का पद था; परन्तु उसकी उपेक्षा करके वह तो श्रोता बनने चले, उस पद को अंगीकार करने चले, जो भगवान् के दरबार में मौजूद रहने वाले प्रत्येक प्राणी को प्राप्त था। भरत ने श्रोता-पद के महत्त्व को समझा तो चक्रवर्ती के पद और पुत्ररत्न से भी बढ़कर उसे माना। वास्तव में वह जानते थे—श्रोता बनकर आत्मा अनन्त-अनन्त गुण प्राप्त कर सकती है। अतएव वे चक्रवर्ती पद की परवाह न कर आत्मराज्य की खूबियों को प्राप्त करने के लिए गए। ___ भरत के हृदय में श्रद्धा थी। श्रद्धा न होती तो वे क्यों जाते? जिसे इतनी अटूट श्रद्धा प्राप्त है, वह भक्त भगवान् क्यों न बन जाएगा ? वास्तव में भरत भक्तों के लिए आदर्श हैं। उनकी इस अटूट लगन को हृदय में बसाकर कोई भी मनुष्य, मनुष्य से भक्त और भक्त से भगवान् बन सकता है। हाँ, तो वाणिज्यग्राम नगर में जब भगवान् महावीर पधारे तो चंपा के राजा कोणिक की तरह राजा जितशत्रु भी उनके सम्मुख उपस्थित हुआ। सबने भगवान् के चरणारबिन्द में पहुँचकर तीन बार प्रदक्षिणा की और स्तुति की-प्रभो! आप कल्याणमय हैं, मंगलमय हैं, दिव्यस्वरूप हैं, ज्ञानस्वरूप हैं। हे प्रभो! बार-बार मस्तक टेक कर हम आपके चरणों में वन्दना करते हैं, नमस्कार करते हैं और आपकी सेवा, शुश्रूषा करते हैं। ___ एक योजन का दायरा है। जिसे जहाँ जगह मिली, वहीं बैठ गया। राजा जितशत्रु भी एक जगह बैठ गया। भगवान् के चरण-मूल में बैठने का क्या महत्त्व है? शरीर से बैठ गए और मन दूर-दूर चक्कर काटता रहा तो उस बैठने का कोई मूल्य नहीं है। और शरीर से दूर बैठ कर भी जो प्रभु के चरणों में अपने मन को जोड़ देते हैं, वे कृतार्थ हो जाते हैं। यही तो प्रभु की सेवा है। अपने मन को महाप्रभु के चरणों में लीन कर दिया, तो आपने उनकी सेवा कर ली, सेवा में बैठने का अर्थ यही है। जितनी देर बैठो उतनी देर अपने स्वरूप की झाँकी लो। आत्मा की ग्रन्थियों को सुलझाओ। आत्मा के निगूढ़तम रहस्यों का उद्घाटन करने का प्रयास करो। ज्ञान की Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ | उपासक आनन्द उज्जवल ज्योति अपने अन्तर में जगाओ, जिससे अनादि-कालीन अंधकार में विलीन अपने निज के स्वरूप को देख सको। ___भगवान् महावीर की वाणी का प्रकाश आज भी हमारा मार्ग-दर्शन कर रहा हैतो, सन्त-समागम करके अपने श्रेयस का मार्ग क्यों नहीं खोज लेते ? जो ऐसा करेंगे, वे अपने कल्याण का द्वार खोल सकेंगे। कुन्दन-भवन ब्यावर, अजमेर १८-८-५० Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणिषु प्रमोदम् यह उपासकदशांगसूत्र है और आनन्द श्रावक का वर्णन चल रहा है। कल बतलाया गया था, कि श्रमण भगवान् महावीर वाणिज्यग्राम में पधारे हैं और समवसरण लग रहा है। नगर की जनता, बहुत बड़ी संख्या में, प्रभु का प्रवचन सुनने के लिए उमड़ रही है। राजा जितशत्रु भी पहुंच गए हैं और भगवान् की पर्युपासना करने लगे हैं और सुधर्मा स्वामी, जम्बू स्वामी से कहते हैं: तए णं से आणंदे गाहावई इमीए कहाए सद्देहे माणे, एवं खलु समण..........जाव विहारइ। तं महाफलं ............ जाव गच्छामि जाव पजुवासामि, संपेहेइ।" __ भगवान् महावीर वाणिज्यग्राम नगर में पधारे हैं, यह खबर आनन्द ने भी सुनी। सुनने को तो मनुष्य बहुत-सी बातें सुनता है, मगर एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल देता है। सुनी को अनसुनी कर देता है। सुनने के साथ जो बात मन में न बैठे और मन का स्पर्श न करे, उसका सुनना वृथा है। उस सुनने का कुछ अर्थ नहीं है। ___ मगर आनन्द ने जब भगवान् के पधारने की बात सुनी तो सुन कर अनसुनी नहीं कर दी। इस बात को सुनकर उसका हृदय एकदम प्रभावित हो उठा। इसी आशय को सूचित करने के लिए मूल में कहा गया है, कि यह बात उसने लब्ध की, प्राप्त की। श्रवण का फल विचारणा है। जो किसी बात को सुनकर ही रह जाता है, वह जीवन का पूरा आनन्द नहीं उठा पाता। अतएव जो बात सुनी जाए, उसके सम्बन्ध में विचार करना चाहिए, मनन करना चाहिए और मनन करने पर ग्राह्य हो तो ग्रहण भी करना चाहिए और उस विषय में अपने कर्त्तव्य को निश्चित करना चाहिए। मनुष्य में यह प्रवृत्ति होगी तो उसे सुनने का आनन्द मलेगा और उसका सुनना सार्थक होगा। आनन्द को भगवान् के पदार्पण की बात सुनकर अत्यन्त हर्ष हुआ, बहुत आनन्द हुआ। उसने सोचा, भगवान् का दर्शन करने और उनकी उपासना करने से मुझे महान् फल की प्राप्ति होगी। मैं उनके दर्शन करके अपने नेत्रों को सफल करूँगा, उनकी Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० | उपासक आनन्द वाणी श्रवण करके अपने कानों को पवित्र करूँगा और अपने जीवन के विषय में प्रकाश पाकर जीवन को पवित्र बनाऊँगा । तो, चलकर उस महान आत्मा के दर्शन करूँ, उनकी सेवा करूँ। आनन्द के मन में ज्यों ही यह बात आई, कि उसकी प्रसन्नता का पार न रहा । वह जैन नहीं था । तीर्थंकरों के सम्बन्ध में भी वह कुछ नहीं जानता था । फिर भी उसने किसी से सुना कि भगवान् पधारे हैं तो उसको महान हर्ष हुआ । उसके हृदय में आनन्द का सागर उमड़ पड़ा। बात यह है कि जैन होने से पहले ही एक विशेष भूमिका बन जानी चाहिए । जीवन में सामान्यतः श्रद्धा-शीलता होनी चाहिए। मन में धर्म के प्रति प्रेरणा उत्पन्न हो जानी चाहिए और यह धारणा बना लेनी चाहिए कि हमारा जन्म भोग-विलास के लिए नहीं, वास्तविक कल्याण के लिए है । संक्षेप में, जीवन में जागृति आ जानी चाहिए कि जिससे प्रकाश मिलने पर उसे ग्रहण किया जा सके। आनन्द धार्मिक विचारों का था । उसके संस्कार पवित्र थे । यद्यपि उसे जैनधर्म की श्रद्धा नहीं थी, परन्तु विद्वान् और गुणी पुरुष को देखकर प्रसन्न होने का उसका स्वभाव था। हमारे यहाँ चार भावनाओं का वर्णन है, जिनमें एक भावना है— गुणिषु प्रमोदम् । कोई व्यक्ति ऐसा होता है, जो अपने आप में नम्र होता है और श्रद्धालु भी । अपने से ज्यादा गुणी को देखता है, तो प्रसन्न होता है। इस प्रकार गुणी - जन के आगमन से मन में प्रसन्नता होना, हृदय का गद्गद हो जाना और उससे कुछ प्राप्त करने की मनोवृत्ति उत्पन्न होना, प्रमोद - भावना का लक्षण है। यह भावना जिसमें होगी, वह महान् बन जाएगा। 7 आनन्द के मन में प्रमोद - भावना का गुण पहिले से ही विद्यमान था । जो भी गुणी हो उसके प्रति सन्मान का भाव होना चाहिए और गुणी का नाम सुनते ही हृदय हर्ष से गद्गद हो जाना चाहिए, फिर वह किसी भी सम्प्रदाय का हो या किसी भी पंथ का हो उसके पास जाना, उसकी वाणी सुनना और यथोचित सेवा करना, यह विवेकवान् और गुणग्राहक का कर्त्तव्य है । और, आनन्द का ऐसा ही दृष्टिकोण था । उसका ऐसा दृष्टिकोण न होता तो वह भगवान् महावीर के पास क्यों जाता ? यह उदार वृत्ति उसमें पहले से ही न होती तो भगवान् के आगमन का समाचार पाते ही वह उनकी सेवा में उपस्थित होने का संकल्प कैसे कर लेता ? भारतवर्ष में, प्राचीन काल में, पर्याप्त धार्मिक उदारता थी। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के उपदेशक के पास आने-जाने में हिचकिचाहट का अनुभव Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिषु प्रमोदम्॥३ नहीं करते थे। इस तथ्य को सिद्ध करने वाले अनेक उदाहरण हमारे शास्त्रों में आते एक स्थान पर आचार्य हरिभद्र ने एक उदाहरण दिया है। वह बड़ा सुन्दर है, और विचारणीय है। वह कुछ रूपान्तर के साथ इस प्रकार है___ एक युवक था। उसने किसी साधु या योगी का अपमान किया। अपने अपमान से योगी क्रुद्ध हो गया ? उसने कहा-मूर्ख, बैल कहीं का! और शाप दे दिया गया और वह बैल बन गया। ____ जब बैल बने हुए युवक की पत्नी ने देखा कि पति बैल बना दिए गए हैं, तो वह उस बैल को ही पतिवत् समझ, उसके गले में रस्सा बाँध कर जंगल में चराने ले जाती और कभी-कभी रो लेती। इस प्रकार कुछ दिन बीत गए। ___ एक दिन स्त्री बैल को चरा रही थी और पास के एक वृक्ष की छाया में बैठ कर रो भी रही थी। संयोगवश उधर से देव-देवी निकले। देवी का हृदय कोमल था। स्त्री का दुःख देख कर वह पिघल गया। उसने सोचा-बेचारी बड़ी दुखिया है। इसका दु:ख दूर हो जाए तो अच्छा है और उसने देव के सम्मुख उसका दु:ख दूर करने की इच्छा प्रकट की। देव ने कहा-आखिर क्या दुःख है इसको? देवी ने दःख दूर करने के लिए आग्रह और अनुनय करते हुए कहा-यह तो मैं नहीं जानती, किन्तु यह रो रही है, इससे मालूम होता है, कि कोई न कोई दारुण दुख है इसे। देव ने कहा- तुम्हें पता नहीं। इसका पति बड़ा घमण्डी था। एक योगी ने आवेश में आकर इसे बैल बना दिया। इसकी स्त्री अब भी इसे पति समझती है और सेवा करती है। देवी की दया और भी बढ़ गई। बोली, इसकी जिन्दगी तो बर्बाद हो जाएगी। देवी का हृदय व्याकुल हो गया। उसने फिर कहा-आपके पास शक्ति है। वह इस समय काम न आई तो कब काम आएगी? अनुग्रह करके इसे फिर से आदमी बना दीजिए। देव ने कहा, मुझमें यह शक्ति नहीं है। इस पर बैल बनाने की विद्या का प्रयोग किया गया है। उसकी काट इसे आदमी बना सकती है। देवी-तो काट क्या है। देव-इसी वृक्ष के आस-पास जो घास है, उसमें एक ऐसी जड़ी है, कि उसे यह खाले तो मनुष्य बन जाए। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |३२ । उपासक आनन्द देव और देवी के बीच जो बात-चीत हई. उसे बैल की पत्नी सन रही थी। वे बातचीत करके आगे चले गए। स्त्री सोचने लगी-पति को आदमी बनाने वाली जड़ी है तो पास में ही, मगर नहीं मालूम वह कौन-सी है? इन्हें खिलाऊँ भी तो कौन-सी खिलाऊँ ? उसने इधर-उधर की घास इकट्ठी की और सोचा वह जड़ी भी इसमें होगी ही। उसने बैल को घास चराना शुरू किया और प्रतीक्षा करने लगी। थोड़े समय तक यही चक्कर चलता रहा। आखिर, वह जड़ी बैल ने खाली और बैल फिर आदमी बन गया। यह कहानी, कहानी तक ही सीमित है, किन्तु हरिभद्र सूरि ने एक विशेष बात समझाने के लिए यह कहानी कही है। हरिभद्र बड़े दार्शनिक माने जाते हैं। उनका साहित्य रोशनी देने वाला और धर्म के प्रति श्रद्धा बढ़ाने वाला है। उनके साहित्य के अध्ययन से मौलिक विचारों का सृजन होता है। वह कहते हैं, वह स्त्री यों ही बैठी रहती और सोचती रहती कि जड़ी मिल जाए तो क्या जड़ी मिल सकती थी? मगर उसने अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के निमित्त प्रयत्न किया और प्रयत्न करने में बुद्धि से भी काम लिया। वह उस जड़ी के रंग-रूप से वाकिफ न थी तो, उसने सोचा क्यों न यहाँ पर उगी हुई सभी प्रकार की घास बैल को खिलाऊँ। जब जड़ी इसी स्थान पर घास के बीच कहीं पर है तो, घास के साथसाथ वह जड़ी भी निश्चय ही बैल के मुँह में पहुँच जाएगी और मनुष्य-रूप होकर मेरा पति मुझको मिल जाएगा। और उसने यही किया भी-तो, अपने बुद्धि-युक्त परिश्रम का फल उसे मिला भी तुरन्त ही। घास के साथ मिलकर वह जड़ी उस बैल के मुँह में पहुँच गई और उस स्त्री के देखते ही देखते वह बैल अपने मनुष्य रूप में उसके सम्मुख खड़ा हो गया। तो, इसी प्रकार यह आत्मा भी अपने मूल रूप में ज्ञानमय होने पर भी, बैल के समान अज्ञान बनी हुई है। इसे अपने जीवन का कुछ पता नहीं है और जब पता नहीं है तो बैल ही है। अज्ञानता ही बैलपना है। अब आत्मा बैल से इन्सान बने, अज्ञानी से ज्ञानी बने तो कैसे बने ? तो, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया— 'सम्यक्त्व की जड़ी का सेवन करके।' 'परन्तु सम्यक्त्व कहाँ से मिले ?' 'गुरु से।' 'गुरु की खोज कहाँ की जाए ?' . 'जैसे घास-फूस में जड़ी की खोज की गई।' Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणिषु प्रमोदम् । ३३ देखने में आया है कि किसी-किसी साधक के अन्तरतर में स्वतः सम्यक्त्व की ज्योति प्रकाशमान होने लगती है, पर ऐसे साधक प्रायः कम होते हैं। और दूसरे प्रकार के साधक वे हैं, जो सम्यक्त्व की ज्योति प्राप्त करने के लिए इधर-उधर गुरु की खोज करते हैं। वे सोचते हैं कि किसी से मुझे जीवन के कल्याण की बात मिल जाए । यह सोच कर वह एक के पास जाते हैं, दूसरे के पास जाते हैं और तीसरे के पास भी जाते हैं और किसी भी सम्प्रदाय के ज्ञानी समझे जाने वाले के पास चले जाते हैं। उनकी सत्य की जिज्ञासा इतनी प्रबल हो उठती है कि वे यही सोचा करते हैं कि कहीं न कहीं से यथार्थ ज्ञान मैं प्राप्त करूँ तो, मेरी आत्मा को शान्ति मिले। तो, ऐसा करना घास खाने के समान है। सभी घास जड़ी नहीं है, परन्तु नहीं मालूम कि जड़ी कौन है और कहाँ है ? अतएव जड़ी खाने के लिए घास भी खाना पड़ता है। सद्गुरु की खोज में असद्गुरुओं के पास भी जाना होता है । जैसे घास खाते-खाते जड़ी हाथ लग जाती है, उसी प्रकार भटकते-भटकते सद्गुरु की भी प्राप्ति हो जाती है और जीवन आनन्दमय एवं कृतार्थ हो जाता है। आनन्द ऐसा ही उपासक था । सत्य के स्वरूप को समझने की उत्कण्ठा उसके हृदय में जागृत थी। वह सद्गुरु की तलाश में था। नगर में जो भी महान् गुणी आत्मा आएँ, उनका समागम किया जाए, उनकी वाणी सुनी जाए और ऐसा करते-करते कोई सच्चा गुरु मिल जाएगा तो मेरा जीवन उज्ज्वल हो जाएगा । आनन्द की ऐसी ही मनोवृत्ति थी । अचानक श्रमण भगवान् महावीर उसके ग्राम में पधारे। उनकी कीर्ति, यश और प्रतिष्ठा उसने सुनी, साथ ही उसने यह भी सुना कि उन्होंने तरुण अवस्था में समस्त राजकीय वैभव को ठोकर मार दी है, सोने के महलों को छोड़ दिया है और साधु बन गए हैं। सच्चे साधु बन कर उन्होंने बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ झेली हैं और जो कुछ प्राप्तव्य था उसे पा लिया है और जब उन्होंने जीवन्मुक्ति पाली तो जगत् का पथ-प्रदर्शन करने के लिए विचरने लगे हैं। उसने यह भी सुना कि उन्होंने यज्ञों की हिंसा के विरुद्ध साहस के साथ आवाज बुलंद की है। बड़े-बड़े पण्डित और राजामहाराजा उनके शिष्य बनते जा रहे हैं । इन्द्रभूति जैसे चार वेदों के पाठी असाधारण विद्वान उनके पास गए और उनके चरणों में पहुँचकर वापिस नहीं लौटे। आशय यह है कि भगवान् महावीर की जो ख्याति फैल रही थी, यह आनन्द के कानों तक भी पहुँची और उसके मन में हर्ष हुआ कि ऐसी महान् आत्मा इस नगर में आई है। भगवान् महावीर की यह ख्याति किसी भी जिज्ञासु और मुमुक्षु पुरुष को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए पर्याप्त थी । आनन्द भी इससे प्रेरित होकर और सत्य Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ । उपासक आनन्द का दर्शन पाने की भावना लेकर, भगवान् महावीर के पास पहुँचा। उसने सोचाभगवान् का दर्शन करने से मुझे महान् फल की, तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होगी। आनन्द समझदार था और अपने जीवन को सुधारने का मार्ग तलाश कर रहा था। जब उसने सुना कि भगवान् आए हैं और हजारों आदमी उनके दर्शनों के लिए जा रहे हैं, तो सोचा—मैं भी जाऊँ। किन्तु उसके जाने का असली निमित्त यही था कि उसने भगवान् की महान् कीर्ति सुनी थी और इस समय उनके आगमन का समाचार पाकर उसके हृदय में गुदगुदी पैदा हो गई कि मैं भी जाऊँ, मैं भी दर्शन करूँ। वास्तव में, उस समय आनन्द को भगवान महावीर के आगमन के संवाद को सुनकर उसी प्रकार प्रसन्नता हुई, जैसे किसी भक्त को होनी चाहिए और उसने भगवान् के श्री चरणों में जाने का निश्चय कर लिया। उसने सोचा_भगवान् के दर्शन करने से उसे निश्चय ही अमोघ फल की, महान् फल की प्राप्ति होगी। राज्य-वैभव मिल जाना, धन-सम्पत्ति पा लेना और यहाँ तक कि स्वर्ग की प्राप्ति हो जाना भी सांसारिक फल मिलना कहलाता है। उसे फल कहा जा सकता है, महान् फल उसे नहीं कह सकते। महान फल उन सब फलों से निराला ही होता है। जब तक मनुष्य का अज्ञान-अंधकार नहीं मिटता, तब तक वह संसार में भटकता रहता है और शाश्वत शान्ति नहीं पा सकता। इस रूप में जन्म-मरण का मूल अज्ञान है और उस अज्ञान-अंधकार का मिट जाना, समीचीन दृष्टि मिल जाना और अपने स्वरूप को सम्यक् रूप से समझ लेना, यही मानव जीवन का महान् फल है। कोई फल प्राप्त हो, मगर उसकी सहायता से मनुष्य जीवन की सार्थकता हाथ न लगे-तो, वह फल महान् फल कैसे कहा जा सकता है ? जिस सफलता के गर्भ में घोर असफलता ही छिपी मुस्कराती हो तो वह क्षणिक सफलता कल्पित सफलता है, वास्तविक नहीं। असली सफलता तो वही है, जिसके पश्चात् असफलता का मुँह ही न देखना पड़े। संसार की बड़ी से बड़ी सफलताएँ क्षणिक हैं और यदि स्थायी हैं तो तभी तक जब तक मनुष्य इस शरीर में मौजूद रहता है, साँस बंद होने पर कोई भी सफलता उसके काम नहीं आती। अतएव उसे ज्ञानी पुरुष क्षुद्र सफलता कहते हैं। महान् पुरुष का समागम करने से ही महान् फल की प्राप्ति हो सकती है। इसीलिए आनन्द विचार करता है, कि प्रभु के दर्शन करने से मुझे महान् फल प्राप्त होगा। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणिषु प्रमोदम् । ३५ मनुष्य को संसार के साथ किस प्रकार के सम्बन्ध कायम करने हैं, दूसरों के प्रति कैसी भावना रखनी है, यह बात मनुष्य सहज ही में नहीं समझ पाता, इसी कारण मनुष्य की जिन्दगी भार - स्वरूप हो जाती है, निष्फल हो जाती है। मगर आनन्द अपने जीवन को सफल बनाने का इच्छुक है। सत्पुरुषों का दर्शन करने की इच्छा के मूल में किसी प्रकार की सांसारिक वांछा नहीं होनी चाहिए, तभी मनुष्य अपने विकास के मार्ग पर आगे बढ़ सकेगा । तो, मनुष्य को चाहिए कि जब कभी भी वह किसी सत्पुरुष के दर्शन करने के लिए जाए तो इसी चैतन्य भाव को लेकर जाए कि मैं अपने जीवन के विकास के लिए जा रहा हूँ । आत्मा के साथ लगे हुए जिन विकारों के कारण मैं अनादि काल से जन्म-मरण के चक्कर में पड़ा हूँ–उनको आत्मा से कैसे दूर किया जाए, अपने इस प्रश्न का समाधान करने के लिए मैं जा रहा हूँ। प्राचीनकाल में भी लोग सत्पुरुषों के दर्शन को जाया करते थे और आज भी जाते हैं। जब जाते हैं तो उनका कोई संकल्प होता है। उनका वह संकल्प दुनियावी भी हो सकता है। मगर जो दुनियादारी का संकल्प लेकर जाते हैं, वे विकारों को कम करने की दृष्टि न रख कर बढ़ाने की दृष्टि रखते हैं। तो, ऐसे लोग किसी महापुरुष के पास जाकर भी कोई महाप्रकाश लेकर नहीं लौटते । जब तक संसार की दुर्वासनाएँ बनी रहेंगी और दुनियादारी की दुकान चलाने के लिए सन्त-समागम और धर्म-कर्म किया जाएगा, तब तक मन में प्रकाशमान ज्ञानचेतना नहीं होगी । महापुरुषों के पास पहुँच कर भी खाली हाथ लौटना होगा । आनन्द दुनियादारी का फल नहीं चाहता । वह सोचता है, कि भगवान् का दर्शन करने से मुझे 'महान् ' फल की प्राप्ति होगी। वहाँ मैं जीवन की सही राह तलाश करूँगा। और आनन्द इतना बड़ा उद्देश्य लेकर भगवान् की सेवा में पहुँचता है। जब भगवान के चरणों में वह पहुँच जाता है, तब उसे सच्चा आनन्द मिलता है। सच्चा आनन्द कहाँ है ? क्या प्रभु के चरणों में रखा है, सच्चा आनन्द ? नहीं, प्रभु के चरणों में नहीं है। सच्चा आनन्द तो अपने आप में है । अतएव आत्म-दर्शन से ही सच्चा आनन्द प्राप्त होता है। प्रभु की जो आज्ञाएँ हैं, उपदेश हैं, उसको साधक जब अपने मन में उतारता है, तब उसे आत्म-दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। आनन्द जैन नहीं था। उसने इससे पूर्व भगवान् महावीर के दर्शन कभी नहीं किए थे। किन्तु आज वह दर्शन करने के लिए चला तो सोचना होगा, इसमें भगवान् अधिक निमित्त हैं या भक्त ज्यादा निमित्त हैं? भगवान् तो भगवान् ही हैं। उनका Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ | उपासक आनन्द आकर्षण बड़ा आकर्षण है और वह श्रद्धालु बनाने वाला है। बड़े-बड़े राजामहाराजा और धनकुवेर अपनी श्रद्धा के सुमन उनके चरणों में अर्पित करते थे और हजारों आदमी उनके दर्शन के लिए उमड़ पड़ते थे। यह सब देख-सुन कर आनन्द के चित्त में भी लहर उठी, कि मैं भी जाऊँ और दर्शन करूँ ! इस रूप में भगवान् भी आनन्द के जाने में निमित्त बनते हैं। परन्तु भगवान् ने आनन्द के पास कोई संदेशा नहीं भेजा, कि मैं भगवान् हूँ और तुम मेरे पास आओगे तो तुम्हारी आत्मा का कल्याण हो जाएगा। आनन्द के हृदय पर इस रूप में भगवान् की छाप नहीं पड़ी। उसने तो भगवान् की महिमा सुनी और श्रेष्ठ नागरिकों को भक्ति-पूर्वक सेवा में उपस्थित होने के लिए जाते देखा तो जाने का निश्चय कर लिया। भगवान् का आकर्षण महान् होने पर भी भक्तों का आकर्षण भी बड़ा है। जो भगवान् की महिमा सुनेंगे और भगवान् की सेवा में एक बार उपस्थित हो जाएँगे, वे भगवान् की महत्ता को प्रत्यक्ष ही अनुभव करने लगेंगे, किन्तु उनकी महिमा कुछ तो भक्तों पर भी निर्भर है ही । इसीलिए तो आचार्य समन्तभद्र ने कहा हैन धर्मो धार्मिकैर्विना - धर्म के अनुयायियों पर धर्म निर्भर है। साधारण जनता में मौलिक रूप से धर्म के सिद्धान्तों का अध्ययन करने और समझने की योग्यता नहीं होती। ऐसा करना तो गिने-चुने विद्वानों का ही काम है 1 आम जनता किसी भी धर्म के अनुगामियों के व्यवहार को देख कर ही उनके धर्म के विषय में अनुमान लगाया करती है। जिस धर्म के अनुयायियों का आचरण प्रामाणिक, नीतिपूर्ण और सुन्दर होता है, लोग उस धर्म को भी अच्छा समझने लगते हैं और जिस धर्म को मानने वाले लोग अप्रामाणिक और अन्यायी होते हैं, उनके धर्म को भी वैसा ही समझ लेते हैं। इस रूप में धार्मिक पुरुष अपने धर्म का प्रतिनिधि है। आनन्द प्रभु के चरणों में पहुँच सका, इसका कारण भगवान् तो हैं ही, पर भक्त भी हैं। आप जैसे गृहस्थ भक्तों ने उसे प्रभु के चरणों में पहुँचा दिया। भगवान् पधारे हैं तो भक्तों को भी अपना पार्ट अदा करना चाहिए और इस प्रकार भगवान् तो पुजते हैं सो पुजते ही हैं परन्तु पुजारी भी उन्हें पुजवाते हैं। यह एक महत्त्वपूर्ण बात है। भगवान् हों तो क्या, आचार्य हों तो क्या, और साधु हों तो क्या, जनता के हृदय में श्रद्धा पैदा होनी चाहिए। हर्ष की लहर पैदा होनी चाहिए और भक्ति की लहर पैदा होनी चाहिए। हमने इस महत्त्वपूर्ण तथ्य को भुला दिया है और यही कारण है, कि हम अपनी श्रद्धा किसी एक केन्द्र में एकत्रित नहीं कर सकते। आज जनता की श्रद्धा बिखर गई है। जब तक वह एक केन्द्र में इकट्ठी, नहीं होगी -एक जगह स्थापित नहीं की जाएगी, वह धर्म के वृक्ष को पनपने नहीं देगी। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | गुणिषु प्रमोदम् । ३७ आज हमारी स्थिति यह है कि हम किसी एक आचार्य को अपना धर्मनायक बनाकर अपनी श्रद्धा प्रकट नहीं कर पाते और गिरोह बनते जा रहे हैं-गिरोहों में से गिरोह बनते चले जाते हैं। अढाई हजार वर्षों का जैनसंघ का इतिहास हमारी इस दुर्बलता का जीता-जागता इतिहास है। इस लम्बे काल में हम बिखेरने ही बिखेरने में रहे हैं। केन्द्रीयकरण की ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया गया और कदाचित् किसी ने ध्यान दिया हो तो हम नहीं जानते कि उसका कोई कारगर नतीजा निकला हो। जैनसंघ का इतिहास तो यही बतलाता है, कि हम बराबर विकेन्द्रीयकरण करने में ही लगे रहे हैं और सम्प्रदायों, गणों और गच्छों के रूप में नये-नये गिरोह बनाते चले यही कारण है कि आज जैनसंघ की किसी एक आचार्य के प्रति श्रद्धा नहीं रही है और सब अपने-अपने पक्ष को प्रबल बनाने का प्रयत्न करते हैं। इस कारण जैनसंघ की श्रद्धा बिखर गई है। हम न एक गुरु के रहे हैं, न एक आचार्य के होकर रहे हैं। जो भी आचार्य हैं या साधु हैं, वे यही कहते हैं कि ले लो हमारी समकित। इस प्रकार एक साधु दूसरे साधु की समकित को भी समकित नहीं समझता! गजब का अंधेर है। एक या दो वर्ष दीक्षा लिए नहीं हुए और समझ कुछ आई नहीं है और कहने लगे—लो मेरी समकित। ___और अबोध बच्चों को भी समकित दी जाती है। समकित क्या चीज है, यह न देने वाला जानता है और न लेने वाला ही जानता है। फिर भी आश्चर्य है, कि देने वाला दे देता है और लेने वाला ले लेता है। समकित भी मानो रोटी-पानी है। जिसने जब जिसे देना चाहा, तब दे दिया। जैन-सिद्धान्त तो समकित के विषय में कुछ और ही बात बतलाता है। समकित आत्म विशुद्धि से उत्पन्न होती है, मिथ्यात्व मोहनीय और अनन्तानुबंधी कषाय के दूर होने से आविर्भूत होती है। वह वरदान या पुरस्कार में मिलने वाली चीज नहीं है। फिर भी आज वह देने और लेने की चीज रह गई है। मैंने देखा एक साधु थे, जिन्हें अपने तत्व-ज्ञान का अभिमान प्रचुर मात्रा में था, किन्तु थे कोरे भद्रं भद्र ही। और उन्होंने मुझसे कहा—अजी, मैंने कितनों को ही तार दिया है। मैंने पूछा–महाराज, कैसे तार दिया है आपने ? तब उन्होंने एक रजिस्टर दिखलाया। उस रजिस्टर को वे अपने साथ लिए फिरते थे। उसमें उनके द्वारा तिरे हुए भक्तों की सूची थी। सब के नाम-ठाम और पूरे पते लिखे थे। वह सूची दिखला कर वे बोले—मैंने इतनों को समकित दे दी है। मैंने पूछा—इनमें कितने जैन और कितने अजैन हैं ? Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |३८ । उपासक आनन्द उन्होंने कहा—सभी जैन हैं। बच्चे गए और उनको कहानी या भजन सुनाए और समकित देना शुरू कर दिया। उन बच्चों को क्या पता कि तुमने धर्म का दान दे दिया है या शिष्य बना लिया है। ऐसी स्थिति में क्या काम आया वह समकित का देना ? हाँ, किसी एक आचार्य के नाम की ही समकित दिलाई होती तो संधैक्य की दृष्टि से कुछ न कुछ लाभ भी हो सकता था! अपने-अपने नाम की समकित देने से वह लाभ भी तो नहीं हो पाता! यह है आज की हमारी मनोदशा! ____ मैं एक जगह पहुँचा तो मुझसे पूछा गया कि गाँवों में प्रचार किया या नहीं किया ? मैंने कहा-कैसा प्रचार ? प्रचार दो तरह का है—एक भगवान् महावीर का और दूसरा अपने-अपने व्यक्तित्व का। आप किस प्रचार की बात पूछ रहे हैं ? ___ आजकल भगवान् का और भगवान् की वाणी का प्रचार होता है या नहीं, महावीर की महत्ता के दर्शन कराये जाते हैं या नहीं, यह तो किनारे रहा, किन्तु अपने-अपने व्यक्तित्व का प्रचार जरूर किया जाता है। गुरु साथ में हों तब भी अपनी ओर श्रद्धा मोड़ने का प्रयास किया जाता है। अपनी महत्ता का प्रचार करने की कोशिश की जाती है। इस कारण जनता के अंदर जीवन नहीं रहा है। जनता की श्रद्धा बिखर गई है और जनता में धर्म का सौरभ नहीं रहा है। कागज की पुड़िया में रखा हुआ कपूर उड़ जाता है--अणु-अणु करके बिखर जाता है, तो कोरा कागज रह जाता है, उसकी सुवास चली जाती है। सुवास तभी तक रहती है, जब तक उसके परमाणु इकट्ठे रहते हैं। __जनता के जीवन में धर्म की सुगन्ध पैदा करने के लिए उसकी श्रद्धा का केन्द्रीयकरण होना आवश्यक है। प्रत्येक साधु अपनी-अपनी प्रतिष्ठा का प्रचार न करे, अपनी ओर जनता को मोड़ने का प्रयत्न न करे इसके विपरीत अगर केन्द्र की ओर उसके प्रयत्न मुड़ जाएँ, अगर वह व्यक्तिगत ख्याति लाभ की इच्छा का त्याग कर दे, तो मैं समझता हूँ कि छोटा साधु भी महान् बन जाएगा। ऐसी दशा में उसकी प्रतिष्ठा की क्षति नहीं होगी, उसमें वृद्धि ही होगी। अभी-अभी आचार्य जवाहरलाल जी महाराज हो चुके हैं। उनसे आप सब भलीभांति परिचित हैं। मैं थोड़े समय तक ही उनके सम्पर्क में आया हूँ, और थोड़ा ही परिचित हो सका हूँ। एक बार बातचीत चल रही थी तो उन्होंने कहा—मिट्टी का ढेला लेते हैं और सूत लपेट देते हैं तो वह गणेशजी बन जाता है। इसी प्रकार यदि छोटे से छोटे साधु को भी आचार्य बना दिया जाए और उसके प्रति श्रद्धा अर्पित की Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गुणिषु प्रमोदम् । ३९ जाए तो वही महान् बन सकता है। हमारे यहाँ संस्कृत भाषा में पुराने जमाने से कहावत चली आ रही है-- अश्माऽपि भाति देवत्वं महद्भिः सुप्रतिष्ठितः। साधारण से पत्थर को जब बहुत लोग प्रतिष्ठा प्रदान करने लगते हैं तो उसमें देवत्व आ जाता है; अर्थात् देव समझा जाने लगता है। देखते-देखते ठुकराया जाने वाला पाषाण भी जब जन-समूह की श्रद्धा-भक्ति पाकर देवत्व की महिमा प्राप्त कर लेता है, तो साधारण साधु भी संघ के द्वारा श्रद्धा समर्पित करने पर महान् क्यों नहीं बन जाएगा ? और इसके विपरीत, बड़े से बड़े ज्ञानी को आप आचार्य बना दें और सामूहिक रूप में उसके प्रति श्रद्धा-भक्ति अर्पित न करें तो कुछ भी न होगा। वह ज्ञानी आचार्य भी निस्तेज और प्रभावहीन ही साबित होगा। किसी भी एक व्यक्ति में जब संघ का अखण्ड तेज केन्द्रित हो जाता है, तब वह महान् प्रभावशाली बन जाता है और उसका तेज इतना अधिक हो जाता है कि वह अकेले उसी व्यक्ति में नहीं समा पाता; उसकी प्रतिच्छाया सभी पर पड़ती है और उसका तेज संघ के प्रत्येक सदस्य को तेजस्वी बना देता है। संघ का तेज एकत्र पुंजीभूत होकर, सहस्र-गुना बढ़कर अत्यन्त शक्तिशाली बन जाता है और तब समग्र संघ को तेजोमय बना देने में समर्थ हो जाता है। ऐसी स्थिति में इतर लोगों पर भी उसका प्रभाव पड़ता है और वे उसके प्रति अतिशय रूप से आकृष्ट होते हैं। आचार्य जवाहरलाल जी महाराज की बात सुन कर मैंने सोचा—अगर संघ विचार करले कि हमें अमुक साधु को बड़ा बनाना है, उच्चकोटि का प्रभावशाली बनाना है और उसके पीछे सारी शक्ति लगा दी जाए और धूम मचादी जाए तो, उस साधु का व्यक्तित्व साधारण होने पर भी उसकी महिमा ऐसी बढ़ जाएगी, कि जैन तो क्या जैनतर भी समझने लगेंगे कि कोई बड़े ज्ञानी आए हैं। और सचमुच कोई बड़े ज्ञानी भी आ गए और हलचल न मची तो क्या होने वाला है ? वह भी औरों की तरह आएँगे और चले जाएंगे। कुछ प्रभाव नहीं पड़ने का, कोई आकर्षण नहीं होने का। __ क्या आपके सिद्धान्त किसी से नीचे हैं ? क्या आपके आदर्श किसी से हीन हैं ? नहीं। आप ऊँचे सिद्धान्तों और आदर्शों का प्रतिनिधित्व करते हुए भी दूसरों के सामने फीके क्यों पड़ जाते हैं ? कारण यही है, कि दूसरों ने अपनी श्रद्धा को केन्द्रित किया है और आपने अपनी श्रद्धा को इधर-उधर बिखेर रखा है। वह श्रद्धा जब तक एक में केन्द्रित न होगी, संघ पनपने नहीं पाएगा। कल्पना कीजिए, किसी ने एक बाग लगाया और जल की एक बूंद एक वृक्ष में तो दूसरी एक बूंद दूसरे वृक्ष में डाल दी, तो क्या वह बगीचा पनपेगा ? नहीं। हाँ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० | उपासक आनन्द यदि अनेक नगण्य वृक्षों को एक-एक बूँद से सींचने का मोह छोड़कर इने गिने चंद वृक्षों को ही लगाने का आदर्श रखा जाए, और उनको यथा आवश्यक जलधारा से सींचा जाए तो वे वृक्ष पनपेंगे, फूलेंगे और फलेंगे । आज स्थानक-वासी सम्प्रदाय के संगठन की बात चल रही है, और एक आचार्य बनाने की बात भी हो रही है। मैं चाहता हूँ, कि ऐसा ही हो, किन्तु एक बात हमें स्मरण रखनी है। एक आचार्य बनाकर यदि समग्र संघ, उनके चरणों में अपनी सम्पूर्ण श्रद्धा अर्पण करेगा, तभी संगठन सफल होगा। इसके अतिरिक्त एक आचार्य बना लेने पर भी यदि साधु अपने-अपने शिष्य अलग-अलग बनाते रहे, तो फिर अलग-अलग गुट बन जाएँगे । अतएव जो भी नये व्यक्ति दीक्षित हों, वे एकमात्र आचार्य के शिष्य हों । आज हमारी श्रद्धा आचार्य के प्रति उतनी नहीं है, जितनी अपने अलग-अलग गिरोह बनाने में है । आज का साधु अपनी समकित का प्रचार करने के लिए दौड़धूप करता है । कहीं भी जाता है, तो पहले समकित की बात कहता है ? बच्चों से, युवकों से और बूढ़ों से वह पूछेगा - तुमने किसे गुरु बनाया है ? अगर गुरु- आम्नाय नहीं ली है, तो ले लो। और इस तरह बिना समझे-बूझे अंट-संट पाटियाँ बोलकर मानो गोबर का पिण्ड उसके पल्ले बाँध देता है ! समकित लेने वाला सोचता हैबस, मेरा काम फतह हो गया। अब चौथे गुणस्थान में तो कोई कसर ही नहीं रही । महाराज मेरे गुरु बन गए, अब करना ही क्या है ? इस प्रकार उस भोले आदमी का विकास वहीं रुक जाता है। वह एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाता। उसमें झूठा आत्म-सन्तोष पैदा हो जाता है। मतलब यह है, कि जहाँ अपने व्यक्तित्व का प्रचार करने की वृत्ति होती है, वहाँ सारी श्रद्धा को केवल अपनी ओर ही बटोरा जाता है । आज फूट के कारण हमारे समाज की दशा बद से बदतर होती जा रही है। श्रद्धा इधर-उधर बिखर रही है। साधु अपनी खिचड़ी अलग पकाने में लगे हैं और श्रावक, साधुओं के मुँह से बढ़ाई और प्रतिष्ठा पाने में लगे हैं। दोनों सत्य की राह से दूर होते जा रहे हैं। मनुष्य गुणों से ही बड़ा बनता है। गुणों से ही जीवन का विकास होता है, और गुणों से ही आत्मा का कल्याण होता है। एकता और संगठन, संघ का प्राण है । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणिषु प्रमोदम् । ४१| साधु और श्रावक इस तथ्य को समझें और संघ का और धर्म का प्रभाव बढ़ाने में तत्पर हों, तो उनका भी कल्याण होगा। भगवान् महावीर तो महामहिमा से मण्डित थे ही, किन्तु उस समय का जैनसंघ भी अखण्ड था। लोगों की श्रद्धा बिखरी नहीं थी । समग्र संघ की श्रद्धा भगवान् के ही चरणों में अर्पित थी । यह सोने में सुगंध थी। इस कारण आनन्द जैसे जैनेतर लोग भी अनायास ही जैनसंघ में सम्मिलित हो सके। आनन्द के चरित से यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण सन्देश हमें मिल रहा है। कुन्दन - भवन, अजमेर ब्यावर, १९-८-५० Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द का प्रस्थान यह उपासकदशांगसूत्र है और आनन्द के जीवन का वर्णन आपके सामने चल रहा है। आनन्द के घर सांसारिक दृष्टि से सब तरह का आनन्द है। उसके पास विपुल वैभव है और प्रचुर सम्पत्ति है। उसके घर में दिन-रात लक्ष्मी की झंकार होती रहती है; किन्तु लक्ष्मी की झंकार में भी वह धर्म के मार्ग को भूला नहीं है, अपने कर्तव्य को भूला नहीं है। धन और धर्म, दोनों में से उसने धर्म का चुनाव किया था। ___ साधारण रूप से देखा जाता है, कि मनुष्य जब अकिंचन होता है, तब उसे चारों ओर से गरीबी सताती है, और वह आर्त हो उठता है, तो उसे भगवान् याद आते हैं, साधु याद आते हैं, और धर्म-कर्म की बात उसके मुँह से निकलती है। मगर ज्यों ही उसके भाग्य ने पलटा खाया, उसे लक्ष्मी की गर्मी मिली, और धन का नशा चढ़ा कि दिल और दिमाग फिर गया। तब भगवान् को वह भूल जाता है, और गुरुजी भी ताक में एक ओर रख दिए जाते हैं। धर्म-कर्म की बातें भी वह करना भूल जाता है। इसी बात को एक कवि के शब्दों में यों समझिए दुख में सुमरन सब करें, सुख में करे न कोय। जो सुख में सुमरन करे, दुख काहे को होय॥ कवि के कथनानुसार सुख में भगवान् को सभी भूल जाते हैं, और यहाँ पर 'सभी' शब्द का अर्थ है, अधिकांश लोग! वास्तव में, सांसारिक दृष्टि से अपने अच्छे दिनों में ज्यादातर लोग भगवान को भूल जाते हैं। सोने के सिंहासन का नशा एक बहुत बड़ा नशा है। वह नशा उस आदमी के दिल और दिमाग को पागल बना देता है। कहा गया है कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय। वा खाये बौरात है, या पाए बोराय॥ कनक का अर्थ संस्कृत भाषा में सोना भी होता है, और धतूरा भी होता है। कवि कहता है—कनक अर्थात् धतूरे की अपेक्षा कनक अर्थात् सोने में सैकड़ों गुना नशा अधिक होता है। दुनिया में धन का नशा सबसे अधिक भयंकर होता है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द का प्रस्थान | ४३ आप कहेंगे, सोने में नशा कहाँ है ? धतूरे का नशा तो प्रसिद्ध है, परन्तु सोने में नशा कहाँ से आया ? परन्तु ऐसी बात नहीं है। धन में बड़ा नशा है। धतूरे को हाथ में लिए रहिये, नशा नहीं चढ़ेगा। बोरी भरकर सिर पर रख लीजिए, तब भी नशा नहीं चढ़ेगा। खाएँगे, तभी नशा चढ़ेगा। शरीर में जाएगा, हरकत शुरू करेगा, तब पागलपन शुरू होगा। परन्तु सोना तो दीख पड़ते ही नशा चढ़ा देता है, और जब यह हाथ में आ जाता है, तब मनुष्य धर्म-कर्म सभी को भूल गहरे नशे के बीच मदहोश हो जाता है। तो, इतनी बड़ी गर्मी है, सोने में। इतना गहरा नशा है, इस कनक में। सचमुच वे भाग्यशाली हैं, जो सोने को पाकर भी उसे हजम कर जाते हैं। जो हजम कर जाते हैं, उन्हें नशा नहीं चढ़ता। बोल-चाल में, व्यवहार में, बिरादरी में, परिवार में कहीं भी नशा नहीं चढ़ता। उन्हें भाग्यशाली समझना चाहिए। अधिकांश लोग तो धन को पाकर पागल ही हो जाते हैं। धन मनुष्य को अहंकारी बनाता है 1 हाँ तो, मैं आनन्द की बात कह रहा हूँ। उसके पास कनक था, परन्तु उसका नशा उस पर नहीं चढ़ा था । यों एक-दो रुपये की गर्मी भी बड़ी भयंकर होती है। हजार दो हजार तिजोरी में पड़ जाँए, तो जमीन पर पैर भी नहीं पड़ता । बहिनें गहने पहनकर जब बाजार में निकलती हैं, तो उनकी यही भावना रहती है, कि उनके गहनों की चमक सबको अपनी ओर आकर्षित करे। सभी उसके पास वाले सोने को देखें । बिरादरी में किसी की साता पूछने जाएँगी तो उसके दुख-दर्द को पूछना तो दूर रहा, वहाँ भी अपने गहनों की चर्चा करेंगी। किसी आनन्द उत्सव में जाएँगी, तो वहाँ आनन्द के गीत नहीं गाएँगी, गहनों की ही चर्चा चलाएँगी। और धर्म का उपदेश सुनने आएँगी, तो उपदेश नहीं सुनेंगी, गहनों की चर्चा सुनाएँगी। क्यों न हो, सोने की गर्मी जो है । उसे हज़म कर जाना क्या कोई साधारण बात है। -- आनन्द के पास बारह करोड़ सोनैए का धन था। वह धन आकाश से नहीं बरस पड़ा था, आखिर कमाया हुआ था। उस लक्ष्मी की झंकार उसके यहाँ रहती थी । मगर आनन्द ने वह जादू पैदा किया था, कि जहर खाकर भी उसे जहर नहीं चढ़ा । कनक को पाकर भी उसे नशा नहीं चढ़ने पाया । लक्ष्मी उसकी दासी थी, वह उसका दास नहीं था । अभिप्राय यह है, कि धन जहर है, और उसको अमृत बना सकता है—उस धन के द्वारा अपना, और जनता का कल्याण कर सकता है, वह शिवशंकर बन जाता है। आपने पुराण सुना होगा। जब देवी-देवता अमृत की खोज में भटकने लगे, तब उन्हें पता चला कि अमृत समुद्र में है। तब समुद्र को मथने का विचार किया। मथने लगे तो सबसे पहले जहर निकला। पहले अमृत नहीं निकला, हलाहल जहर Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४४ उपासक आनन्द निकला। देवी-देवता विचार में पड़ गए, कि कौन पीए जहर ? जो पीएगा वही समाप्त हो जाएगा और फिर अमृत उसके क्या काम आएगा? इन्द्र से कहा गया तुम बहुत शक्ति-शाली हो, और देवों के राजा कहलाते हो। तुम इसे ले लो और इसे पीलो। इन्द्र ने कहा क्यों, मुझे मार डालना चाहते हो क्या ? विष्णु से कहा गया-तुम्हीं इसे ग्रहण करो। तब विष्णु बोले-हमारी भी हिम्मत नहीं है। हम तो अमृत के लिए आए थे, जहर पीने के लिए नहीं। __ शंकर ने कहा-अमृत तो मिलने ही वाला है, किन्तु अगवानी जहर से है। जिसमें जहर पीने का सामर्थ्य होगा, वही अमृत भी पी सकेगा। अगर हम इस जहर को नहीं पचाएँगे, तो अमृत कहाँ से पाएँगे? और पाएँगे भी तो उसे कैसे पचाएँगे? विष को पचाना सरल नहीं बड़ा ही कठिन है। तब ही किसी ने कहा--तो शंकर जी, आप ही इसे पी डालिए न ? शंकरजी ने उस जहर को शान्त भाव से पी लिया। उसे अन्दर नहीं उतरने दिया, और न बाहर ही आने दिया। गले में ही रख लिया, कंठ में ही दबा लिया। इस कारण वे नील-कण्ठ हो गए। शिव का गला विषपान से नीला पड़ गया था। शंकर जहर को पीकर हजम कर सके, तो वे शिव शंकर बने और उन देवीदेवताओं को अमृत पान करा सके। जो मनुष्य, समाज का अगुआ या नेता बनना चाहता है, और देश का, परिवार का या पंचायत का मुखिया बनना चाहता है, उसे जहर पीने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। उसके लिए उसकी निन्दा, द्वेष और घृणा आदि जहर ही हैं, जहर से भी बड़े जहर हैं। किसी की निन्दा हुई, और वह जहर खाकर मर गया। वह क्यों मर गया ? इसलिए कि वह निन्दा के जहर को हजम नहीं कर सका। नेता को पहले क्या मिलता है? बड़े बनो और हर तरफ से फूलों के हार ही मिलें, यह मुश्किल ही समझो। राष्ट्र की बात तो दर रही, जिसे अपने परिवार का नेता भी बनने का सौभाग्य मिलता है, उसे भी जहर ही पीने को मिलता है। अमृत दूर है। परिवार वालों से सेवाएँ मिलना तो अभी दूर है, पहले संघर्ष है। द्वेष, ईर्ष्या और घृणा आदि को शान्त भाव से पीना पड़ेगा, और उसे भीतर तक नहीं उतरने देना होगा! तब कहीं शंकर बना जाएगा। किसी कवि ने कहा है... मनुज दुग्ध से, दनुज रुधिर से, अमर सुधा से जीते हैं। किन्तु हलाहल इस जगती का शिवशंकर ही पीते हैं। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आनन्द का प्रस्थान | ४५/ मनुष्य संसार में आता है, और आँख खोलते ही दूध पीता है, और बढ़ता जाता है। राक्षस खून पीता है और गुलछर्रे उड़ाता है। उसे दूसरे का रक्त पीते समय तनिक भी दया नहीं आती। वह तो उसकी प्रकृति है। देवता अमृत पर जिया करते हैं। देव अमृत-प्रिय होते हैं। हाँ, तो मनुष्य दूध, राक्षस रक्त और देवता अमृत पीते हैं, किन्तु उस हलाहल जहर को कौन पीता है? उसे तो शिव-शंकर ही पीएँगे। वह शंकर, जो जगत को सुख-शान्ति देने को आए हैं। उसका कल्याण करने आए हैं। यह कथा तो एक अलंकार है, वस्तु स्थिति क्या है, इसी बात पर ध्यान दीजिए। आप तो अपने जीवन की कहानी पढ़िए, उस पर विचार कीजिए और जीवन के समुद्र का मन्थन कीजिए। जब समाज या राष्ट्र का मन्थन किया जाता है, तब पहले संघर्ष का जहर निकल कर सामने आता है। उसे पीकर भी मरना नहीं होगा। जो उसे पीकर मर गया, वह गया और जो उसे हजम कर गया, वह अमृत का भागी बन गया, अमर बन गया और शंकर बन गया। __ कई भाई उपवास में भी पारणा की चर्चा करते हैं। एक-दूसरे को पारणा के लिए आमंत्रण देते हैं और कहते हैं—मेरे यहाँ पारणा करना। इस प्रकार उपवास में भी पारणा की चर्चा चल पड़ती है; किन्तु ऐसा करना उचित नहीं। पारणा के दिन ही पारणा का स्मरण करना चाहिए। मगर जब उपवास में चर्चा चल पड़ती है, तब कहते हैं-मैं इतना दूध या घी पी सकता हूँ। मैं हलवा-कचौड़ी खाता हूँ। सब हज़म हो जाता है। दूसरा कहता है—पी तो जाओगे, किन्तु हजम भी कर सकोगे या नहीं ? घी पीने का मतलब यह नहीं, कि नाल की तरह मुँह में उड़ेल लिया। घी और दूध मर्त्यलोक का अमृत कहलाता है, किन्तु जब हजम नहीं होता, तो वही जहर बन जाता है। उपवास की अपेक्षा पारणा में अधिक संयम की आवश्यकता है। अभिप्राय यह है, कि मनुष्य जिसे हजम कर सकता है, वह अमृत हो जाता है, और जिसे हजम नहीं कर पाता, वह अमृत भी जहर का काम करता है। अमृत या जहर का मिलना या पीना बड़ी बात नहीं है, किन्तु उसे हजम कर पाना ही बड़ी बात है। विषपान करके उसे पचा लेना शंकर का ही काम है। धन जब हजम नहीं होता, तब वह भी नशा और जहर बन जाता है। हम भी कहते हैं, और हजारों अन्य परम्पराएँ भी इसे जहर कहती चली आई हैं। गुरु के गुरु Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ । उपासक आनन्द । ने भी यही कहा है कि यह जहर है। जीवन की कला, विष को अमृत बना सकती है। ___आनन्द के पास बारह करोड़ का धन था, और चालीस हजार गायें थीं और इतने धन के साथ उसे बहुत बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त थी। अपने नगर में वह राजा के बराबर प्रतिष्ठित समझा जाता था। इतनी महान् प्रतिष्ठा किसे मिलती है ? उसके लिए यह गौरव की बात थी। मगर एक आनन्द था, कि इस जहर को पीकर हजम कर सका? वह हजम कर सका, इसी कारण उसे नशा नहीं चढ़ा। आनन्द अपने कर्तव्य को नहीं भूला। जब उसे मालूम हुआ, कि भगवान् पधारे हैं, तब क्या वह बैठा रहा? उसने इससे पहले भगवान के दर्शन नहीं किए थे। वह जैन नहीं बना था, फिर भी अपने साथियों से, नगर-निवासियों से उसने भगवान की महिमा सुनी और उसकी धार्मिक मनोवृत्ति होने के कारण उसकी भावना जागी। उसका मन सद्गुरु के चरणों की खोज में रहा था। अतएव श्रद्धा-शील भक्त आनन्द के हृदय में आनन्द की लहर पैदा हुई। वह उस लहर में बह गया, और भगवान के दर्शन करने, उनकी वाणी सुनने और उपासना करने के लिए तैयार हो गया। उसने सोचा__एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ, तं महाफलं . . . . . . . . . . . 'जाव गच्छामि ...... "जाव पन्जुवासामि; एवं संपेहेइ। इस प्रकार विचार करके उसने स्नान किया, और शुद्ध वस्त्र धारण किए। राज-सभा की वेष-भूषा अलग है, बिरादरी और सभा-सोसाइटी में जाने की वेष-भूषा अलग है, और धर्म-सभा की वेष-भूषा न्यारी है। धर्म-सभा में जाने के लिए सादगी एवं स्वच्छता परम आवश्यक है। ___आनन्द ने जो वस्त्र पहने, वे सादे और शुद्ध थे। वस्त्र शुद्ध कैसे होते हैं ? वस्त्रों में कोई काम, क्रोध, मोह, माया आदि तो होते नहीं, तो उनकी शुद्धता यही है, कि उनमें मैल न हो, कुत्सित व गंदे न हों और ऐसे न हों, कि पहन कर जाने पर लोगों को घृणा उत्पन्न हो, उनकी सुरुचि में गड़बड़ पैदा हो! मनुष्य को समाज में रहना है, तो उसे वस्त्र भी समाज के योग्य ही पहनने चाहिए। समाज के योग्य होने का अभिप्राय यह भी नहीं, कि तड़क-भड़क वाले हों। वस्त्र ऐसे भी न हों, कि जिन्हें पहन कर समाज में जाने पर अलग ही दिखाई दें। वस्त्र साधारण हों, मगर गंदे और मैले न हों। सुधर्मा स्वामी ने यहां तड़क-भड़क का वर्णन नहीं किया है, कि जो बिजली की तरह चमचमाते हों! वे यही कहते हैंकि ठीक थे, सादे थे और शुद्ध थे। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द का प्रस्थान । ४० अभिप्राय यह है, कि वस्त्र ऐसे होने चाहिए, जो समाज में पहन कर जाने पर नं तो गंदगी और मलीनता के कारण कुरुचि पैदा करें और न ऐसे हों, कि अपनी तड़क-भड़क के कारण दूसरों के दिल में डाह और ईर्ष्या पैदा करें। आपके वस्त्रों को देखकर दूसरे लोग न घृणा से मुँह फेर लें और न यह सोचें, कि इन्होंने ऐसे वस्त्र पहने हैं, तो मैं भी ऐसे ही मूल्यवान वस्त्र बनवाऊँ। सौन्दर्य दूसरे के मन में असूया उत्पन्न करता है। ___कई लोग गंदे और मैले-कुचैले वस्त्र पहनते हैं, और ऐसा करने में वे अपने त्याग की उच्चता समझते हैं, और समझते हैं, कि साफ-सुथरे वस्त्र पहनने से हमारा त्याग नीचा हो जाएगा। उन्होंने वस्त्रों की मलीनता में ही अन्तःकरण की उज्जवलता समझ रखी है। मगर वस्त्रों की मलीनता आत्मा को निर्मल नहीं बना सकती। अतएव यह समझना गलत है, कि वस्त्रों के मैले होने से त्याग ऊँचा होता है, और वस्त्र साफ सुथरे हों, तो त्याग नीचा होता है ! स्वच्छता पाप नहीं। कभी-कभी ऐसा होता है, कि जिनके पास सम्पत्ति है, वे उसका उपयोग कर लेते हैं, परन्तु बेचारे गरीबों की तरफ उनका ध्यान नहीं जाता। वे नहीं सोचते, कि गरीबों पर मेरे बहुमूल्य वस्त्रों का क्या असर पड़ रहा है, और वे ऐसे वस्त्र कैसे बनवाएँगे? ऐसे लोग गरीबों के दिल में कांटा पैदा कर देते हैं। किन्तु अच्छा नागरिक वही है, जो समाज में फूल बनकर रहे, कांटा बनकर नहीं। जो फूल बनकर रहते हैं, उन्हें कहीं भी सभा-सोसाइटी में जाने का अधिकार है, और वे कहीं भी पहुँच सकते हैं। वे जहाँ कहीं पहुँचेंगे, अपने सादा रहन-सहन के कारण दूसरों के दिल में डाह पैदा नहीं करेंगे। इसके विपरीत, जो दूसरों की आँखों में खटकने वाले, गरीबों के अन्तःकरण में ईर्ष्या की आग जलाने वाले और खुद में अकड़ पैदा करने वाले वस्त्र पहनते हैं, ऐसे नागरिकों को सभा-सोसाइटी में जाने का अधिकार नहीं है। वे आग लगाने वाले हैं, आग बुझाने वाले नहीं। तो, होना यह चाहिए – हम आग बुझाने वाले हैं, हम आग लगाना क्या जानें। श्रीमंत की श्रीमंताई आग लगाने में नहीं है. आग बझाने में है। वे जहाँ कहीं जाएँगे, और वहाँ घृणा, द्रोह, डाह, ईर्ष्या और वैमनस्य की आग लगी होगी, तो वे उसे बुझाएँगे, तो जनता उनका सच्चा सम्मान करेगी, उनकी प्रशंसा करेगी और कहेगी—नहीं साहब, करोड़पति होकर भी कितना सादा रहन-सहन है, उनका। इस प्रकार वे आपके द्वारा आदर्श ग्रहण कर सकेंगे। आपको दूसरों के अनुकूल बनना चाहिए। बहिनो! तुम भी जब निकलो, तो तुम्हारी वेष-भूषा ऐसी हो, कि लोग कहने लगें करोड़पति घराने की बाई कितने सादे वस्त्र पहने है। और लोग अपने पुत्र, पौत्र Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |४८ । उपासक आनन्द । और पुत्री वगैरह को दृष्टान्त के रूप में तुम्हारा नाम लेकर शिक्षा दे सकें। इस प्रकार की जिंदगी को मैं महत्त्व की जिंदगी समझता हूँ। शास्त्रकार आनन्द के विषय में कहते हैं एवं संपेहेत्ता पहाए, सुद्दबेसाई..... . . . "जाव अघमरुग्घा चरणा लंकियसरीरे सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ। अर्थात्, इस प्रकार विचार कर आनन्द ने स्नान किया, शुद्ध और सादे वस्त्र धारण किये, और अल्प तथा मूल्यवान् आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया, और प्रभु के दर्शन के लिए अपने घर से निकल पड़ा । आनन्द ने जो वस्त्र पहने वे शुद्ध अर्थात् निर्मल थे। गंदे नहीं थे, समवसरण में जाने योग्य थे। मैंने कई गाँवों में देखा है, कि श्रावकों की मुखवस्त्रिका, आसन और पूंजनी आदि जो भी धर्मोपकरण होते हैं, इतने गंदे होते हैं कि सड़ते रहते हैं, बदबू देते हैं, और पता नहीं जब से लिए हैं, कभी भी स्वच्छ किए भी गए हैं या नहीं ? ऐसे उपकरणों को देख कर दूसरे लोग धर्म की अवहेलना करते हैं। उन्हें इस बात का भी ध्यान नहीं होता, कि गन्दगी से संमूर्छिम जीवों की उत्पत्ति होती है। उलटा, वे तो गंदगी रखने में धर्म समझते हैं। उनकी समझ में जहाँ जितनी गंदगी होगी, वहाँ उतना ही धर्म होगा! मगर लोगों ने यह गलत रास्ता अख्तियार कर रखा है। प्रायः धर्म के क्षेत्र में व्यवहार को और व्यवहार के क्षेत्र में धर्म को भुला दिया जाता है। किन्तु जब तक आत्मा शरीर से बिलकुल जुदा नहीं हो जाती, तब तक धर्म और व्यवहार भी एकदम अलग-अलग नहीं हो सकते। इस सचाई को हमें भूलना नहीं चाहिए। धर्म और व्यवहार अलग-अलग नहीं होते। आनन्द ने सादे और स्वच्छ वस्त्र तो पहने ही थे, साथ ही उसके पहनने का ढङ्ग भी अच्छा था। वस्त्र मिल गए, और साफ-सुथरे भी हुए, किन्तु उनके पहनने का ढङ्ग ठीक न हुआ, सलीका न हुआ, तो सब गुड़-गोबर हो गया। वस्त्र सादे हों, और स्वच्छ हों और उनको पहनने का सलीका भी हो, जिससे वे देखने वालों को भले लगें। यह भी एक कला है। इस कला के अभाव में, वस्त्रों में चाहे रत्न टांक दें, वे अच्छे नहीं लगेंगे। अतएव आनन्द ने सलीके के साथ वस्त्र धारण किये। वस्त्रधारण करने की भी एक कला होती है, एक ढंग होता है। आप कहेंगे, कि महाराज तो गृहस्थों की बातों में उलझ गए। अच्छा तो आगे चलता हूँ ; किन्तु भाई, आगे की बात भी संसार की ही है। वह है, कि आनन्द ने ऐसे गहने पहने जो वजन में हल्के; किन्तु कीमत में भारी थे। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द का प्रस्थान | ४९ इस सम्बन्ध में, मेरा जो दृष्टिकोण है, वह आपको बतला दूँ । 'अप्पमहग्घाभरण' का अर्थ साधारण तौर पर यह किया जाता है, कि गहने वजन में अल्प थे, पर मैं समझता हूँ, कि गहने ही अल्प थे। दोनों अर्थों का अन्तरें आपकी समझ में आ जाना चाहिए, बहुत गहने भी वजन में अल्प हो सकते हैं, पर मूल-प -पाठ में ऐसा कोई शब्द नहीं, जिससे 'अप्प - अल्प' को वजन का विशेषण समझा जाए। यहाँ वजन की कोई बात ही नहीं है। अल्प शब्द 'आभरण' का विशेषण है, और उसका सीधा अर्थ यही होता है, कि आनन्द ने जो गहने पहने, वह संख्या में थोड़े थे, किन्तु बहुमूल्य थे । मध्य-काल में गहने पहनने का रिवाज अधिक था । आज कम होता जा रहा है। विशेषत: पुरुष वर्ग बहुत कम गहने पहनता है । बहिनें तो आज भी अपने अङ्ग अङ्ग में गहने पहनती हैं, और इधर मारवाड़ में तो और भी अधिक । उनका वश चले तो वे आँख की पलकों में भी कोई गहना पहन लें, पर उनके बस की बात नहीं है। मैं पूछता हूँ, यह शरीर किसलिए मिला है ? साधना करने के लिए, काम करने के लिए या गहने पहनने के लिए ? आँखें देखने के लिए, कान सुनने के लिए और नाक खुशबू - बदबू मालूम करने के लिए है । परन्तु कान-नाक को छेद छेद कर उन पर भी गहने लाद दिए गए हैं। हाथ पुरुषार्थ करने के लिए हैं, किन्तु उन्हें भी गहनों से विभूषित कर लिया जाता है। पैर चलने-फिरने को हैं, लेकिन वे भी गहनों की घोड़ी बन गए हैं। गर्दन शरीर का महत्त्वपूर्ण भाग है, जो आँख कान आदि अवयवों को अपने ऊपर धारण किए हुए है; किन्तु उसे भी हार आदि अनेक गहनों से लाद लिया जाता है। नारी आभूषण - प्रिय होती है। -- अकेली आँखें कैसे बच गईं, समझ में नहीं आता। इन बेचारियों का क्या अपराध हुआ, कि इन्हें नहीं सिंगारा गया ? अथवा आँखों ने कोई पुण्य किया होगा, कि वे गहनों का बोझा ढोने से बच गईं हैं ? इस प्रकार सारा शरीर गहनों से लाद लिया जाता है, और यह भुला दिया जाता है, कि वास्तव में शरीर किस लिए मिला है ? शरीर का मुख्य उद्देश्य गहने पहनना ही समझ लिया गया है। जहाँ ऐसी स्थूल दृष्टि हो वहाँ सूक्ष्म तत्वों की क्या चर्चा ? आभूषण पहनने की भी एक सीमा होनी चाहिए। यहाँ वजन में कम हों या अधिक हों, यह प्रश्न नहीं है। आनन्द ने जो गहने पहने वे अल्प थे। घर में जो कुछ हो, सब लाद कर वह नहीं चला था । उस समय की सामाजिक परिपाटी को निभाने की दृष्टि से उसने थोड़े से गहने पहन लिए थे, परन्तु थे वे बहु-मूल्य | Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DOCTOR ५०। उपासक आनन्द शब्द-शास्त्र की दृष्टि से यही आशय उचित मालूम होता है। पहले 'वजन' या उसके पर्याय वाचक किसी शब्द को कहीं से घसीट कर लावें, और फिर 'अल्प' शब्द के साथ उसका नाता जोड़ें; इतनी क्लिष्ट कल्पना करने की आवश्यकता ही क्या है ? उस 'अल्प' का आभरणों के साथ जो सीधा सम्बन्ध है, उसे तोड़ने की भी क्या आवश्यकता है ? हाँ, अर्थ में कोई असंगति पैदा होती हो, तो क्लिष्ट कल्पना का भी आश्रय लेना पड़ता है। परन्तु यहाँ तो असंगति के बदले संगति ही ज्यादा दिखाई देती है। भगवान् की सेवा में, आनन्द जैसा धर्म-प्रेमी गृहस्थ, बहुत सारे गहने पहन कर जाए, इस कल्पना के बदले थोड़े-से गहने पहन कर जाना ही अधिक युक्ति-संगत जान पड़ता है। ऐसी स्थिति में जोड़-तोड़ करने की अपेक्षा मूल-पाठ का सरल और सीधा अर्थ करना ही योग्य है। अभिधा से काम चलता हो, तो वहाँ लक्षणा की आवश्यकता नहीं। ___मैंने इस वाक्य का यही अर्थ समझा है, और आपको संक्षेप में समझाने का प्रयत्न किया है। मेरी बात आपकी समझ में न आए, तो मेरी बात मेरे पास है। इस प्रकार तैयार होकर आनन्द अपने घर से निकला और दर्शन करने के लिए चला। उसने छत्र-धारण किया। छत्र के ऊपर फूल मालाएँ पड़ी हुई थीं। कोरंट बहत पुराने पौधे का नाम है। आजकल जाँच हुई है, और विचारकों ने निर्णय किया है, कि वह हजारा है। इसके फूल सफेद, पीले और लाल होते हैं। इस प्रकार हजारे के फूलों की मालाएँ आनन्द के छत्र पर पड़ी हुई थीं। सुना गया है, कि आजकल छत्र धारण करने में भी जाति-पाँति का प्रश्न पैदा हो जाता है। जहाँ तक छत्र का प्रश्न है, जाति-विशेष के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिए। आप ऊँची जाति के लोग तो छत्र लगाकर चलें, और कोई छोटी समझी जाने वाली जाति का व्यक्ति छत्र लगाए, तो उसे सहन न कर सकें, और संघर्ष करने लगें, यह उचित नहीं है। मैंने सुना है, कि बड़ी जाति वालों ने छोटी जाति वालों के छत्र के टुकड़े-टुकड़े कर दिए, और कहा तुम छत्र लगाओगे तो हम क्या लगाएँगे? यह जाति का मद है। _इसी तरह छोटो जाति वाले घोड़े पर चढ़ते हैं, तो बड़ी जाति वाले कहते हैं, तुम घोड़े पर चढ़ोगे, तो हम क्या करेंगे? सुना है, राजस्थान में कई जगह अन्य बहिनों को पैर में चाँदी के गहने नहीं पहनने दिए जाते। इस बात को लेकर कभी-कभी बड़ा संघर्ष हो जाता है, और इन संघर्षों में अब तक कइयों की जान चली गई है। यह सब बड़ी जाति वालों का बड़ा अन्याय है। यही हाल रहा, तो कल कोई कहने Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आनन्द का प्रस्थान | ५१|| लगेगा—तुम अन्न-खाना और पानी पीना भी छोड़ दो, तुम अन्न खाओगे तो हम क्या खाएँगे? तुम पानी पीओगे तो हम क्या पीएँगे? ___हाँ तो, इस प्रकार आनन्द जब रवाना हुआ, तो वह अकेला नहीं था। अच्छी खासी मनुष्यों की टोली उसके साथ थी, और वह आनन्द पूर्वक भगवान् के समवसरण की ओर जा रहा था। मन में प्रभु के स्वरूप का चिन्तन चल रहा था। .. कहाँ से इकट्ठी की आनन्द ने वह टोली ? जान पड़ता है, वह उसके परिवार की टोली होगी और उसमें उसके खास-खास मिलने-जुलने वाले, संगी-साथी और नौकर-चाकर होंगे। उसका परिवार बहुत बड़ा था। सबको प्रभु की सेवा में ले गया। ___घर में कोई आनन्द-उत्सव हो, और मिठाई बनी हो, तो सब परिवार एवं नौकरों-चाकरों को इकट्ठा करके ही खाया जाता है, अकेले नहीं। सब साथ बैठकर खाते हैं, तभी आनन्द आता है। कोई अच्छी चीज अकेले खाली तो जीभ को भले ही मिठास आ गई, किन्तु हृदय में मिठास पैदा नहीं होती। चीज की मिठास आ जाती है, परन्तु प्रेम और आनन्द की मिठास नहीं आती। साथ में बैठकर खाई हुई चीज की मिठास उस मिठास से हजार गुनी अधिक होती है। उस मिठास का मूल्य नहीं आंका जा सकता। जब आनन्द को मालूम हुआ, कि भगवान् महावीर पधारे हैं, तो उसने बहुतों से कहा—चलो! जीवन का संघर्ष तो सदा ही चलता रहेगा। किन्तु प्रभु का पदार्पण कब-कब होता है ? ऐसा सौभाग्य कब-कब मिलता है? यह कल्पवृक्ष घर के आंगन में आ गया है, और यह गङ्गा बार-बार आने वाली नहीं है। लोग दूर-दूर से जिनका दर्शन करने आते हैं; वह हमारे तो घर में ही पधार गए हैं। तो क्यों न सब के सब दर्शन करने चलें, और अपना जीवन सफल करें? ___ मैं समझता हूँ, आनन्द ने अपनी शान के लिए टोली नहीं बनाई होगी। फिर भी निश्चित रूप में कैसे कहा जा सकता है, कि उस समय आनन्द की मनोवृत्ति कैसी रही होगी ? किन्तु आनन्द का मन धर्मोल्लास से भरा है, ऐसी स्थिति में यह संभावना कम ही है, कि वह अपने यश के लिए इतनी बड़ी भीड़ लेकर चला होगा। अपने जीवन में यश तो उसने पाया था। ___जो भी हो, आनन्द जन-समूह के साथ प्रभु के दर्शन करने को चला, तो रास्ते में से भी वह दूसरे लोगों को अपना साथी बनाता चला होगा, और इस तरह उसके साथ एक बड़ा-सा जन-समुदाय इकट्ठा हो गया होगा.। जहाँ लड्डुओं की प्रभावना बँटती है, वहाँ कोई अकेला नहीं जाता, वरन् घर के तमाम बाल-बच्चों को साथ लेकर जाता है। एक इस हाथ की तरफ है और दूसरा Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |५२ । उपासक आनन्द उस हाथ की तरफ है। एक आगे है, तो एक पीछे है। लड्डुओं की प्रभावना जो बँट रही है। मोदक प्रभावना बड़ी भीड़ सहज ही एकत्रित कर देती है। __यहाँ भी तो लड्डुओं की प्रभावना बटने वाली है। अजी, लड्डुओं की क्या, अमृत की प्रभावना होने वाली है। महाप्रभु महावीर के मुखचन्द्र से अमृत की वर्षा होने वाली है। लड्डू तो थोड़ी देर तक मुँह मीठा रखता है, परन्तु यह अमृत तो ध्रुव माधुर्य पैदा करने वाला है। सदा के लिए तृप्ति प्रदान करने वाला है। इस अमृत को कौन विवेकवान् नहीं पीना चाहेगा ? कौन अपने परिवार को उससे वंचित रखना पसन्द करेगा? बस, आनन्द अपने परिवार के साथ रवाना हुआ। आनन्द सब को आनन्द में सम्मिलित करके चला है। इसे कहते हैं, सामूहिक जीवन और सामूहिक भावना। परिवार में सब समान योग्यता वाले नहीं होते। हाथ की पाँचों उँगलियां बराबर नहीं होतीं, उसी प्रकार परिवार में भी सब समान नहीं होते। आप धर्म-कार्य में हिस्सा लेते हैं। सामायिक करते हैं, और दर्शन करते हैं, यह ठीक है, किन्तु आपको अपने परिवार में सामूहिक रूप से चेतना जागृत करनी चाहिए। छोटी या बड़ी जाति के जितने भी सदस्य हैं, सब को प्रेरणा देनी चाहिए। यह तो धर्म का क्षेत्र है। यहाँ सब एक ही बिरादरी के हैं केवल मानव! धर्मस्थान में सब भाई-भाई हैं। सभी एक पिता की सन्तान हैं। भगवान् महावीर सभी के पिता हैं, और सब उन्हीं की सन्तान हैं। भाई-भाई में जाति-पाँति का प्रश्न क्या ? छोटे-बड़े की कल्पना कैसी ? यहाँ आकर भी अगर आप अपने को ओसवाल और अग्रवाल समझते रहे, तो आपका उद्धार फिर कहाँ होगा ? आपका यह बहिर आत्म-भाव किस जगह मिटेगा? अपने को चिदानन्दमय समझने की कौन-सी जगह होगी? भगवान् ने तो कहा है 'नदीसइ जाति-विसेस कोई।' अर्थात् मनुष्य-मनुष्य सब एक हैं, और एक सरीखे हैं। उनमें जातिगत कोई विशेषता नहीं दीखती। किसी के चेहरे को देखकर आप नहीं पहचान सकते, कि अग्रवाल है या ओसवाल है; ब्राह्मण है या क्षत्रिय है ? मनुष्य-मनुष्य में कुछ अन्तर अवश्य होता है, और किसी भी एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ हूबहू हुलिया नहीं मिल सकता, तथापि वह अन्तर जाति का अन्तर नहीं है। घोड़े और गाय को देखते ही जैसे उनकी जाति का पता लग जाता है, उस प्रकार मनुष्य को देखकर नहीं जाना जा सकता, कि यह ओसवाल है या अग्रवाल है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आनन्द का प्रस्थान । ५३ अतएव यह जातियाँ कल्पित हैं, वास्तविक नहीं हैं। अगर आप धर्मस्थान में आकर भी यह भावना नहीं जगा सकते, तो कहाँ जगाएँगे? जब आपमें एकत्व की भावना आ जाएगी, तो हम समझेंगे, कि आपमें धर्म का प्रेम जागृत हो गया है। ___ आनन्द सामूहिक रूप में प्रभु के दर्शन करने जा रहा है। सम्भवतः उसके समूह में जात-पाँत का कोई भेद नहीं है, और वह जहाँ जा रहा है, वहाँ तो जात-पात की कल्पना ही नहीं है। तीर्थंकर महावीर ने जातिवाद का प्रबल विरोध किया था। उन्होंने कहा—मनुष्य-मनुष्य सब समान हैं। ऊँच-नीच का भेद, कृत्रिम है, वास्तविक नहीं। कुन्दन-भवन, ब्यावर, अजमेर २१-८-५० Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य-पाप की गुत्थियाँ यह श्रीउपासकदशांग सूत्र है और आनन्द के जीवन का वर्णन आपके सामने चल रहा है। श्रमण भगवान् महावीर वाणिज्यग्राम में पधारे हैं और आनन्द उनका पावन प्रवचन सुनने के लिए उनकी ओर जा रहा है। आनन्द किस रूप में जा रहा है, यह बात सुधर्मा स्वामी ने जम्बू स्वामी से इन शब्दों में कही पडिनिवखमित्ता सकोरंटमल्लदामेणं छत्रेणं धारिन्जमाणेणं, मणुस्सवग्गुपरिक्खित्ते, पायविहार चारेणं वणियगामं नयरं मझमझेण निग्गच्छइ अर्थात्, आनन्द अपने घर से निकल कर, हजारे के फूलों की मालाओं से सुशोभित छत्र को धारण किए, मनुष्यों के समूह से घिरा हुआ, पैदल ही, वाणिज्यग्राम नगर के बीचों-बीच होकर निकलता है। यह मूल पाठ के शब्दों का अर्थ है। इस पाठ में आई हुई अन्य बातों पर कल प्रकाश डाला जा चुका है। इस समय एक बात पर प्रकाश डालना है, जो विशेष रूप से हमारा ध्यान आकर्षित कर रही है। अगर आप शब्दों पर विशेष रूप से ध्यान देंगे, तो आनन्द के हृदय को अच्छी तरह समझ सकेंगे और उसकी भावनाओं का सही आभास पा लेंगे। आनन्द महान् वैभवशाली होने पर भी इतना सात्विक वृत्ति वाला है, कि प्रभु के दर्शनों के लिए पैदल जा रहा है। उसने किसी सवारी का उपयोग नहीं किया। वह मनुष्य-वृन्द के साथ स्वयं भी पैदल चल रहा है और नगर के बीचों-बीच राजमार्ग से होकर। आप देख चुके हैं कि वह बड़ा धनपत्ति है और धनकुबेर कहलाता है, तो क्या उसके यहाँ सवारियों की कमी होगी? वह हाथी पर, घोड़े पर, रथ पर या पालकी पर भी चढ़ सकता था। फिर भी वह भगवान् के दर्शन के लिए पैदल जा रहा है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य-पाप की गुत्थियाँ । ५५ इस रूप में अपने शरीर को श्रम के साथ जोड़ने की महत्वपूर्ण बात आपके सामने आ रही है। जब मनुष्य धन प्राप्त कर लेता है और पूँजी का संचय कर लेता है, तो वह अपने शरीर से काम लेना भूल जाता है। वह समझने लगता है, कि वह अपना बोझा दूसरों पर लाद कर चलने के लिए है और उसके स्वयं के हाथ-पैर काम करने के लिए नहीं हैं। और इस असमीचीन विचार से प्रेरित होकर धनवान् अपने जीवन को परावलम्बी बना लेता है। वह अपने शरीर को फुलाता जाता है और उससे कुछ भी काम नहीं लेता है। इस स्थिति को लोग पुण्य की लीला समझ कर श्रम के महत्त्व को भूल जाते हैं। इस तरह जीवन को पराश्रयी बना लेने में महत्त्व समझा जाता है, बड़प्पन माना जाता है। यद्यपि धनवान् की दृष्टि में यही सही है; किन्तु वास्तव में यह दृष्टि से सही नहीं, गलत है। श्रम अपने आप में महत्त्वपूर्ण और मूल्यवान् है । उसे हम अच्छी तरह समझ नहीं पाते हैं। कभी-कभी इसके साथ पुण्य और पाप की परिभाषाएँ भी जोड़ देते हैं, और जब जोड़ देते हैं तब एक नवीन समस्या खड़ी हो जाती है । जो आदमी अपने शरीर से काम न ले और अपने हाथों-पैरों को बेकार रखे, अर्थात् खुद काम न करे और दूसरों से ही सारा काम करवाए, क्या वह भाग्यशाली है ? जो जितना काम करना छोड़ता जाए और दूसरों से कराता जाए, अर्थात् जो जितना अकर्मण्य, परावलम्बी और परमुखापेक्षी हो, उसे उतना ही पुण्यवान् समझना चाहिए ? आज से नहीं, पहले से ही भारतवर्ष के मन में, बैठ गया है कि अपने आप काम न करना पुण्य का उदय है। अपने लिए दूसरों का उपयोग करना पुण्य की निशानी बन गई है। इसलिए यह दृष्टि बन गई है कि जो बड़े हैं, वह दूसरों के सहारे चलें और जितने दूसरों के सहारे चलेंगे, वे उतने ही भाग्यशाली करार दिए जाएँगे । इस मिथ्या भ्रम के पैदा हो जाने कारण शरीर की कीमत गिर गई और साथ-साथ पाप और पुण्य की व्याख्याएँ भी उलझ गईं। जो सड़क पर से पैदल गुजर रहे हैं, वे चाहे कितनी ही धार्मिक वृत्ति के हों, उन्हें हल्का कहेंगे और पाप का उदय समझेंगे। और जो मोटर में निकलेंगे, उन्हें पुण्य का फल भोगने वाला कहेंगे। हम विचार करना चाहते हैं कि इस समझ में कहीं गलतफहमी तो नहीं आ गई है ? एक बार मैं एक पुराने संत का प्रवचन सुन रहा था, उन्होंने एक दृष्टान्त देना शुरू किया— एक राजा था। वह घोड़े पर चढ़कर सैर करने गया । किन्तु घोड़े को छोड़कर हाथी पर चढ़ गया और फिर हाथी से उतरकर पालकी में बैठ गया। बाद में पालकी को भी छोड़ दिया और एक वृक्ष के नीचे मसनद और गद्दी लगाकर लेट गया। इधरJain उधर से नौकर आकर पैर दबाने लगे। Lite & Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ । उपासक आनन्द । तब किसी ने कहा, यह क्या हुआ ? यह घोड़े पर चढ़ा, हाथी पर चढ़ा और पालकी पर चढ़ा, डग भर भी पैदल नहीं चला, इतने पर भी पैर दबवा रहा है। यह थक कैसे गया? यह प्रश्न उपस्थित हुआ तो समाधान भी किया गया। कहा गया यह थकावट यहाँ की नहीं है। इन्होंने पूर्व-जन्म में बहुत बड़ा तपश्चरण किया है। ध्यान किया होगा, कायोत्सर्ग किया होगा और कंकर-पत्थरों पर चले होंगे और उग्र विहार किया होगा। यह थकान तब की है। वही अब मिटाई जा रही है। वह थकान इतनी जबर्दस्त थी कि उसे दूर करने के लिए आज तक उपाय किए जा रहे हैं। जो लोग धन की ऊँचाई पर चढ़ गए हैं, उन्हें स्वयं काम न करने की प्ररेणा इसी दृष्टि से मिलती है। वे इन विचारों को, सुनते हैं, और प्रायः सुना ही करते हैं, तो स्वयं काम करने से विरत हो जाते हैं और दूसरों से काम कराने में ही अपना सौभाग्य समझते हैं। ऐसे ही लोग घोडे, हाथी और पालकी पर चढ़ कर भी पैर दबवाने को तैयार रहते हैं। कोई श्रम नहीं करता है, फिर भी पैर दबवाता है। ऐसा न करेंगे तो लोग कैसे समझ पाएँगे, यह श्रीमान् पूर्वजन्म में बड़ा भारी तप करके आए हैं। ___मैं इस दृष्टिकोण का विरोध करता हूँ । जैन सिद्धान्तों का जिसने अध्ययन किया होगा और मार्मिक मनन किया होगा, वह इस दृष्टिकोण का विरोध ही कर सकता है। जैन-शास्त्र के अनुसार तप, संवर और निर्जरा का हेतु है। अर्थात् तपस्या करने से नवीन कर्मों का आना रुकता है और पहले के कर्मों की निर्जरा होती है। शास्त्र नहीं कहते कि तपस्या करने से ऐसी गहरी थकावट आ जाती है कि जन्म-जन्मान्तर में भी वह दूर नहीं होती। पूर्व-जन्म में की हुई तपस्या की थकान अगले जन्म में पैर दबवाने से मिटती है, यह कल्पना बाल-कल्पना के अतिरिक्त और क्या हो सकती है? इस कल्पना में सच्चाई मान लेने पर तो यह भी मानना पड़ेगा कि जो जितना बड़ा तपस्वी है, उसे उतनी ही अधिक थकावट होगी और उसे दूर करने के लिए उतने ही अधिक जन्म लेकर पैर दबवाने पड़ेंगे और तब कहीं उसकी थकावट मिटेगी। इस प्रकार तपस्या निर्जरा का और मोक्ष का कारण न होकर संसार-परिभ्रमण का, जन्म-मरण की परम्परा को बढ़ाने का कारण बन जाएगी। क्या आप इस सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं ? ___ विचार करने पर मालूम होगा कि इस दृष्टि के पीछे साम्राज्यवाद और पूँजी-वाद की भावनाएँ काम कर रही हैं, जिनमें पूँजी को बड़ा महत्त्व दिया गया है। इस दृष्टि के पीछे दूसरे रूप में एक ललकार है कि अपने आप कोई काम नहीं करना और दूसरे से काम कराना और इसी में पुण्य समझना, भाग्यशाली की निशानी समझना। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | पुण्य-पाप की गुत्थियों । ५७ किन्तु पुण्य और पाप की यह व्याख्याएँ नहीं हैं। अगर यह व्याख्याएँ सही हैं और एक श्रीमान रथ पर चल रहा है और एक सन्त नंगे पैर पैदल चल रहा है, तो आप इनमें से किसे पुण्यात्मा और किसे पापी समझते हैं ? ___ कदाचित् आप कह दें कि सन्त जो धर्मक्रिया कर रहे हैं, उसका फल उन्हें भविष्य में मिलेगा। फिलहाल तो वे अपने पुराने कर्मों का फल भोग रहे हैं। अपने पापों का क्षय कर रहे हैं। तो इसका अर्थ यह हुआ कि जितने भी पैदल चलने वाले संत हैं, सब के सब पाप कर्म के उदय से पैदल चल रहे हैं। जरा ठहरिए, ऐसा मानकर भी आप अपना पल्ला नहीं छुड़ा सकते। तीर्थंकर दीक्षा लेने से पहले सवारी का उपयोग करते हैं और दीक्षा लेने के पश्चात् पैदल विहार करने लगते हैं। तो क्या आपके ख्याल से दीक्षा लेते ही उनका पुण्य क्षीण हो जाता है और पाप का उदय हो जाता है ? कई तीर्थंकर, चक्रवर्ती की ऋद्धि त्याग कर दीक्षित होते हैं और जो चक्रवर्ती नहीं होते, वे भी महान् राजकुलों में उत्पन्न होकर राजकीय वैभव को ठुकरा कर दीक्षा लेते हैं। आगम बतलाता है कि पुण्य प्रकृतियों में तीर्थंकर प्रकृति सर्वोत्कृष्ट पुण्य प्रकृति है। फिर कैसे कल्पना की जाय कि तीर्थंकर पाप के उदय से पैदल विहार करते हैं ? और कैसे माना जाय कि जो पैदल न चल कर पालकी पर चढ़कर चलता है, वह पुण्यात्मा होता है ? एक सच्चाई का परित्याग कर देने से पचासों मिथ्या कल्पनाएँ करनी पड़ती हैं और सत्य सिद्धान्त की श्रृंखला भंग हो जाती है। वास्तव में पैदल चलना या सवारी पर चलना और नंगे पैर चलना अथवा जूते पहन कर चलना पाप और पुण्य का उदय नहीं है। कार्य के साथ यदि पुण्य-पाप को जोड़ना चाहते हैं तो जो काम विचार और विवेक के साथ किया जा रहा है, उसे पुण्य के उदय में रखिए और जो विवेक शून्य होकर, किसी प्रकार का विचार न करके, अपने शरीर को निठल्ला बना कर सवारी पर चल रहा है और इस कारण जो यतना नहीं संभाल सकता, उसे पाप में शामिल कीजिए। ___ आखिर विचार करना होगा, दृष्टि में परिवर्तन करना होगा और तभी यह प्रश्न हल होगा। आपने भोजन किया और किसी ने उपवास किया, चौला किया, पंचौला किया या अठाई की और अपने शरीर को तपाया मालूम होता है, तकलीफ है, पर भावना का Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ । उपासक आनन्द । बल डाल दिया गया है। तो मैं पूछता हूँ कि जो तपस्या में भूखा रह रहा है, सो क्या पाप के उदय से ? व्रत या साधना में भूखा रहना किस कर्म के उदय का फल है ? आप विचार में पड़ गए होंगे, किन्तु यहाँ कर्मों के उदय का फल नहीं है। यह तो कर्मों के क्षयोयशय का फल है। श्रावक बने तो किस कर्म के उदय से ? कह देते हैं पुण्य कर्म के उदय से भगवान् की और संतों की वाणी सुनने को मिलती है, दर्शन-मिलते हैं, श्रावकपना और साधुपना मिलता है सो किस कर्म से ? इसके लिए भी कह दिया जाता है कि पुण्य के उदय से साधु बनने की बात चलती है तो लोग कहते हैं—इतना पुण्योदय कहाँ है ? प्रबल पुण्य का उदय होगा तब कहीं साधुपना मिलेगा। परन्तु कभी आपने विचार किया है कि पुण्य कर्म की कौन-सी प्रकृति है वह, जिसके उदय से साधुपना या श्रावकपना मिलता है ? हर जगह कर्मों की फांसी क्यों गले में लगा रखी है ? सभी जगह पुण्य और पाप के उदय को ही क्यों सोचते हो ? जहाँ जीवन के बंधन तोड़ने का प्रश्न है या साधुत्व का प्रश्न है, दूसरे से काम लेने का प्रश्न है या अपने आप काम करने का प्रश्न है, वहाँ पुण्य-पाप के उदय की कोई बात नहीं है। यह बहिनें भूखी और प्यासी रह कर तपस्या करती हैं, तो इनके कौन-से कर्म का उदय आ गया ? और आपने यहाँ सामायिक करने के लिए कपड़े उतार दिए तो कौन-से कर्म का उदय आ गया? यह कर्म का उदय नहीं है, बल्कि क्षयोपशम की बात है। किसी भाई ने सवारी का त्याग कर दिया और पैदल चलने का नियम ले लिया, तो वहाँ किस पापकर्म का उदय समझा जाएगा? जब तक उसकी पुण्य प्रकृति का उदय था, तब तक वह सवारी में बैठता था और जब पाप का उदय आ गया तो उसने सवारी का त्याग कर दिया? तथ्य यह है कि जब तक हम इस जीवन के सम्बन्ध में विचार नहीं करेंगे, तब तक यह साधनाएँ और जीवन की महत्त्वपर्ण समस्याएं हल नहीं हो पाएंगी। एक साधु शास्त्रोक्त मार्ग पर चलता है और अपने उपकरण आप ही लेकर चलता है। दूसरा साधु गलत रास्ते पर चल कर, अपने उपकरणों की गठरी बना कर; किसी गृहस्थ को दे देता है। तो क्या अपने उपकरण स्वयं लेकर चलने वाला साधु के पाप का उदय है ? और जो स्वयं उठाकर नहीं चल रहा है और दूसरे गृहस्थ पर लाद कर चल रहा है, उसके पुण्य का उदय है ? इन सब बातों पर आपको गंभीरता से विचार करना है और विचारपूर्वक इन प्रश्नों को हल करना है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य-पाप की गुत्थियाँ । ५९ बात यह है कि यहाँ पुण्य और पाप के उदय का प्रश्न नहीं है, यहाँ तो कार्यों को तोड़ने का मुख्य प्रश्न है। अज्ञानता से और विवेकहीनता से चलेंगे तो उसका कोई मूल्य नहीं है, किन्तु जो साधक विचार में है, विवेक में है, और सोच-विचार कर पैदल चलने की भावना रखता है और समझता है कि सवारी पर चलने से हिंसा होगी, अतएव स्वयं श्रम करूँ और दूसरों को क्यों कष्ट दूँ, कीड़ी वगैरह की हिंसा न हो जाए; और इस प्रकार सोच कर जो अपने संयम को अधिक उच्च रूप में रखने का प्रयत्न करता है; उसमें पाप प्रकृति का उदय नहीं है । किसी साधक ने सवारी का त्याग कर दिया, भोजन करने का त्याग कर दिया, अमुक-अमुक विगय का त्याग कर दिया, तो यह सब क्या है ? ध्यान से सोचेंगे तो मालूम होगा कि यह सब पापकर्म के उदय से नहीं हुआ, यह तो क्षयोपशम एवं संवर से हुआ है। जहाँ त्याग और तप करने की भावना है, दया की भावना है, दूसरों पर अपना बोझ न डाल कर स्वयं काम करने की भावना है, वहाँ क्षयोपशम अथ च संवर हो रहा है। आप विवेक पूर्वक पैदल चल रहे हैं तो कर्मों का क्षयोपशम हो रहा है। आप निराहार रह रहे हैं और उसमें विवेक का पुट है तो आप कर्मों की निर्जरा कर रहे हैं। प्रत्याख्यान क्या चीज है ? वह संवर है, कर्मों को रोकने का मार्ग है । कर्मों का जो अविरल प्रवाह आत्मा की ओर बहता है, उसे रोक देने का तरीका है । यह संवर पाप के उदय से होता है अथवा पुण्य के उदय से होता है ? संवर ने तो पाप और पुण्य-दोनों से लड़ाई लड़ी है। तो पाप और पुण्य की भाषा में संवर और निर्जरा को सोचना अज्ञानता से सोचना है। आप दान देते हैं सो किस कर्म के उदय से ? आपके पास दस-बीस हजार हैं और उनमें से एक हजार दान दे दिया तो उतनी लक्ष्मी कम हो गई। वह पाप के उदय से या पुण्य के उदय से कम हो गई ? लक्ष्मी इकट्ठी करना पुण्य का उदय और कम करना पाप का उदय मान लिया तो दान देने से जो लक्ष्मी कम हो गई, उसे भी पाप का उदय ही मानना पड़ेगा । हरिश्चन्द्र जैसे ने तो अपना सर्वस्व लुटा दिया था और एक कौड़ी भी अपने पास नहीं रखी थी। आपने अपने भाई की सहायता कर दी या किसी साधु को बहरा दिया अथवा दिल में दया उपजी और किसी गरीब को कुछ दे दिया, तो आपके पास का परिग्रह कम हो गया— लक्ष्मी कम हो गई। जितना दिया उतना कम हो गया। क्या आप इसे पाप के उदय का फल समझेंगे ? Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ s [६० । उपासक आनन्द जैसे लक्ष्मी का कम हो जाना एकान्त पाप नहीं है, उसी प्रकार लक्ष्मी का आना भी एकान्त पुण्य की बात नहीं है। पाप के उदय से भी आती है और पुण्य के उदय से भी आती है। ____ कल्पना कीजिए, एक आदमी कहीं जा रहा है। जाते-जाते उसे रास्ते में मोहरों की थैली मिल गई। अनायास ही मिल गई और उसने उठा ली। तो वह पाप के उदय से मिली या पुण्य के उदय से मिली ? वह आदमी उस थैली को उठाकर घर ले गया और मोहरों को इस्तेमाल करना शुरू किया। और फिर जाँच हुई तो पकड़ा गया और जेलखाने गया । मानना होगा कि वह थैली पाप के उदय से मिली और जेलखाने जाना और वहाँ कष्ट पाना उसी पाप के उदय का फल है। एक डाकू डाका डालता है और लोगों की लक्ष्मी लूट लेता है। उसे जो सम्पत्ति मिलती है सो पाप के उदय से या पुण्य के उदय से? तात्पर्य यह है कि इस विषय में बहुत गलतफहमियाँ होती हैं। हमें निरपेक्ष भाव से, मध्यस्थ भाव से, शान्तिपूर्वक सोचना चाहिए। तगाई और चोरी न करके, न्याययुक्त वृत्ति से जो लक्ष्मी आती है, वही पुण्य के उदय से आती है और वह लक्ष्मी नीति और धर्म के कार्यों में व्यय होती है। इतिहास बतलाता है कि दिन में एक व्यक्ति राजगद्दी पर बैठा और रात में कत्ल कर दिया गया। तो कत्ल कर दिया जाना पाप का उदय है और उसका कारण राजगद्दी मिलना है। अतएव उसे पाप के उदय से राजगद्दी मिली जो उसके कत्ल का निमित्त बनी। एक बात और पूछनी है। किसी के लड़का होता है तो किस कर्म के उदय से? और लड़की होती है तो किस कर्म के उदय से ? लड़का होता है तो लोग कहते हैं-पुण्य के उदय से हुआ और लड़की पैदा हो गई तो कहेंगे कि पाप का उदय हो गया! प्रश्न गंभीर है और लोगों की धारणा है कि पुण्य के उदय से लड़का और पाप के उदय से लड़की होती है। ___ चाहे हजारों वर्षों से आप यही सोचते आए हों, किन्तु मैं इस विचार को चुनौती देता हूँ कि आपका विचार करने का यह ढङ्ग बिल्कुल गलत है। मिथिला के राजा कुम्भ के यहाँ मल्ली कुमारी का जन्म हुआ। वह पाप के उदय से हुआ या पुण्य के उदय से हुआ? और राजा उग्रसेन के यहाँ कंस का जन्म पाप के उदय से अथवा मुण्य के उदय से हुआ? श्रेणिक के यहाँ कोणिक ने जन्म लिया, सो पाप के उदय से या पुण्य के उदय से ? मतलब यह है कि एकान्त रूप में लड़का-लड़की के जन्म को पुण्य-पाप का फल नहीं माना जा सकता। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | पुण्य-पाप की गुत्थियों । ६० मैंने एक आदमी को देखा है। उसके यहाँ लड़का भी था और लड़की भी थी। लड़के ने सारी सम्पत्ति बर्बाद कर दी। वह बाप को भूखा मारने लगा और भूखा ही नहीं मारने लगा, डंडों से भी मारने लगा। उसे दो रोटियाँ भी दूभर हो गईं। आखिर उसने लड़की के यहाँ अपना जीवन व्यतीत किया और वहाँ उसे किसी प्रकार का कष्ट नहीं हुआ। जब वह मुझसे एक बार मिला तो वह कहने लगा, बड़ा भारी पुण्य का उदय था कि मेरे यहाँ लड़की हुई। अब जीवन ढंग से गुजर रहा है। लड़की न होती तो जिंदगी बर्बाद हो जाती। मैंने लड़के के विषय में पूछा तो उसने कहा, न जाने किस पाप कर्म के उदय से लड़का हो गया। तो उसने ठीक-ठीक निर्णय कर लिया। आपके सामने ऐसी परिस्थिति नहीं आई है, अतएव आप एकान्त रूप में निर्णय कर लेते हैं कि पुण्य से लड़का और पाप से लड़की होती है। लड़के का आना और जाना, यह तो संसार का प्रवाह बह रहा है। इसमें एकान्त रूप से पुण्य-पाप की भ्रान्ति मत कीजिए। ____ बताइए, गहना पहनना पुण्य है या गहना छोड़ना ? इसी तरह पर्दा छोड़ना पुण्य है या पर्दा रखना पुण्य है ? रोटी के लिए स्वयं परिश्रम करना पुण्य है या दूसरे से परिश्रम कराना ? इत्यादि बातें जब तक हमारे मस्तिष्क में नहीं सुलझेंगी, तब तक धर्म-कर्म की ऊँची फिलासफी को कैसे समझेंगे ? आप हर काम में पुण्य-पाप को ढूंढ़ना चाहते हैं, पर पुण्य की और क्षयोपशम की परिभाषाएँ नहीं समझते हैं। इसी कारण गलतफहमियाँ हो जाती हैं। विचार करेंगे तो मालूम होगा कि जैनधर्म और जैनदर्शन संसार के सामने महत्त्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित करता है। वह कहना चाहता है कि तुम वासनाओं के लिए भटक रहे हो और संसार के सुख-दुख पाने के लिए भटक रहे हो तो उसका क्षेत्र पुण्य-पाप का है। किन्तु जहाँ जीवन को साधनाओं का प्रश्न है, कोई साधक अपने जीवन को बनाना चाहता है तो वह क्षयोपशम तथा संवरभाव की बात है। जो नवकारसी, उपवास, बेला, तेला आदि कर रहा है, वह क्षयोपशम से कर रहा है। कर्मों के उदय से नहीं, वरन् कर्मों के बंधन टूटने से यह सब हो रहा है। उनके टूटे बिना न कोई साधु बन सकता है, न श्रावक बन सकता है। इस प्रकार त्याग की भूमिकाएँ न पुण्योदय से होती हैं और न पापोदय से ही होती हैं, किन्तु क्षयोपशम एवं संवर भाव से ही होती है। __कोई सोचता है-वृथा क्यों घोड़े पर चहूँ ? घोड़े को तकलीफ होगी और जीवों की यतना भी नहीं होगी। इस प्रकार की विवेकवृत्ति से प्रेरित होकर वह पैदल चल Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ । उपासक आनन्द रहा है और अपने शरीर का श्रम जोड़ रहा है, तो समझना होगा कि उसे कर्मों को तोड़ने के रूप में त्याग और वैराग्य का मार्ग मिला है। हाँ, तो आनन्द पैदल चल रहा है। हो सकता है कि पैदल चलने का कारण उसका भक्तिभाव हो, फिर भी वह प्रभु के ध्यान में चल रहा है और उसने शरीर के श्रम को महत्त्व दिया है। ___हाथी पर चढ़ा हुआ व्यक्ति अगर सोचता है कि हाथी के पैर के नीचे दबकर जो कीड़ियाँ मर रही हैं, वे हाथी से मर रही हैं, मुझसे नहीं मर रही हैं। अतएव वह पाप हाथी को लगेगा, मुझे नहीं लगेगा, इसी प्रकार पालकी पर सवार होकर चलने वाला यदि सोचता है कि पालकी उठाने वालों को कीड़ी मारने का पाप लगेगा, मुझे नहीं लगेगा और यदि मैं पैदल चला और जीव-जन्तु मर गया तो उसका पाप मुझे लगेगा। अतएव पैदल न चलकर सवारी पर चलना ही धर्म के अनुकूल है। यह दृष्टि गलत है। इसके विपरीत दूसरा आदमी पैदल चल रहा है और नीची दृष्टि करके विवेकपूर्वक चल रहा है तो वह कर्मों को तोड़ता है। वास्तव में अपने पुरुषार्थ को महत्त्व देना चाहिए। आज यह स्थिति हो गई है कि भारत के गाँवों में, जहाँ बस-सर्विस चालू हो गई है, किसानों को दो-तीन कोस जाना होगा तो दो-चार घंटे बस के आने की प्रतीक्षा करेंगे और फिर जगह न मिली तो भेड़ों की तरह ठसाठस भरेंगे और मुसीबत झेलना कबूल करेंगे; परन्तु दो-तीन कोस तक पैदल नहीं जाएँगे। भारत की जनता इतनी पंगु बन गई है कि पैदल चलना उसे बड़ा भारी भार मालूम हो रहा है। इस पंगुता ने भारतीय जीवन को पतित कर दिया है। ___ एक आदमी को देवता मिले। उसने आदमी से कहा—तुम मुझे पैर दे दो तो मैं तुम्हें हाथी दे दूँ। हाथी ले लो, मजे की सवारी हो जाएगी। जिसके पास जरा भी विवेक-बुद्धि है, वह पैर देकर हाथी नहीं लेगा। मगर भाई, पुण्य के उदय से हाथी मिल रहा है। पैरों का भी मूल्य है। आखिरकार घर की जिंदगी तो पैरों से ही चलेगी। घर में हाथी पर सवार होकर तो कोई नहीं चल सकता ! हाथी तो तभी काम आ सकता है, जब कहीं दूर बाहर जाना हो। तो पैरों के बदले हाथी का कोई मूल्य नहीं है। किसी को जिंदगी भर मोटर या हाथी न मिले तो भी उसका काम बखूबी चल सकता है, और लाखों-करोड़ों का चलता ही है; किन्तु पैर गंवा कर हाथी पा लेने वाले की जिंदगी कितनी दुखमय हो जाएगी? Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य-पाप की गुल्विय । ६३ इन सब बातों पर विचार करेंगे, तो मालूम होगा कि जैनधर्म अनेकान्तवादी है और उसकी परिभाषाएँ बड़ी विचारपूर्ण हैं। उसकी पाप और पुण्य की व्याख्याएँ बड़े महत्त्व की हैं। हमें स्वयं अपने हाथों से काम करना चाहिए या दूसरों से कराना चाहिए, यह भी बड़ा विचारणीय प्रश्न है। बहुत से लोगों को पैदल चलने में लज्जा आती है; किन्तु जहाँ उन्हें लज्जा आनी चाहिए, वहाँ तो आती नहीं, और जहाँ नहीं आनी चाहिए, वहाँ आती है । लज्जा आनी चाहिए हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार आदि पाप कर्मों को करते समय, सोन करके सत्कर्म में लोग लज्जा करते हैं। आनन्द गाथापति के पास विशाल वैभव है। धन-सम्पत्ति की उसे कमी नहीं है। भरा-पूरा घर है। लेकिन उसके मन में इस बात की लज्जा नहीं है कि मैं भगवान् के दर्शन के लिए जाते समय पैदल क्यों चल रहा हूँ। आज के धनवानों की दशा उलटी हो रही है। ये शुभ काम के लिए पैदल जाने में लजाते हैं। पर आनन्द को देखो । वह किसी गली-कूचे से चुपके-चुपके नहीं जा रहा है। स्वयं शास्त्रकार कहते हैं कि वह धड़ल्ले के साथ नगर के बीच होकर जा रहा है। और अकेला नहीं, समूह के साथ जा रहा है। उसे पैदल चलने में लज्जा नहीं आई होती तो क्या इस रूप में वह निकलता ? अगर आपको अपना कल्याण करना है, तो साधक की भाँति अपना जीवन व्यतीत करो। शुभ काम में लज्जा का अनुभव मत करो। अशुभ भावों को त्याग कर, भोग विलास की वृत्ति से अपने आप को अलग करके शुभ भावों को अपनाओ, इसी में मानव जीवन की महत्ता है। कुन्दन - भवन ब्यावर, अजमेर २२ -८-५० Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरण में प्रवेश यह उपासकदशाँग सूत्र है और आनन्द का वर्णन आपके समाने चल रहा है। आनन्द उत्कट भक्ति के वशीभूत हुआ प्रभु-दर्शन की बलवती इच्छा को अपने मन में बसाए भगवान् महावीर के पास जा रहा है । वह अपार धन राशि का स्वामी है; मगर उसे उस बात की लेशमात्र भी चिन्ता नहीं है, कि इतने बड़े सेठ को पैदल जाते देख लोग क्या कहेंगे, और वह पैदल ही भगवान् के स्थान की ओर चला जा रहा है । वह सोचता है, शुभ कार्य में लज्जा कैसी ! लज्जा तो पाप कर्म करते समय होनी चाहिए, वह भगवान् की वंदना करने के लिए पैदल ही चला जा रहा है। अपने लिए वह तो इसे गौरव की बात समझ रहा है—क्योंकि वह जानता है, सन्तों के पास इसी प्रकार जाना चाहिए । इसीलिए उसे इस बात की परवाह नहीं है कि कोई भी इस गौरव योग्य बात के लिए उसकी निन्दा करेगा। वह सोचता है, कोई निन्दा करेगा, तो करने दो, इसमें उसका बिगड़ता भी क्या है ? वह कोई बुरा काम थोड़े ही कर रहा है, और इतना सोच लेना ही उसके सन्तोष के लिए पर्याप्त है । वह भक्ति-विभोर हुआ, पैदल ही प्रभु की ओर चला जा रहा है। यह एक प्रकार का विनय धर्म है। अजी, कोई क्या कहेगा ? इस प्रकार की भावना का भूत बहुतों के सिर पर सवार रहता है। और इस भूत की यह विशेषता है, कि वह मनुष्य को अधिकांश में भले काम करने से रोकता है, बुरे काम करने से नहीं। यह एक प्रकार की मानसिक दुर्बलता है। तुम दूसरों की आँखों से देखकर क्यों चलना चाहते हो? दूसरों के दिमाग से सोचकर क्यों निश्चय करना चाहते हो? ऐसा करते हो, तो तुम्हारी आँखें और तुम्हारा दिमाग किस काम का है? तुमने किसी भी शुभ कार्य को करने का अगर विचार कर लिया है, और तुम्हारे निर्मल अन्तःकरण ने उसे शुभ मान लिया है, तो दूसरों का ख्याल क्यों करते हो? क्यों सोचते हो, कि यह क्या कहेंगे और वह क्या कहेंगे? अगर तुम्हें अपने दिल और दिमाग पर भरोसा है, तो तुम वही काम करो, जिसे करने के लिए तुम्हारा मस्तिष्क तुमसे कहता है और ह्रदय करने के लिए प्रेरित करता है । अपने विवेक से कार्य करो। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | समवसरण में प्रवेश | ६५/ दुनियाँ तो दुरंगी है। दुनिया की दृष्टि से चलोगे, तो कहीं के भी नहीं रहोगे। अतएव अपने कार्य का मूल्य आप ही निर्धारित करो और कम से कम धर्म-कृत्य के विषय में तो लज्जा और निन्दा की चिन्ता ही न करो। आनन्द ने दुनिया का ख्याल नहीं किया। उसके भक्तिभाव ने उससे कहापैदल चलो। और, वह पैदल चल पड़ा। कुछ लोगों ने टीका-टिप्पणी की होगी तो की होगी। सुधर्मा स्वामी ने तो उसके पैदल चलने को इतना महत्त्व दिया, कि शास्त्र में उसका उल्लेख भी कर दिया ! आनन्द किसी के कहने-सुनने पर ध्यान न देता हआ, नगर के बीच में होकर नि:संकोच भाव से प्रभु के दर्शन को जा रहा है। वह नगर में होता हुआ, दूतीपलाश नामक उपवन में, जहां श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, जा पहुँचा। यहाँ मूल सूत्र में इसी आशय का पाठ है, किन्तु दूसरे अधिकांश सूत्रों में इस बात का वर्णन मिलता है, कि जब कोई गृहस्थ-भक्त प्रभु-दर्शन के लिए जाता था, तो किस रूप में जाता था ? क्या-क्या तैयारियाँ करके जाता था? इस बात का हमारे यहाँ बड़ा सुन्दर वर्णन आया है। सुनने वालों ने सुना होगा, कि साधक पाँच अभिगम करके समवसरण में जाया करता था। अभिगम का अर्थ मर्यादा है। जो व्यक्ति जहाँ कहीं भी जाता है, उसे वहाँ की मर्यादा का पालन करना पड़ता है। बिरादरी में जाता है, तो वहाँ की मर्यादा को ध्यान में रखता है। राजदरबार में जाते समय वहाँ की मर्यादा का पालन करना पड़ता है और दूसरे देश में जाने पर वहाँ की मर्यादा के अनुसार चलना आवश्यक हो जाता है। ठीक इसी प्रकार साधु-समागम करते समय भी कुछ मर्यादाओं का पालन करना परम आवश्यक है। मर्यादा भी एक धर्म है। जो इस प्रकार मर्यादाओं का ध्यान रखते हैं, उन्हीं को शिष्ट और सभ्य समझना चाहिए, और उन्हीं को मनुष्य समझना चाहिए। मर्यादा का ध्यान न रखने वाले मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं है। पशु कहीं भी पेशाब कर देता है, कहीं पर गोबर कर देता है, कहीं भी खड़ा हो जाता है, और कहीं भी चल पड़ता है। पशु में इतनी समझ नहीं, कि वह क्या कर रहा है, और कहाँ कर रहा है। वह मर्यादा के अनुकूल है या नहीं ? पशु में इतना विवेक नहीं होता। __ मनुष्य मर्यादा का ज्ञाता होता है। मनुष्य और पशु को अलग-अलग करने वाली लकीर है--मर्यादा। जहाँ वह है, वहाँ मनुष्यता है। वहीं इन्सान की इन्सानियत है, और जहाँ मर्यादा नहीं, वहाँ कुछ भी नहीं। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ । उपासक आनन्द आपके नगर की भी मर्यादा है। साधु-समाज में भी मर्यादाएँ हैं। जीवन के चारों तरफ मर्यादाओं की दीवार खड़ी है। यदि हम मर्यादाओं का यथोचित पालन करते हुए चलेंगे, तो धरती के एक छोर से दूसरे छोर तक चले जाएंगे। कहीं पर भी अजनबी नहीं मालूम होंगे। जो जहाँ जाकर वहाँ की मर्यादाओं का पालन करता है, वह अजनबी मालूम नहीं होता, और शीघ्र ही वहाँ अपने साथी बना लेता है। पहली ही मुस्कराहट में वह दूसरों को अपना बना लेगा। जिसे मर्यादा का भाव नहीं है, वह जिस कुल में पैदा हुआ, उस कुल के भी वह योग्य नहीं हो सकता, उसके अनुरूप नहीं हो सकता। समस्त कार्यों में मर्यादा का ध्यान रखना आवश्यक है। पिता और पुत्र का सम्बन्ध अत्यन्त मधुर है। इतना मधुर कि इससे बढ़कर माधुर्य संसार के किसी अन्य सम्बन्ध में नहीं है। इसी तरह पिता-पुत्री, भाई-भाई, भाई-बहिन का सम्बन्ध भी मधुर है, फिर भी कोई व्यक्ति संयोग-वश पिता बन गया, किन्तु पिता की मर्यादाओं को वह नहीं जानता, तो वह क्या खाक पिता बना। किन्तु जो पिता, अपने पुत्र के साथ मर्यादा में चलता है, वह पिता हजारों वर्ष तक दुनिया में रोशनी देता है। वह पुत्र, जो अपने अन्दर पुत्रत्व का भाव रखता है, यह जानता है, कि पिता के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, वह आदर्श पुत्र गिना जाता है। पिता और पुत्र दोनों अपनी-अपनी मर्यादाओं का ध्यान रख कर चलेंगे, तो उनका जीवन अच्छी तरह चलेगा। रामायण आपके सामने है। राम को आप जीवन की सर्वोत्तम ऊँचाई पर चढ़ा हुआ देखते हैं। इसका कारण यही है, कि उन्होंने अपने पुत्रत्व का अच्छी तरह पालन किया था। जब देखा, कि पिता संकट में हैं, वचन-पूर्ति का प्रश्न आ गया है, और माता कैकयी ने वचन माँग लिया है, तब उन्होंने पिता की मर्यादा की रक्षा की और पिता की मर्यादा की रक्षा क्या की, अपने पुत्रत्व की मर्यादा की भी रक्षा की। दशरथ ने एक ओर तो पत्नी को वचन दे दिया, और दूसरी तरफ पुत्र प्रेम के कारण राम से वन जाने को भी नहीं कह सकते थे। किन्तु राम ने पिता के मुख पर उभरी हुई भावनाओं को पढ़ लिया, और समझ लिया, कि पिता किस दुविधा में पड़े हैं। — जहाँ आँख काम करने को तैयार हों, वहाँ कान का उपयोग क्यों किया जाए ? कान का दर्जा दूसरा है, और आँख का दर्जा पहला है। जब आँखों ने सब कुछ देख लिया, और मन ने उसे समझ लिया, तब फिर सुनने की आवश्यकता क्यों ? परोक्ष की अपेक्षा प्रत्यक्ष श्रेष्ठ है। राम को यह आज्ञा नहीं मिली, कि तुम वनवास के लिए चले जाओ। यह आज्ञा भी नहीं मिली, कि यहाँ रहना ठीक नहीं है, किन्तु राम ने पुत्रत्व की मर्यादा को -समझ लिया। वे समझ गए, कि पिता किस स्थिति में हैं, और किस संकट में पड़ गए Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | समवसरण में प्रवेश । ६७ हैं। वह सोचते हैं—मैं अपनी मर्यादा का पालन नहीं करूँगा, तो पिता का ऋण कैसे अदा कर सकूँगा? वास्तव में वही पुत्र ऋण अदा कर सकता है, जो अपने पुत्र बनने की मर्यादाओं का पालन करता है। अपनी मर्यादाओं का पालन करने के कारण राम हमारी आँखों के सामने चमक गए। उन्हें हुए बहुत लम्बा समय हो चुका है, किन्तु आज भी वे जनता के हृदय में बसे हुए हैं। आज भी रामायण महलों से लेकर झोंपड़ियों तक गाई जा रही है। राम की मर्यादा जग प्रसिद्ध है। अतएव राम को मर्यादा-पुरुष कहा गया है। दूसरी तरफ सीता को देखिए। उसने भी पत्नी होने की मर्यादा का भली-भाँति पालन किया। सीता के विषय में कहा जाता है, कि वह प्रत्येक क्रिया में अपने पति का अनुगमन किया करती थी। कवि ने कहा है छायेवानुगामिनी कोई अपनी छाया से पूछे, तुझे किधर जाना है? तो छाया क्या उत्तर देगी? यही, कि जिधर तुझे जाना है, उधर ही मुझे जाना है। आप हजार कोशिश कीजिए, कि मैं जाऊँ; किन्तु छाया न जाए, पर ऐसा नहीं हो सकता। भारतवर्ष की पत्नियों ने, सन्नारियों ने, एक ही आदर्श, सर्वदा अपने सामने रखा है कि वे अपने पति के पीछे छाया की भाँति चलती हैं। पति का कर्म उसका कर्म। पति की वाणी उसकी वाणी। पति का विचार उसका विचार। सीता ने पत्नी की मर्यादा का पालन किया। उसने ऊँचे-ऊँचे महलों को छोड़ा। फूलों की शय्या को छोड़ा और धूप और गर्मी सहन की। रामायण में सीता के लिए कहा गया है कि सीता ने पति के साथ रह कर वन में विकट कष्ट सहन किए थे। उस युग की नारी के लिए कहा है असूर्यपश्या राज-दारा परन्तु सीता इसका अपवाद रूप थी। उसने छाया भी देखी, चिल-चिलाती धूप भी देखी थी। अर्थात्-सीता इतनी सुकुमारी और कोमलांगी थी, कि सूर्य को देख भी नहीं सकती थी। कवि की यह अलंकृत भाषा है। सकमारता की हद है मगर वही सीता, नंगे पैरों. ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर राम के पीछे-पीछे चल दी। राम ने उसे वन-जीवन की सभी कठिनाइयाँ बतलाईं, मगर उन कठिनाइयों से डरकर सीता अपनी मर्यादाओं को न त्याग सकी। वह छायावत् अपने पति राम के पीछे-पीछे चली। उसने वन की सभी आपदाओं को सहा, मगर नारी की मर्यादाओं से मुख नहीं मोड़ा। इसी कारण सीता अमर है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |६८ । उपासक आनन्द । लक्ष्मण को भी देख लीजिए। उन्होंने कितनी हिम्मत के साथ अपने भ्रातृत्व की मर्यादा का पालन किया। वे संसार को बता गए, कि भाई की मर्यादा क्या होती है। भाई जब तक महलों में रहे, तब तक महलों में साथ रहे, खान-पान और मानसम्मान में समान भागीदार रहे, किन्तु जब राम के वन-गमन का प्रश्न आया, तब लक्ष्मण पीछे रह जाते, तो उन्हें रामायण में कहाँ जगह मिलती? किन्तु नहीं, लक्ष्मण ने सराहनीय रूप में भाई की मर्यादा का पालन किया। उन्होंने सोचा-जहाँ राम हैं, वहीं मेरे लिये अयोध्या है। जब रावण, सीता को हरण करके ले गया, तब राम ने भी अपने पतित्व की मर्यादा का यथोचित रूप से पालन किया। अपने स्थान पर सीता को न पाकर राम पागल हो गए। हरेक वृक्ष से और फल-फूल से पूछते फिरे, कि सीता को देखा है, तुमने ? इतने बड़े राम, सूरज, चाँद और पक्षियों से भी सीता का पता पूछते हैं। जंगल में चौकड़ी भरने वाले हिरनों से भी वही पूछते हैं। आखिर उन्हें क्या हो गया ? क्यों इतने व्याकुल है? मैं कहता हूँ, राम की इसी व्याकुलता ने तो राम को इतना ऊँचा बना दिया है। सीता का नारी के रूप में राम के मन में कोई महत्त्व नहीं है। नारी भोग-विलास की सामग्री है, इसलिए उनकी व्याकुलता नहीं है। वे पति के नाते सीता का उत्तरदायित्व लेकर वन में आए हैं। उन्होंने प्रतिज्ञा की है, कि हमारे ऊपर संकट पड़ेगा, तो पहले मैं सहन करूँगा, पीछे सीता। सुख पहले सीता का है, और पीछे मेरा। ___पति और पत्नी का सम्बन्ध किस रूप में है? सुख और भोग-विलास की सामग्री पहले तुम्हारी और फिर हमारी है। दुःख तथा संकट पहले मेरा है, और फिर तुम्हारा है। भारतवर्ष ने पति और पत्नी के सम्बन्ध में इतनी बड़ी भावनाएँ जोड़ी हैं। यह एक पवित्र पति-पत्नी का भाव है। राम यह सोचकर व्याकुल नहीं बने कि सीता उनके भोग की सामग्री है, उनके व्याकुल होने का कारण यह था, कि वह अपनी पत्नी की रक्षा नहीं कर सके। वह सोचते हैं—पत्नी कितना कष्ट पा रही होगी। न जाने किस विषम स्थिति में पड़ी होगी। यही पतित्व की मर्यादा थी, जिसने राम को व्याकुल बना दिया था। राम के दुख ने राम को व्याकुल नहीं बनाया, सीता के दुख ने राम को व्याकुल बनाया। राम का यह व्याकुल भाव भी पतित्व की मर्यादा के अन्तर्गत होने के कारण अभिनन्दनीय बन गया, प्रशंसनीय बन गया है। राम, सीता के लिए चल पड़े। नहीं देखा, कि समुद्र को पार करना है। नहीं ‘सोचा कि सीता को लौटाने जाता हूँ, तो स्वयं लौटूंगा या नहीं। वह पत्नी की रक्षा के Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | समवसरण में प्रवेश । ६९/ लिए रावण जैसे महाबली योद्धा से भी जूझ पड़े। उस पर विजय प्राप्त की। अधर्म पर धर्म की विजय। ___इस रूप में हम देखते हैं, कि पत्नी के प्रति पति की जो मर्यादा है, उसका राम ने भलीभाँति पालन किया। इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य का जीवन मर्यादाओं में जकड़ा है। गृहस्थ को गार्हस्थिक मर्यादाओं का पालन करना है और साधु को भी साधुत्व की मर्यादाओं की रक्षा करनी है। जो अपनी मर्यादाओं का पालन करता है, वही सच्चा गृहस्थ है, और वही सच्चा साधु है। जिस देश में मर्यादा-शील गृहस्थ और साधु निवास करते हैं, वह देश धन्य है, वह महान् है। हाँ, तो हम विचार कर रहे थे, कि भगवान् के समवसरण में जाते समय भी मर्यादा का पालन किया जाता है। समवसरण में जाने की पाँच मर्यादाएँ हैं१. सचित्त वस्तुओं का त्याग कर जाना, २. शस्त्र तथा राज-चिह्न आदि का त्याग करना, ३. उत्तरासन करना अर्थात् गले में पड़े दुपट्टे का मुँह पर लगाना, ४. जहाँ से भगवान् दृष्टि-गोचर हों, वहीं से वाहन, छत्र, चामर और माला का त्याग कर हाथ जोड़ लेना और ५. मन को एकाग्र कर लेना, प्रभु के स्वरूप का चिन्तन करना। ___ इन पाँच अभिगमों या मर्यादाओं में पहली मर्यादा सचित वस्तु का त्याग है। फूलों की माला आदि सचित वस्तुएँ लेकर समवसरण में जाना मर्यादा के विरुद्ध है। इसी प्रकार कोई राजा-महाराजा आदि हो, तो वह छत्र-चामर या तलवार आदि वैभव-सूचक अचित्त द्रव्यों को लेकर भी समवसरण में न जाए। अभिप्राय यह है, कि राजा को राजा के रूप में नहीं, किन्तु भक्त के रूप में समवसरण में जाना चाहिए। प्रभु के दरबार में राजचिह्न नहीं धारण किए जाते, क्योंकि वे अहंकार के सूचक हैं। जहाँ अहंकार है, वहाँ प्रभु की पूजा नहीं हो सकती। इस प्रकार वैभव या अहंकार के चिह्न अचित्त द्रव्यों को छोड़कर ही समवसरण में प्रवेश किया जाता है, और सभी सचित्त द्रव्यों का तो त्याग करना ही पड़ता है। कारण, वहाँ अहिंसा का सबसे बड़ा देवता विराजमान होता है, जिसके अणु-अणु में मनुष्य से लेकर छोटे से छोटे एकेन्द्रिय प्राणियों के प्रति भी अनन्त-अनन्त करुणा का सागर उमड़ता रहता है। उनकी दृष्टि तो यह है, कि सचित्त पुष्प को भी तकलीफ नहीं पहुँचनी चाहिए। उसे भी कष्ट नहीं होना चाहिए। जहाँ ऐसी परिपूर्ण दया का झरना बह रहा हो, वहाँ फूलों की माला लेकर पहुँचना, मर्यादा का पालन नहीं कहा जा सकता। प्रभु के दरबार में पहुँचने के लिए प्रभु बनना तो संभव नहीं है, फिर भी प्रभु की भावनाओं का ख्याल तो रखना ही चाहिए। प्रभु की भक्ति करने चले, तो प्रभु की भावनाओं का कुछ अंश तो अपने जीवन में उतारना ही चाहिए। जो व्यक्ति भगवद् Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० । उपासक आनन्द भावना में लीन नहीं होता, अलौकिक भक्ति की तरंग में नहीं बहता, वह भगवान् के दर्शन का पूरा रस नहीं पा सकता । सन्त आनन्दघन ने कहा है जिन स्वरूप कई जिन आराधे, ते सही जिनवर होवे रे। जिनेश्वर देव की भावनाओं में लीन होकर जिनेश्वर देव की सेवा करोगे, तो वह सेवा जिनेश्वर देव की हो सकती है । जिनवर की भावना न रखी, और भक्ति का प्रदर्शन किया, तो वह भक्ति कैसी ? आनन्द या दूसरे कोई भी भक्त प्रभु के समवसरण में जाते तो सचित्त फूल माला आदि अलग रख दिया करते थे। मगर पीछे से लोगों ने इस महत्त्वपूर्ण बात को ध्यान में न रखते हुए केवल भक्ति की बात को ही सोचना शुरू किया, तो वे भक्ति के पीछे विवेक को भूल गए । विवेक को भूल जाने के कारण ही जो चीजें भगवान् या गुरु के दरबार में नहीं पहुँचनी चाहिए, वे पहुँचने लगी हैं। इससे बड़ी गलत चीज और क्या हो सकती है ? आप किसी से मिलने जाएँ, और ऐसी चीज लेकर जाएँ, जिसे वह पाप समझ कर त्याग चुका हो, और स्वयं ही न त्याग चुका हो, किन्तु दूसरों को भी त्यागने की प्रेरणा देता हो, तो क्या आपका यह कार्य उचित समझा जाएगा? जिस चीज को वह त्याग चुका है, और दूसरों को त्यागने का उपदेश देता है, वही चीज आप उसको भेंट करने जाएँ, और उसी के द्वारा अपना भक्ति-भाव प्रकट करें, तो यह भक्तिभाव प्रकट करना है, या उसका उपहास करना है ? राष्ट्रपिता गांधीजी खादी के सबसे बड़े हिमायती थे। उनके जीवन में खादी ताने-बाने की तरह समाई हुई थी । ऐसी स्थिति में कोई मनुष्य दो-तीन सौ रुपये का विदेशी दुशाला लेकर उसे भेंट देने के लिए ले जाए, और उनसे मुलाकात करना चाहे, तो क्या वह मुलाकात करने का सौभाग्य पा सकता है? उसने मुलाकात कर भी ली तो उसका क्या फल होगा? उससे गांधीजी को प्रसन्नता होगी ? नहीं! गांधीजी से उसका मिलना व्यर्थ ही है । यह भी एक मर्यादा है। असल में व्यक्ति का महत्त्व उसके आदर्शों, सिद्धान्तों और उनके अनुरूप किए जाने वाले उसके व्यवहार के कारण ही है । हाड़-मांस का शरीर तो मनुष्य मात्र का एक-सा होता है। उसके कारण कोई पूज्य या महान् नहीं बनता। जब हम किसी व्यक्ति की पूजा करते हैं, जब वास्तव में उसके आदर्श की पूजा करते हैं। किसी के जीवन - आदर्शों की अवहेलना करके उसकी पूजा करने का कुछ अर्थ नहीं है । वह पूजा नहीं, अवहेलना है। आदर्श के अनुरूप ही व्यवहार भी होना, परम आवश्यक है । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरण में प्रवेश । ७१ गाँधीजी विदेशी वस्तुओं के व्यवहार के विरोधी हैं, यह जानते हुए भी विदेशी सूत की माला उनके गले में डालने वाला व्यक्ति क्या वास्तव में उनकी इज्जत करता है ? उनकी इज्जत तो हाथ से काते हुए देशी सूत की माला पहनाने में ही है । यदि हम किसी के प्रति भक्ति प्रकट करना चाहते हैं, तो उसकी भावनाओं का आदर भी करना होगा, और उन भावनाओं को अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न भी करना होगा। भावना सदा निर्मल रहनी चाहिए। भावना के अनुरूप कर्तव्य भी हो । जिसने मदिरा - पान को गर्हित समझ कर त्याग दिया है, उसे कोई मदिरा की बोतल ले जाकर भेंट करता है, तो मैं समझता हूँ, कि इससे बढ़कर गलती दूसरी नहीं हो सकती। भक्ति में भी विवेक रखना चाहिए। भक्ति का बड़ा महत्त्व है, और इतना बड़ा कि भक्ति है तो सब कुछ है, और भक्ति नहीं है तो कुछ भी नहीं है। भक्ति अङ्क स्थान पर है। अङ्क है तो बिन्दुओं का भी महत्त्व है और अङ्क नहीं तो बिन्दुओं का कोई महत्त्व नहीं । मगर भक्ति विवेक- शून्य नहीं होनी चाहिए । भक्ति के मार्ग में से जहाँ विवेक को हटा दिया गया, वहाँ भक्ति बड़ी विद्रूप हो गई। विवेक के अभाव में, अन्धभक्ति ने लोगों को कहाँ से कहाँ भटका दिया है। एक मुसलमान भक्ति के नाते, अपने खुदा के नाम पर गाय या बकरे की कुर्बानी कर देता है। आप ऐसा करते देख कर घबरा उठते हैं, और उससे कहते हैं— कुर्बानी क्यों करते हो ? वह कहता है, खुदा की इबादत करता हूँ । क्या आप उसकी बात मानने को तैयार हो जाएँगे ? कभी नहीं । आप कहेंगे यह खुदा की पूजा नहीं है। किसी का खून बहा कर खुदा की इबादत नहीं हो सकती, भक्ति नहीं हो सकती । गाय का रक्त बहा कर तुम जो भक्ति कर रहे हो, वह सच्ची भक्ति नहीं है । भक्ति करनी है, कुर्बानी करनी हैं, तो अपनी वासनाओं की कुर्बानी करो। भैंसे, गाय या बकरे की कुर्बानी करने से क्या होगा । जब यज्ञ में पशुओं की बलि दी जाती थी, तो भगवान् महावीर ने क्या कहा था? उन्होंने यही तो कहा था, कि सच्ची भक्ति का मार्ग यह नहीं है। दूसरे की हिंसा करके खून बहा कर भक्ति नहीं हो सकती। यदि ऐसा किया जाएगा, तो उससे उत्थान नहीं होगा । यह तो डूबने का मार्ग है, तिरने का मार्ग नहीं है । कोई भी भगवान् ऐसे भक्त का आदर नहीं करेगा। भक्ति प्रेममय होनी चाहिए । जहाँ प्रेम है, वहाँ अहिंसा है, करुणा है । किसी का पिता घूम कर आया। वह पसीने से तर है और गर्मी से घबराया हुआ है । इतने में उसका पुत्र वहाँ आया। उसने पिता की हवा करने के लिए इधर-उधर Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ । उपासक आनन्द । पंखा देखा। जब पास में कुछ दिखाई न दिया तो पिता की भक्ति में बहने वाले पुत्र ने अपना जूता उठाया और उसी से हवा करने लगा। यह भक्ति नहीं, विवेकहीनता है। 'अरे. यह क्या कर रहा है?' ‘पिता की सेवा कर रहा हूँ, साहब, भक्ति कर रहा हूँ।' आप इस पितृ-भक्त पुत्र के विषय में क्या कहते हैं? और उसका पिता क्या कहेगा ? क्या इस भक्ति में रस है ? क्या पिता के मन में पुत्र की इस भक्ति से आनन्द की लहर उठेगी ? पिता प्रसन्न होगा या नाराज। भक्ति की जाए, पर भक्ति के साधनों में विवेक तो होना चाहिए। पंखा किया जाता, तो भक्ति समझ में आती, परन्तु जो चार कदम चलकर पंखा नहीं ला सका, और पास में पड़े जूते से हवा करने लगा, उस पुत्र की भक्ति सच्ची भक्ति नहीं समझी जा सकती। यह भक्ति नहीं, भक्ति का परिहास है। तुम्हें भगवत्-पूजा का मार्ग अपनाना है, तो बाहर के फूलों को रहने दो। जो फूल अभी अभी-अपनी कलियों में खिले हैं, और सूर्य की पहली किरण में ही सो कर उठे हैं, उनकी गर्दन मत तोड़ो। उनको छुओ मत, उनमें प्राण हैं, जीवन है। वे संसार को सौरभ देने के लिए आए हैं, अत: जहाँ हैं वहीं रहने दो। तुम्हें पूजा के लिए फूल चाहिए, तो वे और हैं। उन्हें अपने मन के बाग में ही कहीं खोजो और मन के मन्दिर में जो भगवान् विराजमान हैं, उन पर चढ़ा दो। उन्हें किस रूप में चढ़ाना है, वे भावों के फूल हैं... अहिंसा सत्यनस्तेयं, ब्रह्मचर्य-सम-सङ्गता। गुरु-भक्तिस्तयोः ज्ञानं, सत्पुष्पाणि प्रचक्षते।। हरिभद्रीय अष्टक यह हरिभद्र सूरि के वचन हैं। उनकी वाणी जीवन देने वाली है। वे इसी राजस्थानवर्ती पर्वतीय प्रान्त वीर-भूमि मेवाड़ के थे। उन्होंने कहा है—प्रभु के दर्शन करने के लिए फूल तो चाहिए, किन्तु वे फूल कैसे हों ? वे फूल अहिंसा के होने चाहिए, सत्य के, अस्तेय के, ब्रह्मचर्य के और अनासक्ति के पुष्प होने चाहिए। भक्ति की लहर पैदा होनी चाहिए, कितने ही संकट पड़ें, तो उन्हें सहन करने की क्षमता होनी चाहिए, ज्ञान का और प्रेम का दीपक जलना चाहिए। यही प्रभु की पूजा के लिए श्रेष्ठ फूल हैं। ये वे फूल हैं, जो अनन्त काल से जीवन में महक उड़ेल रहे हैं। जो तोड़े, और मुरझा गए। यह अहिंसा सत्य, दया, ज्ञान और विवेक-विचार के Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | समवसरण में प्रवेश | ७३ भाव-पुष्प हैं। मैं प्रभु के चरणों में इस प्रकार के पुष्पों की भेंट चढ़ाता हूँ। यह प्रभु की भक्ति, भाव-भक्ति है। इस प्रकार प्रभु के चरणों में पहुँचोगे, तो तुम्हें सच्चे भक्त होने का आनन्द मिलेगा, और महक मिलेगी, जिससे तुम ही नहीं, आनंदित होओगे, दूसरों को भी आनन्द होगा। ___ तुम हाथों में क्या लेकर आए हो? मेवा, मिष्ठान्न या पुष्प ? भगवान् यह नहीं देखते। वे तो तुम्हारे मन को देखते हैं। यह सब क्यों बटोर कर लाए हो? मन में अहिंसा और दया की भावना है, अनासक्ति की भावना है, तो यही सबसे बड़ी भेंट है। यही भेंट चढ़ाकर आप अपने जीवन को सुन्दर और सफल बना सकते हैं। हिंसा करना मुक्ति का मार्ग नहीं है। भगवद्भक्ति का मार्ग नहीं है। इसी प्रकार जब किसी सन्त पुरुष की उपासना के लिए जाओ, तो जो जैसे हों, उनकी जो भी मर्यादाएँ हों, उनका उसी रूप में पालन करना चाहिए। महाभारत में मैंने पढ़ा है। जब भीष्म युद्ध में लड़ते-लड़ते घायल हो जाते हैं, तो बाणों की शय्या पर लेट जाते हैं, पलंग पर नहीं, मखमल या रुई के गद्दे पर नहीं। जिस ओर झुकते हैं, उसी ओर से वाण चुभते हैं। रक्त की बूंदें बह रही हैं। चारों ओर से कौरव और पाण्डव उन्हें घेर कर खड़े हैं। दुर्योधन, कर्ण और शकुनि आदि-आदि महारथी खड़े हैं। वज्र के बने उस बुड्ढे ने कभी हार नहीं खाई। वह शरीर से निरन्तर जूझाता रहा है, और इसी कारण उसका नाम 'भीष्म' हो गया है। उसने भरी जवानी में ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर अपने पिता के लिए जबर्दस्त बलिदान दिया। उसी भीष्म का जबर्दस्त चमकने वाला सूर्य आज निस्तेज हो रहा है। आज उनके जीवन का दीपक बुझ रहा है। ____ भीष्म ने सोचा-ये लोग अपने अहंकार के सामने किसी को कुछ नहीं समझ रहे हैं, और खून की होली खेल कर ही फैसला करना चाहते हैं। एक-मात्र तलवार ही इनकी सहायक है, इन्होंने यही अपना सिद्धान्त बना लिया है। इस दृष्टिकोण से उन्होंने परीक्षा लेकर शिक्षा दर्शानी चाही। अपने लटकते हुए सिर को ऊँचा उठाया और कहा-देखते क्या हो, एक तकिया लगाओ। ___भीष्म की ललकार-भरी आवाज निकली ही थी कि दुर्योधन, कर्ण आदि बढ़िया-बढ़िया मखमली और रुईदार तकिया ले आए। किन्तु भीष्म ने कहा यह क्या लाए हो यह तकिया तुम्हारे लिए होंगे, भीष्म के लिए नहीं हैं। यह तकिया लाकर तुमने भीष्म का अपमान और उपहास किया है ! फिर अर्जुन की ओर इशारा किया। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ | उपासक आनन्द संकेत पाते ही अर्जुन ने धुनष-वाण लिया और सिर के दोनों तरफ बाण मारकर तकिया बना दिया। भीष्म ने उस पर सिर रखकर कहा, भीष्म के लिए यही तकिया उपयुक्त है। तुम देख रहे हो, कि मेरे शरीर में वाण चुभ रहे हैं, मेरी आत्मा वीरगति की प्रतीक्षा में है, एक सच्चा क्षत्रिय युद्ध में लड़ते-लड़ते अपनी मृत्यु का आह्वान कर रहा है। तो उसके लिए वाणों की शय्या के साथ वाणों का ही तकिया भी चाहिए। कुछ क्षण रुककर भीष्म ने फिर कहा-दुर्योधन ! तुम अब भी मर्यादा का उल्लंघन कर रहे हो, और अर्जुन अब भी मर्यादा के भीतर है। वह योग्य-अयोग्य को समझता है, किन्तु तुम्हारे अन्दर यह चीज मुझे नहीं मिलती। तुम्हें कब विवेक प्राप्त होगा ? जीवन में विवेक का मिलना अत्यन्त कठिन है। ___ मेरा अभिप्राय यह है, कि भीष्म ने तकिया माँगा तो अर्जुन ने उनकी मांग पूरी की। दुर्योधन आदि ने जो तकिये लाकर दिए वे मर्यादा के अनुरूप नहीं थे। वाण तो चुभने वाले ही थे, किन्तु वाणों की शय्या की मर्यादा यही है, कि तकिया भी वाणों का हो। इसी में उस शय्या का गौरव था। अर्जुन ने वाण-शय्या की मर्यादा को समझा और उसे पूरा भी किया। अवसर की पहचान करना, आसान काम नहीं है। __ हम समझते हैं, जो गृहस्थ अपनी मर्यादाओं की समझेगा और उनके अनुसार व्यवहार करेगा, वही सच्चा गृहस्थ है, और अपनी मर्यादाओं को जानने वाला साधु ही सच्चा साधु है। मर्यादा-हीन जीवन, जीवन नहीं। क्या भगवान् के पास और क्या सन्त के पास जाना हो, तो देखो कि उनकी क्याक्या मर्यादाएँ हैं। अगर उन मर्यादाओं का ठीक-ठीक पालन करोगे, तो सच्चे उपासक, पुजारी या भक्त कहला सकोगे। उनकी मर्यादाओं के अनुसार अहिंसा, सत्य आदि के पुष्प लेकर उनके चरणों में पहुँचोगे, तो सच्चे भक्त बनोगे। भक्ति में भी मर्यादा आवश्यक है। प्रभु के पास जाते समय केवल सचित्त द्रव्यों का त्याग करने से से काम नहीं चलेगा, अहंकार का भी त्याग करना होगा और भक्त के योग्य नम्रता भी धारण करनी होगी। भगवान् के समवसरण की भी एक मर्यादा, एक नियम है। __ भगवान् के समवसरण में जाने की क्या मर्यादाएँ हैं, प्रसंग पाकर मैंने संक्षेप में यह बतला दिया है। प्रस्तुत सूत्र में इन मर्यादाओं के सम्बन्ध में उल्लेख न होने पर भी यही मानना होगा, आनन्द ने समवसरण में प्रवेश करते समय वहाँ की मर्यादाओं Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tapmulamper | समवसरण में प्रवेश । ५५ का पूर्ण रूप से पालन किया। आनन्द एक विवेक-शील गृहस्थ था। उसकी भक्ति अंधी नहीं थी। वह भगवान् के समवसरण में पहुँचा, तो वहाँ की सभी मर्यादाओं का उसने पालन किया। आनन्द श्रावक बना, भगवान् का परम भक्त हो गया। अतएव शास्त्र में उसे उपासक आनन्द कहा गया। जैन परम्परा में, गृहस्थ श्रमणोपासक कहा गया है। कुन्दन-भवन, ब्यावर, अजमेर २३-८-५० Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दना यह उपासकदशांग सूत्र है, और आनन्द का वर्णन आपके सामने चल रहा है। आप सुन चुके हैं, कि भगवान् महावीर वाणिज्यग्राम नगर के बाहर पधारे हैं। आनन्द भगवान् के दर्शन करने और उनका प्रवचन सुनने के लिए समवसरण में पहुँच गया। वहाँ पहुँच कर उसने क्या किया, सूत्रकार के शब्दों में ही सुनिए 'जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करे । करेत्ता वंदइ, नमंसइ, जाव पञ्जुवासइ ।' आनन्द जब भगवान् के समवसरण में पहुँचा, और जब भगवान् के चरणों में पहुँच गया, तो उसने तीन बार दाहिने हाथ की ओर से प्रारम्भ करके भगवान् की प्रदक्षिणा की। वंदना की, नमस्कार किया, सत्कार-सम्मान दिया, और पावन चरणों में नमस्कार करके फिर उपासना करने लगा । एक भाई का प्रश्न है कि आनन्द यदि जैन नहीं था, तो उसने 'तिक्खुत्तो' का पाठ कैसे जाना ? प्रश्न ठीक किया गया है, और उसका समाधान भी करना चाहिए । आनन्द जैन नहीं था, फिर भी उसका वन्दना करने का ढंग वही है, इस कारण यह प्रश्न उपस्थित हुआ है, कि आनन्द को जैन ही क्यों न समझा जाए ? इस प्रश्न का निपटारा करने के लिए हमें शकडाल - पुत्र के वर्णन की ओर ध्यान देना चाहिए। उसके वर्णन की ओर इसलिए कि वह निश्चित रूप से जैन नहीं था । वह गोशालक का अनुयायी था, यह बात निर्विवाद रूप से प्रसिद्ध है। जब वह भगवान् के पास पहुँचता है, तब इसी विधि से वंदना करता है, तथा अन्य भक्तों के विषय में भी यही पाठ आता है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि चाहे कोई जैन गृहस्थ हो या जैनेतर हो, सब ने इसी विधि से वन्दन - नमस्कार किया है। अतएव आनन्द के वन्दन - नमस्कार में ऐसी कोई खास बात नहीं है, जिससे उसके जैन होने का अनुमान किया जा सके। जिनका उपासक जैन होता है। मूल में आनन्द जिनका उपासक नहीं था । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दना । ७५ सूत्र के मूलपाठ में बतलाया है-आनन्द ने भगवान् के पास पहुँचकर तीन बार प्रदक्षिणा की, नमस्कार किया, भगवान् के चरणों में बैठ गया और उपासना करने लगा। इस वर्णन में कोई ऐसी असाधारण बात नहीं है, जिसका सम्बन्ध किसी खास धर्म के ही साथ हो। भारतवर्ष के जितने भी धर्म हैं, उन सब में लगभग यही परिपाटी है। जैनधर्म को देखें, बौद्धधर्म को देखें अथवा वैदिकधर्म को देखें, सबमें यही चीज है। किसी भी धर्म के महापुरुष के सामने जाकर कोई भी शिष्ट, विवेकवान् और मर्यादा को समझने वाला पुरुष ऐसा ही करता है। ____ अभिप्राय यह है, कि नमस्कार करने की पद्धति का धर्म के साथ सम्बन्ध नहीं है, किन्तु उसका सीधा सम्बन्ध उस समय में प्रचलित जनता के शिष्टाचार के साथ है। उस समय जनता के शिष्टाचार की धारा इसी रूप में बह रही थी। क्या जैन और क्या अजैन सब इसी पद्धति से नमस्कार करते थे। संत के चरणों में पहुँचे, तो तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दना कर लें, मत्था टेक लें—नमस्कार कर लें और उपासना में लग जाएँ, यही शिष्टजन-सम्मत पद्धति उस समय प्रचलित थी। यह लोकाचार था, उस युग का। तिक्खुत्तो का पाठ बोलना एक बात है, और उसके आशय के अनुरूप व्यवहार करना दूसरी बात है। 'तिक्खुत्तो' का पाठ बोलने का तो यहाँ कोई प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई उल्लेख शास्त्र में नहीं है, कि आनन्द ने यह पाठ बोला। इस पाठ के अनुसार व्यवहार करने की ही बात है, और उसका स्पष्टीकरण हो ही चुका है, कि ऐसा व्यवहार सभी जगह होता रहा है, और सभी धर्मों के अनुयायी करते रहे हैं। सामान्य व्यवहार सबका एक ही होता था, उस समय। जब हम यह पाठ बोलते हैं, तब हम समझते हैं, कि यह हमारा अपना है। शाब्दिक रूप में यह कथन ठीक माना जा सकता है। परन्तु जहाँ तक व्यवहार का प्रश्न है, भारतवर्ष का प्रत्येक व्यक्ति उस समय इसी प्रकार का व्यवहार करता था। जो उस समय के इतिहास को बारीकी से जानते होंगे, उन्हें पता चल जाएगा, कि उस काल में नमस्कार करने की यह सर्वसम्मत पद्धति थी। जिस विधि से आनन्द ने भगवान् की वन्दना की। उस विधि से यह नहीं समझ लेना चाहिए, कि आनन्द को 'तिक्खुत्तो' का पाठ याद था। शास्त्रों में जहाँ कहीं भी किसी के किसी भी धर्म-तीर्थंकर या सन्त के पास जाने और वन्दन-नमस्कार करने का वर्णन आता है, सब जगह यही पाठ आता है'तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, वंदइ, नमसइ जाव पजुवासइ। किन्तु कहीं भी Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ । उपासक आनन्द ऐसा वर्णन नहीं आता, कि- तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करोमि, वंदामि, नम॑सामि जाव पज्जुवासामि । इन दोनों पाठों में जो अन्तर है, उसका आशय यह है, कि साधक या भक्त यह पाठ नहीं बोल रहा है; बल्कि उस साधक ने जिस ढंग से वंदन - नमस्कार किया है, उसे शास्त्रकार अपनी ओर से बतला रहे हैं। शास्त्रों में जिस रूप में पाठ आया है, वही रूप ठीक भी है; क्योंकि साधक ने भगवान् या संत के पास पहुँच कर क्या-क्या किया, यह वर्णन शास्त्रकार की ओर से किया जा रहा है। साधक जो किया करता है, वह करता ही है, कहता नहीं है; और शास्त्रकार उसे कहते हैं । आप किसी से मिलने जाते हैं, तो ज्यों ही वह दृष्टि गोचर होता है, आप अपने चेहरे पर प्रसन्नता का भाव झलकाते हैं, मगर यह तो नहीं कहते कि 'मैं प्रसन्नता का भाव झलका रहा हूँ। प्रसन्नता झलका कर आप यथायोग्य हाथ जोड़ते हैं, तब भी यह नहीं कहते—–'मैं हाथ जोड़ता हूँ।' फिर आप उससे कुशल-क्षेम पूछते हैं तो क्या यह कहते हैं कि 'मैं कुशल-क्षेम पूछता हूँ ।' और फिर बैठ जाते हैं। तब भी 'मैं बैठ रहा हूँ ।' ऐसा नहीं कहते । मतलब यह है, कि जो चेष्टाएँ की जाती हैं, उन्हें चेष्टा करने वाला कहता नहीं रहता है। उसका काम चेष्टाएँ करना है। -- जो साधक भगवान् के चरणों में पहुँचता है, वह तीन बार प्रदक्षिणा करता है, वन्दना करता है, नमस्कार करता है, और बैठ जाता है । यह सामान्य शिष्टाचार है। आनन्द भी यही शिष्टाचार व्यवहार में लाया है, और शास्त्रकार ने उसे शब्दों में बाँध दिया है। इसका अर्थ यह नहीं, कि आनन्द ने इस पाठ का उच्चारण किया है। 'तिक्खुत्तो' के पाठ में जो चीज है, वह मूल में करने की चीज थी, कहने की नहीं । किन्तु जब चरित्र का वर्णन आया, तब उस विधि का शब्दों में उल्लेख हुआ । जब शब्दों में उल्लेख हुआ तो आचार्यों ने 'करेइ' की जगह 'करेमि' 'वंदइ' की जगह 'वंदामि', 'नमंसइ' की जगह 'नमंसामि' और यावत् 'पज्जुवासइ' की जगह 'पज्जुवासामि' रूप दे दिया, और वह करने के साथ-साथ कहने की भी चीज बन गई। परन्तु जब यह पाठ अलग होता है, तभी यह रूपान्तर ठीक बैठता है । किसी चरित्र के वर्णन में यह रूपान्तर ठीक नहीं बैठ सकता । अतएव चरित्र के वर्णन में सभी शास्त्रों में वह पहले वाला 'करेइ' 'वंदइ' आदि पाठ ही आता है, और वही पाठ यहाँ आया है। सारांश यह है, कि यहाँ आनन्द के चरित्र - वर्णन में जो तिक्खुत्तो वाला पाठ है, वह शास्त्रकार का अपनी ओर से लिखा गया पाठ है। वह आनन्द के बोल नहीं हैं। आनन्द के बोल होते तो वह 'करेमि' आदि उत्तमपुरुष-सूचक बोलता, 'करेइ' आदि अन्य पुरुष-सूचक क्रियाएँ न बोलता । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दना ।७९. आनन्द ने जिस पद्धति का अवलम्बन किया, वह भारतीय पद्धति है और बौद्धों में तथा वैदिक समाज में भी प्रचलित है। महान् पुरुष को नमस्कार करना चाहिए, और नमस्कार करने में सिर झुकाना चाहिए, यह सब जगह रिवाज है। महापुरुषों को नमस्कार करने से पुण्य का लाभ होता है। कई शब्द ऐसे हैं जिनके सम्बन्ध में हमारा यह ख्याल हो जाता है, कि इनका यही रूढ़ अर्थ है, और दूसरा अर्थ नहीं हो सकता। हमारे पड़ौसी सम्प्रदाय में भी वह शब्द प्रचलित हैं, और वहाँ उनका अर्थ कुछ दूसरा है, इस बात की कल्पना भी हममें से बहुतों को नहीं होती । उदाहरण के लिए एक 'पोषध' शब्द को ही लेलें । हमारे यहाँ उत्तराध्ययन सूत्र में नमि राजर्षि का अध्ययन है। नमि दीक्षा लेते हैं, और इन्द्र ब्राह्मण के वेश में उनकी परीक्षा लेने आता है । तब एक जगह इन्द्र कहता है : घोरासमं चइत्ताणं, अन्नं पत्थेसि आसमं । इहेव पोसहरओ, भवाहिं मणुयाहिवा ॥ - 'उत्तराध्ययन', ९ हे राजन् ! आप एक अच्छे गृहस्थ थे और गृहस्थावस्था में रहकर उन्नति कर सकते थे। गृहस्थाश्रम भी बड़ा आश्रम है। फिर इसका त्याग करके आप दूसरे आश्रम को क्यों स्वीकार कर रहे हैं ? गृहस्थाश्रम में ही रह कर 'पोषध' करो । यह एक पारिभाषिक शब्द है। 1 -- यहाँ 'पोषध' शब्द आया है। हमारे कुछ टीका-कारों ने जो साधारण नहीं, बड़े विद्वान गिने जाते हैं, और जिनकी बड़ी ख्याति, और प्रतिष्ठा है, 'पोषध करो' का अर्थ किया है कि तुम गृहस्थ धर्म में रहो, और तीन गुण-व्रतों, चार शिक्षा-व्रतों और पाँच अणुव्रतों का पालन करो और इस श्रावक-धर्म के द्वारा ही अपना कल्याण कर लो। पोषध (पोसह) शब्द को देखकर ही टीकाकारों ने समझ लिया, कि यहाँ जैन परम्परा का सम्बन्ध है, क्योंकि 'पोषध' शब्द जैन परम्परा में ही प्रचलित है। दूसरी परम्पराओं में वह सुनाई नहीं देता है। अतएव 'पोषध करो' का मतलब है गृहस्थधर्म का पालन करो । किन्तु इन्द्र के इस कथन के उत्तर में नमि राजर्षि कहते हैं : मासे मासे तु जो वालो, कुसग्गेण उ भुंजए। न सो सुक्खाय धम्मस्स, कर्ल अग्घइ सोलसिं ॥ _' उत्तराध्ययन' ९ जो बाल है, अज्ञानी है, जिसे धर्म का विवेक नहीं प्राप्त हुआ है, वह साधक, पोषध की तो बात ही क्या, यदि महीने-महीने की तपस्या करे और पारणा के दिन Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० । उपासक आनन्द । घास की नोंक पर जितना अन्न और पानी आवे, उतना अन्न-पानी खा-पी कर फिर महीने भर की तपस्या करे; तो इतना बड़ा तप भी विशुद्ध धर्म के सोलहवें भाग की भी बराबरी नहीं कर सकता। विशुद्ध धर्म तप से भी बड़ा है। इन्द्र के कथन के उत्तर में नमि राजर्षि ने ऐसा कहा। दोनों के कथन पर आप ध्यान से विचार करें। टीका-कारों के अनुसार इन्द्र पाँच अणुव्रत आदि गृहस्थ धर्म का पालन करने की बात कहता है, और उस कथन के उत्तर में नमि राजर्षि कहते हैं, कि बड़े से बड़ा बाल-तप भी विशुद्ध धर्म के सोलहवें भाग की बराबरी नहीं कर सकता। इस उत्तर से तो ऐसा जान पड़ता है, कि नमि राजर्षि पाँच अणखत आदि को बाल-तप समझते हैं। किन्तु जैनधर्म उसे बाल-तप नहीं समझता। तो फिर राजर्षि का यह कैसा उत्तर है। इन्द्र ने कहा, कि साधु मत बनो, गृहस्थधर्म का पालन करो और उसके उत्तर में नमि कहते हैं, कि बालतप करने से कल्याण नहीं होता-बाल-तपस्वी का बड़े से बड़ा तप भी धर्म का अंश नहीं है। तब या तो यही मानना होगा, कि नमि राजर्षि गृहस्थ-धर्म को बाल-तप समझते हैं, या यह समझना होगा, कि उन्होंने इन्द्र के कथन का ठीक-ठीक उत्तर नहीं दिया। उन्होंने, कहे खेत की और सुने खलिहान की वाली उक्ति चरितार्थ की है। प्रश्न कुछ और है, उत्तर कुछ और है। प्रश्न के साथ उत्तर का कोई सम्बन्ध नहीं है। इन्द्र गृहस्थधर्म पालन करने की बात कहता है, उसके उत्तर में कुछ भी न कह कर वे बाल-तप पर बरस पड़ते हैं। ___ मैं समझता हूँ, इसमें नमि राजर्षि का कोई दोष नहीं है। न यही मानना योग्य है, कि वे गृहस्थधर्म को बाल-तपस्या समझते हैं, और न यही समझना चाहिए, कि उन्होंने उत्तर में अप्रस्तुत बात कही है। तो फिर इस परस्पर असंगत प्रश्नोत्तर की संगति किस प्रकार बैठ सकती है ? आइए, इस पर विचार करें। आप सुन चुके हैं, मूल में गृहस्थधर्म की कोई बात नहीं है। वहाँ तो सिर्फ 'पोसह' शब्द आया है और टीका-कारों ने ही 'पोसह' का अर्थ गृहस्थधर्म कर दिया है। 'पोसह' शब्द को देखते ही उन्होंने समझ लिया, कि यह तो जैन-धर्म का ही 'पोसह' है। इसी कारण यहाँ प्रश्न और उत्तर में असंगति मालूम होती है। उन्होंने वैदिक धर्म का अध्ययन किया होता, और बौद्धधर्म का भी कुछ अध्ययन किया होता, तो ज्ञात हो जाता, कि पोसह (उपाषथ, पोषद) शब्द का व्यवहार उन परम्पराओं में भी होता है। इन्द्र का कथन उसी पोषध के खयाल से है, अर्थात् Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दना ।८१ वैदिकधर्म की हिंसा-मूलक यज्ञीय तपस्या को ध्यान में रखकर इन्द्र ने प्रश्न किया है, और नमि राजर्षि ने उसी दृष्टिकोण से उत्तर दिया है। इस प्रकार विचार करने पर कोई असंगति नहीं रह जाती। जैन पोषध और वैदिक पोषध में बहुत अन्तर है। यहाँ मेरा आशय टीकाकारों की भलें बतलाना नहीं है। आशय यह है, कि व्यापक अध्ययन के अभाव में कभी-कभी बड़ी गड़-बड़ी हो जाती है। जैसे पोषध शब्द जैनेतर सम्प्रदायों में भी प्रयुक्त होता है, उसी प्रकार तीन बार प्रदक्षिणा देकर वन्दना करने की पद्धति भी सभी सम्प्रदायों में है। जैन भी इसी ढङ्ग से वन्दना करते थे, और दूसरे भी इसी ढङ्ग से वन्दना करते थे। भारतवर्ष में गुरु का आदर-सम्मान करने की उस समय यही परम्परा थी। परन्तु जान पड़ता है, दूसरों में यह परम्परा बदल गई, और हमारे यहाँ अब भी प्रचलित है। __ मैं समझता हूँ, प्रश्नकर्ता का इस विवेचन से समाधान हो जाएगा। अभी-अभी मैं आपसे कह रहा था आनद भगवान् महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा करके नमस्कार करता है। __ आजकल तीन बार हाथ घुमाकर प्रदक्षिणा करली जाती है। किन्तु प्राचीन काल में प्रदक्षिणा करने की दूसरी परिपाटी थी। उस समय जिसकी प्रदक्षिणा करनी होती, उसके शरीर के चारों और घूम-घूम कर परिक्रमा की जाती थी। गुरु जहाँ विराजमान होते, वहाँ सब तरफ साढ़े तीन हाथ भूमि खाली छोड़ी जाती थी, और वहाँ कोई बैठ नहीं सकता था। जब कोई भक्त नमस्कार करने को आता, तब पहले उस साढ़े तीन हाथ की भूमि में प्रवेश करने की आज्ञा माँगता था। आज्ञा प्राप्त हो जाने पर वह उस भमि में प्रवेश करके गुरु के चारों ओर फिरकर परिक्रमा करता था। उस समय प्रदक्षिणा करने की यह परिपाटी थी। हमारे यहाँ 'इच्छामि खमासमणो' के पाठ में बोलते हैं, कि_'मुझे अवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा दीजिए।' यह अवग्रह वही खाली भूमि है, जो गुरु के चारों ओर परिक्रमा करने वालों के लिए खाली रखी जाती थी। परिक्रमा करना भी प्राचीन परम्परा है। ___ इस भूमि में प्रवेश करने के लिए गुरु की आज्ञा मांगी जाती थी। गुरु जब आज्ञा दे-देते, तब भक्त उसमें प्रवेश करता। गुरु के चरणों को स्पर्श करता, और फिर, अपने नहीं; किन्तु गुरु के दाहिने हाथ की ओर से प्रारम्भ करके चारों ओर चक्कर लगाता, और सामने आने पर वन्दना करता था। फिर दूसरे चक्कर में सामने आने पर वन्दना करना और इसी प्रकार तीसरे चक्कर में भी। इस तरह तीन प्रदक्षिणा करने के बाद नमस्कार करता था। मन्दिरों में आज भी यही परिपाटी प्रचलित है। वहाँ मूर्ति को भगवान् के रूप में स्थापित कर दिया जाता है, और उसी प्रकार परिक्रमा की जाती है, जैसे भगवान् के सामने की जाती थी। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1८२ । उपासक आनन्द । मैंने पुराण और उपनिषद् भी देखे हैं। उनमें भी तीन बार प्रदक्षिणा करने का उल्लेख मिलता है। ____ अब हमारे यहाँ यह रिवाज नहीं रहा। अब गुरुजी बीच में नहीं बैठते और जब बीच में नहीं बैठते तो भक्त तीन बार प्रदक्षिणा करे भी तो कैसे करे ? और फिर भक्त भी उतावले हो गए हैं। कौन तीन बार परिक्रमा करने में समय व्यय करे। तो प्रदक्षिणा का संक्षिप्त रूप निकाल लिया गया कि तीन बार हाथ घुमा लिए, और बस, तीन परिक्रमाएँ हो गईं। आपको ध्यान में रखना चाहिए, कि हजारों वर्षों पहले जो परम्पराएँ प्रचलित थीं, वे सभी उसी रूप में ज्यों ही त्यों नहीं रह गई हैं। उनमें परिवर्तन हो गया है। इतने लम्बे काल में कुछ न कुछ परिवर्तन आ ही जाता है, और बड़ी विधियाँ छोटी हो जाती हैं। ___ एक उदाहरण लीजिए। किसी ने मुझसे कहा-आप यह 'तिक्खुत्तो' कहाँ से लाए ? गुरु को तो 'इच्छामि खमासमणो' से वन्दना करना चाहिए, क्योंकि तीसरा आवश्यक गुरु-वन्दना है। पहला आवश्यक सामायिक, दूसरा चतुर्विंशतिस्तव और तीसरा गुरुवन्दन है। वन्दना में 'इच्छामि खमासमणो' ही पढ़ते हैं। इसका अर्थ यही हुआ, कि वन्दना 'इच्छामि खमासमणो के पाठ से ही करना चाहिए। ____ मैंने उनसे कहा—बात ठीक है और पहले ऐसा ही होता था। यही विधि प्रचलित थी। परन्तु आपने क्या किया है ? आप 'इच्छामि खमासमणो' से शुरू करके और बीच में उसका संक्षिप्तीकरण करने के लिए 'जाव' को डाल कर एक दम ही अखिरी मंजिल पर पहुँच जाते हैं, और बीच के सारे पाठ को गुम कर देते हैं। कहींकहीं तो टब्बों में सारा ही पाठ गायब कर दिया है। तो आपने यह 'जाव' कहाँ से लगा दिया ? आप हों या हम हों, सच्चाई सबको स्वीकार करनी चाहिए। सब पर काल का प्रभाव पड़ता है। परिस्थितियों ने समेट दिया है। परिस्थितियों ने आपको भी प्रभावित किया है, और हमको भी प्रभावित किया है। आप मन्दिरों में तो प्रदक्षिणा दे रहे हैं, किन्तु गुरु की प्रदक्षिणा कहाँ चली गई है ? आशय यह है, कि कोई भी धर्म या सम्प्रदाय हो, देश, काल और परिस्थिति के प्रभाव से वह अछूता नहीं रह सकता। सब पर प्रभाव पड़ता है। इसी प्रभाव के कारण प्रदक्षिणा की विधि भी छोटी पड़ गई, और सिर्फ हाथों की प्रदक्षिणा रह गई। आज तो ऐसा लगता है, कि हाथों की प्रदक्षिणा भी रह जाए तो गनीमत समझिए। पुराने-पुराने लोग हाथों की प्रदक्षिणा को कायम रखे हुए हैं, आगे आने वाली संतानों में तो इसका रहना भी मुश्किल है। आज भी प्रायः Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | वन्दना । ८३] 'मत्थएण वंदामि' ही रह गया है, और ध्यान रखना होगा, कि धीरे-धीरे कहीं यह भी गायब न हो जाए। प्राचीन परम्पराएँ विलुप्त होती जा रही हैं। ___हाँ, तो आनन्द तो उस प्राचीन युग का भक्त है। उसने अपने युग के अनुसार तीन बार प्रदक्षिणा दी, वन्दना की, नमस्कार किया और फिर उपासना करने लगा। वन्दना और नमस्कार क्यों किया जाता है ? इसका प्रयोजन क्या है ? महत्त्व क्या है ? जब कोई साधक अपने गुरु के समक्ष पहुँचता है, तो अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पण करता है और उसका अर्थ है, कि अपनी सम्भावनाएँ अर्पण करता है। वन्दनानमस्कार करते समय मरतक झुकाया जाता है, और समग्र शरीर में मस्तक ही सबकुछ है। यदि पाँच-सौ धनुष का शरीर है, और उसमें मस्तक नहीं है, तो वह शरीर लाश ही होगा। इतने बड़े शरीर में भी मस्तक ही महत्त्व की वस्तु है। शरीर में मस्तक को उत्तम अंग कहा गया है। जब साधक कहता है, कि मैं मस्तक झुका कर वन्दना करता हूँ, तो इसका अर्थ यह होता है, कि मैं सिर की भेंट देता हूँ। जब सिर की भेंट दे दी, तब शेष क्या रह गया ? फिर तो सर्वस्व ही समर्पित कर दिया गया। अपने गहरे मित्र के प्रति कहा जाता है'मैं तुम्हारे लिए अपना सिर देने को तैयार हूँ।' इसका अर्थ यही होता है, कि मैं सर्वस्व निछावर कर देने को तैयार हूँ। मनुष्य के पास जो प्रतिष्ठा, वैभव और इज्जत है, वह सिर ही है और सिर है, तो सभी कुछ है। जब साधक कहता है, कि 'मैं मस्तक से वन्दना करता हूँ, तो उसका अर्थ यह होता है, कि मैं सिर अपर्ण करता है। मगर सिर को अर्पण करने का मतलब क्या है? मतलब यह है, कि सोचने-विचारने की क्रिया मस्तक के अन्दर ही होती है, तो मैं अपने विचार आपके अधीन करता हूँ। अर्थात् आपके जो विचार होंगे, वाणी होगी, वही विचार और वही वाणी मेरी भी होगी। जो आपकी भावनाएँ होंगी, वही मेरी भावनाएँ होंगी। आपके और मेरे विचार और वचन में कोई अन्तर नहीं होगा, कोई द्वैत नहीं होगा। इस प्रकार अपने विचार, वचन, चिन्तन और मनन में अनुरूपता लाना, गुरु के विचार और वचन आदि के साथ उन्हें जोड़ देना ही उन्हें मस्तक झुका कर वन्दननमस्कार करने का अभिप्राय है। सिर तो हड्डियों का ढेर है। उसमें रहे हुए विचारों का ही महत्त्व है। उनको अर्पित कर देना ही महत्त्वूपर्ण अर्पण है। सिर का आलंकारिक अर्थ विचार और Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४। उपासक आनन्द । भावना ही है। लोग कहते हैं--अमुक का सिर फिर गया है। यहाँ भी सिर का अर्थ विचार ही होता है। विचार उलट-पलट जाते हैं, मस्तक तो ज्यों का त्यों बना रहता है। सिर देने का अर्थ विचारों और भावनाओं को अनुरूप बनाना है। सिर के अन्दर यदि भावनाओं की चमक नहीं है, तो सिर का कोई मूल्य नहीं है। हजारों वर्षों से वन्दन हो रहा है, किन्तु जहाँ भावनाओं का अर्पण नहीं, वहाँ वन्दन का कोई वास्तविक मूल्य नहीं । वन्दन तो भावनाओं द्वारा ही होना चाहिए। जहाँ वन्द्य और वन्दक में विचार की एकता है, भावना की अनुरूपता है; वही भाव-वन्दन है। यह नहीं है, तो वह द्रव्य-वन्दन मात्र है—हड्डियों के ढांचों को झुकाना भर है। सिर झुक रहा है और 'दयापालों' की ध्वनि गूंज रही है, किन्तु धर्म का उपदेश ठुकराया जा रहा है, और धर्म की आज्ञाओं का पालन नहीं हो रहा है। वह हवा में ही उड़ाई जा रही हैं। परिणाम यह होता है, कि जीवन का कल्याण और विकास नहीं हो पाता है। अतएव आवश्यक यही है, कि जीवन में भावनाओं का प्रकाश हो और प्रत्येक क्रिया में भावना की ज्योति जग-मगाती हो। साधु अपने गुरु को दस-बीस वर्षों तक वन्दन करता है, सिर झुकाता है, और जब कोई महत्त्वपूर्ण बात आ जाती है, आज्ञा का पालन करने का विशेष अवसर आता है, तो चेला किधर हो जाता है, और गुरुजी किधर हो जाते हैं। यह सब क्या है ? यह सब द्रव्य है इसमें भाव नहीं है, भावना नहीं है। आप गृहस्थ लोग भी क्या करते हैं? जब गुरु देश और काल की दृष्टि से, जीवन-विकास का कोई महत्त्वपूर्ण संदेश देते हैं, तो आप अपनी रूढ़ियों और परम्पराओं के अधीन रहकर, उसे ठुकरा देते हैं, उसका तिरस्कार कर देते हैं। जहाँ गुरु की सूचनाओं का तिरस्कार होता है, अवज्ञा होती है, और गुरु के संदेश पैरों से कुचले जाते हैं, वहाँ सिर को उनके चरणों में रख देने पर भी क्या लाभ हो सकता है? यह तो केवल यांत्रिक क्रिया है। मशीन की तरह शरीर से चेष्टा करना है। असली वन्दन तो गुरु की भावना में अपनी भावनाओं को मिला देना ही है। हम लोग सम्प्रदायों में बँट गए हैं। गिरोह बन गए हैं वन्दन करने चले तो अपना गज बना लिया है, और उसी गज से नापना शुरू ६ दिया है। यह अमुक सम्प्रदाय का है या नहीं, यह देखा जाता है, और अमुक सम्प्रदाय का है, तो उसे वन्दना कर ली जाती है। इस प्रकार वन्दना का गज सम्प्रदाय-वशेष बन गया है। किन्तु वास्तव में वन्दना का गज है..-चरित्र। इस गज से कौन नापता है? जिसे वन्दना की जा रही है, उसमें त्याग-वैराग्य है या नहीं, चारित्र है या नहीं, इसकी आज कौन Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दना १८५ परवाह करता है। हम अपना समग्र जीवन जिसके चरणों में अर्पित कर रहे हैं, उसमें वह ज्योति है अथवा नहीं, कि वह हमारे जीवन को भी उद्भासित कर सके ? यह प्रश्न ही आज किसी के अन्तःकरण में नहीं उठता। बस, जो मेरे गुरु का चेला है, उसी को मेरी वन्दना — इसी ममत्व के भावों से प्रेरति होकर सिर झुका लिया जाता है । मस्तक बड़ी चीज है। हजारों, लाखों और करोड़ों वर्षों से सिर की रक्षा के लिए दुनिया से लड़ते आए हैं। जब मस्तक को अर्पण किया जाए, तब देख लेना चाहिए, कि जिसे मस्तक अर्पण कर रहे हैं, उसमें आचार का अंश है या नहीं । सम्प्रदाय को वन्दना का गज मत बनाइए । जो अमुक सम्प्रदाय का है, वह कैसा भी क्यों न हो, वन्दनीय है; उसमें चरित्र है, तो अच्छा है और नहीं है तो भी अच्छा है; यह मत सोचिए। यह भी मत सोचिए, किसी में कितना ही ऊँचा चारित्र क्यों न हो, वह हमारे सम्प्रदाय का नहीं है और इस कारण वन्दनीय भी नहीं है । जो जिनवर की आज्ञा के अनुसार चलते हैं, चारित्र का पालन करते हैं जो अपनी आत्मा को ऊँची उठा चुके हैं, और जो अपने जीवन को अपने आदर्श या उपदेश से ऊँचा उठा सकते हैं, वे सब वन्दनीय हैं; फिर चाहे वह किसी भी सम्प्रदाय के क्यों न हों। वन्दना आचार की दृष्टि से होनी चाहिए, परम्परा की दृष्टि से नहीं । सम्प्रदाय का मोह न रखकर वन्दन कीजिए। दूसरे के सम्प्रदाय के अच्छे से अच्छे संयम-परायण सन्त की वन्दना करना, इस आधार पर मत छोड़ दीजिए, कि वह आप के सम्प्रदाय के नहीं । जहाँ तक मैंने समझा है, वन्दना करने का यही शास्त्रानुमोदित ढङ्ग है; और प्राचीन काल में यही ढङ्ग प्रचलित भी था । उस समय के लोग सदाचार की बात ही मालूम करते थे, सम्प्रदाय की दृष्टि से विचार नहीं करते थे । एक सज्जन मेरे पास आए। बातचीत हुई। कहने लगे- पहले अलग-अलग सम्प्रदायों के चौमासे होते थे, तो हजारों रुपये खर्च हो जाते थे । दया होती थी, समायिक होती थी, और पंचरंगी होती थी । इस वर्ष तो सारा सावन गुजर गया है, और पंचरङ्गी ही नहीं हुई। यह तो होनी चाहिए । मैं सोचता हूँ — पंचरङ्गी तो करते हो, पहले एक रंग तो कर लो। एक रंग होने के बाद पंचरङ्गी में आनन्द होगा । फिर सोचता हूँ — एक-एक पक्ष के चौमासे में पंचरङ्गी होती थी, और अब नहीं हो रही है, इसका वास्तविक कारण क्या है? यदि तपस्या और कर्म - निर्जरा की भावना से पंचरङ्गी होती, तो अब भी क्यों न होती । जब एक-एक पक्ष के होकर पंचरङ्गी करते हैं, तो धर्म की भावना नहीं, कम्पीटीशन - प्रतिस्पर्द्धा की भावना प्रबल Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ | उपासक आनन्द होती है, जैसे कि दुकानदारों में कभी-कभी हो जाती है, कहीं हम पीछे न रह जाएँ । दूसरे आगे बढ़ते हैं, तो हम क्यों पीछे रहें। यह सोचकर अपनी शान के लिए तपस्या करते हैं, निर्जरा के लिए नहीं । मुझे किसी की मनोवृत्ति पर सीधा प्रहार नहीं करना है, किन्तु मैं चेतावनी देता हूँ, कि आप अपनी स्थिति पर स्वयं विचार करें। कल आप धर्म करते थे, तो आज वह क्यों समाप्त हो गया। धर्म का वह रंग अगर अन्दर से पैदा हुआ था, तो आज कहाँ चला गया। T अभिप्राय यह है, कि साम्प्रदायिकता से नहीं, धार्मिकता से आत्मा का उत्थान होगा । मेरे - तेरे की भेदभावना दुनियादारी की चीजों में हो तो भले ही, धर्म के क्षेत्र में नहीं होनी चाहिए। धर्म के क्षेत्र में गुणों का ही मूल्य होना चाहिए। मारवाड़ में मुँह देखकर तिलक लगाने की कहावत प्रसिद्ध है। तिलक करेंगे, तो कर्त्तव्य के नाते नहीं करेंगे, मुँह देख-देखकर करेंगे। श्रद्धा-भावना नहीं होगी, और विचार नहीं होंगे, तो उस तिलक का कोई मूल्य नहीं है। उस तिलक में प्राणों का संचार और प्रेम की लहर पैदा होनी चाहिए। प्रेम की लहर नहीं है, तो वह तिलक बीच में यों ही लटक रहा है। आप तपस्या करें, तो आत्म कल्याण के भाव से करें । आग्रह करने की मेरी वृत्ति नहीं है। इस रूप में आप तपस्या करें, तो भी ठीक है और न करें तो भी मुझे खेद नहीं है। मुझे कोई पत्री नहीं छपवानी है, कि इतनी हजार समायिक हुई; इतने उपवास और इतनी पंचरङ्गियाँ हुईं। यह तो आपकी भावना की बात है। आपके जीवन की तैयारी है, तो कीजिए, नहीं है तो मत कीजिए । तपस्या या उपवास, जो भी आपकी परम्परा है, उसका पालन आप अपने आप करेंगे, भावना से करेंगे, तब तो वह दूध है, और मैंने माँग की है और आपने पूर्ण की, तो वह पानी बन गई ! मैंने जोर दिया, दबाव डाला, और बलात् करवाया तो वह रक्त बन गई। गोरखनाथ ने कहा है: आप दिया जो दूध बराबर, माँग लिया सो पानी । छीने-झपटे रक्त बराबर, गोरख बोले बानी || मैं छीना-झपटी नहीं करूँगा। मैं तो आपका ध्यान इस ओर आकर्षित करना चाहता हूँ, कि साम्प्रदायिक प्रतिस्पर्द्धा ने हमें कहाँ तक प्रभावित कर लिया है। आप साम्प्रदायिकता की क्षुद्र संकीर्णता को त्याग कर धार्मिकता के विशाल प्रांगण में आएँगे और प्रत्येक वस्तु पर उसके गुण-अवगुण की दृष्टि से ही विचार करने का अभ्यास करेंगे, तो आपका कल्याण होगा, और शासन का भी उद्योत होगा । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दना | ८७) मैं यह कह रहा था, कि वन्दना भी साम्प्रदायिकता के आधार पर नहीं, आचार के आधार पर होनी चाहिए। दिखाने के लिए नहीं, प्रेम की प्रेरणा से होनी चाहिए। देवता, तीर्थंकर भगवान् को अपने स्थान से वन्दना करते हैं, तो भी भावनापूर्वक होने से वह स्वीकृत हो जाती है। यदि सामने आकर और सिर झुकाकर भी वन्दना की, परन्तु भावना नहीं हुई, तो उसका कोई महत्त्व नहीं है। आनन्द ने भगवान् की वन्दना की तो किस रूप में की। उसने प्रभु के सन्मुख जाकर मस्तक झुकाया और साथ ही अपनी भावना और श्रद्धा भी अर्पित कर दी। इस रूप में उसका भगवान् के साथ जो सम्बन्ध जुड़ा था, वह जीवन पर्यन्त नहीं टूटा । उस वन्दना में भावना और श्रद्धा की मजबूती थी । वहाँ प्रेम की दृष्टि थी । लोक दिखावा नहीं था, साम्प्रदायिकता भी नहीं थी । वन्दना करने से कर्मों के बंधन टूटते हैं। चाहे तीर्थंकर की वन्दना करो चाहे छोटे से छोटे साधु को, कर्मों की निर्जरा होती ही है। एक भाई ने तर्क किया है— तीर्थंकर को वन्दना करने से अधिक लाभ होता है, और साधु को वन्दना करने से कम लाभ होता है । इस अवसर पर मैं आपको राजा श्रेणिक की याद दिलाना चाहता हूँ । राजा श्रेणिक भगवान् के पास जाते थे, और हमेशा जाया करते थे । कितनी ही बार उन्होंने भगवान् को वन्दना की होगी। किन्तु एक दिन श्रेणिक ने सोचा-मैं भगवान् को और गणधरों को वन्दन करके बैठ जाता हूँ। आज सब साधुओं को वन्दन करूँ। और यह सोच कर वह वन्दन करने को चले । जो साधु पहले श्रेणिक के यहाँ नौकर-चाकर रहे होंगे, उनको भी उन्होंने उसी भाव से वन्दना की। वह वन्दना करते-करते चले गए-दूर तक चले गए। पसीना आ गया। जब आगे बढ़ने की सामर्थ्य न रही, तो अपनी जगह आकर बैठ गए। राजा श्रेणिक अपनी जगह पर बैठ गए, और उनकी भावना गौतम की पैनी दृष्टि से छिपी न रही। उन्होंने भगवान् से पूछा- आज राज के चेहरे पर ज्योति दीप रही है ! आज इन्होंने सब को वन्दना की है, और अपने अहंकार को तोड़ दिया है । तो हे भगवन् ! इस वन्दना का इन्हें क्या फल होगा ? भगवान् ने कहा- इन्होंने सातवें नरक का बन्धन बाँध लिया था । वह बन्धन टूटते- टूटते पहले नरक का रह गया है । अर्थात् इन्हें ८४ हजार वर्ष तक ही नरक का दुःख देखना पड़ेगा। भगवान् का उत्तर श्रेणिक ने भी सुना। उनके मन में आया- मैं इसे भी क्यों न तोड़ दूँ । ज्यों ही उस बंधन को तोड़ने के लिए उठे, कि भगवान् ने कहा- अब यह बात नहीं होने की। पहले तुम्हारे मन में न नरक-स्वर्ग की भावना थी, न संसार की Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ । उपासक आनन्द वासना थी। पहले तुमने सहज भक्ति-भाव से वन्दना की थी। अब वह भाव नहीं रहा। अब तो नरक का भय तुमसे वंदना करा रहा है। अतएव तुम वन्दना करो या न करो, अब वह चमत्कार पैदा होने वाला नहीं है। ___यह बहुत बड़ी क्रान्ति है, इन्कलाब है। जैन धर्म जब किसी क्रिया-काण्ड को करने के लिए कहता है, तो साथ ही यह भी कहता है, कि स्वर्ग का मोह और नरक का भय मत रखो। केवल आत्मशुद्धि का ही उद्देश्य रखो। भय से या लोभ से करनी करोगे, तो उसका वह फल मिलने वाला नहीं है। भय या लोभ से की जाने वाली क्रिया में श्रद्धा उतनी नहीं रहती। तृष्णा और भीति उसे मलीन कर देती है। जैनधर्म न स्वर्ग के लालच से ही क्रिया करने को कहता है, और न नरक के भय से ही। वह तो निरीह भाव से क्रिया करने का विधान करता है। ___ अभिप्राय यह है, कि भगवान् को श्रेणिक ने न जाने कितनी बार वन्दना की होगी, किन्तु एक भी नरक का बन्धन नहीं टूटा; और आज वह सर्वसाधारण संतों की वन्दना करने चला, तो सभी बन्धन टूट गए, केवल पहले नरक का बन्धन रह गया। यह उल्टी बात कैसे हो गई ? ___आप आचार्य को वन्दना कर लेते हैं, किसी बड़े सन्त को भी वन्दना कर लेते हैं, किन्तु छोटे साधुओं की उपेक्षा कर जाते हैं। अगर आप साधुता की पूजा करते हैं, महाव्रतों की पूजा करते हैं, और आचार की पूजा करते हैं, तो क्या छोटे साधुओं में यह नहीं है। जो साधुता आचार्य में है वही छोटे साधु में भी है। उनके महाव्रतों में कोई न्यूनाधिकता नहीं है। फिर आपके मन में भेदभाव क्यों उत्पन्न होता है ? ___ मैं समझता हूँ, छोटों को वन्दना न करके और बड़ों को ही वन्दना करके अटक जाने में एक प्रकार का अहंकार है। सोने के सिंहासन वाले आए तो भगवान् को या आचार्य को वन्दना करके बैठ गए। छोटे साधुओं को वन्दना करने में अहंकार को ठेस पहुँचती है। किन्तु याद रखिए, राजा श्रेणिक ने भगवान् को वन्दना की तो अहंकार नहीं मिटा, और जब इधर-उधर बैठी हुई अहिंसा और सत्य की मूर्तियों को वन्दना की, तो अहंकार गला, नम्रता आई और त्याग की एक ऐसी लहर पैदा हुई, ऐसी भावना जागी, कि छह नरकों के बन्धन टूट गए। ___अभिप्राय यह है, कि वन्दना का फल मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर नहीं, कि वन्दनीय व्यक्ति कौन है; बल्कि इस बात पर निर्भर है, कि वन्दक किस श्रद्धा, नम्रता और निरभिमानता से वन्दना कर रहा है। श्रद्धा की कमी होने पर तीर्थंकर के चरणों में भी कोई-कोई कोरे रह जाते हैं। अतएव मुख्य बात वन्दना करने वाले की वृत्ति ही Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | वन्दना ।८९ है। अलबत्ता जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ, वंदनीय का चारित्र तो देखना ही चाहिए, और वास्तव में गुणों को ही वन्दना करनी चाहिए। इस प्रकार सद्भावना से, प्रमोदभावना से, श्रद्धा की भावना से छोटे से छोटे साधु को भी वन्दना करने पर महान् फल मिल सकता है। जो इस पवित्र भाव से चारित्रनिष्ठ सन्तों के चरणों में अपने अहंकार का विसर्जन कर देते हैं, वे कल्याण के भागी होते हैं। कुन्दन-भवन ब्यावर, अजमेर २४-८-५० Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोता आनन्द यह उपासकदशांग सूत्र है और आनन्द का वर्णन आपके सामने चल रहा है। आनन्द प्रभु के चरण-कमलों में पहुँच गया है और वन्दना - नमस्कार तथा सत्कारसम्मान करके बैठ गया है। भगवान् के समक्ष उस समय बहुत बड़ी परिषद् बैठी थी । श्रमण भगवान् महावीर ने आनन्द गाथापति और उस परिषद् को धर्मोपदेश दिया । धर्मोपदेश सुनने के पश्चात् जिसे जो व्रत, नियम, प्रत्याख्यान आदि ग्रहण करते थे, सबने अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार ग्रहण किए। फिर सब लोग अपने-अपने घर लौट गए। उस समय अन्य साधकों ने भी व्रत - नियम आदि ग्रहण किए, परन्तु उनका विवरण हमारे सामने नहीं है। हमारे सामने तो आनन्द का वर्णन है। तीर्थंकर देव की वाणी का आनन्द पर क्या प्रभाव पड़ा - शास्त्रकार ने इसका खासा वर्णन किया है। आनन्द ने भगवान् की वाणी का श्रवण किया। उसने उस दिव्य वाणी को केवल श्रवण ही नहीं किया, उसे हृदय में भी धारण किया । हृदय में धारण कर उसे अपार हर्ष हुआ, प्रसन्नता हुई और उसका रोम-रोम आनन्दानुभव कर पुलकित हो उठा। यहाँ दो शब्द ध्यान देने योग्य हैं। आनन्द ने वाणी सुनी और फिर निश्चय किया । अकेला सुनना कान का काम है। शब्द आए, कान में पड़े और सुन लिए। इधर सुन लिए और उधर निकाल दिए। उन शब्दों के विषय में कोई विचार नहीं किया, चिन्तन नहीं किया और निश्चय की भावना नहीं लाई गई। इस प्रकार के श्रवण से आत्मकल्याण नहीं होता। जीवन में आनन्द का स्रोत नहीं फूटता और बंधन नहीं टूटते । इस प्रकार तो बहुत सुना है, किन्तु उससे प्रयोजन की सिद्धि नहीं हुई । यहाँ सुधर्मा स्वामी कहते हैं--आनन्द ने सुना और उस पर विचार किया। जब वह सुन रहा था, उसके मस्तिष्क में तब भी विचार चल रहे थे, और वह भगवान् के Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | श्रोता आनन्द । ९१ एक-एक शब्द को ध्यानपूर्वक सुन रहा था। उसने एक-एक शब्द को ग्रहण करने का प्रयत्न किया—शब्द-शब्द का आशय समझने का प्रयत्न किया। इससे पता चलता है, कि श्रोता को सुनने के साथ-साथ विचार भी करना चाहिए। आपको भी श्रोता का पद प्राप्त है, और श्रोता का पद कोई छोटा-मोटा पद नहीं हैबड़ा महत्त्वपूर्ण पद है। गौतम गणधर भी पहले आपके पद में रहे हैं। वे भी भगवान् के श्रोता रहे हैं. उन्होंने भी भगवान् की वाणी श्रवण की है। इस पद में आप भी शामिल हैं, मैं भी शामिल हूँ, और कोई भी शामिल हो सकता है। किन्तु केवल सुनने भर के लिए श्रोता नहीं बनना चाहिए-चिन्तन करने, मनन करने और विचार करने के लिए ही श्रोता बनना उचित है। जो सुनकर चिन्तन-मनन करता है, वही अपना और अपने समाज एवं राष्ट्र का कल्याण कर सकता है। वह बुझी हुई चिनगारी नहीं, जलती हुई चिनगारी है। उसे ज्यों-ज्यों हवा मिलेगी, चमकती जाएगी और एक दिन वही चिनगारी दावानल का रूप ले लेगी। सुना हुआ सिद्धान्त एक चिनगारी है। उसे चिन्तन-मनन की हवा का झौंका मिलता है, तो उसका विस्तार होता जाता है, और विकास होता जाता है। विस्तृत और विकसित होकर वह श्रोता के जीवन का अंग बन जाता है। धीरे-धीरे मनुष्य अपने आप में पूर्ण हो जाता है। जब वे ही विचार वह दूसरों को देता है, तो उनमें भी जीवन-ज्योति उत्पन्न हो जाती है। __भरत चक्रवर्ती के विषय में मैं कह चुका हूँ। उनके सामने एक साथ तीन प्रश्न पैदा हुए—चक्ररत्न की पूजा करना, पुत्र का जन्मोत्सव मनाना और भगवान् की वाणी सुनना। मगर उन्होंने पहले के दो कार्यों की उपेक्षा करके भगवान् की वाणी सुनने को ही प्राथमिकता दी। भरत की दृष्टि में भगवान् का श्रोता बनने का जितना महत्त्व था, उतना चक्रवर्ती बनने का नहीं। भौतिक कार्य से आध्यात्म कार्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है। ____ भरत ने उसी समय यह निश्चय कर लिया। भरत का यह महत्त्वपूर्ण निर्णय हमसे यही कहता है, कि अगर एक ओर संसार भर की प्रतिष्ठा हो, सोने का सिंहासन मिलता हो, और दूसरी तरफ प्रभु की वाणी सुनने का सौभाग्य मिलता हो, तो जब हम प्रतिष्ठा और सिंहासन को ठुकरा कर भी प्रभु की वाणी सुनेंगे, तभी सच्चे श्रोता का पद पा सकेंगे। विना श्रवण किए जीवन का कल्याण नहीं होता। आमतौर पर क्या होता है महाराज आ गए हैं, तो चलो, थोड़ी देर के लिए हो आएँ। नहीं जाएँगे तो क्या कहेंगे। इस प्रकार की मनोवृत्ति से आए और मन को दूसरी जगह रखकर श्रोता बनकर आए। शरीर के साथ-साथ सिर तो आ गया, मगर मन Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ । उपासक आनन्द | कहीं, और जगह रह गया। इस तरह मन अन्यत्र भटक गया, तो लड़खड़ाता हुआ श्रोता आएगा और उसकी निगाह घड़ी की तरफ रहेगी। वह घड़ी-घड़ी, घड़ी की ओर ही देखेगा और सोचेगा--कितना समय हो गया है। जब सुनने में रस नहीं, तो मन इधर-उधर ही भागता है। जब मन अन्यत्र भटक रहा हो, और सिर्फ कान वाणी सुन रहे हों, तो क्या रस आएगा। कल्पना कीजिए, कि आप अपना भोजन करने बैठ गए और थाल में बढ़िया मिठाई आई। आपका मन खट्टा है, भूख नहीं है, और मन प्रसन्न नहीं है, तो वह मिठाई की थाली आपको जहर जैसी लगेगी। क्योंकि मिठाई के लिए आपके मन की तैयारी नहीं है। विचार कीजिए, कि मिठाई का ग्रास मुँह में डाला, और उसी समय मन दूसरी जगह चला गया, तो क्या मिठास का अनुभव होगा। नहीं, मन खाने में लगा होगा, तो ही मिठास का अनुभव होगा। मन को एक समय में एक ही काम करना है। उसे चाहे खाने में लगाइए, चाहे और किसी काम में। सुनने में लगाइए या व्यापार में लगाइए। लगेगा वह सब जगह, मगर एक साथ दो जगह नहीं लगेगा। ___ आप देखते हैं कि मुँह में मीठा पड़ा है, और मीठा-मीठा ही है, फिर भी जब मन अन्यत्र होता है, तो मिठास का अनुभव नहीं होता। मनुष्य के मन ने यही कहा है, कि यदि मुझे यहाँ इस काम में लगा दोगे, तो यहीं और यही काम करूँगा, और वहाँ नहीं कर सकता। तुम चाहो कि मुझसे एक साथ दस काम लो, तो यह नहीं होगा। दस काम नहीं होंगे—एक ही होगा। __ यह मनोवैज्ञानिकों का कहना है-उस मिठाई से मुँह मीठा नहीं होने वाला है, जहाँ मन नहीं है। मन के अभाव में प्रभु की वाणी का रस भी प्राप्त नहीं होता है। मन अन्यत्र भटक रहा हो, भाग रहा हो, नाना प्रकार के संकल्पों और विकल्पों में उलझ रहा हो, तो कान भले वाणी सुनलें, मन नहीं सुनेगा। मन नहीं सुनेगा, तो विचार और चिन्तन भी नहीं होगा। ऐसी स्थिति में व्याख्यान या वाणी की पूरी धारा ग्रहण नहीं की जा सकती। कहीं का कोई टुकड़ा और कहीं का कोई टुकड़ा दिमाग में पड़ जाएगा, और वह बहुत गलतफहमी पैदा करेगा। ___ आपको श्रवण का आनन्द लेना है, तो मन को एकाग्र करके पूरी धारा को ग्रहण करो अन्यथा वही बात होगी कि एक पण्डित जी रामायण बाँचा करते थे, एक श्रोता ऊँघता-ऊँघता आता, और चला जाता। उसे कोई बात ध्यान में नहीं रहती थी। एक बार सीता के हरण की बात चली। उसने ऊँघत-ऊँघते सुन लिया कि सीता का हरिण (हिरण) हो गया। वह इसी विचार में रहा, कि सीता का हरिण (हिरण) तो हो गया, देखें वह फिर आदमी Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |श्रोता आनन्द । ९३] कब बनेगी। रामायण पूरी हो गई, और उसके प्रश्न का समाधान कहीं न आया। जब पंडितजी ने रामायण की समाप्ति की घोषणा की, तो वह बोला_महाराज, चकमा क्यों देते हो। रामायण तो अधूरी रह गई है। पण्डित जी ने पूछा—अरे, बाकी क्या रह गया। वह बोला- बाकी कैसे नहीं रहा। आपने सीता के हरिण होने की बात तो बताई, पर यह कब बताया, कि वह फिर आदमी कब बनी। पण्डित जी हैरान रह गए। बोले-सीता हरिण बनी या नहीं, मैं तो हरिण बन ही गया। मुझे आदमी बनाओगे, तब काम चलेगा। आधे मन से सुनने का परिणाम यही होता है। __मतलब यह, कि एक डुबकी लगा दी, और इधर-उघर भटक गए, फिर डुबकी लगाई, और फिर भटक गए, ऐसा करने में आनन्द नहीं आता है। आनन्द भगवान् के पास ऐसा श्रोता बन कर नहीं गया है। वह पूरी तैयारी करके भगवान् की दिव्यध्वनि सुनने आया है। मन को कहीं इधर-उधर बाँधकर नहीं आया है। प्रभु के चरणों में बैठा है, तो उसका मन दूसरी जगह नहीं भटक रहा है। वह एकनिष्ठ भाव से प्रभु की वाणी के साथ दौड़ रहा है। फिर आनन्द को आनन्द नहीं मिलेगा, तो किसे मिलेगा। आनन्द प्रभु की वाणी सुनकर प्रसन्न हुआ और प्रसन्न हो यों ही नहीं चला गया. बल्कि उस पर आचरण करने को भी तैयार हो गया। वास्तव में सुनने का अर्थ भी यही है। घण्टों व्याख्यान सुना, उपदेश सुना और पल्ला झाड़कर चल दिए। न उस पर चिन्तन-मनन किया और न आचरण करने का प्रयत्न ही किया तो सुनने का अर्थ ही क्या निकला। असली आनन्द तो उस वाणी को ग्रहण करने में है। एक आदमी प्यासा हो, प्यास के मारे उसके प्राण-पखेरू उड़ने को तैयार हों, और वह गंगा के किनारे खड़ा होकर गंगा के दर्शन कर ले, तो क्या उसकी प्यास बुझ जाएगी। उसने गंगा के दर्शन करने का क्या लाभ उठाया। गंगा की शीतल और निर्मल धाराएँ बह रही हैं, तो उनमें से एक-दो चुल्लू जल उसके मुँह में जाने से ही उसकी प्यास बुझेगी। ऐसा किए बिना मिनट-मिनट में बहने वाला लाखों मन पानी भी उसकी प्यास नहीं बुझा सकता। मेघ बरसता रहता है, धाराएँ बहती रहती हैं, फिर भी कोई व्यक्ति उसे ग्रहण न करे और मन में गदगद न हो तो क्या होगा। हमारे यहाँ मुद्गशैल पाषाण का जिक्र आता है। कितना ही पानी गिरे, उस पर कुछ असर नहीं होता। इसी प्रकार भगवान् Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |९४ । उपासक आनन्द । की वाणी की वर्षा होने पर भी उन श्रोताओं को कोई लाभ नहीं होता, जिनका मन उसको ग्रहण करने को तैयार नहीं होता। ___तीन तरह के श्रोता बतलाए गए हैं। एक होते हैं पाषाण के समान। पाषाण को लेकर पानी में डाल दिया जाए और दो-चार घण्टे बाद निकाला जाए, तो विदित होगा, कि उस पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा है। उसका अन्तरङ्ग तनिक भी आर्द्र नहीं हुआ है। पानी, पानी है और पत्थर, पत्थर है। इसी प्रकार कुछ श्रोता ऐसे होते हैं, जिन पर वाणी का जरा भी प्रभाव नहीं पड़ता, जो घण्टों उपदेश सुनकर भी ज्यों के त्यों बने रहते हैं, वे पाषाण सदृश श्रोता हैं। कुछ श्रोता कपड़े की गुड़िया या पुतली की तरह होते हैं । 'गुड़िया को पानी में डाल दिया जाए, और दो-चार घण्टे बाद निकाला जाए, तो महसूस होगा, कि वह भीतर तक भीग गई है। किन्तु थोड़ी देर धूप लगने पर वह सूख जाएगी और उसका अस्तित्व अलग ही रहेगा। इसी प्रकार जो श्रोता वाणी की धारा में भीतर तक आर्द्र हो जाते हैं, किन्तु थोड़े समय में दुनियादारी की धूप लगते ही फिर जैसे के तैसे हो जाते हैं, वे गुड़िया के समान मध्यम श्रेणी के श्रोता हैं। इनके जीवन में स्थायी रस नहीं पैदा होता। तीसरी तरह के श्रोता मिश्री की डली के समान होते हैं। मिश्री की डली को पानी में डालो, और घण्टे दो घण्टे बाद देखो तो गायब। वह कहाँ चली गई। वह टटोलने पर भी कहीं नहीं मिलती है। आँख से गायब नहीं, स्पर्शेन्द्रिय से भी गायब हो जाती है। उसने अपना विराट रूप बना लिया है, और वह पानी के कण-कण में घुस गई है। चखने पर ही पता चलेगा, कि मिश्री उसके अन्दर तल्लीन है— उसमें रम गई है। एक-रस हो गई है। जहाँ पानी जाएगा, वहीं मिश्री भी जाएगी। इसी प्रकार कुछ श्रोता वाणी की धारा में अपने आपको लीन कर देते हैं। उनका जीवन रसमय बन जाता है, और जीवन का पूरा स्परूप उनके अन्दर फूट पड़ता है। ___ गौतम स्वामी ऐसे ही श्रोता थे। भगवान् के पास गए तो कितने आडम्बर के साथ गए। उनका दावा था, कि हम भगवान् को पराजित करेंगे, और उन्हें अपना शिष्य बनाकर आएँगे। वे चेला बनाने चले, किन्तु स्वयं ही चेला बन गए। कितना अहङ्कार भरा था, उनके मन में। गली-ऊँचे में से निकले तो यही घोषणा करते गए, कि महावीर को शिष्य बनाकर लौटेंगे! __ इतना अहङ्कार होने पर भी गौतम के मन में सत्य के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा थी। मन में था, कि सत्य सर्वोपरि है, और सत्य मिलेगा तो ग्रहण करेंगे। सत्य को स्वीकार करने में अपनी इज्जत और प्रतिष्ठा की दीवार को आड़ी नहीं आने देंगे। जब सत्य Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्रोता आनन्द । ९५ मिला, तो उसे शिरोधार्य करते हुए वह जरा भी न हिचके। नहीं सोचा. कि मैं भारतवर्ष के बड़े-बड़े ब्राह्मणों में से हूँ, और मेरी कीर्ति एक कोने से दूसरे कोने तक फैली हुई है। अगर मैंने भगवान् के वचनों को स्वीकार कर लिया, तो मेरी प्रतिष्ठा के टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे। ___ सत्य की पूजा के लिए इतनी तैयारी होना साधारण बात नहीं है। मामूली आदमी भी जिसको थोड़े से लोग ही जानते-पहचानते हैं, अपनी प्रतिष्ठा का मोह त्याग नहीं पाता। उसे भी अपनी इज्जत का ख्याल आता है, और सत्य को ग्रहण करने में संकोच करता है। हमने कोई गलत काम कर लिया है, या हमसे कोई भूल हो गई है, और फिर सत्य हमारे सामने आता है, तो हिम्मत नहीं पड़ती, कि उसे खले दिल से स्वीकार करलें। मगर सत्य कहता है, कि मैं सामने आया ! मेरो पूजा करो। मेरे सामने तुम्हारी अपनी प्रतिष्ठा का कोई मूल्य नहीं है। इस प्रकार सत्य सर्वोपरि होना चाहिए। हम क्या करते, और कहते आए हैं, यह विचारणीय बात नहीं है, इसका कोई महत्त्व नहीं है। विचारणीय यही है, कि सत्य क्या है और सत्य ही महत्त्वपूर्ण वस्तु है। सत्य के लिए सर्वस्व छोड़ देने को भी तैयार रहना चाहिए। जिसमें इतनी तैयारी है, वही सच्चा श्रोता बन सकता है। हमारे यहाँ यह सिद्धान्त आया है त्यजेदेकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्। ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्॥ आपके सामने ऐसी समस्या उपस्थित हो जाए, कि एक तरफ एक व्यक्ति है, और दूसरी तरफ खानदान। दोनों के हित परस्पर विरोधी मालम होते हैं। तब आपको क्या करना चाहिए। एक व्यक्ति का पक्ष लेना चाहिए या खानदान का। यहाँ बतलाया गया है, कि उस एक व्यक्ति के लिए सारे खानदान को बर्बाद मत करो। ___ दुर्योधन जब मक्कारियाँ करने लगा, तो बिदुर और भीष्म वगैरह धृतराष्ट्र के सामने पहुंचे। उसने कहा- क्या कर रहे हो ? दुर्योधन के रङ्ग-ढङ्ग नहीं देख रहे हो। धृतराष्ट्र ने उत्तर दिया-दुर्योधन बहुत कुशील है, बहुत पाजी हो गया है। उसने मुझे बर्वाद कर दिया है। सब जगह मेरा मुँह काला हो गया है। मैं अपनी गलती स्वीकार करता हूँ। तब बिदुर ने कहा तो ऐसे दुर्योधन का मोह छोड़ दीजिए। उसका परित्याग कर दीजिए। उसके पीछे क्यों सारे कुल की बर्वादी हो! दुर्योधन आपको नहीं तारेगा। वह हजारों वर्षों से चली आई प्रतिष्ठा पर पानी फेर देगा, और कुल को नष्ट कर देगा। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ । उपासक आनन्द । दुर्योधन से साफ-साफ कह दीजिए, कि हमारा तुम्हारे साथ कोई सम्बन्ध नहीं। उसे अपने बीच से धक्का देकर निकाल दीजिए। उस एक के पीछे समग्र कुल का सत्यानाश न कीजिए। धृतराष्ट्र ने कहा—दुर्योधन भला है या बुरा है, आखिर तो मेरा लड़का है। वही मेरे काम आएगा। भला-बुरा तो जनता की भाषा है, सत्य की भाषा नहीं है। मैं कैसे उसको परित्याग दूँ! मैं अपने ही प्राणों का परित्याग कैसे करूँ। एक बार एक सन्त से मेरी बात-चीत हुई। उनकी उम्र काफी पक गई थी, बूढ़े थे। उनके शिष्य ने उन्हें भी गलत रास्ते पर पहुंचा दिया, और उनकी प्रतिष्ठा को धक्का लगने लगा। मैंने उनसे कहा—आप कब तक मोह में पड़े रहेंगे। इस लोभ को छोड़िए। सम्भव है, आप पहले परलोक चले जाएँ, या यह शिष्य आपको छोड़कर चला जाए। व्यक्ति तो क्षण-भंगुर है। आज है, कल नहीं। किन्तु सत्य क्षण-भंगुर नहीं है। वह आज है और कल भी है और आजकल नहीं, अनन्त काल तक रहने वाला है। वह अमर है और मिटने वाला नहीं है। __ परन्तु सन्त ने लाचारी प्रकट करते हुए कहा-आप ठीक कहते हैं, कवि जी। मगर क्या करूँ। भला या बुरा जैसा भी है, है तो अपना। अपने का त्याग कैसा! मुझे रोष नहीं आया। मैंने सोचा-हमारे संघ की जो व्यवस्थाएँ हैं, वही व्यक्ति को मजबूर करती हैं। हममें एकता नहीं है। बूढे साधु अकेले रह जाएँ, तो कौन सारसम्भाल करे, कौन सेवा करे। एक दिन कृष्ण ने घोषणा की थी जिसके पुत्र नहीं, उसका पुत्र मैं बनूँगा। जिसके पिता नहीं, उसका मैं पिता बनूँगा। जो नागरिक आत्म-कल्याण करना चाहें, वे पिता-पुत्र के भरोसे न रहें। मैं उनका हूँ। उस समय भारत की यह संस्कृति थी। __एक तरफ सत्य है और दूसरी तरफ असत्य है। तुम सत्य को ही महत्त्व दो, असत्य को महत्त्व मत दो। अपने कुल की प्रतिष्ठा में दाग मत लगने दो और मेरे--तेरे का भेद-भाव त्याग कर सेवा के लिए आगे बढ़ो। यह मेरा है, तो सेवा करूँ और यह मेरा नहीं तो क्यों सेवा करूँ। यह वृत्ति जब तक बनी रहेगी, समस्या ठीक तरह हल नहीं होगी। उन साधु के सामने भी यही सवाल था, और धृतराष्ट्र के सामने भी यही सवाल था। धृतराष्ट्र से कहा गया, कि कुल के हित के लिए एक व्यक्ति दुर्योधन को त्याग दो। परन्तु धृतराष्ट्र की निर्बलता ने ऐसा नहीं होने दिया। परिणाम यह हुआ, कि दुर्योधन के साथ कौरव-कुल का भी सत्यानाश हो गया। आगे नीतिकार कहते हैं—एक ओर सारे गाँव का हित हो, और दूसरी ओर कुल का हित हो, तो कुल के हित के लिए सारे गाँव के हित का विनाश मत करो। पहले Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोता आनन्द । ९७ गाँव के हित को महत्त्व दो । जब एक तरफ देश का हित हो, और दूसरी तरफ गाँव का नगर का हित हो, तो देश के हित को प्रथम स्थान दो, और नगर के हित की अवहेलना कर दो। T अन्त में कहा गया है, विराट बनो। एक ओर आत्मा का हित हो, तुम उस पर अड़े रहो - भले सारा संसार असत्य के द्वार पर खड़ा हो। तुम्हारी आत्मा का हित अहिंसा और सत्य में है । तुम्हारे अपने विचार और संकल्प हैं, और वे आत्मा के हित के लिए हैं । तुम्हारे मन में राग-द्वेष नहीं है, विशुद्ध ज्ञान हैं; तो उस समय सत्य की पूजा के लिए सारे संसार को ठुकरा दो। सारी कठिनाइयों को झेल लो, किन्तु सत्य के लिए लड़ते रहो । जहाँ सत्य का प्रश्न है, वहाँ कुल, गाँव- नगर, संघ-सम्प्रदाय और राष्ट्र का कोई महत्व नहीं है। सत्य अपने आप में महत्त्व की वस्तु है । सत्य ही सर्वोपरि तत्त्व है। गौतम के सामने सत्य का सवाल था । सारे भारत में उनकी कीर्ति थी, यश था और अपनी बिरादरी में वह माने हुए विद्वान् थे । उन्होंने शास्त्रार्थ में कितने ही विद्वानों को जीता था । किन्तु जब प्रभु के चरणों में पहुँचे, और उनकी बात सुनी तो उसी समय कहा- यही सत्य है। आज तक मैंने जो कुछ किया है, गलत काम किया है। मैंने जनता को अन्धकार दिया है! वास्तव में, मुझे आज ही प्रकाश मिला है। जहाँ प्रकाश, वहाँ अन्धकार टिक नहीं सकता। - गौतम क्या घर लौटकर आ जाते हैं। सत्य को समझकर भी क्या उसकी उपेक्षा कर देते हैं। क्या अपने साथियों के पास सलाह-मशविरा करने जाते हैं। पाँच सौ साथी तो साथ में ही थे। एक से भी पूछा, कि क्या करना चाहिए। नहीं, सत्य का प्रकाश मिला, कि उसी समय प्रभु के चरणों में पड़ गए। एक बूँद समुद्र में पहुँची, तो वह विलीन हो गई । वापिस लौट कर नहीं आई। जो श्रोता सत्य को अपनाने के लिए तैयार नहीं हैं, वे द्रव्य श्रोता हैं, जीवन के श्रोता नहीं है। आनन्द ऐसा श्रोता नहीं है। एक बार प्रभु के दर्शन के लिए पहुँचा, और पहली बार ही वाणी सुनी तो गद्गद हो गया। उसके जीवन का कण-कण जाग उठा । सोचा, शुभस्य शीघ्रम् । आज ही जीवन का उद्धार करना है । वह यह नहीं सोचता, कि सम्पत्ति का परिमाण करने के विषय में लड़कों से सम्मति ले लूँ । आनन्द अपनी भावनाओं को लेकर भगवान् के सामने उपस्थित हो गया। अपने संकल्प की बात प्रभु के सामने रख दी। उसने एक दिन का भी विलम्ब नहीं किया । भगवान् की वाणी सुनकर जो आचरण में लीन हो जाते हैं, उन्हीं श्रोताओं का कल्याण होता है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1९८ । उपासक आनन्द । आप सुनते रहते हैं, कि लोभ बुरा है, मोह बुरा है, और दान की बड़ी महिमा है। देखो शालिभद्र ने कैसा त्याग किया था। घर-घर से चीजें माँग-माँग कर खीर तैयार की गई थी। कहीं से दूध, कहीं से चावल ओर कहीं से दूसरी चीजें लाई गईं थीं। उस खीर के लिए उसने कितने आँसू बहाए, कितना रोया और पड़ा रहा और मचला। तब कहीं मुश्किल से खीर तैयार हो पाई थी। वह थाली में लेकर खाने को तैयार ही था, कि एक मुनि आ गए, महीने के उपवास का पारणा वाले संत आ गए। बच्चे के पास पहँचे, और सोचने लगे इसके घर की परिस्थिति बड़ी विचित्र है। वे हटने लगे। तब बालक ने आग्रह किया—लो, महाराज। थोड़ी तो ले ही लो। ___ बालक के आग्रह पर मुनि खीर लेने को तैयार हो गए। सोचा-बच्चे का मन नहीं तोड़ना चाहिए, इंकार नहीं करना चाहिए। उन्होंने पात्र निकाला और कहाबच्चे, थोड़ी-सी डालना। बच्चे ने कहा हाँ, थोड़ी-सी तो है ही। इतना कह कर उसने पात्र के ऊपर जो थाली औंधाई तो सारी खीर पात्र में आ गई। बच्चे ने सोचा–संत हैं, कब-कब इनका आगमन होता है। लाभ पूरा मिला। अहोभाग्य है, कि आज दान देने के लिए सुपात्र मिला। इस प्रकार उस बालक को देने से पहले और देने के बाद भी हर्ष हुआ, और जिस करनी से पहले और पीछे हर्ष की लहर होती है, वह सोना बन जाती है, और उसमें सुगंध आ जाती है। उस बालक ने तो कभी उपदेश नहीं सुना था। फिर यह कैसे हुआ। उस बालक के साथ उन लोगों की तुलना कीजिए जो शालिभद्र के गीत सुनते-- सुनते बुड्ढे हो जाएँगे, किन्तु जब दान का प्रश्न आएगा या स्वधर्मी की सहायता की बात आ जाएगी, तो जिन्दगी भर सुनी हुई शालिभद्र की कहानी मन को जरा भी प्रेरित नहीं करेगी। और कहने पर किया, तो क्या किया। जो कुछ करो अन्त:प्रेरणा से करो और करके हिसाब मत देखना। यही शालिभद्र की कथा सुनने की सार्थकता है। श्रोता बनने से पहले मन की इतनी तैयारी आवश्यक है, कि जो कुछ सुना जाए उसे शक्ति भर आचरण में लाया जाए, और आचरण करते समय यह देखा जाए, कि ऐसा करने से दुनियाँ क्या कहेगी। मेरे परिवार वाले क्या कहेंगे। तभी श्रोता बनने का सच्चा आनन्द आएगा। एक राजकुमार घोड़े पर सवार होकर, अस्त्र-शस्त्र से लैस और लाखों की कीमत के अपने आभूषण पहन कर सैर करने को चला। आगे बढा, तो देखा कि गांव के बाहर मन्दिर है, और वहाँ भीड़ लगी है। वह उसी ओर गया और पास पहुँच कर, घोड़े को पानी पिला कर पास ही एक वृक्ष से बांध दिया। खुद पानी पीकर छाया में Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |श्रोता आनन्द । ९९ सुस्ताने लगा। उसने देखा, कि सामने भीड़ में एक उपदेशक व्याख्यान दे रहे थे। उन्होंने कहा-संसार क्षण-भंगुर है। यह जवानी फूलों का रंग है, जो चार दिन चमकने के लिए है। और यह जीवन आत्मा-कल्याण करने के लिए मिला है। यह शरीर क्या है। लाश है, मिट्टी है। हड्डियों का ढाँचा है। इससे खेती की तो मोतियों की खेती होगी, नहीं तो यह लाश सड़ने के लिए है। __ श्रोताओं में वैराग्य की लहर दौड़ रही है। जनता बीच-बीच में जय-जयकार की ध्वनि करती है। इससे वक्ता का उत्साह बढ़ता है, और वह जोरों से व्याख्यान झाड़ने लगता है। इस प्रकार वक्ता श्रोताओं में और श्रोता वक्ता में जोश पैदा कर रहे थे। राजकुमार दूर से ही यह सब सुन रहा था। सुनकर सोचने लगा_मैं अन्धेरी गलियों में भटक रहा था। वास्तव में, मैं मृत्यु के द्वार पर खड़ा हूँ। मौत मुझे पुकार रही है। मैंने अपने साथियों को फूंकते देखा है, और एक दिन मैं भी फूंक दिया जाऊँगा। इस जीवन का क्या मूल्य हासिल होगा। इस प्रकार वैराग्य भाव आते ही राजकुमार ने किसी को घोड़ा दान कर दिया। कपड़े उतार फैंक दिए और हीरे-जवाहारात यों ही लुटा दिए। एक साधारण-सा वस्त्र पहन कर और संन्यासी बन कर घूमने लगा। बारह वर्ष बीत गए। संयोगवश घूमते-घूमते संन्यासी राजकुमार उसी वृक्ष की छाया में आया। उसने देखा, वही सभा जुड़ी हुई है, और वक्ता उसी तरह गरज रहा है। वही बात दोहराई जा रही है-संसार क्षण-भंगुर है। हीरे-सी जिन्दगी को वासनाओं में मत लुटाओ। फिर वही जय-जयकार की ध्वनि गूंजने लगती है। अब वह संन्यासी आगे बढ़ा और उस भीड़ में पहुँचकर एक-एक की छाती टटोलने लगा। लोगों ने कहा—क्या कर रहे हो। संन्यासी ने धीमे से कहा—जरा देखने तो दो। वह वक्ता के पास पहुँचा, और उसकी भी छाती टटोलने लगा। वक्ता ने कहाक्या कर रहे हो। संन्यासी बोला-देख रहा हूँ, इस ढाँचे में कहीं हृदय भी है या नहीं। संन्यासी फिर कहने लगा--बारह वर्ष पहले इसी जगह मैंने आपका प्रवचन सुन, था। प्रवचन तो क्या, उसकी कुछ कड़ियाँ सुनी थीं। उसी समय मैंने अपने जीवन का फैसला कर लिया। राजकुमार का रूप त्याग कर संन्यासी का रूप धारण किया। स्वस्व त्याग कर साधना के पथ पर चल पड़ा । इधर-उधर भ्रमण करते-करते, वैराग्य की ज्योति जगाते हुए, संयोगवश आज फिर यहाँ आ पहुँचा। देखता हूँ, वही पुरानी मूर्तियाँ बैठी हैं। हाँ, इन्हें मनुष्य न कह कर मूर्तियाँ ही कहना चाहिए। इन मूर्तियों Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० । उपासक आनन्द को हजारों वर्षों तक भी सुनाया जाए तो क्या होगा। इतने वर्षों से प्रवचन सुन रहे हैं, वर्षों पर वर्ष गुजर रहे हैं, किन्तु अभी तक जीवन में परिवर्तन नहीं आया है। इसीलिए जाँच कर रहा था, कि इनमें कहीं दिल भी है या नहीं। जहाँ हृदय है वहाँ ज्ञान भरा है । वहाँ छलाँग लगती रहेगी। सहृदय एक ही प्रवचन सुनता है, तो उसके जीवन में एक प्रवाह पैदा हो जाता है। सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कह रहे हैं- आनन्द ने भगवान् की वाणी सुनी, और उस पर विचार किया, और उसका रोम-रोम हर्ष से पुलकित हो उठा। उसके मन में बिजलियाँ चमकने लगीं। हृदय प्रकाश से परिपूर्ण हो गया। सचमुच ऐसा श्रोता धन्य है, और उसका जीवन मङ्गलमय एवं कल्याणमय होगा । - कुन्दन - भवन अजमेर २५-८-५० ब्यावर, Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तिक आनन्द यह उपासकदशांग सूत्र है, और आनन्द के जीवन का वृत्तान्त आपके सामने है। आप सुन चुके हैं कि आनन्द ने प्रभु का प्रवचन सुना, उस पर विचार किया और उसका हृदय हर्ष से गद्गद हो गया। आनन्दमयी उस वाणी को सुनकर आनन्द का मन पुलकित हो उठा, जीवन का वास्तविक स्वरूप उसके सम्मुख आकर खड़ा हो गया। उसके मन में पवित्र विचारों की चल-लहरियाँ प्रवाहित होने लगी, वे उसके असीम हृदय में समा न सकीं। समा न सकी, फूट कर बाहर वह चलीं। उन्हीं चललहरियों में डूबता-उतराता आनन्द सरस वाणी में भगवान् से कहने लगा___ 'भगवन् ! आपकी यह वाणी, यह प्रवचन निर्ग्रन्थ की वाणी है।' निर्ग्रन्थ का अर्थ है गांठ-रहित। जिसका हृदय भी स्वच्छ और निर्मल हो, और जिसकी वाणी भी स्वच्छ और निर्मल हो। जिसके जो भीतर है, वही बाहर भी हो। अक्सर देखने में आता है, लोग ऊपर से या वाणी में तो साफ-सुथरे होते हैं; मगर पेट में उनके विष की गाँठ पलती रहती है, ऐसे व्यक्ति निर्ग्रन्थ नहीं हो सकते। सच्चा निर्ग्रन्थ तो वही है, जिसने भीतरी गाँठ को भी तोड़ दिया है। ऐसे निर्ग्रन्थों की वाणी सुनने वालों को निर्ग्रन्थ बना देती है। वह राग-द्वेष और विषय-वासना की गाँठ बड़ी दुर्भेद्य है, जिसने हमारे मन को उलझा रखा है, जिसने हमारी आत्मा को बाँध रखा है, और मन को बाँध रखा है। एक चक्रवर्ती सोने के महलों में बैठा है, और सूर्योदय से सूर्यास्त तक अपना झंडा लहराता है। लाखों मनुष्यों को बन्दरों की तरह नचाता है। किन्तु जब उसी सम्राट का मन वासनाओं का गुलाम होता है, इन्द्रियों का दास होता है, तो वह कितना लाचार हो जाता है। कितना बेबस हो जाता है। वह स्वतंत्र जनता के लिए है, अपने आप में आजाद नहीं है। सोचो, तो अपने आप में सोचो। इन्द्रियों की भाषा में मत सोचो। स्वतंत्रता पर विचार करो; किन्तु आत्मा की भाषा में विचार करो। क्या यही स्वतंत्रता है, चक्रवर्ती Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |१०२ | उपासक आनन्द की? ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की कहानी तो आपने सनी ही है। वह चित्त मनि के पास गया। वह चित्त मुनि, महान् साधक थे, और उन्होंने बाहर और भीतर की गाँठों को तोड़ दिया था। वह बाहर के बन्धनों से रहित थे और अन्दर के बंधनों से भी रहित। वह अपने जीवन में एक दिव्य ज्योति जगाने वाले थे। प्रकाश लेकर आए थे। उन चित्त मुनि के पास ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती पहुँचा। उसने सोचा यह मेरे पूर्व जन्म के भाई हैं। आज साधु हैं, और भिक्षा-पात्र लेकर जगह-जगह माँगते फिरते हैं। मेरे भाई होकर और कई जन्मों के सबन्धी होकर भीख माँगते फिरें, यह मेरे लिए शोभा-जनक नहीं है। यह सोच कर उसने उन महामुनि से कहा-आप महलों में चलिए, उन महलों में जिनके कलश धूप में चम-चम करते हैं। इसमें सोचने-विचारने की कोई बात नहीं है। आपको मालूम है, मैं चक्रवर्ती हूँ। चित्तमुनि ने ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती से उस समय जो वाणी कही, वह भगवान् महावीर की कृपा से हमें आज भी प्राप्त है। वह एक सन्त की वाणी थी, परन्तु वह तीर्थंकर की वाणी पर चढ़ी, और फिर गणधरों की वाणी में उतरी और इस प्रकार निरन्तर बहती हुई वह हमारी परम्परा में आई है। सामने चक्रवर्ती खड़ा है, और वह महलों में चलने और भोग-विलास करने का आमन्त्रण दे रहा है। मैं सब प्रबन्ध कर दूंगा। तब सन्त ने क्या कहा, सन्त ने कहा सब्वं विलवियं गीयं सब्वं नर्से विडंपियं। सब्वे आभरणा भारा, सब्वे कामा दुहावहा॥ —उत्तराध्ययन १३ मुनि ने कहा—राजन्! तुम राजसिंहासन पर बैठे हो, प्रजा का न्याय करने बैठे हो, तुमने दूध का दूध, और पानी का पानी करने का अधिकार पाया है, किन्तु अपना भी न्याय करते हो या नहीं। हमारे पास एक वकील आए। वह बैरिस्टर हैं। विकट और उलझे हुए मुकद्मों को सुलझाते हैं, और लोग उनकी प्रशंसा करते हैं। उन्होंने उस समय जो मुकद्मा जीता था, मेरे सामने उसका अच्छे ढंग से वर्णन किया जा रहा था। सुनते-सुनते मैंने उनसे कहा—वकील साहब! आप अपने मुवक्किलों की ही मिसलें देखते हैं, उनको ही जिताते हैं, और उनमें ही कामयाब होते हैं। मगर मैं पूछता हूँ, क्या आप अपने अंदर की मिसल भी कभी देखते हैं। आपने अब तक अनेक मुकद्मे लड़ाए और अनेकों को जिताया भी, पर अपनी मिसल का भी कभी पन्ना पलटा है या नहीं। दूसरों की ही वकालत की है या कभी अपनी भी। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तिक आनन्द । १०३ बड़ा विकट प्रश्न है ! मगर यह प्रश्न केवल उन वकील साहब के सामने नहीं. हरेक के सामने है। मनुष्य दुनिया भर को अपने बंधन में बाँध ले, सब जगह अपनी विजय-पताका भले ही फहरा ले, किन्तु अपने ही मन और तन पर उसका अपना कब्जा नहीं है। यह वह अनुभव भी करता है। कभी-कभी वह सोचता भी है, कि मेरे मन मेरा अधिकार नहीं है, बल्कि मेरा मन ही उल्टा मेरे ऊपर कब्जा किए हुए है। मगर यह अनुभव करते, ओर विचारते हुए भी मनुष्य विवश और लाचार है। चित्त मुनि कहते हैं तुम्हारे सामने जो गीत, और नृत्य होते हैं, वे तुम्हें गीत और नृत्य मालूम होते होंगे, किन्तु मुझे तो ऐसा मालूम होता है, यह रोना है—यह विलाप है। तुम्हारी जिन्दगी पर सब रो रहे हैं क्योंकि तुम्हारा पतन हो रहा है। आध्यात्मिक रूप से तुम पतन के गहरे गर्त में समाये जा रहे हो। बड़े-बड़े सम्राटों को अपने चरणों में झुकाने वाले तथा देवताओं द्वारा सेवित चक्रवर्ती से मुनि ने सब कुछ साफ-साफ कहा। चित्त मुनि ने ब्रह्मदत्त से कहा नागो जहा पंकज लावसन्नो, दटुं, थलं नाभिसमेई तीरं। एवं वयं कामगुणेसु गिद्धा, न भिक्खुणो मग्गमणु व्वयामो॥ –उत्तराध्यन, १३ भगवन् ! आपकी बात यथार्थ है। आपने जो कुछ कहा है, उसमें तनिक भी संदेह नहीं है, किन्तु मैं विवश हूँ। हाथी झील में पानी पीने जाता है और कभी-कभी झील के बीच कीचड़ में फँस जाता है। किनारा पास ही होता है और वह चाहता भी है कि मैं किनारे पर पहुँच जाऊँ, किन्तु वह किनारे पर पहुँच नहीं पाता, और उसके प्राण उसी कीचड़ में समाप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार मैं भी कीचड़ में फँस गया हूँ, किनारा दिखाई दे रहा है, मगर किनारे पर पहुँच नहीं पाता। संसार के वासना-पंक में फँसा मनुष्य परमार्थ की ओर कैसे बढ़े। यह स्वतन्त्र पुरुष नहीं, परतन्त्र पुरुष की भाषा है। यह विवश और लाचार आदमी की भाषा है। वह वासनाओं के दल-दल में फंस गया है, और इतना गहरा फँस गया है कि सामने सत्य-मार्ग के जीवन के उद्धार के मार्ग के होते हुए भी वह उस तक पहुँच नहीं पाता है। वास्तव में आत्मा की दुर्बलता ने उसे ऐसा गिरा दिया है, कि उसमें से निकलना उसके लिए बहुत ही कठिन बात हो गई है। इसीलिए मैंने कहा है, कि जीवन वासनाओं में फंस कर इतना बर्वाद हो जाता है, कि वह अनेक रूपों में स्वतन्त्र होकर भी स्वतन्त्र नहीं रहता। ब्रह्मदत्त सम्राटों का भी सम्राट् है ! चक्रवर्ती है, किन्तु आत्मा का सम्राट् वह नहीं है, मन का राजा नहीं है, उसमें यह शक्ति नहीं, कि जब चाहे तब इन्द्रियों का उपयोग करे, और जब न चाहे Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४। उपासक आनन्द तब उपयोग न करे। जब चाहे तब मन से काम ले, और जब न चाहे तब न ले। जब सुनने की आवश्यकता हो, तो सुने और आवश्यकता न हो तो आवाज को ठुकरा दे। __ आपने कितना सुना है। फिर भी वासनाओं को जीतने की ओर आपका कदम नहीं उठता। मैं चकित हूँ, कि हमारी बहिनें, जो अबला कहलाती हैं, समाज में भी जिनको कोई खास स्थान नहीं दिया गया है, तथा जो हजारों वर्षों से अंधकार में रह रही हैं, इस ओर आपसे भी आगे हैं। आज ही एक बहिन ने अपने दोनों हाथों की चार-चार उँगलियाँ दिखला कर अठाई की तपस्या अंगीकार की है। समाज ने उसे बोलने की इजाजत नहीं दी है। आपकी मर्यादा ऐसी है, कि आपके सामने वह आवाज नहीं निकाल सकती। इन परिस्थितियों में बहिर्ने रह रही हैं, फिर भी कुछ न कुछ कर रही हैं। आप, अगर आपके सामने उपवास का सवाल आता है, तो कितना आगा-पीछा सोचते हैं। दया का प्रश्न आता है, जिसमें भोजन भी मीठा मिलता है, तो भी आप लड़खड़ाने लगते हैं, और सोचते हैं, कि दया भी चले और दुकान भी चले तो ठीक है। बड़ी कठिनाई है। शरीर की गुलामी ने मनुष्य को कितना विवश कर दिया है। शरीर की आवश्यकता को मनुष्य महसूस करता है, उसे वस्त्र या अलंकार की आवश्यकता होती है, तो आज्ञा मिलने भर की देर है, उसकी पूर्ति में देर नहीं लगती। देर लगी तो, मन में कुढ़ता रहता है। उसकी पूर्ति के लिए चाहे सो बर्वाद कर देगा। किन्तु अपनी आत्मा की आवाज को वह सुनी अनसुनी कर देता है। एक भाई कहते हैं-चौदस आ रही है। मैंने कहा—बहुत-सी आ चुकी हैं। इस जीवन में कितनी चौदसें आईं, और चली गईं। कोई हिसाब है, जिसके अन्त:करण में चौदस की भावना होगी, जो वासनाओं को ठुकराने के लिए तैयार होगा, उसके लिए उसी दिन चौदस है। मैं तो कहता हूँ, कि जीवन में जो भी क्षण मिलता है, बड़ा मूल्यवान् है, और उस क्षण को भी व्यर्थ नष्ट नहीं करना चाहिए। ऐसी भी आत्माएँ हैं, जो चौदस का इन्तजार नहीं करतीं। वे जिस समय जागी, उसी समय उठ खड़ी हुईं। भगवान ने गौतम को कितने गंभीर शब्दों में चेतावनी दी हैसमयं गोयम, मा पमायए। -उत्तराध्ययन अर्थात्-गौतम! क्षण भर के लिए भी प्रमाद के अधीन न हो, एक भी क्षण व्यर्थ न गँवा। कई भाई कहते हैं, कि दया और उपवास के लिए प्रेरणा दीजिए। उस समय मैं सोचता हूँ, काम तो इनकी भावना के स्वयं जागने पर ही चलेगा। किसी की प्रेरणा से, Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तिक आनन्द | १०५ किसी के दबाव से आकर धर्मक्रिया करने की अपेक्षा अपने अन्तःकरण की प्रेरणा से ही धर्मक्रिया करने से अधिक रस मिलता है । अन्तःकरण में वासनाओं को जीतने की लौ लग जाएगी, तो ऐसा न होगा कि चौदस को जागे और पूर्णिमा को सो गए। प्रमाद से आत्मा का पतन होता है । सिद्धान्त की बात यह है, कि आपको शरीर, इन्द्रियों और मन की बात सुनना बंद करना पड़ेगा, किन्तु यह तभी होगा, जब आत्मा में जागृति पैदा होगी । अतएव अपनी आत्मा को जगाओगे, तो आपका कल्याण होगा। जब तक आत्मा जागृत नहीं होती, दीनता छाई रहती है। देखो न, चक्रवर्ती कैसी भाषा बोल रहा है। वह छह खंड का राजा है। जिसके पास चौरासी लाख हाथी, इतने ही घोड़े, इतने ही रथ और ९६ करोड़ पैदल हैं। बहुत विशाल साम्राज्य है, जिसका । इतना विशाल, कि सूर्योदय और सूर्यास्त उसके राज्य में होता है। देवता भी उसके सामने हाथ बाँध कर खड़े रहते हैं । किन्तु जब आत्मा को सुधारने की बात आई, तो गिड़गिड़ा कर कहता है— मैं गजराज हूँ और मैं कीचड़ में फँस गया हूँ। किनारे तक नहीं पहुँच सकता । धतेरे साम्राज्य को । धतेरे चक्रवर्त्तित्व को । यह भाषा स्वतन्त्र आत्मा की भाषा नहीं है। यह निर्ग्रथ की भाषा नहीं है, बल्कि गुलामों की भाषा है। ! आनन्द कहता है—' भगवन्! मैं इस निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा रखता हूँ। मेरा रोमरोम इस वाणी पर श्रद्धा की गहरी भावना रखता है। मैं इस पर प्रतीति करता हूँ । रुचि रखता हूँ। जो कुछ आपने कहा है, सब सत्य है । मैं इस प्रवचन को शिरोधार्य करता हूँ। अपने उपर्युक्त कथन में आनन्द लगभग एकार्थक शब्दों का प्रयोग कर रहा है। आप कह सकते हैं, कि एक ही वाक्य बोलने से काम चल सकता था। फिर बार-बार वही बात क्यों बोली जा रही है। किन्तु जब मेघ गरजता है, और गड़गड़ाता है, तो मोर आवाज पर आवाज लगाता जाता है, और सारे वन को गुंजा देता है। वह बार-बार क्यों कूकता है। उससे कहो - अरे मोर! क्या तू पागल हो गया है। क्यों बार-बार कूकता है। इससे तेरा क्या मतलब है ? मोर क्या उत्तर देगा। उसमें सामर्थ्य हो, तो यही कहे मेरे यहाँ हिसाब लगाने का धंधा नहीं है। मैं बहीखाता करने नहीं बैठा हूँ । मुझे पुनरुक्ति की परवाह नहीं है । यह तो मेरे मन की लहर है। मेघ गरजता है, और मै कूकता हूँ। कूके बिना मुझसे रहा नहीं जाता। आनन्द ने प्रभु की वाणी सुनी है, और हृदय, श्रद्धा और प्रेम से भर गया है। वही श्रद्धा और प्रीति उससे पुलक रही है। वह जनता को सुनाने के लिए नहीं बार-बार Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ । उपासक आनन्द बोल रहा है। उसकी भावना का प्रवाह अपने आप बाहर निकल रहा है। उसका आनन्द भीतर नहीं समा रहा है, इसलिए वाणी के रूप में उमड़-उमड़ कर बाहर आ रहा है। यहाँ एक बार या दो बार का प्रश्न ही नहीं है। आत्मा की भाषा में तो आनन्द सरीखे भावनामय साधक ही इतना गहरा आनन्द अनुभव कर सकते हैं। जिसके हृदय में भावना की धारा ही नहीं बही; वह इस अमृत का आस्वादन नहीं कर सकता। इसके लिए बड़े भारी वैराग्य की आवश्यकता है, और जैनधर्म सबसे पहले यही प्रेरणा देने के लिए आया है, कि तूने अब तक जो पाया है, वह मिथ्या और निस्सार है, और उसने तेरे जीवन को बिगाडा ही है, सुधारा नहीं है। अब नींद से जाग और सँभल। उस वस्तु को पाने का प्रयत्न कर जिससे न केवल यही जीवन, वरन् भविष्य का जीवन भी पावन और उज्जवल बन जाए। अपना उत्थान और पतन अपने हाथ में ही है। ___ बड़े-बड़े सम्राट् लक्ष्मी के दास बने रहे, उनके सामने लक्ष्मी की झंकार होती रही, और वे अभिमान में फूले न समाए। जैनधर्म ने उनसे कहा—तुम अहंकार करते हो। शरीर पर कंकर-पत्थर लाद लिए हैं और सोचते हो, कि मैं बड़ा हूँ। धन मनुष्य के मन में अहंकार उत्पन्न करता है। समाज में कोई बड़ा आदमी गिना जाता है। वह अपने घर में या समाज में किसी से कोई कार्य करने को कहता है। जब उसकी इच्छा के अनुसार कार्य नहीं होता, तो उसे मलाल होता है और वह कहता है—'जानते हो, मैं कौन हूँ ?' . ___'हाँ-हाँ जानते हैं तुझे! और जैनधर्म कहता है—तुझे अपनी इस जिंदगी पर अभिमान है, पर जानता है, पिछली जिंदगियों में तू क्या-क्या रहा है? मैं तेरी पिछली जिंदगियों को भी जानता हूँ। कभी तू जूठन के टुकड़ों को भी तरसता रहा है, और आज इतना अभिमान है। कहता है, कि मैं बड़ा आदमी हूँ। मनुष्य की महानता अहंकार में नहीं, विनय-नम्रता में है। एक बड़े आचार्य ने कहा है। हम जानते हैं, तुम बड़े आदमी हो। मगर तुम्हारी वह जिंदगी भी रही है, कि तुम अपने साथियों के साथ बेर के रूप में थे। बेर पक गया और माली ने तोड़ लिया। डलिया में डाल कर बाजार ले गया। ग्राहक आने लगें। एक आया और दूसरा आया। एक ने कहा-बेर अच्छे नहीं हैं। देखू, नमूना। फिर उस बेर को मुँह में डाला, दाँतों से कुचला और खराब मालूम हुआ तो थू-थू करके थूक दिया। और बोला—मेरा तो मुँह खराब हो गया। जैनधर्म कहता है-अरे बड़े आदमी! तुम्हारी यह कीमत थी, एक समय, और आज कहते हो—जानते हो, मैं कौन हूँ? मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ, कि एक समय एक कानी कौड़ी की भी तो कीमत नहीं थी, तम्हारी। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तिक आनन्द । १०७ कभी राजकुमार हए और बड़ा रूप पाया। इतना अहंकार आ गया, कि जमीन पर पैर नहीं टिकते। जरा-सा हल्ला मचा, थोड़ी-सी गड़बड़ी हुई, तो गरज उठे—जानते हो मैं कौन हूँ? ___यहाँ जैनधर्म कहता है. जी हाँ, जानते हैं। आप वही हैं जो एक दिन सड़ती हुई गंदी नाली में लट के रूप में किलबिला रहे थे, और मल-मूत्र में स्नान कर रहे थे। हम तो जानते हैं, आपको, मगर आप ही अपने को नहीं जानते। ____ कभी-कभी लक्ष्मी-पुत्रों में झगड़ा हो जाता है, तो कहते हैं-जगह की तंगी है, मैं कहाँ उ~-बैलूं। वे इतने पैर फैलाना चाहते हैं, कि मानो कुम्भकर्ण के शरीर से भी उनका शरीर बड़ा हो। रेलवे में सफर करने वालों की मनोवृत्ति को आप मुझसे भी ज्यादा समझ सकते हैं। प्रायः प्रत्येक यात्री यही चाहता है, कि दूसरा कोई हमारे डिब्बे में न घुसने पाए। किसी को अत्यावश्यक कार्य है, या बीमारी का इलाज कराने जा रहा है, उसको भी लोग यही कहेंगे-जगह नहीं है। दिखता नहीं, क्या अन्धे हो। जैनदर्शन उनसे कहता है ठीक है भाई, आज कहते हो, कि जगह नहीं है। और उस दिन क्या हालत थी, जब सुई की नोंक बराबर निगोद में अनन्त-अनन्त साथियों के साथ गुम-सुमं पड़े थे ? वहाँ जगह थी, और यहाँ जगह नहीं है? वहाँ कितनी जगह मिली थी आपको। ___जो मनुष्य अपनी पुरानी अवस्था को भूल जाता है, और अपने वर्तमान जीवन को ही सब-कुछ समझ लेता है, वह नास्तिक है, लेकिन इसके विपरीत जो अपने पूर्वापर जीवन का ख्याल रखता है, वह आस्तिक है। आज लोगों ने आस्तिकनास्तिक की व्याख्या बदल दी है। कहते हैं, जो वेद-पुराण को न माने वह नास्तिक है। किसी ने कह दिया—जैन नास्तिक हैं, और किसी ने कह दिया—वैष्णव नास्तिक हैं। किन्तु वास्तव में नास्तिक वही है जो वर्तमान-दृष्टि-परो हि नास्तिकः। जिसकी दृष्टि वर्तमान में ही अटक गई है, जो मौजूदा हालत में ही अटक गया है, धन-वैभव में ही अटक गया है; जिसे अतीत का ख्याल नहीं, और अनागत की चिन्ता नहीं, वही नास्तिक है। मैं कहाँ से आया हूँ, और जब यह शरीर छूट जाएगा, तो कहाँ जाऊँगा, यह नहीं सोचता है जिसकी दृष्टि एकान्त वर्तमान पर ही है। कभी नरक में घूमता रहा है, कभी कीड़ा बन कर किलबिलाता रहा है, और कभी पक्षी बनकर घौंसले में बसेरा करता रहा है, किन्तु उस ओर दृष्टि नहीं जाती है, और Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १०८ | उपासक आनन्द वर्तमान में मिली प्रतिष्ठा और सम्पत्ति को ही देखता है। यह नहीं देखता है, कि आज सब कुछ है, कल क्या होगा! मुंद गई अँखियां, तब लाखन कौन काम की! बड़े-बड़े चक्रवर्ती आए, और सिंहासन पर बैठे, किन्तु जब प्राण निकले, तो क्या हुआ। जिसे एक मक्खी भी बर्दाश्त नहीं होती थी, और हवा का झौंका भी सहन नहीं होता था, वही जलती हुई ज्वालाओं में झौंक दिया गया, और जल कर खाक हो गया। फिर बाकी क्या रह गया ? ___ बड़े-बड़े धनी-मानी माया को छाती से लगाए रहते हैं। एक कौड़ी की ममता नहीं छोड़ सकते। चमड़ी जाए, पर दमड़ी न जाए। इस कहावत को अपना जीवनसिद्धान्त बना कर चलते हैं, पैसे-पैसे के लिए प्राण देने को तैयार रहते हैं, परन्तु श्वाँस निकल गई, और दिल की धड़कन बन्द हो गई तो क्या सम्बन्ध रह गया उस सम्पत्ति से। मतलब यही है, कि जिसकी दृष्टि केवल वर्तमान तक ही सीमित है, जो भूत से शिक्षा लेकर भविष्य को कल्याणमय बनाने का विचार नहीं करता, वास्तव में वही नास्तिक है। भारत में एक बृहस्पति ऋषि हो चुके हैं. उनका दर्शन चार्वाक-दर्शन के नाम से प्रसिद्ध है। एक दिन उन्हें एक आदमी मिला। दुबला-पतला था। वहाँ उन्होंने उससे पूछा-इतने दुबले क्यों हो। उसने कहा-क्या बतलाएँ महाराज! ऐसी ही हालत चल रही है। पैसा नहीं है। ऋषि बोले—तुम मूर्ख मालूम होते हो। आदमी ने पूछा—कैसे महाराज ? ऋषि—पैसों की दुनियाँ में क्या कमी है। किसी सेठ से कर्ज ले लो, और घी पिओ और तगड़े बन जाओ। आदमी—कर्ज ले लेंगे, तो चुकाना पड़ेगा। ऋषि—चुकाने की क्या बात है। तगड़े हो ही जाओगे, एक मजबूत लट्ठ और खरीद लेना। कर्ज माँगने आए, तो दिखा देना लट्ठ, ताकि दूसरी बार वह माँगने भी न आए। आदमी—मौजूदा जिंदगी का फैसला तो कर लिया, शायद इस तरह यह जिंदगी आराम से निकल जाए, और पकड़ में न आऊँ; मगर आगे चल कर क्या होगा? अगले जन्म में लेने के देने पड़ जाएँगे? Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तिक आनन्द । १०९ | ऋषि बोले—इस मूर्खता की बदौलत तो दुखी हो रहे हो। यही कायरता तो तुम्हारी दीनता और दरिद्रता का कारण है। इसे छोड़ो। देखो यावन्जीवेत्सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः॥ मूर्ख, एक दिन तेरा शरीर जलाकर भस्म कर दिया जाएगा, तब कौन तो लेने वाला और कौन देने वाला रहेगा। इस प्रकार आस्तिक और नास्तिक का फैसला वर्तमान में ही है। कहाँ से आया है और कहाँ जाएगा, यह विचार ही जिसे नहीं है, और जो अपने वर्तमान अस्तित्व पर ही भरोसा करके बैठा है, वह नास्तिक है। - जैन-धर्म तो वर्तमान के विषय में भी कहता है, कि तुझे जो साधन मिले हैं, उनका अपने लिए और दूसरों के लिए उपयोग कर। अपने आपको समेट कर मत बैठ। समेट कर बैठेगा, तो तेरा सामाजिक जीवन बर्बाद हो जाएगा। ___आनन्द आज वैभव का स्वामी है, किन्तु वह अतीत को भूला नहीं है। अतीत में उसकी स्थिति कैसी-कैसी रही है, यह बात वह भली-भाँति जानता है। भूतकाल के दृश्यों को वह सामने रखता है। वैभव की असारता को समझता है। अतएव वह वर्तमान में ही नहीं भूला है। इसीलिए वह वर्तमान में भविष्य का निर्माण करने के लिए उद्यत है। अतीत में जो रोटी बनाई है, उसका इस्तेमाल अभी हो रहा है। वह अभी पेट में जाकर समाप्त हो रही है। भविष्य की रोटी के लिए क्या व्यवस्था कर रहे हो। याद रखो, दूसरे के हाथ में जो रोटी पहुंच रही है, वह आगे के लिए बोई जा रही है। जो बोया था, वह पा रहे हो और जो बो रहे हो, वह पाओगे। तुम वर्तमान की चिन्ता करते हो, यह वृथा चिन्ता है, वर्तमान तो अतीत के फल के अनुरूप होगा ही, चिन्ता करनी है, भविष्य की। आज तो बीत रहा है, भविष्य सामने आ रहा है। उस विराट भविष्य की ही चिन्ता करो। उसके लिए व्यवस्था करो। सोचो आज सबकुछ पाया है, तो आगे भी कुछ ले जाना है, या नहीं। जिसमें इस प्रकार की विचार-शीलता होगी, उसमें न्यायवृत्ति पनपेगी। इसके विपरीत, जो सोचता है, कि आगे का क्या पता है। जो सबका होगा, वही मेरा भी हो जाएगा; परलोक किसने देखा है। उसके अन्दर न्यायवृत्ति की भावना नहीं पनप Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० | उपासक आनन्द सकती। उसमें धर्म के संस्कारों की वृत्ति जागृत नहीं हो पाती। ऐसे लोग रावण बन सकते हैं, राम नहीं बन सकते । रावण के सामने सुन्दरी आई तो उसने सोचा, कि इसे उड़ाना है । संसार में जो सुन्दर चीज है, वह मेरी है। उसने नहीं देखा, कि मरने के बाद क्या होगा । उसने सोचा- मेरे पास तलवार है, और लट्ठ है, और इनके बल पर मैं इसे छीन कर ले जा सकता हूँ। अपने पास रख सकता हूँ। राम को, जो दुर्बल है, इस सुन्दरी को अपने पास रखने का अधिकार नहीं है। उसने लट्ठ के घमण्ड में भूत और भविष्य को नहीं देखा। उसने वर्तमान को ही देखा और चमड़ी के रंग में भूल गया। जो केवल वर्तमान देखता है, अपने भविष्य को नहीं, वह नास्तिक है । इस प्रकार भूलने वाला कोई भी व्यक्ति रावण ही बन सकता है, राम नहीं बन सकता। उसे अपने जीवन के उद्देश्य का पता नहीं चल सकता। भगवान् का भक्त ही आगा-पीछा सोचेगा—ऐसा व्यक्ति नहीं सोच सकता । आनन्द भगवान् का भक्त बन गया है, और वह कहता है- भंते! मैं आपके प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ । आपको भी भगवान् के प्रवचन पर श्रद्धा है या नहीं । उपवास अच्छा है या नहीं । दूसरों के लिए अच्छा है और जब तक हम न करें तब तक हमारे लिए भी अच्छा है और जब भूख लगे, तब की बात न्यारी है। तो, यह श्रद्धा की कसौटी नहीं है। उपवास के समय भी उपवास अच्छा है, और पारणा करते समय भी अच्छा है, तो यह है, श्रद्धा की कसौटी। श्रद्धा के बिना जीवन का विकास हो नहीं सकता। दान देना अच्छा है— किन्तु कब तक। जब तक माँगने वाला नहीं आया, और तिजोरी खोलने की चाबी नहीं उठानी पड़ी। किन्तु जिनके अन्तःकरण में भगवान् की वाणी के प्रति श्रद्धा जाग गई; उनके अन्तःकरण में दान देने से पहले, देते समय, और देने के पश्चात् भी हर्ष की लहर पैदा होगी। वह मम्मण सेठ की तरह हाय-हाय नहीं करेगा। वह तो भगवान् की वाणी पर चलने का प्रयत्न करेगा। वह सत्कर्म करने से पहले, सत्कर्म करते समय और बाद में भी उसे अच्छा समझता रहेगा । वह तीनों कालों में से किसी को भी गड़बड़ नहीं होने देगा। जैनधर्म यहीं जीवन का खात्मा नहीं करता, वह जीवन के तीनों कालों को सुन्दर बनाने की प्रेरणा देता है । वह भविष्य को सुधारने का प्रयास करता है। 1 इसीलिए आनन्द कहता है- भगवन् ! मैं आपकी वाणी में श्रद्धा रखता हूँ। जिन महान् आत्माओं को महावीर की वाणी मिली है, कैसे संभव है, कि वे पीछे रह जाएँ। वे तो छलांग लगाने वाले होंगे। जब समर - भूमि में मारू बाजे बजते है, युद्ध का Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आस्तिक आनन्द [१११|| बिगुल बजता है,तब सच्चा सिपाही कोठे में बंद नहीं रह सकता। वह सच्चा सिपाही, जिसके अन्दर वीरता बोल रही है, जो अपने देश के सम्मान और प्रतिष्ठा के लिए अपने प्राण हथेली पर रखता है, वह छिप कर नहीं बैठ सकता। वह तो सबसे आगे होगा। हाँ, जिसके जीवन में पूर्ण भावनाएँ नहीं हैं, वह भले ही कहीं जाकर छिप जाए। ___ जब प्रभु की वाणी का बाजा बजे, वासनाओं के साथ युद्ध करने का बाजा बजे, तो कोई भी भावना-शील साधक हाथ पर हाथ रखकर बैठा नहीं रह सकता। भगवान् की वाणी का नगाड़ा सुनकर हजारों साधक उनकी सेवा में तत्पर हो गए। गौतम जैसे साधक भी पहुँचे, और आनन्द जैसे साधक भी पहुंचे। उन्होंने अपना जीवन आत्मकल्याण के लिए अर्पण कर दिया, विश्व के कल्याण में अपना कल्याण माना। उन्होंने थैलियों के मुँह को भी नहीं देखा, और वासनाओं को भी नहीं देखा। वे वासनाओं से लड़ने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने उसमें रस पाया और उनमें नवचेतना पैदा हो गई। साधना के क्षेत्र में आने के बाद शरीर की पूजा नहीं करनी है, शरीर का उपयोग-मात्र करना है, यह तथ्य उन्होंने हृदयंगम कर लिया। हमारे प्राचीन कथा-साहित्य में एक कहानी आई है. एक पाठशाला में दो सेठ के लड़के और एक राजा का लड़का तीनों साथ-साथ पढ़ते थे। आम तौर पर बड़ों की बड़ों से मित्रता हो ही जाती है। बड़ों की गरीबों से मित्रता हो, तो चार चाँद लग जाते हैं, परन्तु ऐसे प्रसंग बिरले ही होते हैं। सेठ के लड़के भी बड़े और राजा का लड़का भी बड़ा। तीनों में गहरी मित्रता थी। किन्तु जब अध्ययन समाप्त हुआ तो सेठ के दोनों लड़कों ने राजा के लड़के से किनारा करना शुरू किया। उसके साथ मिलना-जुलना कम कर दिया और बातचीत करना भी कम कर दिया। राजा के लड़के ने सोचा-यह क्या बात है ? ये बच-बच कर क्यों रहते हैं। ___ एक दिन तीनों मिल गए। राज़-पुत्र ने पूछा-भैया, क्या कारण है, कि आप मुझसे आजकल अलग-से रहने लगे हैं। क्या अब हम लोग मित्र नहीं रहे हैं। सेठ के लड़के बोले आपका मैत्री-भाव प्रशंसनीय है, परन्तु आप में और हम में अन्तर है। आप राजकुमार हैं, और हम वणिक हैं। हम भविष्य को देखकर चलने वाले ठहरे। वह वणिक् ही क्या, जो मौजूदा हालत को ही देखे, और भविष्य को न देखे। अध्ययन समाप्त होते ही हमें दुकान संभालनी है। आप राजा बनेंगे, और हम आपकी प्रजा होंगे। आपके फरमान निकलेंगे, और हम सिर झुका कर उन्हें तस्लीम करेंगे। हमारी-तुम्हारी यह दोस्ती अब कितने दिन और चल सकती है—यह सोचकर पहले से ही हम अपना रास्ता अलग बना रहे हैं। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ । उपासक आनन्द राजकुमार ने कहा- भली विचारी तुमने । अजी, वह और कोई होगा, जो बदल जाएगा। मैं राजा बनूँगा तो राजा की जगह बनूँगा; हमारी मैत्री में क्यों अंतर आ जाएगा। तुम मित्र रहोगे, तो तुम भी राजा बनोगे । सेठ के दोनों लड़कों ने कहा- ऐसी बात है । कभी जरूरत पड़ जाए, तो एक बार हमें भी राजा बना देना । राजकुमार ने कहा- मैं वचन देता हूँ, कि एक बार तुमको भी राजा बना दूँगा । कुछ समय के पश्चात् राजकुमार राजा बन गया, और सेठ के लड़कों ने दुकान की गद्दियाँ सँभाली। एक ने व्यापार किया और लड़खड़ा गया। घाटा पड़ गया। दुकान में पूँजी कम रह गई, और देना ज्यादा हो गया । कठिनाई में पड़ गया। माँगने वाले आने लगे। उसने सोचा कोई बात नहीं है। जब देना होता है, तो लेने वाले हजारों हो जाते हैं, किन्तु जब लेना होता है, तो देने को कोई नहीं आता । समुद्र में ज्यादा वर्षा होती है, और जहाँ आवश्यकता होती है, वहाँ नहीं होती । सेठ के लड़के ने इधर-उधर हाथ मारे, किन्तु कहीं सफलता नहीं मिली। उसे पूँजी न मिल सकी। तब उस राजा की याद आई। उसने सोचा- राजा ने वचन दिया था, तो उससे लाभ उठाने का यही उपयुक्त अवसर है। यह भागा-भागा राजा के पास गया। राजा के समक्ष अपनी स्थिति निवेदन की। राजा ने कहा- आप जो सहायता चाहें, माँग सकते हैं। सेठ के लड़के ने कहा- आपने राजा बनाने का वचन दिया था। राजा को अपने वचन याद थे; मगर यह सुनकर उसके पैर लड़खड़ा गए । फिर भी उसने सँभल कर कहा— अच्छा, एक पहर के लिए राजा बनाता हूँ। राजा, सेठ को राजा बनाने का आदेश देकर अपने महल चला गया, और सेठ कूद कर सिंहासन पर बैठ गया। राजा के मंत्रियों ने कहा - अभिषेक आदि की विधि तो हो जाने दीजिए और राजा के योग्य वस्त्र - आभरण भी धारण कर लीजिए। तब यह सिंहासन अधिक सुशोभित होगा । सेठ राजा बोला – मुकुट और वस्त्राभरण की क्या आवश्यकता है। हम तो राजा बन चुके । सिंहासन पर आसीन होकर उसने आदेश देना आरम्भ कर दिया — इतने रुपये मेरे घर भेज दो। लेने वालों से कहला दिया- जिनको लेना हो, अभी ले लो। जितने भिखारी और साधारण आदमी आए, तो उसने किसी को कुछ और किसी को कुछ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आस्तिक आनन्द ।११३| बाँट दिया। नौकरों को तनख्वाह दुगनी और तिगुनी कर दी। घोषणा करवा दी—मैं राजा बन गया हूँ, और जिसे जो चाहिए, सो ले ले। सारे नगर में हलचल मच गई। ___ इस प्रकार एक पहर समाप्त होने से पहले वह सिंहासन से नीचे उतर गया और बोला-हम अपने घर जाएँगे। जय-जयकार के साथ वह घर चला गया, और आनन्द में रहने लगा। एक पहर में ही उसने राजा का खजाना खाली कर दिया। वह करोड़ों का माल अपने साथ ले गया। ___ कालान्तर में दूसरे सेठ को भी घाटा लगा। वह भी राजा के पास पहुँचा, और राजा ने अपने वचन के अनुसार उसे भी एक पहर का राजा बना दिया। वह राजमहल में पहँच कर सोचने लगा-राजा बनना है तो शान के साथ ही बनना चाहिए। रौब के साथ सिंहासन पर बैठना चाहिए। उसने उबटन, स्नान आदि कराने के लिए नाई को बुलवाया। जब हजामत, उबटन और स्नान आदि से निवृत्त हो गया और सुन्दर से सुन्दर पोशाकें मँगवाईं। पोशाकों का ढेर हो गया, तो सोच-विचार में पड़ गया, कि कौन-सी पोशाक पहनूँ और कौनी-सी न पहनूँ। यह ठीक है। नहीं यह रद्दी है। और यह कैसी रहेगी। अच्छी तो है, मगर यह इससे भी अच्छी है। किन्तु यह भी ठीक है। इस प्रकार पोशाक का चुनाव करने में ही बहुत-सा समय निकल गया। आखिर एक पोशाक पहनकर और सजकर ज्यों ही वह सिंहासन पर बैठा, मंत्री ने घंटी बजाई, और सचूना दी, कि एक पहर का समय पूर्ण हो चुका है। अब आप यह पोशाक उतार दीजिए। राजा बोला—अरे भाई; मैं तो अभी बैठा हूँ। अरे, मैं तो अभी कुछ भी नहीं कर सका। मंत्री ने कहा यह तो पहले सोचने की बात थी। आप तो स्नान करने और सजने में ही रह गए। वेषभूषा से ही चिपट गए। आपका साथी तो चट उछलकर सिंहासन पर सवार हो गया था। उसने क्षण भर का भी विलम्ब नहीं किया था। इसी बीच जो माँगने वाले आए थे, इसने नौकरों को आदेश दिया, कि इन्हें जूत लगाओ। क्योंकि माँगने वालों को देने में उसने अपनी इज्जत की हतक समझी। जो भिखारी आए, उनसे कहा—भागो सामने से। मैं मौज करने के लिए राजा बना हूँ, तुम्हारे लिए राजा नहीं बना हूँ। इन सब कारणों से जब वह वापिस लौटा तो उसके जूते ही पड़ गए। लोगों ने चारों तरफ से उसे घेर लिया। कहा—लाओ, क्या लाए हो खजाने से। पहर भर के राजा बने थे, तो क्या किया इस बीच में ? Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११४ । उपासक आनन्द कहानी तो खत्म हो गई, परन्तु उसके आशय पर आपको ध्यान देना है। आप मनुष्य बने तो एक तरह से राजा ही बने हैं। चौरासी लक्ष योनियों में मनुष्य ही राजा है। मगर यह राजा की पदवी अनन्त काल के लिए नहीं मिली है। पहर भर के लिए थोड़े समय के लिए ही आपको मिली है। थोड़ा ही समय आपके पास है। जो कुछ करना है, कर लो और ढील मत करो। समय चुटकियों में निकल जाएगा और जब समय निकल जाएगा, तो फिर कुछ नहीं कर पाओगे। फिर हाथ मल-मल कर पछताना ही शेष रह जाएगा। इस शरीर को पाकर माया और लोभ में नहीं पड़ना चाहिए। जो अवसर मिला है, जीवन बिताने के लिए, तपस्या करने के लिए और सेवा करने के लिए। इसे सिंगार करने और रौब गाँठने में ही मत गँवा दो। ___ स्मरण रखो, यद्यपि समय थोड़ा है, किन्तु मूल्य इसका बहुत है। इस थोड़े से समय में ही अपने अनन्त-अनन्त काल को सुधार सकते हो ! आनन्द को भगवान् महावीर ने वह चीज बतलाई कि जरा-सी जिन्दगी में वह सदा के लिए आनन्द का भागी हो सके। वही चीज आपके सामने प्रस्तुत है। सच्चे आस्तिक बन कर आनन्द के चरण-चिह्नों पर चलोगे, तो आनन्द पाओगे। कुन्दन-भवन, ब्यावर, अजमेर २६-८-५० Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छा - योग-'जहासुहं' यह उपासकदशांग सूत्र है, और आनन्द का वर्णन आपके सामने चल रहा है। आनन्द, भगवान् की वाणी श्रवण करने के पश्चात् अपने जीवन की भूमिका निश्चित करने के लिए कहने लगा भगवन्! आपके चरणों में कई सेठ, सेनापति, श्रावक आदि साधकों ने मुनि दीक्षा धारण की है, और वे आपकी सेवा कर रहे हैं; किन्तु मेरी इतनी ही भूमिका है, कि मैं श्रावक के बारह व्रत ही ग्रहण करूँ । आनन्द के इस आत्म-निवेदन पर भगवान् ने उत्तर दिया जहासु देवाणुपिया ! मा पडिबधं करेह । हे देवानुप्रिय ! हे देवताओं के वल्लभ ! 'जहासुहं' जो तुम्हारी आत्मा को सुख दे, जो कल्याण का मार्ग समझ में आया हो, और जिसमें तुम्हें सुख मिले तुम वैसा ही करो; किन्तु धर्म के काम में प्रतिबन्ध मत करो । सम्पूर्ण आगम - साहित्य में, जहाँ कहीं हम पढ़ते हैं, भगवान् ने प्रत्येक साधक से यही बात कही है। जब भी कोई साधक भगवान् के चरणों में पहुँचा और उसने किसी व्रत, नियम या प्रतिज्ञा लेने की भावना प्रकट की तो भगवान् ने उससे यह नहीं कहा, कि ' अरे, यह क्या कर रहा है । यह तो कुछ भी नहीं है । कुछ और अधिक कर । समस्त आगम - साहित्य को देख जाने पर भी आपको कहीं भी यह नहीं दीख पड़ेगा, कि किसी प्रकार की कोई खींचतान की गई हो, साधक की इच्छा में दखल दिया गया हो, या उसमें कुछ परिवर्तन किया गया हो। सब जगह भगवान् की ओर से एक ही उत्तर है - और वह उत्तर वही है, जो इस समय आनन्द को दिया गया है, कि 'हे देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे, वैसा करो। मगर धर्म - कार्य में प्रतिबन्ध मत करो।' इस छोटे से वाक्य पर अगर हम विचार करें, तो जैनधर्म का हृदय, जैनधर्म का Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |११६ । उपासक आनन्द । प्राण या आत्मा स्पष्ट रूप से हमारे सामने आ जाएगा। उसका इच्छानुरूप उसमें स्पष्ट रूप से लक्षित होगा। साधक की भूमिका सहज भाव में कितनी तैयार हुई, वह वाणी सुनने के पश्चात् अपने आप किस भूमिका पर आया है, उसके अन्तरंग में किस चीज का उल्लास उत्पन्न हुआ है, इसी चीज को जैनधर्म महत्त्वपूर्ण मानता है। इसीलिए भगवान् कहते हैं—'जहासुहं' जैसे सुख उपजे, वैसा करो। किन्तु मा पडिबंध करेह'-अर्थात् तुमने जो सोचा है, तुम्हारी आत्मा अपने आप जिस भूमिका पर पहुँची है, उसे करने में विलम्ब मत करो। क्षण भर का भी प्रमाद मत करो। विचार को आचार बनने दो। इसका अर्थ यह है, कि जैनधर्म के मूल में खींचतान नहीं है; बलात्कार नहीं है, दबाव नहीं है, आग्रह भी नहीं है, और किसी प्रकार का प्रलोभन भी नहीं है। जैनधर्म संघर्ष का धर्म नहीं है। वह धर्म के लिए भी जबर्दस्ती नहीं करता। वह धर्म-क्रिया के लिए भी सहज भाव का, स्वतः स्फूर्तः प्रेरणा का अनुमोदन करता है। अपने चित्त को अपनी योग्यता को परख लेने के बाद यदि कोई व्यक्ति श्रावक की भूमिका में आता है, तो भी ठीक है और यदि इससे भी बढ़ कर साधु की भूमिका में आता है, तो भी ठीक है। इन दोनों के अतिरिक्त यदि सिर्फ सम्यग्दृष्टि की भूमिका में ही आया तो भी ठीक है। प्रत्येक मनुष्य में जैनधर्म साधक का स्वागत करता है। वह महान् क्रान्ति और इन्कलाब की देन है, कि साधक अग्रसर होकर किसी भी भूमिका में आ जाए। आप किसी भी आगम का पारायण कर जाइए, सर्वत्र एक ही बात देखने को मिलेगी। भगवान् के पास छोटे बच्चे आए हैं, और उन्होंने किसी साधना को ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की है, तब भी भगवान् ने 'जहासुहं' कहा है, और बड़े-बड़े साधक आए हैं, तब भी यही कहा है। ऐसा कहते समय भगवान् ने साधक की अवस्था को कोई महत्त्व नहीं दिया है. यही कारण है, जो किसी वृद्ध से भी भगवान् ने यह नहीं कहा कि 'तुम बुड्ढे हुए हो, मगर अभी तक भी तुम्हारी इन्द्रियाँ शांत नहीं हुई हैं' क्यों वासनाओं की जिन्दगी में भटक रहे हो। छोड़ो न इन झंझटो को। ___मगर हमारे इस कथन का अर्थ यह नहीं है, कि भगवान् इस आशय का कभी प्रवचन ही नहीं करते थे, वासनाओं के त्याग का उपदेश ही नहीं देते थे। करते थे, पर इस सम्बन्ध में उनका उपदेश सामूहिक रूप में ही होता था। किसी व्यक्ति-विशेष को लक्ष्य करके उस पर दबाव नहीं डालते थे। भगवान् भोग के अवगुण और त्याग के गुण बतलाते थे, असंयम से होने वाले पतन और संयम से होने वाले उत्थान का मार्मिक और सारयुक्त शब्दों में चित्रण करते थे, और दुनिया की झंझटों को त्यागने की बात भी कहते थे; किन्तु वह वस्तु स्वरूप का यथार्थ निदर्शन होता था। व्यक्तिगत Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छा-योग- 'जहासुहं' ।११७ दबाव या जबर्दस्ती या प्रलोभन की पद्धति भगवान् ने कभी ग्रहण नहीं की । श्रमण, श्रावक, और सम्यग्दृष्टि की भूमिकाएँ और मर्यादाएँ उनके उपदेश में प्रतिबिम्बित होती थीं, किन्तु अमुक भूमिका को स्वीकार करो। यह भगवान् ने कभी किसी से नहीं कहा। भगवान् की वाणी श्रवण करने के अनन्तर साधक अपने लिए जो भूमिका तय कर रहा है, और जिस रूप में अपने मन से तैयार होकर आ रहा है, उसी के लिए भगवान् कह देते 'जहासुहं देवाणुप्पिया ।' इसका आशय यह है, कि जैन-धर्म एक विशाल और विराट धर्म है । वह मनुष्य की आत्मा के साथ चलता है, जबर्दस्ती करके नहीं चलता । धर्माचरण के विषय में सहज भाव और अन्तरंग की ही प्रेरणा होनी चाहिए। वहाँ आतंक, भय या लोकलज्जा के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। हमें जो पाठ मिल रहा है, उसमें इच्छा का निवेदन है; अतएव जैन-धर्म को दूसरे शब्दों में हम 'इच्छा - योग' कह सकते हैं। अपनी इच्छा से, पर - प्रेरणा या प्रतारणा के बिना धर्माचरण करने को जैन-धर्म विहित मानता है । जब आप प्रतिक्रमण करते हैं, और प्रतिक्रमण के पाठों का उच्चारण करते हैं तब एक जगह बोलते हैं 'इच्छामि खंमासमणो ! वंदिउं ।' अर्थात् हे क्षमा - श्रमण ! मैं आपको वन्दना करना चाहता हूँ, क्योंकि मेरे मन में वन्दना करने की इच्छा उत्पन्न हुई है। > स्पष्ट है कि यहाँ किसी प्रकार का दबाव नहीं है, तथा इच्छा के अतिरिक्त दूसरी कोई चीज नहीं है। समाज का भी कोई दबाव नहीं है । केवल सहज जागृति का ही भाव है। आचार्यों ने कहा है, कि एक तरफ साधक को अपनी इच्छा बतानी है, और दूसरी तरफ, जिसे वन्दना करना है, उस वन्दनीय की आज्ञा भी प्राप्त करनी है। आज्ञा प्राप्त करने का हेतु यह है, कि गुरु जिस स्थिति में हैं, साधक से वन्दना कराने में उन्हें कोई असुविधा तो नहीं है। उपासक गुरु के निकट पहुँचा, और गुरु सहज भाव में हुए, वन्दना ग्रहण करने की स्थिति में हुए तो बड़ी वन्दना करनी चाहिए, और वैसी स्थिति में हुए तो लघु-वन्दना से भी काम चल जाता है। ऐसा न हो, कि गुरु अस्वस्थ हों, और लम्बी वन्दना शुरू कर दी जाए। अतएव दोनों तरफ की इच्छा होनी चहिए। वन्दना करने वाले की भी और वन्दना को स्वीकार करने वाले की भी । इसी प्रकार 'इच्छामि ठामि काउस्सग्गं' के पाठ से जो कायोत्सर्ग किया जाता है, उसमें भी इच्छा का ही दर्शन होता है। 'इच्छाकारेण संदिसह भगवं' इस पाठ से भी इच्छा की ही आवाज आ रही है। इस प्रकार इन सब पाठों में इच्छा प्रदर्शन का यही महत्त्व है, कि साधना में अपनी भावनाओं की तैयारी ही मुख्य वस्तु है, जबर्दस्ती नहीं । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ | उपासक आनन्द तैयारी ऊँची होगी, भावना ऊँची होगी, तो साधक ऊँचा जाएगा और नीची भावन होगी, तो नीचा जाएगा; किन्तु जो लड़खड़ाते हुए पैरों से ढकेल दिया गया है, वह जरूर लड़खड़ाता जाएगा। अपनी निज की योग्यता नहीं है—लोक-लज्जा ने आगे बढ़ा दिया है। तो जब तक मन में उच्च विचार नहीं हैं, शुभ संकल्प नहीं है, तब तव वह त्याग और तपस्या का महत्व नहीं समझेगा, उसमें कोई रस नहीं लेगा। कोई भी साधना क्यों न हो, जब तक वह भावनापूर्वक नहीं की जावेगी, साधक को उसमें रस नहीं आएगा। आचार्य कहते हैं __ यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भाव-शून्याः। बिना भावना के, बिना मन के की हुई कोई भी क्रिया फलप्रद नहीं होती। जैनधर्म यह नहीं पूछता, कि तूने क्या किया है। जैनधर्म का प्रश्न यह नहीं, कि तूने मास खमण किया है, या नवकारसी की है। वह तो यही पूछता है, कि तूने कैसे किया है। तू तपस्या के समय दो घड़ी भी भावनाओं में बहता रहा है या नहीं। यदि तू भावना में लीन रहा है, और अमृत के प्रवाह में बहता रहा है, तो तेरी दो घड़ी की तपस्या भी अच्छी है। महीने भर की तपस्या करके बैठ गया, और दो घड़ी के लिए भी शुभ संकल्प नहीं आए, तो उससे आत्मा का क्या उपकार हुआ। शक्ति को छिपाना मना है। तुममें जितनी शक्ति है, उसको छिपाने की चेष्टा मत करो। उसका उपयोग करो और उसका उपयोग करोगे, तो वह दिनों-दिन बढती जाएगी। किन्तु शक्ति से बढ़कर भी काम नहीं करना चाहिए। अपनी शक्ति के अनुसार जितना तप-त्याग कर सकते हो, अवश्य करो, और जो तुम्हारी शक्ति से बाहर है, उस पर स्पृहा का भाव रखो। उस पर श्रद्धा करो। कहा भी है— जं सक्कइ तं कीरइ, जं च ण सक्कड़ तस्स सद्दहणं। सद्दहमाणो जीवो, पावइ अजरामरं ठाणं जो शक्य है, करो। जो शक्य न हो, उस पर श्रद्धा न रखो उसे भी अपना कर्तव्य समझते रहो। इस प्रकार का श्रद्धा-शील साधक एक दिन अजर-अमर पद प्राप्त कर लेता है। आशय यह है, कि ईमानदारी के साथ अपनी शक्ति को तोलो और उसके अनुसार कार्य करो। शक्ति से ज्यादा नहीं, और कम भी मत करो। जिस साधक में शक्ति है, तैयारी है और ऊँचा संकल्प जाग उठा है, उसे उसकी अवहेलना भी नहीं करनी चाहिए, और किसी वासना से प्रेरित होकर, लोक-लाज या दबाव के कारण अपनी शक्ति से आगे भी कदम नहीं बढ़ाना चाहिए। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ इच्छा-योग-'जहासुहे' ।१११] . जो बात भोजन के विषय में है, वही भजन के विषय में है। अन्तर केवल यह है, कि भोजन शरीर की खुराक है और भजन आत्मा की खुराक है। भजन का आशय यहाँ तप, त्याग, व्रत, नियम आदि सभी प्रकार के धर्माचरण से है। जैसे भोजन उतना ही करना उचित समझा जाता है, जितना हजम हो सकता हो, जितना करने की रुचि हो। पाचन-शक्ति और रुचि के अनुसार जो भोजन किया जाता है, उसका अच्छा रस बनता है। वह भोजन शरीर को बलिष्ठ बनाता है। भले ही वह थोड़ा हो, किन्तु लाभदायक ही होता है । किन्तु दूसरों को जबर्दस्ती से, अपनी पाचन-शक्ति से अधिक ढूँसा हुआ भोजन, अधिक तो क्या, थोड़ा भी लाभ नहीं पहुँचाता। यही नहीं, वह शरीर में रोग पैदा कर देता है, आर्तध्यान उपजाता है, और शरीर को दुर्बल बनाने का कारण साबित होता है। इसी प्रकार अरुचिपूर्वक, शक्ति से बढ़कर, बिना भावना के जबर्दस्ती से जो तपत्याग आदि किया जाता है, वह भी लाभकारी नहीं होता। वह आर्तध्यान उत्पन्न करता है, और आगे चलकर तपस्या की रुचि को नष्ट कर देता है। इस ढंग से की गई लम्बी तपस्या भी थोड़ी तपस्या के बराबर भी फलदायक नहीं होती। ___ आशय यह है, कि प्रत्येक धर्मक्रिया के साथ आन्तरिक भावना और इच्छा को जोड़ना जरूरी है। बिना भावना की क्रिया सफल नहीं होती। एक जगह कहा है घनं दत्तं वित्तं जिन-वचन मभ्यस्तमखिलं, क्रिया-काण्डं चण्डं रचितमवनौ सुप्तमसकृत्। तपस्तीज-तप्तं चरणमपि चीर्ण चिरतरम्, न चेत् चित्ते भाव स्तुषवपनवत्सर्वमफलम्। आपने सारा धन लुटा दिया, समस्त शास्त्रों को घोट-घोट कर कंठस्थ कर लिया, खूब क्रिया-काण्ड किया, भूमि पर शयन किया, कठोर तपश्चरण कियामहीनों तक भूखे रहे और लम्बे काल तक दूसरे प्रकार के चारित्र का पालन किया, किन्तु मन में भावना नहीं जागी है, इस सारे अनुष्ठान के पीछे आपकी रुचि नहीं है, इच्छा नहीं है और केवल दुनिया को दिखाने के लिए यह सब किया है तो सब कुछ निष्फल है। धान के छिलके बोने वाले किसान के भाग्य में, अन्त में निष्फलता ही वदी है, उसी प्रकार भावना और इच्छा के बिना क्रिया करने वाले के भाग्य में भी निष्फलता ही लिखी है। भाव-शून्य क्रिया, जड़ क्रिया है। उससे आत्म-कल्याण नहीं। मतलब यह है, कि कोई भी धर्म किया हो, और उसको करने वाला चाहे साधु हो या श्रावक हो, सब के लिए एक ही सिद्धान्त है। उसी सिद्धान्त से जैनधर्म ने अपना रास्ता तय किया है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |१२० । उपासक आनन्द कहीं-कहीं आप पढ़ते हैं, कि धर्म के लिए खून किए गए और तलवारों के जोर पर धर्म-परिवर्तन कराया गया। वह तलवारें कहती थीं—तुम उस धर्म को छोड़कर इस धर्म को स्वीकार कर लो, अन्यथा हम तुम्हारी जिन्दगी का फैसला कर देंगी। अपने पड़ौसी धर्मों के इतिहास को पढ़ते हैं, तो मालूम होता है, कि उनका इतिहास चून से रंगा हुआ है और तलवारों की छाया में ही उन्होंने अपने पैर फैलाए हैं। न उन्होंने बुड्ढों की भावनाओं को देखा, न बच्चों की भावनाओं को। उस धर्म-परिवर्तन का रूप भी बड़ा उपहासास्पद रहा है। चोटी कटवाली तो इस्लाम धर्म के अनुयायी हो गए, और चोटी रखवा ली तो हिन्दू-धर्म के अनुयायी हो गए। जब धर्म का यह रूप बन गया, तो संसार में कुहराम मच गया। भारत के इतिहास को देखने पर आपको यही रूप मिलेगा। धर्म के नाम पर घोर हिंसा होती रही है। धर्म के इस काल्पनिक रूप के पीछे कितने अन्याय हए हैं। कैसे-कैसे भयंकर अत्याचार हुए हैं। उन अन्यायों और अत्याचारों की कहानियाँ आज भी रौंगटे खडे कर देती हैं। किन्तु जब हम कहते हैं, कि जैनधर्म के इतिहास में एक भी ऐसा प्रसंग नहीं है, एक भी खून का धब्बा कहीं नहीं लगा है, तो हमें महान् गौरव का अनुभव होता है। परिस्थितियों ने इजाजत दी, तो बढ़े भी और कभी रुके भी; किन्तु जब और जहाँ कहीं भी जैनधर्म की दुन्दुभि बजी, वहाँ सम्राटों की विशाल सेना से और तलवारों से नहीं बजी। जैनधर्म जहाँ कहीं पहुँचा, अहिंसा का जीवन-संदेश लेकर पहुँचा; मौत का वारंट लेकर नहीं पहुँचा। उसने जिससे कहा, यही कहा, कि यह अहिंसा का मार्ग है, करुणा का मार्ग है, और पसन्द हो तो इसे ग्रहण कर सकते हो। जैनधर्म ने राजा से भी यही कहा, और एक रंक से भी यही कहा। सबल से भी और निर्बल से भी यही कहा। भगवान् ने उपदेश दिया है जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ। जहा तुच्छस्स कत्थइ तहा पुण्णस्स कत्थइ। -आचारांग सूत्र अर्थात् राजा को जो उपदेश देते हो, वही रंक को भी दो, और रंक को जो उपदेश देते हो, वही राजा को दो। राजा को उपदेश देते समय यह भय मत लाओ, कि यह मांस खाता है, शराब पीता है, शिकार खेलता है, अथवा पर-स्त्रीगमन करता है, तो इन सब बातों की बुराई कैसे करूँ। करुंगा तो राजा नाराज हो जाएगा। इस प्रकार का भय मन में मत लाओ। जो सत्य है, जो तथ्य और पथ्य है, उसी का उपदेश दो। सिंहासन नाराज होता हो, या डराता हो, तो परवाह नहीं; परन्तु अपने Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छा-योग-'जहासुहं' ।१२१ मन में दुर्भावना की गंध मत रखो। वह सत्य कैसा जो कटुक हो । वह मधुर ही होना चाहिए, परन्तु तथ्य और पथ्य भी होना चाहिए, और निर्भय भाव से व्यक्त किया जाना चाहिए । इसी प्रकार कोई दरिद्र और भिखारी आया है, तो उस से भी उसी प्रेम और स्नेह से सत्य बात कहो । वहाँ यह विचार मत करो, कि इस दरिद्र को क्या उपदेश दूँ। अगर इसने धर्म को अंगीकार भी कर लिया, तो धर्म की क्या उन्नति होगी। राजा धर्म को अंगीकार कर लेगा तो प्रभावना होगी, परन्तु इस दरिद्र के साथ माथापच्ची करने से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा। यह समत्व योग है। सब समान हैं। भगवान् महावीर कहते हैं, कि हमें धर्म को धन, वैभव या प्रभुत्व के काँटे पर नहीं तोलना है, हमें तो उसे स्नेह, प्रेम और भावना के काँटे पर तोलना है । अतएव गरीब के हृदय में भी अगर प्रेम की ज्योति जगी है, और सद्भावना उदित हुई है, उसकी आत्मा जागृति माँग रही है, तो उसे भी उसी प्रेम से उपदेश दो; किन्तु उपदेश पीछे किसी प्रकार का कड़वापन नहीं होना चाहिए। धर्म आत्मा की खुराक है । वह जबर्दस्ती किसी के गले में ठूंसने की चीज नहीं है; बलात् किसी के मत्थे मढ़ देने की भी चीज नहीं है। तलवार धर्म का खून कर सकती है, धर्म चमका नहीं सकती। तलवार की चमक से धर्म में चमक नहीं पैदा हो सकती। जैनधर्म के हज़ारों वर्षों के लम्बे इतिहास के पन्ने में यही मनोभावना ओतप्रोत है । इसी कारण जैनधर्म का प्रचार करने के लिए कभी तलवार का उपयोग नहीं किया गया। धर्म अहिंसा एवं प्रेम में है। राग, द्वेष और घृणा में नहीं । उदायन आदि बड़े-बड़े सम्राट प्रभु के चरणों के सेवक रहे हैं, चन्द्रगुप् जैसे महान शक्तिशाली सम्राट भी जैनधर्म के अनुयायी हुए हैं। हेमचन्द्र के युग में कुमारपाल जैसे बलवान राजा भी भक्त हो गए हैं। जैनधर्म ऊँचे से ऊँचे महलों में भी रहा है, और बड़ी से बड़ी ताकतों में भी रहा है, मगर उसने कभी उस ताकत का प्रयोग नहीं किया। जैनधर्म का एकमात्र दृष्टिकोण यही रहा है, कि साधक सहज भाव से, अन्त: प्रेरणा से, उसे अंगीकार करे। वह तलवार के जोर पर नहीं चला, और न उसने चलना ही चाहा। --- जैन-धर्म इच्छा का धर्म है। जैन धर्म के अनुयायी चाहते, तो शक्ति का प्रयोग कर सकते थे। शंकराचार्य की तरह हमें भी शक्ति का प्रयोग करने से कौन रोक सकता था। मगर नहीं, ऐसा करना धर्म की आत्मा का घात करके उसके मुर्दे को गले लगाना है। जैनधर्म आत्मा की साधना और कल्याण के लिए है । वह प्रेम और स्नेह पर आधारित है, बलात्कार पर नहीं । जब तक हमारा यह आदर्श बना रहेगा, सौ में नहीं तो एक में ही सही, जैनधर्म अमर रहेगा । भय या दबाव से हजारों को भी Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२२ । उपासक आनन्द | मूंड़ लिया गया है, और उनमें भावना नहीं आई, तो वह व्यर्थ है। ऐसा धर्म अधिक दिनों तक जिन्दा नहीं रह सकता। जैनधर्म के अनुयायी करोड़ों से लाखों की संख्या में आ गए, किन्तु जैनधर्म को इसकी चिन्ता नहीं है। हमें नाम की चिन्ता नहीं, काम की चिन्ता है। __ आपने इतिहास में पढ़ा होगा, कि बिहार प्रान्त जैनधर्म का प्रधान केन्द्र रहा है। किन्तु एक समय वहाँ के जैनी भगा दिए गए और तलवार की नोंक के द्वारा खदेड़ दिए गए। पुष्पमित्र ने इस काम के लिए अपनी बहुत बड़ी शक्ति लगादी। हज़ारों से अधिक ने अपने प्राणों का बलिदान दिया, किन्तु धर्म-परिवर्तन नहीं किया। जब वे दक्षिण और गुजरात में पहुँचे, तो वहाँ उन्हें बड़े-बड़े राजा और सम्राट मिल गए। उन्हें तलवारों की शक्ति मिल गई। फिर भी उन्होंने एक बार भी बदला लेने का विचार नहीं किया। उन्होंने नहीं सोचा, कि हम निकाले गए, सताए गए और मौत के घाट उतारे गए, तो आओ अब बदला ले लें। उनमें यह भावना और यह प्रकाश कहाँ से आया। वह आया 'जहासुहं में से। यही हमारा प्रकाशस्तंभ रहा है, और इसी की रोशनी में हम हज़ारों वर्षों से अपनी दुख-सुख भरी यात्रा करते चले आ रहे हैं। ___ हम जानते हैं, और हमारा दावा है, कि आखिरकार हमारा की सिद्धान्त विजयी होगा। हिन्दू और मुसलमान का प्रश्न इसी सिद्धान्त से हल होगा, और आज की समस्याएँ इसी 'जहासुहं' से हल होंगी। मार-काट या तलवार के जोर पर धर्मों का फैसला नहीं हुआ करता, और न कभी होगा ही। जैनधर्म ने इन्सान की आत्मा को पहचाना है इसलिए उसने बार-बार यही कहा है-'जहासुहं'। जिसमें सुख उपजे वही करो। जब विकास होगा, तब होगा। एक फूल है और अभी-अभी कली के रूप में, वृक्ष की डाल पर मुँह खोलने को तैयार हुआ है। उससे चाहा जाए कि अभी, इसी समय खिल जा। तो क्या वह खिल जाएगा। हाथ से उसकी पंखुड़ियों को बिखेर कर कोई कह दे, कि फूल खिल गया है, तो क्या वह वास्तव में खिल गया है। उस फूल को अभी फूलना है, और उसमें महक आनी है। उसे कुदरत के भरोसे छोड़ दो। तुम उसकी रक्षा कर सकते हो, उसे खिलने का मौक़ा दे सकते हो, परन्तु हाथ से बिखेर कर कहो, कि खिलो, खिलो और उसे महकने न दो तो इससे बढ़ कर मूर्खता क्या हो सकती है ? हृदय का यह पुष्प भी खिलेगा। तुम उसकी रक्षा करने की तैयारी करो। जबर्दस्ती खिलाने का प्रयत्न मत करो। ऐसा करने से परिणाम उलटा होगा। मैं एक गाँव में गया। वहाँ एक जुलाहा था। वह प्रेमी था, और अक्सर आया करता था। वह जरा से जीर्ण हो चुका था। गाँव के दूसरे लोग उसका मज़ाक किया करते थे, और उत्तर में वह मधुर मुस्कान से मुस्करा दिया करता था। For De Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | इच्छा-योग-'जहासुई । १२३ मुझसे एक ने कहा—भगत जी से पूछिये, कि खेती की है ? ईख बोई है ? और ईख कैसे बोई जाती है। मैंने उन्हीं के सामने बूढ़े से पूछा—क्या कहते हैं, यह भाई। बूढ़े ने कहा—मैं तो जुलाहा हूँ, और जुलाहे का ही काम करता था। किन्तु एक बार किसी से जमीन का टुकड़ा लेकर थोड़ी ईख बो दी। चौथे-पाँचवे दिन खेत में पहुँचा, तो क्या देखता हूँ, कि सब अंकुर एक से नहीं हैं। सब एक साथ बोए थे, और अब देखा, कि अँकर सब एक सरीखे क्यों नहीं हैं। कोई पौधा बड़ा हो गया है, तो कोई छोटा रह गया है। तब मैंने एक छोटे-से पौधे को पकड़ लिया और उससे कहा-'तू छोटा कैसे रह गया।' उस पौधे के सिरे को पकड कर मैंने कहा'बड़ा हो जा।' ज्यों ही उसे बड़ा करने लगा, वह ऊपर को आने लगा। जब उसे मैंने जरा जोर से पकड़ कर कहा, कि ऊपर उठ, तो वह ऊपर उठने लगा और बाहर आ गया। वह उखड़ गया और सूख गया। लोगों ने देखा, और मेरी हँसी की, और कहने लगे—यों तो तुम सभी पौधों को उखाड़ फेंकोगे। बूढ़ा फिर बोला—हुजूर! मेरे बाप-दादाओं ने कभी ईख नहीं बोई। मैं ईख बोना क्या जानूं। मुझे क्या पता था, कि पौधे को बड़ा करने जाऊँगा, तो पौधा उखड़ जाएगा। यह एक प्रकार से अनाधिकार चेष्टा है। भगत की कहानी सुनकर हमें हँसी आती है, परन्तु कभी-कभी हम भी क्या उसी के समान चेष्टाएँ नहीं करते। हमारे सामने कोई साधक आता है, और हम उसकी भूमिका नहीं देखते, उसके जीवन को नहीं देखते, उसकी मानसिक स्थिति को नहीं परखते, वह जागा है या नहीं, जागा है, तो कितनी मात्रा में जागा है यह जानने का प्रयत्न नहीं करते, और उससे कहने लगते हैं, कि यह नियम ले लो और वह नियम ले लो। खींचतान शुरू हो जाती है, और उसे बढ़ाने की धुन में उखाड़ कर ही फेंक देते हैं। लाला लाजपतराय के विषय में आपने सुना ही होगा। वे पंजाब के शेर के रूप में प्रसिद्ध थे। उन्होंने सारे भारत में प्रतिष्ठा प्राप्त की। अमेरिका में अपने विचारों की धूम मचा दी। वह जगरावां के रहने वाले थे, और जैन थे। उनके परिवार में अब भी जैनधर्म का पालन किया जाता है। जब वह लाहौर में बी. ए. में पढ़ते थे—तो, एक बार अपने घर आए। वहाँ एक पुराने सन्त थे। लालाजी ने सोचा चलो, दर्शन कर आएँ! दर्शन करने गए, तो सन्त ने पूछा क्या नाम है ? उत्तर मिला लाजपतराय ! Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२४ । उयासक आनन्द क्या करते हो? पढ़ता हूँ। अच्छा, कुछ नियम लिया है ? नहीं, महाराज! नियम तो कुछ नहीं लिया है, पर अच्छी तरह रहता हूँ। सन्त हरी के त्याग पर अड़ गए, मगर लालाजी ने साफ कह दिया-नहीं, मैं हरी का त्याग नहीं करूँगा। सन्त को क्या पता था, कि इनकी कितनी तैयारी है। उन्हें क्या मालूम था, कि यह शराब पीते हैं, या मांस खाते हैं ? उनकी भरी-पुरी जवानी है और पैसे वाली जवानी है। पैसे वाले खुले हाथ होते हैं, और जब परिवार से अलग रहते हैं, तो बहुत बार जीवन को बर्वाद कर लेते हैं। मेरा आशय यह नहीं कि लाजपतराय में ये दुर्गुण थे। मैं यह कहना चाहता हूँ, कि सन्त को उनके वास्तविक जीवन का और उनके विचारों का पता नहीं था। उन्होंने उनकी भूमिका को नहीं समझा था। इसी कारण वे हरी के त्याग पर अड़े रहे। यह इच्छा-योग नहीं था। यह था, एक प्रकार का हट-योग। __ सन्त ने केवल हरी के त्याग का उपदेश ही नहीं दिया, उस पर बल भी दिया। इस संघर्ष का परिणाम यह हुआ कि जब वे दुबारा आए, तो फिर किसी भी साधु के पास नहीं गए। ___ जब घर वालों ने साधुओं के पास जाने को कहा, तो उन्होंने उत्तर दिया वहाँ जाकर क्या करूँ। वे हमारे जीवन के सम्बन्ध में कोई निर्णय नहीं देते, जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर रोशनी नहीं डालते, और हरी छोड़ने की बातें करते हैं। शाकाहारी हरी कैसे छोड़ सकता है। ___आप इस घटना पर विचार करें तो मालूम होगा, कि जैनधर्म के 'जहासुहं ' मूलमंत्र को ध्यान में न रखने के कारण एक महाशक्ति हमसे दूर जा पड़ी। लाला लाजपतराय के चित्त में उस दिन से जैन-साधुओं के प्रति जो उपेक्षा का भाव जागृत हुआ, वह फिर नहीं मिटा। वे आर्य-समाज की ओर आकृष्ट हो गए। वस्तुत: वे राष्ट्रवादी थे। जिसने मांस-मदिरा का त्याग कर दिया है, और एकेन्द्रिय जीवों को भी जिसका करुणाभाव स्पर्श करने लगा है, उसे हरी का त्याग करने का उपदेश देना अनुचित नहीं है, मगर जो इस भूमिका पर भी अभी नहीं पहुंचा है, जो मांस को दाल-रोटी की तरह और मदिरा को पानी की तरह समझता है, उसे पहले मांस-मदिरा की बुराइयाँ बतानी चाहिए। हाँ, बुराइयाँ बतानी चाहिए, प्रेरणा भी मर्यादाओं में रह कर करनी चाहिए, बलात्कार करना तो साधु का धर्म नहीं है। ' Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | इच्छा-योग-'जहासुह' ।१२५ आशय यह है, कि जो जिज्ञासु या मुमुक्ष हमारे पास आया है, हम अपने कौशल से उसकी भूमिका को समझने का प्रयत्न करें। देखें कि जैनधर्म पर उसका विश्वास है, या नहीं। उसके पारिवारिक संस्कार किस प्रकार के हैं। उसकी धार्मिक रुचि का किस सीमा तक विकास हुआ है। बातों को समझ कर दिया गया उपदेश सफल होता है। ___ जिसने भोगोपभोगों की असारता को भलीभाँति समझ लिया है, और जिसके अन्तःकरण में सांसारिक प्रपंचों से हटकर एकान्त साधनामय जीवन-यापन करने का विचार पैदा हुआ है, उसे साधु बन जाने का उपदेश दिया जा सकता है। अगर किसी की भूमिका इतनी उच्च नहीं बन पाई है, तो उसके श्रावक बन जाने में भी क्या कम लाभ है। जो श्रावक की भूमिका के योग्य भी नहीं है, वह यदि सम्यग्दृष्टि बन गया, तो भी क्या कम लाभ हुआ। उसने एक मंजिल तय कर ली है। अनादि काल से भटकटे-भटकते यदि उस भूमिका पर आ गया, तो कम सफलता की बात नहीं है। यदि इतना करना भी किसी के लिए शक्य न हो, तो उसके विषय में भी जैनधर्म कहता है, जैसा कि चित्त मुनि ने चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त से कहा था जइ तं सि भोगे चइउं असत्तो, अज्जाइ कम्माइं करेह रायं। धम्मे ठिओ सव्व-पयाणु-कंपी, होहिसि देवो इओ विउव्वी॥ —उत्तराध्ययन, १३ अर्थात् हे राजन! तुम भोगों का त्याग नहीं कर सकते, तुममें साधु बनने की योग्यता नहीं है, तो न सही, आर्यजनोचित कर्म तो करो भलमनसाहत के ही काम करो। राजा बने हो, तो अपने राज-कर्त्तव्य का ही पालन करो। तुम्हारी प्रजा है, देश है, नागरिक हैं, उन पर तो करुणा का भाव रख सकते हो, और उनकी तरक्की के काम कर सकते हो। मांस-मदिरा जैसी गर्हित वस्तुओं का त्याग कर दो-इतना त्याग कर देने से भी देवता बन सकते हो। इस प्रकार चित्त मुनि ऊपर से चले और आखिर नीचे आते-आते यहाँ तक आ गए। यही इच्छा-धर्म है, और यह धर्म महान् संदेश देने को आया है। इस प्रसंग पर मुझे इतिहास की एक घटना याद आ रही है। स्यालकोट का नाम पहले सगलकोट था। वहाँ एक पण्डित जी रहते थे। बड़े ही संकीर्ण विचारों के थे, वह ! उनकी मान्यता थी, कि अवैदिक साधु की परछाई पड़ जाए, तो स्नान करना चाहिए। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ । उपासक आनन्द । एक बार वहाँ बौद्धसंघ इकट्ठा हुआ। उसमें चर्चा चली, कि कौन भिक्षु ऐसा है, जो उस ब्राह्मण को बौद्धधर्म की दीक्षा दे सके। हिंसा के मार्ग पर चलने वाले उस ब्राह्मण को कौन धर्म-मार्ग पर ला सकता है ? एक भिक्षु ने कहा मैं प्रयत्न करूँगा। दूसरे ने कहा—पागल हो गए हो, क्या। उसमें कुछ भी तथ्य नहीं है। वह अभद्र है। उसे धर्ममार्ग पर लाना आकाश के तारे तोड़ लाना है। किन्तु पहला भिक्षु अपने संकल्प पर अविचल रहा। वास्तव में भिक्षु का संकल्प उचित ही था। सभी धर्म मनुष्य पर विश्वास रखते हैं। मानते हैं, कि आज जिसे जड़ता ने घेर रखा है; उसमें भी कभी न कभी चेतना की जागृति हो सकती है। जो आज अंधकार में भटक रहा है, वह कभी तो प्रकाश में आएगा। आखिर तो आत्मा स्वभावतः चेतना-मय है, प्रकाशमय है। कब तक भूलाभटका रहेगा। इसी सिद्धान्त और विश्वास के बल पर मनुष्य प्रयत्न करता है, और करता ही रहता है, और एक दिन उसका प्रयत्न सफल भी हो जाता है। __ हाँ, तो उस भिक्षु ने भी यही सोचा। कुछ भी क्यों न हो, ब्राह्मण आखिर पण्डित है। उसमें ज्ञान है। ठीक है, उसका ज्ञान गलत राह पर उसे चला रहा है, मगर राह बदलते क्या देर लगती है। बदले या न बदले, प्रयत्न करना मेरा कर्त्तव्य है। यही मेरी साधना और संघ-सेवा होगी। इस प्रकार विचार कर भिक्षु उस ब्राह्मण के घर, भोजन के समय, जाने लगा। जाने लगा तो ब्राह्मण को उसका आना अरुचिकर हुआ। उसने अपने घर आने वालों से कह दिया, कोई इस भिक्षु से बातचीत न करे। यह दुर्बुद्धि है। उसके साथ वार्तालाप करने से भी पाप लगता है। __ भिक्षु ब्राह्मण के घर गया तो कोई घर वाला नहीं बोला। वह लौट आया। किन्तु भिक्षु दूसरे दिन फिर वहाँ जा पहुँचा। बोला—क्या आहार-पानी की सुविधा है। फिर भी सब चुप रहे। वह फिर लौट आया। तीसरे दिन भी वह पहुँचा और फिर लौट आया। यों जाते-जाते और खाली हाथ लौटते-लौटते दस महीने गुजर गए। प्रतिदिन जाना और अपनी वही बात दोहराना, शान्त भाव से, बिना किसी घृणा और नफरत के, बोली में मिश्री घोल कर—भैया, आहार-पानी की सुविधा है। फिर बिना खेद, सन्तुष्ट भाव से लौट आना, उसका दैनिक कार्य हो गया। ___ एक दिन भिक्षु जब पहुँचा तो ब्राह्मण घर पर नहीं था। आहार-पानी की याचना की तो ब्राह्मणी का हृदय पसीज गया। वह सोचने लगी, बेचारे को यहाँ आते-आते Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छा-योग-'जहासुहं' । १२७ दस महीने हो गए हैं। आज तक कभी कुछ नहीं पाया है, फिर भी प्रतिदिन आता रहता है। और तब ब्राह्मणी ने भिक्षु से कहा—क्या करूँ भिक्षु, मैं दे दूँ तो पण्डितजी नाराज़ हो जाएँगे। मैं विवश हूँ। भिक्षु ने शान्त भाव से कहा- ठीक है बहिन ! मैं अपना काम करता हूँ, तुम अपना काम करो। मेरे कारण घर में कलह नहीं होनी चाहिए। मैं जाता हूँ । भिक्षु लौट गया । वह लौटा ही था, कि सामने से ब्राह्मण आ गया । भिक्षु को देखते ही वह समझ गया, कि यह कहाँ से आ रहा है। फिर भी उसने कहा- ' ' अरे मुंडित । कहाँ गया था ?" 'आपके घर से ही तो आ रहा हूँ।' 'क्या कुछ मिला ?' 'हाँ, आज तो कुछ मिल गया ?' ब्राह्मण सुन कर लाल-पीला हो गया। उसने भिक्षु से कहा 'जरा ठहरना । ' वह अपने घर में गया। पूछा—'आज उस मुंडे को कुछ दे दिया है ?' ब्राह्मणी, ब्राह्मण की मुखमुद्रा देख कर सकपका गई। उसने कहा-'नहीं, मैंने तो कुछ दिया नहीं है।' ब्राह्मण-'तब वह झूठ बोलता है । ' ब्राह्मण बाहर आया। उसने आसपास के लोगों को इकट्ठा कर लिया। फिर भिक्षु से कहा- 'तुम असत्य क्यों बोले ? कैसे कहा, कि आज कुछ मिल गया है। बताओ, क्या मिला है ?' मधुर मुस्कान के साथ भिक्षु ने कहा- ' आज आपकी पत्नी ने 'ना' दिया है। दस महीने मुझे आते-आते हो गए। आज से पहले 'ना' भी नहीं मिलता था। आज इतनी सफलता मिली। यह क्या कम सफलता है ? आज 'ना' मिली है, तो किसी दिन 'हाँ' भी मिल जाएगी । ' ब्राह्मण कुछ शान्त हुआ । उसने कहा- 'यह प्रयत्न कब तक करते रहोगे ?' भिक्षु - 'जब तक जीवन है । ' भिक्षु का उत्तर सुनकर ब्राह्मण पिघल गया, और उसके सम-भाव को देख कर हर्ष से गद्गद हो गया। सोचने लगा, यह भी जीवन है। घर आते दस महीने हो गए। कभी कोई सामान नहीं मिला । अन्न का दाना नहीं मिला। फिर भी आता है, और 'भैया' अन्न-पानी की सुविधा है' कह कर लौट जाता है। इसके सिवाय कभी कुछ नहीं कहता । धन्य है, भिक्षु की समता और सहिष्णुता । इसमें कितनी शक्ति और कितनी स्निग्धता है । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ । उपासक आनन्द उसी समय ब्राह्मण, भिक्षु के पैरों में गिर पड़ा। बोला- 'मैंने ऐसा धर्म और ऐसा गुरु नहीं देखा। आप तो मेरे जीवन से चिपटने आए हो। आप मुझे तारना चाहते हैं । मेरे सौभाग्य ने ही आपके मन में यह प्रेरणा दी है ।' ब्राह्मण बौद्धधर्म में दीक्षित हो जाता है। हमारे यहाँ भी धर्म का यही संदेश आया है । प्रयत्न करो, और देखो कि जागृति आई है या नहीं ? साधु की, श्रावक की, सम्यग्दृष्टि की, भूमिका आई या नहीं ? नहीं आई है, तो फिर प्रयत्न करो। तुम्हारा काम प्रयत्न करना है, दबाव, जबर्दस्ती या छीना-झपटी करना नहीं । जैनधर्म की महान् भूमिका लेकर आए हो, तो महान् तैयारी करो । मैं दिल्ली गया। जहाँ ठहरा, उसके पीछे की जमीन में जामुन का पेड़ है। जब उस पेड़ में जामुन पकते हैं, तो बच्चों का शोर होने लगता है। बच्चे निशाना ताक कर पेड़ में पत्थर मारने लगते हैं, और फिर देखते हैं, कि निशाना लगा है, या नहीं। फल आ रहा है या नहीं। आया तो ठीक, नहीं तो फिर पत्थर मारते हैं, और फिर इन्तजार करते हैं । मैंने यह देखा और विचार किया— जीवन का यही आदर्श है, कि मनुष्य एक बार प्रयत्न शुरू कर दे, और देखे, कि क्या परिणाम आता है। यदि अभीष्ट परिणाम आ गया, तो ठीक ही है; न आया तो फिर इन्तजार करे और फिर प्रयत्न आरंभ कर दे । यही साधना है । इसी साधना के बल पर भगवान् ने इतना विशाल संघ कायम किया था, जिसमें बड़े-बड़े राजा-महाराजा, सेठ साहूकार, धनी - निर्धन, कुलीनअकुलीन आदि सभी वर्गों के लोग शामिल थे। संघ के पास देवता, इन्द्र एवं सम्राटों की बहुत बड़ी शक्ति थी, परन्तु धर्म प्रचार के लिए कभी उस शक्ति का बलात् उपयोग नहीं किया गया । 'जहासुहं, की अमृत वाणी की धारा ऐसी बही, कि चौदह हजार साधु, छत्तीस हजार साध्वियाँ और लाखों श्रावक और श्राविकाएँ भगवान् के चरणों में गिर गए । यही अमृत-वाणी जैनधर्म की अमिट ताकत है, और इसी में अहिंसा की भावना लहराती हुई दिखाई देती है । कोई साधु या श्रावक बनता है, तो अच्छा है, और कोई नवकारसी करता है, तो भी अच्छा है । कोई लाखों का दान देता है, तो अच्छी बात है, और कोई एक पैसा देता है, तो भी अच्छी बात है। यही जैनधर्म का आदर्श है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | इच्छा-योग-'जहासुह' । १२९ आनन्द ने साधु बनने में अपनी असमर्थता प्रकट की, और श्रावक के व्रतों को अंगीकार करने की इच्छा प्रकट की। तब भगवान् ने यह नहीं कहा, कि भाई, साधु ही बन जाओ। यही कहा जैसी मर्जी । 'जहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह।' अर्थात् हे देवों के प्यारे ! जिस प्रकार सुख उपजे, वैसा करो, किन्तु धर्म करने में विलम्ब न करो। भगवान् के इस इच्छा-धर्म को हम समझ लें, और इस पर चलने लगें, तो हमारी बहुत-सी जटिलताएँ खत्म हो जाएँ, हम अनेक प्रकार के साम्प्रदायिक कलह और क्लेश से छुटकारा पा जाएँ, और शान्ति प्राप्त करें। कुन्दन-भवन ब्यावर, अजमेर २९-८-५० Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा पडिबंधं करेह यह उपासकदशांग सूत्र है, और आनन्द का वर्णन आपके सामने चल रहा है। कल आपने सुना, कि आनन्द ने जब श्रावक-व्रत ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की तो भगवान् ने उत्तर दिया-'जहासुहं देवाणुप्पिया!' अर्थात् हे देवों के प्यारे, जिसमें आत्मा को सुख उपजे, वही करो। मतलब यह कि तुम्हारी इच्छा और तुम्हारा संकल्प जागृत हुआ है, और तुम आध्यात्मिक भूमिका में आना चाहते हो, तो अच्छी बात है। इसमें कोई बलात्कार नहीं है, कोई खींच-तान नहीं है। यह तो भावना का मार्ग है। इस मार्ग पर अपने पैरों से चला जाता है, घसीट कर नहीं चलाया जाता। कल इसी संबंध में विवेचन किया गया था। इस सिद्धान्त को समझने में किसी प्रकार की भ्रान्ति न रह जाए, इस अभिप्राय से आज भी इस संबंध में थोड़ा स्पष्टीकरण करना चाहता हूँ। प्रश्न यह है, कि धर्माचरण के लिए किसी को प्रेरणा दी जाए या नहीं ? किसी को सत्कर्म करने के लिए और कल्याण की राह पर लाने के लिए प्रयत्न किया जाए या नहीं ? अथवा प्रत्येक को उसकी इच्छा पर ही छोड़ दिया जाए ? कह दिया जाए, कि हम कुछ नहीं कहते, तुम्हरी जैसी इच्छा हो, करो। इच्छा की संपूर्ति के लिए पुरुषार्थ भी परम आवश्यक है। इस प्रश्न पर हमें विचार कर लेना चाहिए। मैं कह चुका हूँ, कि प्रयत्न करना हमारा हक है, अधिकार है, और कर्त्तव्य भी है। जहाँ कहीं भी गलती या बुराई दिखाई दे, चाहे वह व्यक्ति में हो, परिवार में हो, संघ या समाज में हो अथवा देश में हो, साधु उसे दूर करने के लिए प्रयत्न करे-जरूर करो। वह चुपचाप नहीं बैठा रहे। उस बुराई को मिटा देने के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा दे। किन्तु इतना सब करने के पश्चात् भी अगर भूमिका तैयार नहीं होती, जीवन में उल्लास नहीं आता, चमक नहीं आती, और हृदय हर्ष से गद्गद नहीं होता, साधक का मन सोया पड़ा रहता जागता नहीं है, तो उसे घसीटा नहीं जा सकता। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mes मा पडिबंध करेह ।१३१ एक आदमी बैठा है। आप उसे खड़ा करना चाहते हैं, और चलाना चाहते हैं, तो आप क्या करेंगे। आप उसे चलने के लिए कहेंगे, और कहेंगे कि भाई! पुरुषार्थ करो; बैठे रहने से काम नहीं चलेगा। प्रयत्न करने से काम सिद्ध हो जाएगा। इस प्रकार कहने से वह खड़ा हो जाए, और चलने लगे तो ठीक है। अगर वह खड़ा नहीं हो और पड़ा ही रहे, उठने की भावना उसके मन में जागे ही नहीं, तो आप क्या करेंगे? कदाचित् हाथ-पैर पकड़ कर और घसीट कर आप ले गए, तो उसका क्या अर्थ है। कहाँ तक घसीटेंगे, और कब तक घसीटेंगे। बलात्कार में धर्म नहीं है। भगवान का 'जहासहं' वाला इच्छा-मार्ग हमें यही सिखलाता है, कि आप प्रेरणा दीजिए, प्रयत्न कीजिए, साधक मिले, तो उसे समझाइए और सन्मार्ग पर चलने के लिए उसकी इच्छा जागृत कीजिए, जिससे वह स्वेच्छा से तैयार हो जाए। इतना करने पर भी इसकी इच्छा जागृत नहीं होती; भावना नहीं बनती तो, उसे रोते हुए और घसीटते हुए ले चलने का प्रयत्न मत कीजिए। उसकी प्रसुप्त चेतना को जागृत करें, यही धर्म है। इस प्रकार भगवान् का 'जहासुहं' का मार्ग हमें प्रेरणा देने और उसके लिए प्रयत्न करने से इन्कार नहीं करता। कल एक रूपक कहा था। फल पाने के इरादे से बच्चे पत्थर फेंकते हैं, और फेंकने के बाद प्रतीक्षा करते हैं, कि वह निशाने पर लगा या नहीं। निशाना चूक जाता है, और पत्थर नीचे आ जाता है, तो बालक निराश नहीं होते, वे फिर प्रयत्न करते हैं। फिर पत्थर मारते हैं, और फिर फल गिरने की प्रतीक्षा करते हैं। हमें भी जनता के प्रति यही व्यवहार करना है। हमें कोई भी मिले, एक आदमी मिले, चाहे अनेक मिलें, पूरा समाज मिले, चाहे पूरा राष्ट्र मिले, आप प्रयत्न करके देखिए, एक बार नहीं, अनेक बार। जब तक आपके प्रयत्न का कोई फल न निकले, तब तक, अपने प्रत्येक प्रयत्न के पश्चात् देखते भी चलिए, कि व्यक्ति, समाज या राष्ट्र के मन पर आपकी बात का प्रभाव पड़ा या नहीं। अगर नहीं, तो फिर प्रयत्न कीजिए—फिर, और फिर। जब आपका प्रयत्न सफल हो जाए, तो वहाँ से दूर हट जाइए, अन्यथा मोह का दुर्गुण आप में प्रवेश कर जाएगा, और परिग्रही हो जाएंगे। जब तक आप सफल-मनोरथ न हो जाएँ, तब तक आपका प्रयत्न सतत चालू रहना चाहिए, प्रेरणा देने के लिए, साधक की इच्छा को जगाने के लिए। घसीट कर ले जाने के लिए नहीं। जैनधर्म सत्कर्म करने की इच्छा को जगाने की इजाजत देता है, घसीटने की नहीं। भगवान् महावीर ने समग्र विश्व को यह महान् संदेश दिया, कि तुम्हें अपना मार्ग अपने आप तैयार करना है। जितना चल सकते हो, खुशी से चलो। रोते-रोते मत चलो। रोकर जाओगे, तो मरे की खबर लाओगे। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३२ । उपासक आनन्द । किसी लड़के का बाप लड़के को किसी काम के लिए भेजना चाहता है। लड़के की इच्छा नहीं होती, तो वह कहता है- 'मैं वहाँ कैसे जाऊँगा ? कैसे बोलूँगा ? क्या कैसे करूँगा? मुझसे यह नहीं बनेगा। आप ही जाइए।' इस प्रकार वह इन्कार करता है। किन्तु पिता की आग-भरी आँखें देखकर और झिड़कियाँ सुनकर वह जाने को मजबूर होता है, चला भी जाता है, और नाकामयाब होकर लौटता है। अपना मुँह लटकाए हुए आता है, तो पिता कहता है—मैं तो पहले ही जानता था, कि रोता जाएगा, तो मरे की खबर लाएगा। आशा के आधार पर संसार चलता है। अब उस पिता से कोई पूछे कि तुम पहले ही जानते थे, तो लड़के को क्यों जाने को मजबूर किया। तुम स्वयं क्यों नहीं गए, जो मरे की नहीं, जिन्दे की खबर लाते। इसी प्रकार साधक के विषय में भी देखना चाहिए, कि वह काम करेगा या नहीं। करेगा तो कितना करेगा। जब यह नहीं देखा जाता, और जबर्दस्ती उस पर भार लाद दिया जाता है, तो वह अवसर आते ही लादे हुए भार को उतार कर फेंक देता है। परिणाम यह होता है, कि वह प्रतिज्ञा-भ्रष्ट होकर छल और कपट का सेवन करने लगता है। यह आप जानते ही हैं, कि प्रतिज्ञा न लेने की अपेक्षा प्रतिज्ञा लेकर उसे खण्डित कर देना कितना बड़ा पाप है। संकल्प को पूरा करना चाहिए। ___ अभिप्राय यह है, कि आप प्रेरणा अवश्य दें, प्रयत्न अवश्य करें, मगर साधक की इच्छा जगाने के लिए यह सब करें। उसकी इच्छा जाग जाए, तो आप उसे साधु, श्रावक या सम्यग्दृष्टि बनाएँ। इच्छा न जागे तो जबर्दस्ती न करें। जो साधक अपनी आन्तरिक, इच्छा से किसी व्रत, नियम या प्रतिज्ञा को ग्रहण करेगा, वह दृढ़तापूर्वक उसका पालन करेगा। फिर संसार की कोई भी शक्ति उसे उसके मार्ग से मोड़ नहीं सकेगी। भगवान् के इसी सन्देश को हम इच्छा-योग या इच्छा-धर्म कहते हैं। भगवान् महावीर ने एक ही छोटे-से वाक्य में दो महत्त्वपूर्ण संकेत प्रकट किए हैं। पहले 'जहासुहं' फिर देवाणुप्पिया और फिर 'मा पडिबंधं करेह'। 'जहासुहं' की व्याख्या की जा चुकी है। यहाँ 'मा पडिबंधं करेह' के सम्बन्ध में विचार करना है। शुभ काम में विलम्ब मत करो। ___ 'मा पडिबंधं करेह' का आशय है---जो तुमने सोचा है, सत्य के लिए जो सङ्कल्प किया है, उस पर अमल करने में विलम्ब न करो, लापरवाही न करो, आलस्य न करो। तुमने अपने विचारों में जो लक्ष्य बना लिया है, अपनी भावना, प्रेरणा या जागृति के अनुसार अपने लिए जो मार्ग निश्चित कर लिया है, उसके विषय में हम नहीं कहते, कि इतना नहीं, इतना करो, और अधिक करो; परन्तु यह अवश्य कहते हैं, कि उस लक्ष्य पर चलने में विलम्ब मत करो। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा पडिबंध करेह । १३३ इस प्रकार भगवान् का दूसरा नारा है-'देर मत करो।' जहाँ-जहाँ जहासुहं' आया है, वहाँ-वहाँ 'मा पडिबंधं करेह' अर्थात् 'देर मत करो' भी आया है। ____ यह भी महत्त्वपूर्ण आदर्श है। साधारणतया देखा जाता है, कि लोग सोच-विचार में ही अपना समय नष्ट कर देते हैं। राजस्थान में तो कहावत भी है- मारवाड़ मंसूबे डूबी। आज कोई निर्णय किया, और सोचा, कल कर लेंगे। जब कल आया, और फिर भी नहीं किया, तो फिर सोचा-कल कर लेंगे। इस प्रकार टालमटूल करते-करते अक्सर करने की भावना ही समाप्त हो जाती है, और फिर जिंदगी भी समाप्त हो जाती है। जिंदगी का कुछ भरोसा नहीं है, यह जानता हुआ भी मनुष्य भविष्य में करने की सोचता है। किन्तु जब मनुष्य बन कर ही न किया, तो क्या ऊँट या घोड़ा बन कर करेगा। मनुष्य जीवन को दुर्लभ कहा है। ___ आज तू सोने के सिंहासन पर बैठा है, और तुझे लक्ष्मी की झनकार सुनाई दे रही है। ऐसे समय कुछ करने का मौका आता है, तो कह देता है-कल करूँगा, फिर देखंगा, सोचूँगा। परन्तु कौन जानता है, तेरे भविष्य को। सम्भव है, तेरा सारा वैभव लुट जाए, और रोटियों का प्रश्न हल करना भी मुश्किल हो जाए। उस समय क्या करेगा। कौन जानता है, कि किस समय श्वांस रुक जाएगा। कब हृदय की धड़कन बन्द हो जाएगी। जीवन में जो शुभ सङ्कल्प जागृत हुआ है, उस पर अमल करने में विलम्ब करना, सोच-विचार में पड़े रहना और कल करूँगा या परसों करूँगा, कह कर टालमटूल करना, जैन-धर्म की प्रेरणा नहीं है। जैन-धर्म सन्देश देता है, कि जब तुम्हारे अन्तर में शुभ सङ्कल्प का उदय हो, तो अपनी योग्यता को जाँच लो, और जितना कर सकते हो, उतना, करने के लिए अविलम्ब कटिबद्ध हो जाओ। उसको करने में पल भर की भी देर मत करो। जिंदगी का कुछ भी पता नहीं है। आज मनुष्य का जीवन मिला है, अच्छी संस्कृति मिल गई है, शारीरिक अवस्था ठीक है, मानसिक स्थिति भी अच्छी है, वातावरण अनुकूल है, करने की भावना है, फिर भी अभी नहीं करते, तो कल का क्या भरोसा है। कौन कह सकता है, कि आँख की जो पलक खुली है, वह फिर झपेगी या नहीं। या झपी लगी, पलक फिर खुल सकेगी या नहीं। चलने को तैयार हुए और एक कदम रखा, किन्तु दूसरा कदम रख सकोगे या नहीं। जीवन क्षण-भंगुर है। इसका भरोसा करके किसी सत्कर्म को आगे के लिए टालना विचार-शीलता नहीं है। इसीलिए भगवान् ने कहासमयं गोयम मा पमायए। -उत्तराध्ययन Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३४ । उपासक आनन्द । अर्थात् हे गौतम। समय मात्र का भी प्रमाद न करो। जो सोया है, उससे कहो, कि जागो। जो जागा है, उससे कहो कि उठ खड़े होओ। जो खड़ा हो गया, उससे कहो, कि चलने लगो। जो चलने लगे उससे कहो, कि मंजिल पर पहुँचो। कोई भी साधक हो, उससे कहो, कि अपनी मंजिल तय करो, क्यों सोए पड़े हो। यह जीवन सोने के लिए नहीं है। तुम्हारे जीवन में जो प्रेरणा है; उसके लिए समय मात्र का भी प्रमाद मत करो। इस प्रकार इस वाक्य में जो बात है, वही बात हमें इसमें मिलती है: मा पडिबंधं करेह जब आपकी आत्मा में कोई शुभ संकल्प आवे, और मन कहे, कि करूँगा। तो उस समय अपने मन से कहो—देर मत करो। यही बात अपने लिए और यही दूसरों के लिए कहो। अपनी आत्मा को भी क्रियाशील बनाओ, और दूसरों को भी क्रियाशील बनाओ। अपने को भी जगाओ और दूसरों को भी जगाओ। स्वयं अप्रमत्त होकर अपने लक्ष्य की ओर चलो और दूसरों को भी अप्रमत्त बना कर चलने की प्रेरणा दो। ___दान का प्रश्न हो, तो दे डालो। आत्मा से कहो-हे आत्मन् ! देर का काम नहीं है। ब्रह्मचर्य की वृत्ति हो, तो कहो, देर करना अभीष्ट नहीं है। तपस्या या साधना की बात हो, तो आत्मा को आवाज दो, कि विलम्ब असह्य है, देर मत करो। साधना में क्षण भर का भी प्रमाद मत करो। तुम जंगल में लेटे हो और सामने से शेर आता दिखाई दे, तो क्या एक झपकी और लेने की सोचोगे, या उसी समय आत्मरक्षा के लिए दौड़ोगे। तुम्हारा कोई साथी सोया पड़ा होगा, तो उसे उसी समय जगाओगे या सोता रहने दोगे। उस समय देर नहीं करोगे। उस समय आपकी सारी शक्ति जागृत हो जाएगी, और कहोगे-देर मत करो। यही बात साधना के संबंध में भी समझो। मौत का शेर हमारे सामने खड़ा है। जरा भी प्रमाद किया, और सोते पड़े रहे, तो हम उसके ग्रास बन जाएंगे। इसलिए हर क्षण अपने जीवन को संदेश दो, कि-'देर मत करो।' ___ भारतीय संस्कृति में चार आश्रमों को स्थान दिया गया है, और चार वर्णों को भी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र; यह चार वर्ण हैं। इन चार वर्णों में समाज का वर्गीकरण किया गया है। हमारे यहाँ कहते हैं, कि भगवान् ऋषभदेव ने वर्णव्यवस्था कायम की थी। भगवान् ऋषभदेव ही हमारे यहाँ 'मनु' कहलाते हैं। कुछ भी हो, वर्ण व्यवस्था. भारत में सर्व-मान्य रही है, और समाज की सुव्यवस्था के Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा पडिबंधं करेह । १३५ लिहाज से वह बड़ी उपयोगी चीज थी। मगर आज तो वह व्यवस्था लगभग नष्ट हो चुकी है, और भारतीय जन उसके मुर्दे को ही गले लगाए फिरते हैं। यही कारण है, कि उससे हमारा कोई कल्याण नहीं हो रहा है । परन्तु जब वह अपने असली रूप में प्रचलित थी, तब उसकी बड़ी उपयोगिता थी । कल्पना कीजिए, किसी जगह सब लोग गारा ही गारा उठाने वाले हों, ईंट बनाने वाले और उठाने वाले ही हों, और राज न हो, मकान चुनने की कला जानने वाला कोई न हो, तो क्या मकान बन जाएगा। गारे का ढेर लग सकता है, और ईंटों का पहाड़ बन सकता है, किन्तु बुद्धि और प्रतिभा के अभाव में मकान नहीं बन सकता । समाज के भवन का निर्माण करने के लिए भी एक ऐसा वर्ग चाहिए, जो बुद्धि वाला हो, सोचा करता हो, चिन्तन किया करता हो, समाज की क्या-क्या आवश्यकताएँ हैं, और वे किस प्रकार पूर्ण की जा सकती हैं, इस बात की विचारणा करता रहे, और जो समाज के उत्थान और पतन को बारीक निगाह से देखता रहे, उनके कारणों की मीमांसा करे, और उत्थान के उपायों को अमल में लाने की प्रेरणा देता रहे, और पतन के कारणों से सावधान कहता रहे। यही वर्ग, वह वर्ग हैं, जो जनता को शिक्षा देता है, सूचना देता है, और उसके नैतिक उत्थान के लिए आवश्यक चिन्तन करता है । इस प्रकार यह वर्ग समाज- शरीर का मस्तिष्क है। शरीर में मस्तिष्क का स्थान महत्त्वपूर्ण है। मस्तिष्क खराब हो जाता है, तो शरीर का कोई मूल्य नहीं रहता। इसी प्रकार समाज में बुद्धि वाले, चिन्तन करने वाले लोग न रहें, तो समाज का शरीर पागलों का शरीर बन जाए। फिर वह ठीक रूप में काम भी न कर सके। इसीलिए इस वर्ग की समाज को नितान्त आवश्यकता है, और इस चिन्तनशील वर्ग को हमारे यहाँ ब्राह्मण वर्ग या ब्राह्मण वर्ण कहते हैं । ब्राह्मणत्व जन्म से नहीं, वृत्ति से है। जन्म से नहीं, गुण-कर्म से माना गया है। 1 क्षत्रिय वर्ग को समाज - शरीर की भुजाएँ समझिए। शरीर पर हमला होता है, तो सबसे पहले भुजाएँ ही उसका प्रतीकार करती हैं। इस प्रकार जनता की और देश की रक्षा का भार जिस वर्ग पर डाला गया था, वह क्षत्रिय वर्ण कहलाया । समाज में वैश्यों की भी बड़ी उपयोगिता है । वे समाज- शरीर के पेट हैं। मनुष्य की थाली में जो भोजन हैं, उसे उठाकर पेट में डालता है। वह भोजन पेट में जमा होता है; किन्तु सिर्फ पेट के ही काम नहीं आता है। पेट सारे शरीर में उसका वितरण करता है। वह मांस और रक्त आदि के रूप में सारे शरीर में रमण करता है । कदाचित् पेट कहे, कि मुझे तो मिल गया, सो मिल गया। अब वह और किसी को नहीं मिल Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ | उपासक आनन्द सकता। हाथ-पैर सूखें तो सूखें, सारे सरीर को कुछ नहीं मिल रहा है, तो न मिले ! मैं तो अपनी चीज़ अपने तक ही सीमित रखूँगा । ऐसी स्थिति में हाथ-पैर तो गिरेंगे हो किन्तु पेट भी क्या सुरक्षित रह पाएगा । पेट को अपनी रक्षा करनी है, तो जो कुछ उसे मिला है, उसे आवश्यकता के अनुसार अपने पास रख कर दूसरों को भी देना पड़ेगा। इसी प्रकार वैश्य, धन या लक्ष्मी को समाज की आवश्यकता के अनुसार इकट्ठा करता है, और न्यायपूर्वक उसका वितरण भी करता है। यदि वह ठीक ढंग से बाँट रहा है, तो समाज रूपी शरीर भी सुव्यवस्थित रूप से चलता है, और वैश्य का भी काम चलता है। शूद्र समाज के पैर माने गए हैं। पैर समूचे शरीर के भार को उठा कर चलते हैं, और शूद्र भी सारे शरीर की सेवा करता है। सेवा के बिना जीवन चल नहीं सकता। जिस प्रकार समाज की सुव्यवस्था के लिए चार वर्णों की पद्धति चली, उसी प्रकार वैदिक धर्म में जीवन की व्यवस्था के लिए चार आश्रमों की व्यवस्था की गई। ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम - यह चार आश्रम बतलाए गए। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है, कि वर्ण- -व्यवस्था को तो जैन-धर्म ने स्वीकार किया, और भगवान् ऋषभदेव के द्वारा उसकी स्थापना होना माना, किन्तु उपर्युक्त चार आश्रमों की व्यवस्था को जैनधर्म ने स्वीकार नहीं किया। किसी भी जैनागम में आश्रम व्यवस्था का वर्णन और समर्थन नहीं किया गया है। इसका क्या कारण है? एक वैदिक धर्मावलम्बी भाई मिले। वह कहने लगे-- हमारे यहाँ हो कदमकदम पर आश्रमों की बात आती है, किन्तु आपके यहाँ आश्रमों का पता ही नहीं है। मैंने उनसे कहा- मौत वश में हो, तो हम आश्रमों का निर्माण करें। जब पच्चीस वर्ष गृहस्थाश्रम में व्यतीत हो चुकेंगे, तब कहीं वानप्रस्थाश्रम का नंबर आएगा । किन्तु जीवन का क्या पता है। इसीलिए जैनधर्म ने आश्रम - व्यवस्था को अङ्गीकार नहीं किया । जैन-धर्म तो महत्त्वपूर्ण चिन्तन लेकर आया है। वह कहता है - तू अपनी शक्ति देख ले। तू ब्रह्मचर्याश्रम में रहने योग्य है, या गृहस्थाश्रम में । वानप्रस्थाश्रम में रह सकता है, या संन्यासाश्रम में | तेरी क्षमता जिस आश्रम में रहने की आज्ञा देती हो, तू उसी में रह सकता है । यह नहीं, कि आज तू संन्यासी बनना चाहता है, और आश्रम - व्यवस्था अनुमति नहीं देती, और आदेश करती है, कि नहीं, पहले तुझे पच्चीस-पचास वर्ष दूसरे आश्रमों में बिताने होंगे, और उसके बात तू संन्यासी बन Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | मा पडिबंध करेह । १३७॥ सकेगा। लेकिन जब कल का ही भरोसा नहीं है, और पल भर का भी विश्वास नहीं है, तो पच्चीस-पचास वर्ष की प्रतीक्षा का क्या अर्थ है। ऐसी स्थिति में आश्रमव्यवस्था की भी क्या उपयोगिता है। कहा है... काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। पल में परलय होयगी, बहुरि करेगा कब॥ जो कल करना चाहते हो, उसे आज ही करलो। कल का क्या पता है। जो घड़ी व्यतीत हो रही है, वह लौट कर नहीं आती। इन बन्धनों को कब तक बाँधे रहोगे। भगवान् महावीर ने तीस वर्ष की भरी जवानी में संसार का परित्याग किया। वे इस आश्रम-व्यवस्था के चक्कर मे फँसे रहते, तो पच्चीस वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम में, पच्चीस वर्ष गृहस्थाश्रम में और पच्चीस वर्ष वानप्रस्थाश्रम में, इस प्रकार पचहत्तर वर्ष, व्यतीत करने के पश्चात् कहीं साधु बनने का अवसर पाते, जबकि उनकी कुल आयु बहत्तर वर्ष की ही थी। कहो, ऐसी स्थिति में वे विश्व को अहिंसा और सत्य का अपूर्व प्रकाश किस प्रकार दे सकते थे। __मेरी बात सुनकर उस भाई ने कहा—आपकी बात तो यथार्थ लगती है। कौन जान सकता है, कि किसकी जिंदगी कितनी है? जीवन क्षण-भंगुर है। आज है कल नहीं। लुहार ने लोहे को गर्म किया, और लोहा लाल होकर आग में से निकला। लुहार पास बैठे हुए साथी से कहता है-जल्दी इस पर चोट लगा दे। ऐसे समय में साथी अगर हुक्का गुड़गुड़ाता हुआ कहे, कि तम्बाकू मजे पर आ रहा है, एक कश और लगा~-अभी चोट लगाता हूँ। तो, क्या यह उस साथी की बुद्धिमत्ता मानी जाएगी। जब तक वह हुक्का गुड़गुड़ाएगा, तब तक तो लोहा ठंडा पड़ जावेगा। फिर उस पर चोट लगाने से भी क्या परिणाम निकलेगा। लोहा जब गर्म हो, तभी उस पर चोट पड़नी चाहिए; तभी उससे इच्छानुसार चीज बनाई जा सकती है। इसी प्रकार जीवन में जब आन्तरिक प्रेरणा और स्फूर्ति की गर्मी हो, तभी कुछ न कुछ कर डालो। संकल्प की गर्मी आने पर अगर हुक्का गुड़गुड़ाने बैठ गए, तो जीवन ठंडा पड़ जाएगा, और फिर मामला खत्म है। भगवान् का मार्ग हमें यही शिक्षा देता है, कि शुभ-कार्य में ढील न करो। शुभस्य शीघ्रम्। नीतिकारों ने भी इसी बात की पुष्टि की है क्षिप्रमक्रियमाणस्य कालः पिबति तद्रसम् । कोई भी शुभ-कार्य जब चटपट और तड़ाक-फड़ाक नहीं कर लिया जाता है, तो काल उसका मजा बिगाड़ देता है। काल का व्यवधान पड़ जाने पर उस कार्य का रस चला जाता है। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |१३८ । उपासक आनन्द मैंने रामकृष्णा परमहंस का जीवन चरित्र पढ़ा । उसमें लिखा था, कि उनके पास एक साधक आया। कहने लगा—मुझे संसार छोड़ना है। मैं आपसे दीक्षा लेना चाहता हूँ, और आपकी सेवा में ही रहना चाहता हूँ। मैं एक हजार की थैली लाया हूँ, और इस कमाई को भी आपके चरणों में अर्पण करना चाहता हूँ। आप इसका जो उपयोग करना चाहें, सो करें। परमहंस ने कहा-मैं यह ठीक समझता हूँ, कि इस थैली को गंगा मैया की भेंट कर आओ। साधक ने चकित होकर पूछा—गङ्गा मैया को। परमहंस ने दुहराया—हाँ, गङ्गा मैया को यह थैली अर्पण कर आओ। बेचारा गङ्गा मैया की तरफ चला। गुरु की आज्ञा जो हुई थी! किसी तरह अनमने भाव से, गङ्गा के किनारे बैठ कर, उसने थैली का मुँह खोला, और उसमें से एक रुपया निकाला और फेंक दिया। फिर दूसरा निकाला, और उसे भी फेंक दिया। इस प्रकार एक-एक करके उसने सब रुपये फेंक दिए। खाली थैली लेकर परमहंस के पास आया और बोला—सारे रुपये गङ्गाजी में डाल आया हूँ। परमहंस ने पूछा-बहुत देर लगी फेंकने में। इतनी देर क्यों लगी? मैंने एक-एक रुपया निकाला, और फेंका। इसी से देर हो गई। परमहंस बोले—तब तुम हमारे काम के नहीं हो। साधक समझ रहा था—मैंने बड़ा त्याग किया है, और गुरुजी मुझ पर अत्यन्त प्रसन्न होंगे। किन्तु जब उसने गुरुजी का निर्णय सुना, तो भौंचक्का-सा रहा गया। वह प्रश्न-पूर्ण दृष्टि से गुरुजी की ओर देखने लगा। परमहंस ने समझाया--जो काम तुम्हें एक बार में कर लेना चाहिए था, उसे तुमने हजार बार में किया। जितनी देर में एक रुपया फेंका, उतनी ही देर में शेष ९९९ रुपया भी फेंक सकते थे। फिर सब के सब एक साथ क्यों नहीं फेंक दिए। अभी तुम्हारी ममता मरी नहीं है। तुम जहर को जल्दी नहीं त्याग सकते। पूरी जागृति अभी नहीं आई है। जब तुमने माया को जहर समझ लिया, और उसे फेंकने चले तो रुक-रुक कर क्यों। जो रास्ता एक कदम में तय किया जा सकता है, उसे हजार कदम में क्यों तय किया जाए। तुम्हारे चित्त में अभी दुविधा है। इसी कारण तुमने रुपयों को फेंकने में देर की। देर करने वालों की यहाँ गुजर नहीं। ___ जब मैंने यह बात पढ़ी तो सोचा, कि भगवान् महावीर का संदेश वहाँ भी पहुंचा है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | मा पडिबंध करेह । १३९ वास्तव में हमें जो कदम उठाना है, वह अभी क्यों न उठा लें। अभी अंगड़ाई ले रहे हैं। अभी साफा बाँध रहे हैं, अब नाश्ता कर रहे हैं और इस प्रकार एक कदम के बदले हजार कदम नाप रहे हैं। इसका अर्थ यही है, कि अभी वह चेतना जागी नहीं है, जो सिंह के सामने आने पर जाग उठती है। सिंह सामने आता दिखाई देता है, तो क्या कोई अंगड़ाई लेने को रुकता है। साफा बाँधने की चिन्ता करता है। उस समय साफा किधर ही पड़ा होगा, या बगल में दबा होगा और आप उसी समय भाग खड़े होंगे। उस समय हजार कदम का रास्ता एक कदम में नापने की कोशिश करेंगे। धन्ना और शालिभद्र ने कौन-सा मंत्र जपा था? यही तो मा पडिबंधं करेह शालिभद्र प्रतिदिन एक-एक नारी का परित्याग कर रहे थे। सुभद्रा उनकी बहिन थी। यह खबर सुभद्रा को मिली। भाई के संसार-त्याग की खबर सुन कर उसे दुःख हुआ। कथाकार कहते हैं, सुभद्रा अपने पति धन्ना सेठ को स्नान करा रही थी। उसे शालिभद्र का स्मरण हो आया, और आँखों से आँसू टपकने लगे। आँसू की एक बूंद धन्नाजी की पीठ पर गिरी। गरम बूंद गिरी तो उन्होंने सुभद्रा की तरफ देखा, और देखा कि सुभद्रा रो रही है। धन्नाजी ने कहा-सुभद्रे! तुम रो रही हो। इस घर में आने के बाद तुम्हारी आँखों में कभी आँसू नहीं देखे गए। इस घर में कभी दुःख और कभी सुख भी रहा है, कभी-कभी कठिनाइयाँ और आपत्तियां भी आई हैं, मगर तुम्हें कभी रोते तो नहीं देखा। जब से तुम इस घर में आई हो, तुमने मेरा प्रेम पाया है। फिर आज रोने का क्या कारण है। ___ सुभद्रा बोली—आपके रहते मुझे क्या दुःख हो सकता है, भला आप मेरे सुख हैं, सौभाग्य हैं, सब कुछ हैं। मुझे केवल एक ही दुख है, और वह यह कि मेरा भाई दीक्षा लेना चाहता है। अब मेरे मायके में कोई नहीं रहेगा। वह एक-एक पत्नी को रोज त्याग रहा है, और जल्दी ही घर छोड़कर भगवान के चरणों में दीक्षित हो जाएगा। भाई की चिन्ता बहिन के मन को व्याकुल कर रही है। सुभद्रा सोचती है—मेरे एक ही तो भाई है! जब जाती थी, चहल-पहल हो जाती थी। अब सूने घर में जाऊँगी, तो कौन मुझे बहिन कहकर पुकारेगा। मैं किसको 'भैया' कह कर संबोधित करूंगी। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० | उपासक आनन्द धन्ना बड़े तेजस्वी और साहसी थे। उन्होंने सुभद्रा की बात सुनी तो कहा—क्या शालिभद्र दीक्षा लेगा । वह एक स्त्री का रोज त्याग कर रहा है। इस तरह प्रत्येक दिन एक-एक स्त्री को छोड़ने वाला कहीं दीक्षा ले सकता है। यह वैराग्य लाया जा रहा है, या वैराग्य का नाटक खेला जा रहा है। दीक्षा ले रहा है, या तमाशा कर रहा है। भगवान् कहते हैं— मा पsिबंध करेह | और, शालिभद्र कल और परसों कर रहा है। कब बत्तीस नारियों का परित्याग करेगा, और कब दीक्षा लेगा। उसे बत्तीस दिन की जिन्दगी की गारन्टी किसने लिख दी है। क्या वह जानता है, कि वह दिन देख सकेगा। यह त्याग और वैराग्य का मार्ग नहीं है। त्याग और वैराग्य का मार्ग है मा पडिबंधं करेह | धन्ना की बात में सच्चाई तो थी, किन्तु सुभद्रा को उससे बड़ी चोट पहुँची। उसका दिल पहले ही दुखी था, धन्ना की बात से वह और अधिक दुखी हो गई। उसने ताने के स्वर में कहा-' पर उपदेश कुशल बहुतेरे ।' फिलासफी छाँट देना सहज है, करना कठिन होता है। त्याग करने वाले ही जानते हैं, कि कैसे त्याग किया जाता है। मेरा भाई एक-एक नारी को तो छोड़ रहा है; किन्तु एकदम छोड़ने का उपदेश देने वाले एक को भी नहीं छोड़ रहे हैं। वे घर में बैठे हैं। प्रियतम ! शालिभद्र का त्याग साधारण नहीं है। उसकी अवज्ञा न कीजिए। सुभद्रा का ताना सुनते ही धन्ना एकदम खड़े हो गए। जिस ग्रन्थकार ने धन्ना जी का चरित्र लिखा है, उसने कलम को मात कर दिया है। धन्ना जी जैसे थे, वैसे ही चल पड़े। धोती थी, तो बदन पर धोती ही रही; उन्होंने अँगरखा पहन लेने की भी चिन्ता नहीं की । घर के दरवाजे खुले हैं, तो खुले ही पड़े हैं। जो चीज जहाँ पड़ी है वहीं पड़ी है। किससे क्या लेन-देन है, कोई वास्ता नहीं है। दुकान में क्या हो रहा है, कोई परवाह नहीं है। उन्होंने एक भी चीज इधर से उधर नहीं रखी। बाहर जाने योग्य वेष की भी चिन्ता नहीं की । शरीर पर स्नान का पानी लगा है, तो उसे पौंछने का भी ख्याल नहीं किया। उन्होंने अपनी पत्नी से कहा- आज से नहीं, अभी से तुम मेरी बहिन, और मैं तुम्हारा भाई । वह धन्ना, जिसने संसार की करारी से करारी चोटें सहन कीं, और जिसने कितनी ही बार सोने के महल बनाए और बिगाडे । ऐसे ही उस धन्ना सेठ के मन में इस एक वाक्य ने ही जागृति कर दी, अपूर्व प्रेरणा भर दी । 'कहना सरल और करना कठिन है' इस वाक्य को उलट देने के लिए वह उसी क्षण घर से बाहर निकल गए। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | मा पडिबंध करेह | १४१ वीरों की वाणी यों ही नहीं निकला करती। उनसे कोई बात कहलवाना चाहो, तो हजार बार प्रयत्न करोगे, तब भी नहीं कहेंगे। जिस दिन कह दी—हाँ भर ली, कि समझो वह बात हो गई। उनके लिए कहना कठिन, और करना सरल होता है। उनका कहना ही करना है। धन्ना जी बीच बाजार में होकर चले, और शालिभद्र के घर पहुँचे। नीचे से ही आवाज लगाई–शालिभद्र ! तुम्हें वीर प्रभु के चरणों में चलना हो तो— मा पडिबंधं करेह। क्यों देर कर रहे हो। माता और पत्नियों को रुलाना है, तो एक ही बार रुला दो। दिन पर दिन बीत रहे हैं। कैसा है, तुम्हारा वैराग्य । शालिभद्र ने यह आवाज सुनी। वह जागे और उठ खड़े हुए। भगवान् का दूसरा सिद्धान्त है, कि सोच लो, समझ लो, अपनी शक्ति को जाँच लो, और जब लहर आ जाए, तो विलम्ब न करो, पल भर की भी देरी मत करो। जो करना है, कर ही डालो। उसमें—मा पडिबंधं करेह । कुन्दन-भवन ब्यावर, अजमेर ३०-८-५० Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन के छेद यह उपासकदशांग सूत्र है और आनन्द का वर्णन आपके सामने चल रहा है। भगवान् महावीर के चरणों में पहुँच कर आनन्द ने जब भगवान् की वाणी सुनी, और जब अमृत की धारा ग्रहण की तो उसे असीम आनन्द हुआ। उसने विचार किया कि मेरा क्या कर्त्तव्य है। ज्यों ही उसे अपने कर्त्तव्य का भान हुआ, वह अपने जीवन का निर्माण करने के लिए, कल्याण करने के लिए उद्यत हो गया। भगवान् ने आनन्द के समक्ष जो प्रवचन किया था, वह सिर्फ आनन्द के लिए ही नहीं था । चतुर्विध संघ को लक्ष्य करके भगवान् ने तो प्रवचन किया था । साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका — यह चारों प्रकार के साधक संघ में सम्मिलित होते हैं, और ये ही सब मिलकर संघ कहलाते हैं। तीर्थंकर भगवान् संघ के नायक हैं। संघ को तीर्थ भी कहते हैं, और तीर्थ का निर्माण करने के कारण भगवान् 'तीर्थंकर' भी कहे जाते हैं। संघ और संघ - नायक में आपस में क्या सम्बन्ध है, यह विचारणीय है । हम अपनी परम्परा के अनुसार जब इस प्रश्न पर विचार करते हैं, तो एक सुन्दर कल्पना हमारे मस्तिष्क में जाग उठती है । कल्पना कीजिए, एक बड़ा समुद्र है। उसे पार करने के लिए नावों का एक बड़ा बेड़ा खड़ा है, और प्रत्येक नाविक अपनी-अपनी नाव को लेकर उस महासमुद्र में घुसने के लिए है। तब बेड़े का कमाण्डर मल्लाहों को आदेश देता है, कि अपनीअपनी नाव को तैयार कर लो। अपनी-अपनी नाव की चौकसी कर लो, और किसी की नाव में छेद हो, तो उसे बन्द कर लो। क्योंकि जिन नावों में छेद होंगे, वे समुद्र को पार नहीं कर सकेंगी। कमाण्डर का यह आदेश सुन कर कुछ मल्लाह अपनी-अपनी नाव दुरुस्त करते हैं, नाव में जहाँ कहीं छेद हो गए हैं, उन्हें बन्द कर देते हैं; मगर अनेक इस ओर Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन के छेद । १४३ ध्यान ही नहीं देते, और सोचते हैं, हमारी नावें तो ठीक ही हैं। कमाण्डर का आदेश मिलते ही सभी नावें समुद्र में छोड़ दी जाती हैं। जिन नावों के छिद्र भली प्रकार से बन्द कर दिए गए हैं, वे नावें अपने लक्ष्य पर पहुँच जाती हैं। मगर जिन नावों के छेद बन्द नहीं किए गए, उनमें पानी भरता रहता है, और वे समुद्र के पास नहीं पहुँच पातीं। वे समुद्र में डूब जाती हैं। इसी प्रकार भगवान् महावीर एक विशाल जन-समूह या संघ के नायक हैं, कमाण्डर हैं। उन्होंने संघ रूपी बेड़े से कहा – संसार के इस विशाल - सागर को पार करना है, तो अपनी-अपनी नाव को ठीक कर लेना चाहिए। छेद बन्द कर लेने चाहिए। छेद वाली नावें संसार - समुद्र को पार नहीं कर सकती हैं । साधुत्व को अंगीकार करना, और श्रावकत्व को अंगीकार करना भी जीवन की नाव के छेद बन्द करना है। इस प्रकार छेद बन्द करके जीवन की नौका जब संसारसमुद्र में छोड़ दी जाती है, तो वह पार कर सकती है। छेदों को बन्द किए बिना पार होना सम्भव नहीं है । यह प्रश्न, जो मैंने आपके सामने रखा है, उस समय भी उपस्थित हुआ था, जब केश कुमार और गौतम का महान् सम्मिलन हुआ था । केशी स्वामी ने गौतम स्वामी से पूछा- बड़ा भारी समुद्र है, और लोग उसमें अपनी-अपनी नावें खे रहे हैं, किन्तु नावें तैर नहीं रही हैं, डूब रही हैं। मगर देखते हैं, कि आपकी नाव ठीक ढङ्ग से तैरती चली जा रही है, और वह महासमुद्र की लहरों के ऊपर से भी ठीक ढङ्ग से तैर रही है। इसका क्या कारण है ? अण्णवंसि महोहंसि, नावा विपरिधाव | जंसि गोयमारूढो, कहं पारं गमिस्ससि ? -उत्तराध्ययन यह संसार बड़ा भारी समुद्र है, और अनन्त काल से हमारी नौका इसमें भटक रही है, डूब रही है । हे गौतम! आप जिस नाव पर सवार हैं, वह किस कारण किनारे की ओर बढ़ती चली जा रही है ? स्वामी का प्रश्न सुन कर गौतम स्वामी बोले जाउ अस्साविणी नावा, न सा पारस्स गामिणी । जाय निस्साविणी नावा, सा हु पारस्स गामिणी ॥ -उत्तराध्ययन दूसरों की नौकाएँ डूब रही हैं, क्योंकि उनमें छेद हैं। छेदों के द्वारा उन नावों में पानी भर-भर कर ऊपर आ रहा है, और वे डूब रही हैं। किन्तु मैंने अपनी नौका के छेद बन्द कर लिए हैं, इसी कारण वह तैरती हुई दिखाई दे रही है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | १४४ । उपासक आनन्द है ? S यह सुन कर केशी स्वामी पूछते हैं—वह समुद्र कौन गौतम स्वामी कहते हैं - सा है और नौका कौन-सी सरीरमाहु नावित्ति, जीवो 'बुच्च नाविओ। संसारी अण्णवो वत्तो, जं तरंति महेसिणो ॥ -उत्तराध्ययन अर्थात् — संसार समुद्र है, शरीर नौका है, और उसमें रहा हुआ, आत्मा नाविक (मल्लाह ) है । आत्मा रूपी मल्लाह की जो नौका अव्रत रूपी छेदों से भरी पड़ी है, जिसमें आस्रवरूपी जल भर-भर कर इकट्ठा हो रहा है, वह डूबेगी नहीं, तो क्या पार लगेगी। वह तो डूबने को ही है । गौतम स्वामी कहते हैं—मैंने साधना के द्वारा, व्रत प्रत्याख्यान के द्वारा और संयम के द्वारा अपनी नौका के छेदों को बन्द कर दिया है। मैंने संवर का आराधन किया, तो उसमें छेद नहीं रहे और छेद रहे, तो वह पार हो रही है । छेद रहित नाव पार लगा देती है । मूलपाठ में शरीर को नौका कहा है, मैं जीवन को नौका कह रहा हूँ। आप सोचेंगे, कि यहाँ शब्दों का ही हेर-फेर है अथवा भावों का भी इस पर जरा विचार कर लें । साहब, यह शरीर नौका है। इसमें काम, क्रोध, मद, अहंकार, मोह, लोभ, हिंसा, असत्य आदि का आस्रव रूपी जो जल आ रहा है, तो क्या शरीर के द्वारा ही आ रहा है। क्या मन के द्वारा आस्रव नहीं होता है । मन से भी आस्रव होता है । शास्त्रकार कहते हैं, कि इस मन के द्वारा इतना पानी आता है, और आस्रव का इतना बहाव होता है, कि जिसका कुछ ठिकाना नहीं । औरों की बात जाने दीजिए। तन्दुल मत्स्य का शरीर किस गिनती में है । एक चावल जितनी काया होती है, उसकी। मगर मन के ही द्वारा वह इतना आस्रव इकट्ठा कर लेता है, कि सातवें नरक तक चला जाता है। एक अन्तर्मुहूर्त्त की उसकी जिन्दगी, और चावल के बराबर, शरीर, फिर भी मन के द्वारा वह गहरे नरक का निर्माण कर लेता है। आर्त एवं रौद्र ध्यान से पतन होता है। यह एक ऐसा उदाहरण है, जो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में महत्त्वपूर्ण ढङ्ग से कहा जाता है। इससे भलीभाँति समझ में आ जाता है, कि मन के द्वारा कितना तीव्र आस्रव हो सकता है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवन के छेद । १४५ जब हमारी वाणी गड़बड़ा जाती है—क्रोध, मान, माया और लोभ के आवेश में वचन निकलते हैं, तो कैसी आग लग जाती है। आपने महाभारत की लड़ाई का जिक्र तो सुना होगा, पर उसके मूल कारणों पर भी कभी विचार किया है। भाइयों-भाइयों के उस भयंकर विनाशकारी युद्ध का असली कारण क्या था। हम देखते हैं, कि वचनों का अविवेक ही उसके मूल में था। दुर्योधन और द्रौपदी ने वचनों का ठीक तरह प्रयोग नहीं किया, और अयोग्य शब्दों, का प्रयोग किया, तो वह आग सुलगती-सुलगती प्रचण्ड ज्वालाओं के रूप में परिणत हो गई, और भारत की एक बड़ी शक्ति उन ज्वालाओं में भस्म हो गई। इस प्रकार जब मन और वाणी से भी आस्रव होता है, और पापों का आगमन होता है, तो शरीर को ही नाव क्यों बतलाया गया है। इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमें देखना चाहिए, कि मन रहता कहाँ है और वचन कहाँ है। मन और वचन की स्थिति शरीर में ही है। यह जो हमारा शरीर है, इसी में मन, वचन और काय हैं। और इन तीनों में ही जीवन की नाव बह रही है। इस प्रकार मन, वचन और काय में जीवन व्यतीत हो रहा है। हमारे मन की प्रवृत्तियाँ भी जीवन हैं, हमारे वचन भी हमारे जीवन के अंग हैं और काया की प्रवृत्तियाँ भी जीवन से अलग नहीं हैं। इन तीनों की समष्टि का नाम ही जीवन है। ____ आप मन से सोचते और विचार करते हैं, यह भी एक प्रवृत्ति है और वचन कहाँ है। वचन बोलते हैं, यह भी एक प्रवृत्ति है, और शरीर से नाना प्रकार की चेष्टाएँ करते हैं, यह भी एक प्रवृत्ति है। आत्मा के पास यह तीनों शक्तियाँ हैं। मन, वचन और काय के द्वारा आत्मा का व्यापार होता है। ___जैन पुराणों में एक उदाहरण आता है, विष्णुकुमार मुनि का। वैदिक पुराणों में भी इसी से मिलती-जुलती एक कथा है। संक्षेप में वह इस प्रकार है---- __बलि एक राजा था, और राक्षस था। वह बड़े-बड़े यज्ञ करता था। उसने ऐसे बड़े-बड़े यज्ञ किए, और उसका पुण्य इतना बढ़ा कि देवता भी डरने लगे। उन्होंने सोचा-बलि इतना दान कर रहा है; धर्म कर रहा है, और यज्ञ कर रहा है, तो यह देवताओं का राज्य हथिया लेगा। यानी हमारे पुण्य से भी अधिक पुण्य उपार्जन कर लेगा, तो हमारे ऊपर अधिकार जमा लेगा। देवताओं ने मिलकर विचार किया, और वे सब मिलकर विष्णु के पास पहुंचे। बोले-आपके सामने ही हमारा साम्राज्य तो दूसरे हाथों में जाने ही वाला है। बलि इतना दान देता है, और यज्ञ करता है, कि उसका पुण्य बढ़ता चला जा रहा है। एक Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ । उपासक आनन्द । दिन हमारे सारे साम्राज्य पर उसका अधिकार हो जायेगा, और हम धूल चाटते फिरेंगे। विष्णु ने उन देवताओं को आश्वासन देते हुए कहा—अच्छा, मैं प्रबन्ध कर दूंगा। कहते हैं, जब विष्णु ने बौने का रूप बनाया, ब्राह्मण का वेष धारण किया, और बलि राजा के दरबार में प्रवेश किया। वह राजा के सामने खड़े हुए तो राजा ने पूछा-क्या चाहिए, किस प्रयोजन से यहाँ आए हो। ___बौने ब्राह्मण ने कहा—हमें क्या चाहिए ? हमारे पास तो सभी कुछ है, किन्तु रहने की जगह नहीं है। राजा बोला—जितनी चाहिए उतनी ले लो। कितनी जगह चाहिए ? बौने ने कहा-अधिक का क्या करना है। तीन पग जमीन बहुत होगी। तब बलि ने कहा- यहाँ तक माँगने आए हो, और सिर्फ तीन पग ही जमीन माँग रहे हो। कुछ और माँग लो। बौना बोला—नहीं, और कुछ नहीं चाहिए। इतनी जमीन ही मेरे लिए वस है। बलि—तो ठीक है। यही सही। तीन पग जमीन जहाँ पसंद हो, नाप लो। उस समय विष्णु ने अपना विराट रूप बनाया, तो चाँद और सितारों को छूने लगे। शरीर बड़ा होगा, तो पैर भी उसी परिमाण मे बड़े होंगे। उन्होंने पृथ्वी के एक छोर पर एक पैर रखा, और दूसरे छोर पर दूसरा पैर रखा, तीसरा कदम रखने की कहीं जगह न बची। तब, कहते हैं, तो तीसरा कदम उन्होंने बलि की छाती पर ही रख दिया। इस प्रकार बलि को संसार से विदा होना पड़ा, और देवताओं की रक्षा हो गई। विष्णुकुमार की कथा भी बहुत कुछ इसी प्रकार की है। उसका मुख्य भाग तीन कदमों में जमीन नापना वहाँ भी बतलाया गया है। तीन कदमों में जमीन को नापने का यह जो ढंग है, वह तो पौराणिक है, आलंकारिक है। किन्तु हम अपने जीवन को देखें, तो सारा संसार एक ही पिण्ड है, और एक ही ब्रह्माण्ड है। आत्मा पिण्ड में रहती है। अतएव जो इसको अच्छा बनाते हैं, जीवन को पवित्र बनाते हैं, मन के छेदों को और वचन के छेदों को—जिनसे कि वासनाएँ आती हैं, बंद कर लेते हैं, और काम के छेदों को जिनसे हिंसा होती है, बंद कर लेते हैं, तो पिण्ड को नाप लिया जाता है। यही समग्र जीवन को तीन कदमों में नापना है। जो भी पाप आते हैं, इन्हीं तीन योगों से आते हैं। मन, वचन और काय का योग अपने आप में बड़ा भारी आस्रव है। जब तक हम इन तीन पर अधिकार नहीं कर लेते, पिण्ड पर भी अधिकार नहीं Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन के छेद। १४७ कर सकते। जो अपने ही जीवन पर अधिकार नहीं कर सकते, वे सम्पूर्ण विश्व पर कैसे अधिकार कर सकेंगे। तीर्थंकरों को तीन लोक का नाथ कहते हैं । इसका क्या अर्थ है। क्या भगवान् स्वर्ग, नरक, पशुओं, पक्षियों आदि सब के नाथ हैं। वे सब के स्वामी कैसे हो गए । पहले वे अपने जीवन के स्वामी हुए, और फिर पिण्ड के स्वामी हुए । जो जीवन और पिण्ड का स्वामी होता है, वही ब्रह्माण्ड का स्वामी हो जाता है। कहा भी हैयत् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे । अर्थात् जो पिण्ड में होता है, वही ब्रह्माण्ड में होता है, और जो ब्रह्माण्ड में होता है, वही पिण्ड में होता है। यह दर्शन का सिद्धान्त है । जो तू चाहता है, कि मेरा विश्व पर साम्राज्य हो, तो पहले पिण्ड पर नियंत्रण कर। अपने जीवन पर साम्राज्य स्थापित कर । अपना मन नियंत्रण में नहीं है, जबान काबू में नहीं है, और काया पर भी कब्जा नहीं है, तो तू क्या विश्व पर कब्जा कर सकेगा। जो मन का विजेता है, वही संसार का विजेता है। जो मन से हार गया, वह संसार से भी हार गया। मनो विजेता जगतो विजेता । मन, वचन और काय, यही आत्मा की तीन ताकतें हैं, और जब आत्मा प्रवृत्ति के क्षेत्र में आती है; तो सीधी प्रवृत्ति नहीं कर सकती है। वह मन की लाठी उठाती है, और वचन तथा काय का सहारा लेती है और इन्हीं के जरिये अपनी प्रवृत्ति करती है । आत्मा मन की, वचन की और काया की नाली में बह कर हरकत करती है । यही तीनों छेद हैं। इसीलिए भगवान् ने उत्तराध्ययन में कहा है, कि यह शरीर नौका है, और आत्मा मल्लाह है, और जब वह मल्लाह शरीर रूपी छेदों को बन्द कर देता है, तो वह नाव पार हो जाती है। यहाँ शरीर का मतलब जीवन है। यहाँ मन, वचन और काया की समष्टि के अर्थ में शरीर शब्द का प्रयोग किया गया है। आशय यह है, कि जीवन की नाव अगर छेद वाली है, तो वह पार नहीं हो सकती । भगवान् महावीर ने संघ को आज्ञा दी - हे साधुओ, और हे साध्वियो। तुम अपनी जीवन- नौका को अगर पार ले जाना चाहते हो, तो विकार, वासना और आसक्ति रूपी छेदों वाली नाव को लेकर मत चलो। चलोगे, तो पार नहीं होओगे । तुम अपनी वाणी से असत्य बोल देते हो, मजाक में असत्य बोल देते हो, राग, द्वेष, क्रोध और लोभ से असत्य बोल देते हो, तुम्हारी वाणी समाज में, परिवार में और घर में, जहाँ कहीं भी है, छेद डालती है, और उन छेदों से नाव भरी पड़ी है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ / उपासक आनन्द उन छेदों से पाप ही पाप और वासना ही वासना उमड़ी चली आ रही है। ऐसी नाव कैसे पार लगेगी। तुम्हारा शरीर भी तुम्हारे नियंत्रण में नहीं है। तुम्हारे हाथ, तुम्हारे पैर और कोई भी अंग तुम्हारे काबू में नहीं है। तुम अपनी असावधानी से कैसी-कैसी प्रवृत्तियाँ कर बैठते हो। कभी दूसरे की जिंदगी को खतरे में डाल देते हो, कभी उसे समाप्त कर देते हो, और कभी किसी को पीड़ा पहुँचाते हो। इस तरह तुम्हारा शरीर छिद्रों से भरा पड़ा है। तुम्हारा मन भी तुम्हारे वश में नहीं है। शरीर और वचन की प्रवृत्ति तो कुछ मर्यादित है, मगर तुम्हारा मन तो यहाँ बैठा-बैठा ही आकाश और पाताल के कुलावे मिलाता है। कितने छिद्र भरे हैं, उसमें। भगवान् ही जानें इतने छिद्रों के रहते तुम्हारी जीवन-नैया की क्या गति होने वाली है। ____ जीवन के छिद्र किस प्रकार बंद हो सकते हैं । यह बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। सच पूछो, तो इस प्रश्न के उत्तर में समग्र साधना का सार समा जाता है। अपनी दृष्टि को विशुद्ध बनाना, श्रावक और साधु के व्रतों को अंगीकार करना, प्रमाद का परिहार करना, कषाय की वृत्तियों को नष्ट करना और योगों की चंचलता का निरोध करना, जीवन के छिद्रों को रोकना है। जितनी-जितनी मात्रा में यह छिद्र बंद होते चले जाएँगे, आपकी नौका संसार-सागर के दूसरी ओर अग्रसर होती चली जाएगी। ___ पहले-पहले के गुणस्थानों के विकास में विलम्ब होता है, किन्तु आगे के गुणस्थान जब आते हैं, तो कितनी जल्दी तय किए जाते हैं। ज्यों ही प्रमत्त-संयत के गुणस्थान को छोड़ा, और अप्रमत्त-संयत का सातवाँ गुणस्थान आया, और ऊपर चढ़ने लगे, कि चुटकियों में गुणस्थानों की भूमिकाएँ लांघ ली जाती हैं। आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त भर की होती है। नाव के छेद-बंद हो गए, और नाव दुरुस्त हो गई, तो फिर क्या देर लगती है। शीघ्र ही केवल ज्ञान की दशा प्राप्त हो जाती है। फिर, वह दशा चाहे करोड़ वर्ष तक रहे, मगर उस दशा में नाव में छेद नहीं रहेंगे। जब तक नाव में छेद हैं, तभी तक वह नाव संसार सागर में टिकी है, मगर जैसे ही अप्रमत्त-भाव आया, कि फिर देर नहीं लगती। जीवन-नौका में सबसे बड़ा छेद मिथ्यात्व का है। इसे सबसे पहले बंद करना चाहिए। इस छेद को बंद न किया, और अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य आदि का पालन किया, तो भी नाव बीच सागर में ही डगमगाती रहेगी। शास्त्रकार कहते हैं, कि सम्यक्त्व के द्वारा मिथ्यात्व का छेद बंद न किया गया, तो अहिंसा ऊपर से अहिंसा मालूम होगी, मगर वह आस्रव को नहीं रोक सकेगी। सत्य मालूम होगा, किन्तु वह सत्य, असत्य के छेद को बंद नहीं कर सकेगा। इसी प्रकार अस्तेय, ब्रह्मचर्य और Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |जीवन के छेद । १४९/ अपरिग्रह आदि की जितनी भी साधनाएँ हैं, वे सब साधनाएँ मालूम होंगी, पर आस्रवों के छेदों को बंद नहीं कर सकेंगी। अतएव सबसे पहले मिथ्यात्व की वृत्ति को काटना आवश्यक है। गलत ढंग से सोचना, गलत तरीके से विचार करना, वस्तु को विपरीत रूप में समझना, और सत्य के प्रति अटल श्रद्धा न होना आदि-आदि जो गलत दृष्टिकोण हैं, वहीं मिथ्यात्व हैं, और मिथ्यात्व ही इस जीवन-नौका का सबसे बड़ा छेद है। __ भगवान् महावीर ने कहा-सबसे बड़े आदर्श पर ही चलो, किन्तु चलने से पहले अपने दृष्टिकोण को सही तौर पर स्थिर कर लो। एक यात्री चल पड़ा, और ऐसा बेतहाशा चला, कि पसीने से तर हो गया। जब उससे पूछा गया, कि कहाँ से आ रहे हो। तब वह कहता है—यह तो पता नहीं!' 'अरे भैया, कहीं से तो आ रहे हो।' 'हाँ, आ तो रहा हूँ, मगर नहीं मालूम कहाँ से आ रहा हूँ।' 'अच्छा, जा कहाँ रहे हो।' 'यह भी नहीं मालूम।' कहिए साहब, ऐसा यात्री मिलेगा, तो उसे यात्री कहेंगे या पागल। यह यात्रा नहीं भटकना है। जिसे अपने जीवन के आगे-पीछे का कुछ भी पता नहीं, जिसे अपने लक्ष्य का भी पता नहीं, अपनी प्रवृत्ति के उद्देश्य का भी ज्ञान नहीं, जो यह भी नहीं जानता, कि वह क्यों यात्रा कर रहा है, वह यात्रा नहीं है। अतएव भगवान् महावीर ने कहा, कि अनन्त-अनन्त काल से संसार में जो यात्राएँ की, जीवन को ऊँचाइयों पर ले जाने के लिए प्रवृत्तियाँ की, वे यदि सम्यग्दृष्टि को पाए बिना ही की गई हैं, तो वह साधनाएँ नहीं कहलायेंगी। वह तो केवल भटकना हुआ। सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर जीवन का आगा-पीछा और लक्ष्य दिखाई देने लगता है। आप सम्यग्दृष्टि से पूछेगे—'कहाँ से आ रहे हो। तो वह उत्तर देगा—'संसार से आ रहे हैं।' और फिर पूछेगे—'कहाँ जा रहे हो।' तो वह कहेगा—'जाना कहाँ है; उस परम अहिंसा के पार जाना है, परम सत्य के पार जाना है। मैं अभिमान के संसार से आ रहा हूँ, और नम्रता के द्वार पर जाना चाहता हूँ।' आप पूछेगे—अभी तक कहाँ भटक रहे थे?' वह कहेगा—'अभी तक काम, क्रोध, लोभ, लालच और वासनाओं के घर में भटक रहा था, अभी तक विकारों की गंदी गलियों में चक्कर काट रहा था। मैं संसार में घूम रहा था।' Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ More |१५० | उपासक आनन्द । आप नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव—इन चार गतियों को ही संसार समझते हैं, किन्तु जीवन की दृष्टि से देखें, तो हमारे अन्दर ही संसार है ! कहा है कामानां हृदये वासः संसार: परिकीर्तितः। हमारे अन्दर जो वासनाएँ हैं, वही संसार है। मनुष्य गति ही नहीं, किन्तु मनुष्यगति के निमित्त भी संसार है, और नरक ही नहीं किन्तु नरकगति के निमित्त भी संसार है। संवर और निर्जरा संसार के बाहर की चीजें हैं। ___ हम मनुष्य के संसार में रहते हैं। संसार को उतार कर फेंका नहीं जा सकता। आप कहते हैं, अमुक ने संसार को त्याग दिया। मगर उसने क्या त्याग दिया। वहाँ शरीर है, इन्द्रियाँ है, वस्त्र है, भोजन है, पानी है, फिर छोड़ क्या दिया है। तो संसार को छेड़ देने का अर्थ है, संसार के करणों को छोड़ देना। जिन कारणों से संसार का बन्धन होता है, उन कारणों को छोड़ दिया है। वास्तव में आस्रव ही संसार-बन्धन का कारण है। जब आस्रव छोड़ दिया, तो कहा जाता है, कि संसार छोड़ दिया। __इसलिए हम कहते हैं, कि सब से बड़ा संसार बाहर नहीं है, जो दिखाई दे रहा है, वह नहीं है। सबसे बड़ा संसार तो अन्दर ही छिपा है, जो दिखाई नहीं देता। बुरा बर्ताव, जो सबसे बड़ा जहर है, यही सबसे बड़ा संसार है। इसको निकाल कर फेंक दिया, तो संसार से अलग हो गए। ___ कितनी ही बार साधु का वेष पहन लिया, कितनी ही बार श्रावक कहलाए, ओघों और मुंहपत्तियों का मेरु-गिरि के समान ढेर कर दिया; किन्तु संसार की ओर से मोक्ष की ओर एक कदम भी नहीं बढ़ा; और अभव्य ने भी इतना ही जोर लगा दिया; मगर पहला गुण-स्थान नहीं छूटी। संसार की वासना नहीं छूटी। कपड़े बदल लिए तो क्या हो गया; ओघों-मुँहपत्तियों का ढेर लगा लिया, तो क्या प्रयोजन सिद्ध हो गया। यह सब खेल खेले जा सकते हैं, किन्तु जीवन को बदलने का खेल खेलना आसान नहीं । कपड़े बदले जा सकते हैं, किन्तु मन को बदलना ही महत्त्वपूर्ण बात है। मन को बदलना और वासनाओं से विमुख होना ही मोक्ष की ओर जाना है। एक बार आचार्य हरिभद्र से पूछा गया, कि जैनधर्म का निचोड़ सार क्या है। हजारों और लाखों ग्रन्थ नहीं पढ़े जा सकते और पढ़ें तो कहाँ तक पढ़ें ? पढ़ने की समाप्ति कहाँ है ? अतएव आप धर्म का सार बतला दीजिएगा—तब उन्होंने कहा आस्रवो भव-हेतुः स्थात् संवरो मोक्ष-कारणम्। इतीयमाहती दृष्टिरन्यदस्याः प्रपञ्चनम्॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन के छेद । १५१ आस्रव का मतलब वासनाएँ हैं, और वासनाओं से छुटकारा पा लेना संवर है। आस्रव संसार का कारण है। जन्म और मरण का कारण है, और संवर मोक्ष का कारण है, विश्व की समस्त अनन्त-अनन्त आत्माओं की सत्ता इन्हीं दो में , संसार और मोक्ष में, समाप्त हो जाती है। आचार्य हरिभद्र कहते हैं, कि यही जैनधर्म का सार है। इसके अतिरिक्त तुम्हें जो दिखलाई देता है, वह सब इसी का विस्तार है। चाहे आस्रव और संवर को समझ लो, चाहे चौदह पूर्वो को समझलो। ___ इस दृष्टिकोण से विचार करते हैं, तो मालूम होता है, कि यह आत्मा अनन्तअनन्त काल से यात्रा कर रही है, किन्तु यात्री को पता नहीं है, कि मैं कहाँ से आया हूँ और कहाँ जाना चाहता हूँ; उसे यह भी नहीं मालूम है, कि मैं क्या प्रवृत्ति कर रहा हँ ? सम्यग्दृष्टि समझता है, कि मैंने कहाँ-कहाँ अनन्त काल गुजारा है, और अब मुझे कहाँ जाना है। ___ आशय यह है कि, सबसे पहले मिथ्यात्व का छिद्र बंद करना है। इस छिद्र के बंद होते ही आत्मा को अपनी स्थिति और मर्यादा का भान हो जाता है। उसे अपने लक्ष्य का और मार्ग का पता चल जाता है, और तब वह दूसरे-दूसरे छिद्रों को बंद करने के लिए उद्यत हो जाती है। मिथ्यात्व का छिद्र बन्द हो जाने पर आत्मा का झुकाव जब त्याग और वैराग्य की ओर होता है, तब सबसे पहले उसे हिंसा का छिद्र बन्द करना पड़ता है। इसी कारण श्रावक के बारह व्रतों में पहला स्थान अहिंसा को मिला है। जीवन में हिंसा के, दूसरों को पीड़ा पहुँचाने के जो भाव हैं, वह भी एक पड़ा छेद है। अहिंसा की आराधना करके उस छेद को हमें बन्द कर देना है। यह अहिंसा संवररूप है। मिथ्यात्व का छेद–आस्रव बन्द होने पर चौथा सम्यग्दृष्टि गुणस्थान आता है। शास्त्र के अनुसार इस गुणस्थान की भूमिका विचारों का बदल जाना है, आचार यहाँ नहीं बदलता। आचार को बदल डालने की स्पृहा, और भावना उत्पन्न हो जाती है, पर आचार बदलता नहीं है। __ हमारे जीवन के दो अङ्ग हैं—विचार और आचार। इन्हीं दो में हमारा सारा जीवन ओत-प्रोत है। पहले विचार आता है, और फिर आचार होता है। विचार, आचार का संचालक है। हो सकता है, कि कोई आदमी किसी प्रकार की अक्षमता के कारण अपने विचार के अनुसार आचरण न कर सके, किन्तु विचार के बिना आचार नहीं होता, और यदि होता है, तो वह विवेकपूर्ण आचार नहीं कहलाता, और उससे लक्ष्य की सिद्धि नहीं होती। अतएव आचार से पहले विचार चाहिए और विचार के बाद आचार भी होना चाहिए। जब दोनों का जीवन में पूरी तरह समावेश हो जाता है, Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ । उपासक आनन्द तो जीवन पूर्ण हो जाता है, और फिर कोई छेद नहीं रह जाता और वह छिद्र - रहित व सागर के किनारे लग जाती है । आस्रव को संवर से दूर किया जाता है। मगर जब हम इस दृष्टि से विचार करते हैं, तब सोचते हैं, कि इस अनादि भवभ्रमण का कारण विचार का न बदलना ही है। क्रोध का आना और चीज है, हिंसा करना, झूठ बोलना, लोभ-लालच होना, और अहंकार होना भी और चीज है, इन्हें अच्छा समझना और बुरा एवं हेय न समझना दूसरी चीज है। चौथे गुणस्थान की यही विशिष्टता है, कि उसका स्पर्श करने वाला हिंसा आदि को अच्छा समझना छोड़ देता है, वह उन्हें हेय समझने लगता है । वहाँ विचार और संकल्प का परिवर्तन हो जाता है । यह परिवर्तन कोई साधारण परिवर्तन नहीं है । अपनी मंजिल सेविरुद्ध दिशा में चलने वाला यात्री यदि अपनी दिशा बदल कर अनुकूल दिशा को ग्रहण करले, तो यह उसके लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात होगी। वह पहले भी चल रहा था, और अब भी चल रहा है; किन्तु पहले की चाल उसे लक्ष्य से दूर और दूरतर फेंकती जा रही थी, और अब वह लक्ष्य की ओर पहुँच रहा है । विरुद्ध दिशा में चलना बन्द कर देने पर यदि अनुकूल दिशा में गति न हो, तो भी कोई घाटे का सौदा नहीं है; क्योंकि ऐसा करने पर यदि लक्ष्य के समीप न पहुँचेगा तो कम से कम लक्ष्य से अधिक दूर तो नहीं हो जाएगा । सम्यग्दृष्टि प्राप्त हो जाने पर कम से कम इतना लाभ तो हो ही जाता है, कि मुक्ति के लक्ष्य से विरुद्ध दिशा में होने वाली गति रुक जाती है। लक्ष्योन्मुख हो जाता है। सम्यग्दृष्टि गुणस्थान की एक बड़ी यह महिमा मानी गई है, कि यदि जीवन में एक बार भी उसका स्पर्श हो जाए तो अनन्त संसार परीत हो जाता है, अर्थात् भवभ्रमण की अनन्तता मिट जाती है, और अधिक से अधिक अर्द्धपुद्गल - परावर्तन तक ही भ्रमण करना पड़ता है। एक अन्तर्मुहूर्त्त के लिए भी सम्यकत्व का प्रकाश मिल गया, और यदि वह गुम हो गया, तो भी वह दुबारा अवश्य मिलेगा, और आत्मा के समस्त बन्धनों को तोड़ कर फेंक देगा, तो मोक्ष प्राप्त करने का कारण बनेगा। अनादि काल से सदैव से अन्धकार ही अन्धकार में भटकने वाले आत्मा ने एक बार प्रकाश देख लिया —सूर्य की एक किरण क्षण भर के लिए उसके सामने चमक गई; यह क्या साधारण बात है। जिसने अन्धकार ही अन्धकार देखा है, और कभी प्रकाश नहीं देखा, उसके लिए अन्धकार ही सब कुछ है । वह अन्धकार को ही अपने जीवन की भूमिका मान रहा है। अन्धकार से उसे असन्तोष नहीं है, प्रकाश की उसे कल्पना ही नहीं, तो इच्छा होने का प्रश्न ही कहाँ है । किन्तु एक बार किसी दीवार में एक सूराख हो गया और सूर्य की सुनहरी किरण उसके सामने पहुँच गई, और चमचमाता हुआ प्रकाश उसने देख लिया। देखते ही भले वह प्रकाश अदृश्य हो Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन के छेद । १५३ गया, किन्तु फिर तो वह देखने वाला अन्धकार में छटपटाने लगता है। वह अन्धकार मे रहेगा, क्योंकि उसे प्रकाश में आने का रास्ता नहीं मिल रहा है; किन्तु वह अन्धकार को अन्धकार तो समझने लगा है। प्रकाश की कल्पना उसे आ गई है। अन्धकार में रहता हुआ भी वह प्रकाश में आने के लिए तरसता है। वह अन्धकार करने वाली दीवारों को गिरा देना चाहता है। एक प्रकार की आत्माएँ वे हैं, जिन्हें प्रकाश का दर्शन ही नहीं हुआ है। वे अन्धकार ही अन्धकार में हैं, और उनका भविष्य भी अन्धकार में है। दूसरे प्रकार की आत्माएँ वे हैं, जिन्हें एक बार प्रकाश मिल चुका है। ऐसी आत्माएँ चाहे फिर अन्धकार में डूब जाएँ, मगर उनका भविष्य प्रकाशमय है। वे अन्त तक अन्धकार में नहीं रहेंगी, और एक दिन महाप्रकाशमय बन जाएंगी। जो अंधकार को पार करके प्रकाश में वर्तमान है, वे सम्यग्दृष्टि हैं। क्रोध किया, अभिमान किया, लोभ-लालच किया, और उसको अच्छा समझ लिया। भूल की और उसे अच्छा समझ लिया। यहाँ तक मिथ्यात्व की भूमिका रही, सम्यग्दृष्टि की भूमिका आने पर हिंसा हुई; मगर उसे अच्छा नहीं समझा गया। असत्य बोला गया; किन्तु उसे अच्छा नहीं समझा गया। इस प्रकार समकित के आने पर विचारों की भूमिका बदल जाती है, विचारों की भूमिका बदलने से जीवन बदल जाता है, और पापों का अनन्त-अनन्त भाग खत्म हो जाता है। ___ परिस्थिति से विवश होकर हिंसा करना और बात है, और हिंसा करते हुए प्रसन्न होना और बाद में भी प्रसन्न होना और बात है। सम्यग्दर्शन के आने पर भी हिंसा का पाप बन्द नहीं हो जाता, किन्तु उस हिंसा को अच्छा समझने का अनन्त पाप खत्म हो जाता है। इसी प्रकार सम्यग्दर्शन के आने पर भी असत्य बोला जाता है, किन्तु उस असत्य को अच्छा समझने का जो महान् पाप है, वह समाप्त हो जाता है। पाप को पाप समझना और न करने का संकल्प करना । जीवन का विकास इसी तरीके से होता है। इससे विपरीत यदि कोई मनुष्य विचार तो बदलता नहीं, और आचार बदलने का दिखावा करता है, तो उसका क्या मूल्य है। आचार से पहले विचार बदल जाना चाहिए। विचार करो, कि आपके सामने ये जो वृक्ष खड़े हैं, क्या बेचारे असत्य बोलते हैं। चोरी करते हैं। या परिग्रह रख रहे हैं। एक चींटी रेंगती हुई चलती है, तो क्या हिंसा हो रही है। एकेन्द्रिय जीव को भाषा ही प्राप्त नहीं है, तो वह असत्य बोलेगी ही कैसे। फिर उसे असत्य भाषण आदि का पाप क्यों लगता है। इसका उत्तर यही है, कि एकेन्द्रिय जीव भले असत्य नहीं बोलता; किन्तु असत्य बोलने की उसकी वृत्ति अभी तक टूटी नहीं है। असत्य की वृत्ति टूट जाना, Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |९५४ | उपासक आनन्द । और चीज है, और न बोलना और चीज है। एक गूंगा भी झूठ नहीं बोलता है, फिर भी जब तक उसकी झूठ बोलने की वृत्ति नष्ट नहीं हुई है, वह सच्चा नहीं कहा जा सकता। अभिप्राय यह है, कि सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने पर पापों का छूट जाना आवश्यक नहीं, किन्तु पापों को पाप न समझने का जो महान् पाप है, वह अवश्य छूट जाता है। इसी को हम चौथे गुणस्थान में विचारों की भूमिका बदल जाना कहते हैं। विचारों की भूमिका जब बदल जाती है, तो आगे भी दौड़ लगने लगती है, और जब आचार पूर्ण हो जाता है, तो आत्मा सब प्रकार के बन्धनों से अलग हो जाती है, और मुक्ति प्राप्त कर लेती है। ____ आनन्द जब भगवान् महावीर के चरणों में आया, तब अपनी जीवन-नौका के छेदों को बन्द करने लगा। भगवान् ने कहा है कि अनन्त-अनन्त काल बीत चुका है इस संसार समुद्र में तैरते-तैरते, मगर अब तक इसे पार नहीं कर पाया है, और जब तक जीवन-नौका के छेदों को बन्द नहीं करोगे, तब तक पार नहीं पा सकते। भगवान् की यह वाणी सुन कर जीवन-नौका का मल्लाह आनन्द अपनी नौका को छोड़ रहा है, और छोड़ने से पहले, भगवान् के नेतृत्व में वह अपने छिद्रों को बन्द कर रहा है। उसने पहले मिथ्यात्व का छेद बन्द किया, और फिर हिंसा आदि के छेदों को। व्यवहार में साधु बन जाना, या श्रावक बन जाना कोई बड़ी बात नहीं है। बडी बात है, जीवन के छिद्रों का बंद हो जाना। जब जीवन-नौका के छिद्र बंद हो जाते हैं, तभी वह निर्विघ्न दूसरे किनारे तक पहुँच सकती है। आज साधु और श्रावक की भूमिका में भी नाव डूबती हुई-सी मालूम होती है, क्योंकि हम उन छेदों को बंद करने का प्रयत्न नहीं करते, और फिर भी तैर जाना चाहते हैं। यह संभव नहीं है। ऐसी नाव नहीं तैर सकती। वह बीच में डूबे बिना नहीं रह सकती। बड़े-बड़े आदर्शों की चर्चा आप कर लेते हैं, किन्तु जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रश्न ज्यों के त्यों अटके पड़े रहते हैं। इस प्रकार सारा जीवन छिद्रमय बना हुआ है, और चलनी की तरह हो रहा है। ऐसी छिद्रमय नाव किस प्रकार पार हो सकती है। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | जीवन के छेद । १५८ आप अपने व्यक्तिगत जीवन को जाँचने का प्रयास करें, और तटस्थ आलोचक की दृष्टि से उसकी आलोचना करें, तो मालूम होगा कि कितने छेद पड़े हुए हैं ! स्वार्थ और वासनाओं से जीवन चलनी बना हुआ है। इसी प्रकार पारिवारिक जीवन की नाव भी गड़बड़ी में पड़ी है। सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन भी छिद्रमय हो रहा है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति या समाज का उद्धार किस प्रकार हो सकता है। ___ अतएव सर्वप्रथम वासनाओं और स्वार्थों के छेदों को बंद करने के लिए सम्यग्दृष्टि प्राप्त करने की आवश्यकता है। सम्यग्दृष्टि प्राप्त होने पर अन्योन्य छिद्र भी बंद होते चले जाएंगे, और आपकी जीवन-नैया महाकल्याण की दिशा में अग्रसर होती चली जाएगी। कुन्दन-भवन ब्यावर, अजमेर १९-९-५० Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ZZZZZZZZZZZZZZZZTIZIIIIIIIIIIIIIIIIII मनुष्यत्व का विकास 777777777777777777777777777777777 जैन धर्म के अनुसार मनुष्यत्व की भूमिका चतुर्थ गुण स्थान सम्यग्दर्शन से प्रारम्भ होती है। सम्यग् दर्शन का अर्थ है—'सत्य के प्रति दृढ़ विश्वास!' हां तो सम्यक् दर्शन मानव जीवन की बहुत बड़ी विभूति है, बहुत बड़ी आध्यात्मिक उत्क्रान्ति है। अनादि काल से अज्ञान अन्धकार में पड़े हुए मानव को सत्य सूर्य का प्रकाश मिल जाना कुछ कम महत्त्व की चीज नहीं है। परन्तु मनुष्यता के पूर्ण विकास के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है। अकेला सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् दर्शन का सहचारी सम्यग् ज्ञान = सत्य की अनुभूति; आत्मा को मोक्षपद नहीं दिला सकते, कर्मों के बन्धन से पूर्णतया नहीं छुड़ा सकते। मोक्ष प्राप्त करने के लिए केवल सत्य का ज्ञान अथवा सत्य का विश्वास कर लेना ही पर्याप्त नहीं है। इसके साथ सम्यक् आचरण की भी बड़ी भारी आवश्यकता है। जैनधर्म का यह ध्रुव सिद्धान्त है कि "ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः।" अर्थात ज्ञान और क्रिया दोनों मिलकर ही आत्मा को मोक्षपद का अधिकारी बनाते हैं। भारतीय दर्शनों में न्याय, सांख्य, वेदान्त आदि कितने ही दर्शन केवल ज्ञान मात्र से मोक्ष मानते हैं; जबकि मीमांसक आदि दर्शन केवल आचार = क्रियाकाण्ड से ही मोक्ष स्वीकार करते हैं। परन्तु जैनधर्म ज्ञान और क्रिया दोनों के संयोग से मोक्ष मानता है, किसी एक से नहीं। यह प्रसिद्ध बात है कि रथ के दो चक्रों में से यदि एक चक्र न हो, तो रथ की गति नहीं हो सकती। तथा रथ का एक चक्र बड़ा और एक चक्र छोटा हो तब भी रथ की गति भलीभाँति नहीं हो सकती। एक पंख से आज तक कोई भी पक्षी आकाश में नहीं उड़ सका है। अस्तु, भगवान् महावीर ने स्पष्ट बतलाया है कि 'यदि तुम्हें मोक्ष की सुदूर भूमिका तक पहुँचना है, तो अपने जीवनरथ में ज्ञान और सदाचरण रूप दोनों ही चक्र लगाने होंगे। केवल लगाने ही नहीं, दोनों चक्रों में से किसी एक को मुख्य या गौण बनाकर भी काम नहीं चल सकेगा; ज्ञान और आचरण दोनों को ठीक बराबर सदढ रखना होगा।' ज्ञान और क्रिया की दोनों पंखों के बल पर ही, यह आत्मपक्षी, निश्रेयस की ओर ऊर्ध्वगमन कर सकता है। स्थानांग सूत्र में प्रभु महावीर ने चार प्रकार के मानव जीवन बतलाए हैं Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० । उपासक आनन्द (१) एक मानव जीवन वह है, जो सदाचार के स्वरूप को तो पहचानता है, परन्तु सदाचार का आचरण नहीं करता। (२) दूसरा वह है, जो सदाचार का आचरण तो अवश्य करता है, परन्तु सदाचार का स्वरूप भली-भाँति नहीं जानता। आँख बंद किए गति करता है। (३) तीसरा वह व्यक्ति है, जो सदाचार के स्वरूप को यथार्थ रूप से जानता भी है और तद्नुसार आचरण भी करता है। (४) चौथी श्रेणी का वह जीवन है, जो न सदाचार का स्वरूप जानता है और न सदाचार का कभी आचरण ही करता है। वह लौकिक भाषा में अन्धा भी है, और पाद-हीन पंगुला भी है। उक्त चार विकल्पों में से केवल तीसरा विकल्प ही जो सदाचार को जानने और आचरण करने का रूप है; मोक्ष की साधना को सफल बनाने वाला है। आध्यात्मिक जीवन-यात्रा के लिए ज्ञान के नेत्र और आचरण के पैर अतीव आवश्यक हैं। जैन परिभाषा में आचरण को चारित्र कहते हैं। चारित्र का अर्थ है-संयम, वासनाओं का = भोगविलासों का त्याग, इन्द्रियों का निग्रह, अशुभ प्रवृत्ति की निवृत्ति, शुभ प्रवृत्ति की स्वीकृति। ___ चारित्र के मुख्यतया दो भेद माने गए हैं—'सर्व' और 'देश'। अर्थात् पूर्ण रूप से त्याग वृत्ति, सर्व चारित्र है। और अल्पांश में अर्थात् अपूर्ण रूप से त्याग वृत्ति, देश चारित्र है। सर्वांश में त्याग महाव्रतरूप होता है—अर्थात् हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन और परिग्रह का सर्वथा प्रत्याख्यान साधुओं के लिए होता है। और अल्पांश में = अमुक सीमा तक हिंसा आदि का त्याग गृहस्थ के लिए माना गया है। प्रस्तुत प्रसंग में मुनिधर्म का वर्णन करना हमें अभीष्ट नहीं है। अत: सर्व चारित्र का वर्णन न करके देशचारित्र का, यानि गृहस्थ धर्म का ही वर्णन करते हैं। भूमिका की दृष्टि से भी गृहस्थ धर्म का वर्णन प्रथम अपेक्षित है। गृहस्थ जैन तत्वज्ञान में वर्णित गुण स्थानों के अनुसार आत्मविकास की पंचम भूमिका पर है, और मुनि छठी भूमिका पर। जैनागमों में गृहस्थ = श्रावक के बारह व्रतों का वर्णन किया गया है। उनमें पाँच अणुव्रत होते हैं। 'अणु' का अर्थ 'छोटा' होता है, और व्रत का अर्थ 'प्रतिज्ञा' है। साधुओं के महाव्रतों की अपेक्षा गृहस्थों के हिंसा आदि के त्याग की प्रतिज्ञा, मर्यादित होती है; अतः वह 'अणुव्रत' है। तीन गुणव्रत होते हैं। गुण का अर्थ है विशेषता। अस्तु, जो नियम पाँच अणुव्रतों में विशेषता उत्पन्न करते हैं, अणुव्रतों के पालन में उपकारक एवं सहायक होते हैं, वे 'गुणवत' कहलाते हैं। चार शिक्षा व्रत हैं। शिक्षा Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यत्व का विकास | १६१ का अर्थ शिक्षण अभ्यास है, जिनके द्वारा धर्म की शिक्षा ली जाय, धर्म का अभ्यास किया जाय, वे प्रतिदिन अभ्यास करने के योग्य नियम 'शिक्षाव्रत' कहे जाते हैं। पाँच अणुव्रत : (१) स्थूल हिंसा का त्याग — बिना किसी अपराध के व्यर्थ ही जीवों को मारने के विचार से, प्राणनाश करने के संकल्प से मारने का त्याग। मारने में त्रास या कष्ट देना भी सम्मिलित है। इतना ही नहीं, अपने आश्रित पशुओं तथा मनुष्यों को भूखा-प्यासा रखना, उनसे उनकी अपनी शक्ति से अधिक अनुचित श्रम लेना, किसी के प्रति दुर्भावना ढाह, आदि रखना भी हिंसा ही है। अपराध करने वालों की हिंसा का अथवा सूक्ष्म हिंसा का त्याग गृहस्थ धर्म में अशक्य है। (२) स्थूल असत्य का त्याग — सामाजिक दृष्टि से निन्दनीय एवं दूसरे जीवों को किसी भी प्रकार कष्ट पहुँचाने वाले झूठ का त्याग। झूठी गवाही, झूठी दस्तावेज, किसी का मर्म प्रकाशन, झूठी सलाह, फूट डलवाना एवं वर-कन्या सम्बन्धी और भूमि सम्बन्धी मिथ्या भाषण आदि अत्यधिक निषिद्ध माना गया है। (३) स्थूल चोरी का त्याग — चोरी करने के संकल्प से किसी की बिना आज्ञा चीज उठा लेना चोरी है। इसमें किसी के घर में पाड़ देना, दूसरी ताली लगाकर ताला खोल लेना, धरोहर मार लेना, चोर की चुराई हुई चीजें ले लेना, राष्ट्र द्वारा लगाई हुई चुङ्गी आदि मार लेना, न्यूनाधिक नाप बाँट रखना, असली वस्तु के स्थान में नकली वस्तु दे देना आदि सम्मिलित हैं। (४) स्थूल मैथुन = व्यभिचार का त्याग — अपनी विवाहिता स्त्री को छोड़कर अन्य किसी भी स्त्री से अनुचित सम्बन्ध न करना, मैथुन त्याग है। स्त्री के लिए भी अपने विवाहित पति को छोड़कर अन्य पुरुषों से अनुचित सम्बन्ध के त्याग करने का विधान है। अपनी स्त्री या अपने पति से भी अनियमित संसर्ग रखना, काम भोग की तीव्र अभिलाषा रखना, अनुचित कामोद्दीपक शृङ्गार करना आदि भी ब्रह्मचर्य के लिए दूषण माने गये हैं। (५) स्थूल परिग्रह का त्याग — गृहस्थ से धन का पूर्ण त्याग नहीं हो सकता। अतः गृहस्थ को चाहिए कि वह धन, धान्य, सोना, चाँदी, घर, खेत, पशु आदि जितने भी पदार्थ हैं अपनी आवश्यकतानुसार उनकी एक निश्चित मर्यादा करले । आवश्यकता से अधिक संग्रह करना पाप है । व्यापार आदि में यदि निश्चित मर्यादा से कुछ अधिक धन प्राप्त हो जाय तो उसको परोपकार में खर्च कर देना चाहिए। तीन गुणव्रतः (१) दिग्व्रत = पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं में दूर तक जाने का परिमाण करना अर्थात् अमुक दिशा में अमुक प्रदेश तक इतनी कोसों तक जाना, आगे नहीं । यह व्रत Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |१६२ । उपासक आनन्द | मनुष्य की लोभ व्रत्ति पर अंकुश रखता है, हिंसा से बचाता है। मनुष्य व्यापार आदि के लिए दूर देशों में जाता है, वहाँ की प्रजा का शोषण करता है। जिस किसी भी उपाय से धन कमाना हो जब मुख्य हो जाता है, तो एक प्रकार से लूटने की मनोवृत्ति हो जाती है। अतएव जैनधर्म का सूक्ष्म आचार शास्त्र इस प्रकार की मनोवृत्ति में भी पाप देखता है। वस्तुतः पाप है भी। शोषण से बढ़कर और क्या पाप होगा? आज के युग में यह पाप बहुत बढ़ चला है। दिग्व्रत इस पाप से बचा सकता है। शोषण की भावना से न विदेशों में अपना माल भेजना चाहिए, और न विदेश का माल अपने देश में लाना चाहिए। (२) भोगोपभोग परिणाम व्रत = जरूरत से ज्यादा भोगोपभोग सम्बन्धी चीजें काम में न लाने का निमय करना, प्रस्तुत व्रत का अभिप्राय है। भोग का अर्थ एक ही बार काम में आने वाली वस्तु है। जैसे--अन्न, जल विलेपन आदि। उपभोग का अर्थ बार-बार काम में आने वाली वस्तु है। जैसे मकान, वस्त्र, आभूषण आदि। इस प्रकार अन्न, वस्त्र आदि भोग विलास की वस्तुओं की आवश्यकता के अनुसार परिमाण करना चाहिए। साधक के लिए जीवन को भोग के क्षेत्र में सिमटा हुआ रखना अतीव आवश्यक है। अनियंत्रित जीवन पशुजीवन होता है। (३) अनर्थदण्ड विरमण व्रत = बिना किसी प्रयोजन के व्यर्थ ही पापाचरण करना, अनर्थ दण्ड है। श्रावक के लिए इस प्रकार अशिष्ट भाषण, आदि का तथा किसी को चिडाने आदि व्यर्थ की चेष्टाओं का त्याग करना आवश्यक है। काम वासना को उद्दीप्त करने वाले सिनेमा देखना, गंदे उपन्यास पढ़ना, गंदा मजाक करना, व्यर्थ ही शस्त्रादि का संग्रह कर रखना आदि अनर्थ दण्ड में सम्मिलित हैं। चार शिक्षा व्रत: (१) सामायिक = दो घड़ी तक पापकारी व्यापारों का त्याग कर समभाव में रहना सामायिक है। राग द्वेष बढ़ाने वाली प्रवृत्तियों का त्याग कर मोह माया के दुःख संकल्पों को हटाना, सामायिक का मुख्य उद्देश्य है। (२) देशावकाशिक = जीवन भर के लिए स्वीकृत दिशा परिमाण में से और भी नित्य प्रति गमनादि की सीमा कम करते रहना, देशावकाशिक व्रत है। देशावकाशिक व्रत का उद्देश्य जीवन को नित्य प्रति की बाह्य प्रदेशों में आसक्ति रूप पाप क्रियाओं से बचाकर रखना है। (३) पौषधव्रत = एक दिन और एक रात के लिए अब्रह्मचर्य, पुष्प-माला आदि शृङ्गार, शस्त्र धारण आदि सांसारिक पापयुक्त प्रवृत्तियों को छोडकर, एकांत स्थान में साधु-वृत्ति के समान धर्म-क्रिया में आरूढ़ रहना, पौषधव्रत है। यह धर्मसाधना निराहार भी होती है, और शक्ति न हो तो अल्प प्रासुक भोजन के द्वारा भी की जा सकती है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यत्व का विकास । १६३ | (४) अतिथि-संविभाग व्रत = साधु श्रावक आदि योग्य सदाचारी अधिकारियों को उचित दान करना, प्रस्तुत व्रत का स्वरूप है। संग्रह ही जीवन का उद्देश्य नहीं है। संग्रह के बाद यथावसर अतिथि की सेवा करना भी मनुष्य का महान कर्तव्य है। अतिथि-संविभाग का एक लघु रूप, हर किसी भूखे गरीब की अनुकंपा बुद्धि से सेवा करना भी है, यह ध्यान में रहे। मनुष्यता के विकास की यह प्रथम श्रेणी पूर्ण होती है। दूसरी श्रेणी साधु जीवन की है। यह साधु जीवन की श्रेणी, छठे गुण स्थान से प्रारम्भ होकर तेरहवें गुणस्थान में कैवल्य ज्ञान प्राप्त करने पर अन्त में चौदहवें गुणस्थान में पूर्ण होती है। चौदहवें गुणस्थान की भूमिका तय करने के बाद कर्म मल का प्रत्येक दाग साफ हो जाता है, आत्मा पूर्णतया शुद्ध, स्वच्छ एवं स्वस्वरूप में स्थित हो जाता है, फलतः सदाकाल के लिए स्वतंत्र होकर एवं जन्म जरा मरण आदि के दुःखों से पूर्णतया छुटकारा पाकर मोक्ष-दशा को प्राप्त हो जाता है, परम = उत्कृष्ट आत्मा परमात्मा बन जाता है। हमारे पाठक अभी गृहस्थ हैं। अत: उनके समक्ष हम साधुजीवन की भूमिका की बात न करके पहले उनकी ही भूमिका का स्वरूप रख रहे हैं। आपने देख लिया कि गृहस्थधर्म के बारह व्रत हैं। सभी व्रत अपनी-अपनी मर्यादा में उत्कृष्ट हैं। परन्तु यह स्पष्ट है कि नौंवे सामायिक व्रत का महत्त्व सबसे महान माना गया है। सामायिक का अर्थ समभाव है। अतः सिद्ध है कि जब तक हृदय में समभाव न हो, राग द्वेष की परिणति कम न हो, तब तक उग्रतप एवं जप आदि की साधना कितनी ही क्यों न की जाय, आत्मशुद्धि नहीं हो सकती। वस्तुतः समस्त व्रतों में सामायिक ही मोक्ष का प्रधान अंग है। अहिंसा आदि ग्यारह व्रत इसी समभाव के द्वारा जीवित रहते हैं । गृहस्थ जीवन में प्रतिदिन अभ्यास की दृष्टि से दो घड़ी तक यह सामायिक व्रत किया जाता है। आगे चलकर मुनिजीवन में यावज्जीवन के लिए धारण कर लिया जाता है। अत: पंचम गुण स्थान से लेकर चौदहवें गुण स्थान तक एकमात्र सामायिक व्रत की ही साधना की जाती है। मोक्ष अवस्था में, जबकि साधना समाप्त होती है, समभाव पूर्ण हो जाता है और इस समभाव के पूर्ण हो जाने का नाम ही मोक्ष है। यही कारण है कि प्रत्येक तीर्थंकर मुनिदीक्षा लेते समय कहते हैं कि मैं सामायिक ग्रहण करता हूँ-करेमि सामाइयं-कल्पसूत्र और केवल ज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद प्रत्येक तीर्थंकर सर्वप्रथम जनता को इसी महान व्रत का उपदेश करते हैं-सामाइयाइया....... - एसो धम्मो वादो जिणेहि सव्वेहि उवइट्ठो, आवश्यक नियुक्ति। जैन दार्शनिक जगत के महान ज्योतिर्धर श्री यशोविजयजी सामायिक को सम्पूर्ण द्वादशांग जिन वाणी का रहस्य बातते हैं-सकल द्वादशाङ्गोपनिषद् भूत सामायिक सूत्रवत्-तत्वार्थटीका। अस्तु मनुष्यता के पूर्ण विकास के लिए सामायिक एक सर्वोच्च साधन है। अत: हम आज पाठकों के समक्ष इसी सामायिक के शुद्ध स्वरूप का विवेचन करना चाहते हैं। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TR11ZZZZZINIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII शमभावना 77777777777777WTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTT - मानव जीवन में भावना का बड़ा भारी महत्त्व है। मनुष्य अपनी भावनाओं से ही बनता बिगड़ता है। हजारों लोग दुर्भावनाओं के कारण मनुष्य के शरीर को पाकर राक्षस बन जाते हैं, और हजारों पवित्र विचारों के कारण देवों से भी ऊँची भूमिका प्राप्त कर लेते हैं एवं देवों के भी पूज्य बन जाते हैं। मनुष्य श्रद्धा का, विश्वास का, भावना का बना हुआ है; जो जैसा सोचता है, विचारता है, भावना करता है, वह वैसा ही बन जाता है। श्रद्धामयोऽयं पुरुष: यो यच्छ्रद्धः स एव सः'-गीता। 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी। सामायिक एक पवित्र व्रत है। दिन-रात का चक्र योंही संकल्प-विकल्पों में, इधर-उधर की उधेड़ बुन में निकल जाता है। मनुष्य को सामायिक करते समय दो घड़ी ही शान्ति के लिए मिलती हैं। यदि इन दो घड़ियों में भी मन को शान्त न कर सका, पवित्र न बना सका तो फिर वह कब पवित्रता की उपासना करेगा! अतएव प्रत्येक जैनाचार्य सामायिक में शुभ भावना भाने के लिए आज्ञा प्रदान कर गए हैं! पवित्र संकल्पों का बल अन्तरात्मा को महान् आध्यात्मिक शक्ति एवं विशुद्धि प्रदान करता है। आत्मा से परमात्मा के, नर से नारायण के पद पर पहुँचने का, यह विशुद्ध विचार ही स्वर्ण सोपान है। सामायिक में विचारना चाहिए कि-'मेरा वास्तविक हित एवं कल्याण, आत्मिक सुख शान्ति के पाने एवं अन्तरात्मा को विशद्ध बनाने में ही है। इन्द्रियों के भोगों से मेरी मनस्तृप्ति कदापि नहीं हो सकती।' सामायिक के पथ पर अग्रसर होने वाले साधक को सुख की सामग्री मिलने पर हर्षोन्मत्त नहीं होना चाहिए और दुःख की सामग्री मिलने पर व्याकुल नहीं होना चाहिए, घबड़ाना नहीं चाहिए। सामायिक का सच्चा साधक सुख-दुःख को समभाव से भोगता है, दोनों को धूप तथा छाया के समान क्षणभंगुर मानता है। सामायिक की साधना हृदय को विशाल बनाने के लिए भी है। अतएव जब तक साधक का हृदय विश्व प्रेम से परिप्लावित नहीं हो जाता, तब तक साधना का सुन्दर रंग निखर ही नहीं पाता। हमारे प्राचीन आचार्यों ने सामायिक के समभाव की परिपुष्टि के लिए चार भावनाओं का वर्णन किया है... मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ्य। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ भावना ॥ १६५ सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्। मध्यस्थभावं विपरीति वृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव। -आचार्य अमितगति, सामायिक पाठ (१) मैत्री भावना-संसार के समस्त प्राणियों के प्रति नि:स्वार्थ प्रेमभाव रखना; अपनी आत्मा के समान ही सबको सुख-दुःख की अनुभूति करने वाले समझना, मैत्री भावना है। जिस प्रकार मनुष्य अपने किसी विशिष्ट मित्र की हमेशा भलाई चाहता है, जहाँ तक अपने से हो सकता है समय पर भलाई करता है, दूसरों से उसके लिए भलाई करवाने की इच्छा रखता है, उसी प्रकार जिस साधक का हृदय मैत्री भावना से परिपूरित हो जाता है, वह भी प्राणीमात्र की भलाई करने के लिए बहुत उत्सुक रहता है, सबको अपनेपन की बुद्धि से देखता है। वह किसी को भी किसी भी तरह का कष्ट नहीं देना चाहता। उसकी आदर्श भावना यही रहती है कि "मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि पश्यामहे ।" अर्थात् 'मैं सब जीवों को मित्र की आँख से देखता हूँ, मेरा किसी से भी विरोध नहीं है, सबके प्रति प्रेम है।" (२) प्रमोद भावना-गुणवानों को, सज्जनों को, धर्मात्माओं को देखकर प्रेम से गद्गद हो जाना, मन में प्रसन्न हो जाना, प्रमोद भावना है। कई बार ऐसा होता है कि मनुष्य अपने से धन सम्पत्ति, सुख वैभव, विद्या, बुद्धि अथवा धार्मिक भावना आदि में अधिक बढ़े हुए उन्नतिशील साथी को देखकर ईर्ष्या करने लगता है। यह मनोवृत्ति बड़ी ही दूषित है। जब तक इस मनोवृत्ति का नाश न हो जाय, तब तक अहिंसा सत्य आदि कोई भी सद्गुण अन्तरात्मा में टिक नहीं सकता। इसीलिए भगवान् महावीर ने ईर्ष्या के विरुद्ध प्रमोद भावना का मोर्चा लगाया है। ___ इस भावना का यह अर्थ नहीं कि आप दूसरों को उन्नत देखकर किसी प्रकार का आदर्श ही न ग्रहण करें, उन्नति के लिए प्रयत्न ही न करें, और सदा दीन हीन ही बने रहें। दूसरों के अभ्युदय को देखकर यदि अपने को भी वैसा ही अभ्युदय इष्ट हो, तो उसके लिए न्याय नीति के साथ प्रबल पुरुषार्थ होना चाहिए, उनको आदर्श बनाकर दृढ़ता से कर्म पथ पर अग्रसर होना चाहिए। शास्त्रकार तो यहाँ दुर्बल मनुष्यों के हृदय में दूसरों के अभ्युदय को देखकर जो ढाह होता है, केवल उसे दूर करने का आदेश देते हैं। ___ मनुष्य का कर्तव्य है कि वह सदैव दूसरों के गुणों की ओर ही अपनी दृष्टि रखे, दोषों की ओर नहीं। गुणों की ओर दृष्टि रखने से गुण-ग्राहकता के भाव उत्पन्न होते हैं, ओर दोषों की ओर दृष्टि रखने से अन्तःकरण पर दोष ही दोष छा जाते हैं। मनुष्य Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६। उपासक आनन्द जैसा चिन्तन करता है, वैसा ही बन जाता है। अतः प्रमोद भावना के द्वारा प्राचीन काल के महापुरुषों के उज्जवल एवं पवित्र गुणों का चिन्तन हमेशा करते रहना चाहिए। गज सुकुमार मुनि की क्षमा, धर्मरुचि मुनि की दया, भगवान् महावीर का वैराग्य, शालिभद्र का दान किसी भी साधक को विशाल आत्मिक शक्ति प्रदान करने के लिए पर्याप्त है। (३) करुणा भावना-किसी दीन दुखी को पीड़ा पाते हुए देखकर दया से गद्गद हो जाना, उसे सुख शान्ति पहुँचाने के लिए यथाशक्ति प्रयत्न करना, अपने प्रिय से प्रिय स्वार्थ का बलिदान देकर भी उसका दुःख दूर करना, करुणा भावना है। अहिंसा की पुष्टि के लिए करुणा भावना अतीव आवश्यक है। बिना करुणा के अहिंसा का अस्तित्व कथमपि नहीं हो सकता। यदि कोई बिना करुणा के अहिंसक होने का दावा करता है, तो समझ लो वह अहिंसा का उपहास करता है। करुणाहीन मनुष्य, मनुष्य नहीं, पशु होता है। दुखी को देखकर जिसका हृदय नहीं पिघला, जिसकी आँखों से आँसुओं की धारा नहीं बही, वह किस भरोसे पर अपने को धर्मात्मा समझता है। (४) माध्यस्थ्य भावना जो अपने से असहमत हों, विरुद्ध हों, उन पर भी द्वेष न रखना, उदासीन अर्थात् तटस्थ भाव रखना; मध्यस्थ भावना है। कभी-कभी ऐसा होता है कि साधक को बिल्कुल ही संस्कार-हीन एवं धर्म-शिक्षा ग्रहण करने के सर्वथा अयोग्य क्षुद्र, क्रूर, निन्दक, विश्वासघाती, निर्दयी, व्यभिचारी तथा वक्र स्वभाव वाले मनुष्य मिल जाते हैं, और पहले पहल साधक बड़े उत्साह भरे हृदय से उनको सुधारने का, धर्म पथ पर लाने का प्रयत्न करता है; परन्तु जब उनके सुधारने के सभी प्रयत्न निष्फल हो जाते हैं, तो मनुष्य सहसा उद्विग्न हो उठता है, क्रुद्ध हो जाता है, विपरीताचरण वालों को अपशब्द तक कहने लगता है। भगवान् महावीर मनुष्य की इस दुर्बलता को ध्यान में रखकर माध्यस्थ्य भावना का उपदेश करते हैं कि संसार-भर को सुधारने का केवल अकेले तुमने ही ठेका नहीं ले रखा है। प्रत्येक प्राणी अपने-अपने संस्कारों के चक्र में है। जब तक भव-स्थिति का परिपाक नहीं होता है, अशुभ संस्कार क्षीण होकर शुभ संस्कार जागृत नहीं होता है, तब तक कोई सुधर नहीं सकता। तुम्हारा काम तो बस प्रयत्न करना है सुधरना और न सुधरना, यह तो उसकी स्थिति पर है। प्रयत्न करते रहो, कभी तो अच्छा परिणाम आएगा ही। विरोधी और दुश्चरित्र व्यक्ति को देखकर घृणा भी नहीं करनी चाहिए। ऐसी स्थिति में माध्यस्थ्य भावना के द्वारा समभाव रखना, तटस्थ हो जाना ही श्रेयस्कर है। प्रभु महावीर को संगम आदि देवों ने कितने भयंकर कष्ट दिए, कितनी मर्मान्तक पीड़ा पहुँचाई; किन्तु भगवान् की माध्यस्थ्यं वृत्ति पूर्ण रूप से अचल रही। उनके हृदय में विरोधियों के प्रति जरा भी क्षोभ एवं क्रोध नहीं हुआ। वर्तमान युग के संघर्षमय वातावरण में माध्यस्थ्य भावना की बड़ी भारी आवश्यकता है। . Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIA - भारतीय जीवन और योग 58688055055000 2 01005066867608850898 220256896548565000000000000000 BRA988599437 6 : 00-25505868852686808080823 2008688888888560566600303082958 8dudies भारतीय संस्कृति की अनेकानेक विशेषताओं में, योग अपना पृथक महत्त्व रखता है। जिस प्रकार हमें सृष्टि का कण-कण ईश्वरी सत्ता से संबलित दिखाई पड़ता है, उसी प्रकार योग का क्षेत्र भी हमारे लिये कभी संकुचित नहीं रहा। हमारी दृष्टि में एक सिरे पर ईश्वर है तो दूसरे सिरे पर योग। ईश्वर ने योग का आधार लेकर सृष्टिरचना की, यह वैदिक-परम्परा का शाश्वत-चिन्तन है। वैदिक काल से लेकर पुराण और इतिहास काल की सीमा योग में परिसमाप्त होती है। विदेशियों की दृष्टि में भारत सर्वथा योग-साधक देश रहा है। भारतीय-संस्कृति में योग एक रहस्य बनकर समाया हुआ है। चीनी यात्री हुएनत्सांग अपने यात्रा-वृत्तान्त में भारतीय योगियों की चर्चा एक मुग्ध दर्शक के रूप में करता है। हमारे लिये यहाँ योग शब्द का अर्थ विचारणीय है। इस शब्द की निष्पित्ति 'युज्' धातु से हुई है, 'युज' का अर्थ है---जोड़ना। इस प्रकार जो चेतना को साध्य के साथ जोड़ दे, वही योग है। साधन विभिन्नता के आधार पर योग के विभिन्न रूप हमें दिखाई पड़ते हैं। आत्मयोग, ज्ञानयोग भक्ति-योग, प्रेम-योग और कर्म-योग से लेकर भौतिक योग तक सीधी रेखा खींची जा सकती है। योग के सहारे भारतीय साधकों ने आत्म-दर्शन की उपलब्धि तो की ही है, साथ ही भौतिक सिद्धियों का भी लाभ उठाया है। योग-प्रवर्तक भगवान् शिव ने योग को सर्वथा भात्मदर्शन का साधन माना, उसे कभी अध्यात्म जगत से बाहर जाने का अवसर नहीं दिया, किन्तु आगे चलकर इसकी शत-शत धाराएँ फूट निकलीं। योगेश्वर कृष्ण के द्वारा रणभूमि में प्रथम बार योग का सम्बन्ध कर्म के साथ जुड़ा। अर्जुन को कर्मपथ पर आरूढ़ करने के लिये योगेश्वर ने वहाँ सहज भाव से 'व्याप्ति' का सहारा लिया। अपने ही सखा का विश्व रूप देखकर अर्जुन का मोह दूर हो गया। गीता ज्ञान की आवश्यकता ही उसके लिये नहीं रह गई, योगेश्वर ने उसे वह सम्बल भविष्य जीवन के लिए दिया। जो हो, आगे चल कर योग की गंगा सर्वथा समतल भूमि पर आ गई। योगी दत्त तथा मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ आदि ने योग का सम्बन्ध पंचभूतात्मक सिद्धियों के साथ जोड़ दिया। योगी दत्त का रस-सम्प्रदाय एवं नाथ पंथियों का हठयोग दोनों ही अपने Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ । उपासक आनन्द | आकर्षणों को लेकर भारत व्यापी हो उठे। चिन्तकों की दृष्टि में यह काल योग का उत्कर्ष काल है, किन्तु अनुभवी साधकों की धारणा इसके विपरीत है। __ यह बताने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, कि विकास मार्ग पर बढ़ने वाला भारतीय योग उत्तरोत्तर जटिल से जटिलतर होता गया। आत्म-योग, ज्ञान-योग, भक्ति-योग, प्रेम-योग और कर्म-योग की भावनात्मक सरलता उससे दूर जा पड़ी, साधकों की साधना कठिन पड़ गई। योग के अंग, ध्यान के प्रकार तथा क्रियाओं में पूर्व की सहजता नहीं रही। शिष्य को पग-पग पर उच्चकोटि के साधक गुरु की आवश्यकता आ खड़ी हुई। गुरु की अनुज्ञा प्राप्त किये बिना तथा अपने अधिकार को समझे बिना पंचभूतों से सम्बद्ध योग की साधना सर्वथा निषिद्ध बताई गई। अस्तु, इस पुनरुत्थान युग में हमारे लिये योग को मूल रूप में ग्रहण करना ही श्रेयस्कर होगा। मात्र हठ-योग की लौकिक सिद्धियों के पीछे दौड़ने वाले आखिर में अपने को सर्वथा विफल ही अनुभव करते हैं। उच्चकोटि के साधक गुरु की प्राप्ति के बाद भी हमें आत्म-योग की ही साधना करनी चाहिए। योग मार्ग पर चलने वाले साधकों को सभी ने गहन मार्ग का पथिक बताया है। इस मार्ग में सफलता के लिए उत्कट लगन की आवश्यकता पड़ती है। शास्त्राभ्यास, गुरु से प्राप्त ज्ञान तथा आत्म-संवेदन की पूँजी तीनों को ही हेमचन्द्राचार्य योगसाधकों का मार्ग-संबल मानते हैं। इनमें से एक का भी अभाव साधक को निरस्त कर सकता है। आनन्दघनजी ने तो नमिनाथ-स्तुति में समय पुरुष के अंगों की गणना करते हुए सूत्र, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि तथा वृत्ति का उल्लेख किया ही है, परम्परा से प्राप्त अनुभव अथवा साम्प्रदायिक ज्ञान को भी आवश्यक बताया है। इन अंगों में से एक की भी अवगणना करने वाले को वे दुर्भव्य कहते हैं। परम्परा से प्राप्त ज्ञान के प्रति उपेक्षा दिखाने वाला तथा अपने अखण्ड अभ्यास को ही महत्त्व देने वाला साधक आनन्दघनजी की दृष्टि में आत्मवंचक भर है, और कुछ नहीं। योग शब्द की व्याख्या-किंचित् कथन-विभेद के साथ विभिन्न योग-सम्प्रदायों में समान रूप से ही गृहीत हुई है। पातंजल योग-दर्शनकार योग की व्याख्या करते हैं—'योगः चित्त-वृत्ति निरोधः।" चित्तवृत्ति के निरोध को योग बताने वाले पतंजलि की दृष्टि में क्रिया का महत्त्व उद्भासित है, तो जैन भाष्यकार 'युज्यते इति योगः' कहते हुए योग शब्द के मूल अर्थ पर जोर देते हैं। साध्य के साथ चित्त को जोड़ने वाला योग है—यह पातंल व्याख्या का उदाहरण है। जैन भाष्यकार की व्याख्या साधकों के हृदय तक अनायास ही पहुँचती है। यह स्पष्ट है कि योग शब्द का रूप दोनों ही व्याख्याकारों के समक्ष एक है। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय जीवन और योग । १६९/ योग का लक्ष्य चमत्कारिक सिद्धियों की उपलब्धि किसी भी अवस्था में नहीं है, इसे प्रत्येक साधक को प्रारम्भ में ही हृदयंगम कर लेना चाहिए। जीव अनन्त शक्ति का स्वामी है, उसका आत्म-स्वरूप महान है। अत: उसका लक्ष्य तो अपनी शक्ति का ज्ञान तथा आत्म-स्वरूप का दर्शन ही हो सकता है। नगण्य सिद्धियाँ तो साधक के पीछे-पीछे स्वयं डोला करती हैं। कृष्ण, महावीर तथा बुद्ध की साधना ने उन्हें भगवान् के आसन पर आसीन कर दिया, सिद्धियों की ओर वैसे महान् साधकों की दृष्टि ही कैसे उठ सकती थी? फिर भी उनके जीवन में हमें चमत्कारों का भण्डार दिखाई पड़ता है। मनः पर्याय ज्ञान की सिद्धि भगवान् महावीर को जीवन के प्रारम्भ में ही मिल जाती है, किन्तु वे तो अपने लक्ष्य की ओर आगे ही बढ़ते जाते हैं तुच्छ तेजोलेश्या की सिद्धि पर गर्व का भाव गोशालक जैसा पथ-भ्रष्ट साधक ही कर सकता है। भगवान् महावीर पर तेजोलेश्या का प्रयोग कर उसे क्या फल भुगतना पड़ा—यह किसी से छिपा नहीं है। कभी-कभी सचेत साधक भी सिद्धियों के जाल में फंसकर सर्वथा पतनगर्त में जा गिरता है। केवल एक शलाका खींचकर साढ़े बारह करोड़ स्वर्ण मुद्रा की वृष्टि कराने वाले नंदीषेण का योग कितना उत्कृष्ट होना चाहिए, इसका अनुमान कोई भी लगा सकता है, किन्तु पौद्गलिक सिद्धि का लाभ उन्हें योग-भ्रष्ट करने में आगे आ खड़ा हुआ। साधक के लिए सिद्धियों का प्रलोभन बड़ा ही घातक सिद्ध होता है। सिद्धियों के प्रयोग से साधक को सदा ही दूर रहना चाहिए। चक्रवर्ती सनत्कुमार अपने साधक-जीवन में कुष्ठ व्याधि की भयानक पीड़ा को सहन करते रहे, किन्तु उन्होंने अपनी सिद्धि का प्रयोग अपने लिए भी नहीं किया। उनके पास उपलब्धि थी, कि वे अपने ही थूक से अपनी काया को कंचन-सी बना सकते थे। __ पौद्गलिक जगत में आसक्त तथा चमत्कार से अपनी धाक जमाने की कामना रखने वाले साधक कभी योगी की गरिमा नहीं अपना सकते। योग-शास्त्र के प्रथम प्रस्ताव की अष्टम गाथा की टीका में बताया गया है कि योग की प्रक्रिया से अनेकानेक सिद्धियाँ सहज में ही प्राप्त हो सकती हैं, किन्तु केवल उन्हें प्राप्त करने के लिए योग की साधना कभी नहीं करनी चाहिए। योग का उद्देश्य सदा ही उत्कर्षमूलक होना चाहिए, शुद्ध आत्मदशा की उपलब्धि के लिए ही साधक को योग का आश्रय लेना चाहिए। चमत्कारिक सिद्धियों का वर्णन योगशास्त्र में हुआ है, किन्तु इन सभी सिद्धियों को पुरुष साक्षात्कार कराने वाले, आत्मरूप दर्शन का अवसर लाने वाले संप्रज्ञात योग का प्रतिबन्धक बताया गया है। साधक का मन जब तक विषयों से निवृत्त नहीं हो जाता, तब तक उसमें एकाग्रता का अभाव बना रहेगा और वह साध्य के साथ एकात्म नहीं होगा। सिद्धियाँ सदा ही साधक को विषय-भोग की ओर Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० । उपासक आनन्द आकष्ट करती रहती हैं, अन्ततः उसका हृदय-बल क्षीण हो जाता है। स्थिरता का स्थान चंचलता ले लेती है। पतंजलि तथा हेमचन्द्राचार्य दोनों ने ही सिद्धियों की भर्त्सना की है। जैन-जगत के श्रेष्ठ साधक श्रीमद् रायचन्द्र ने योग-साधकों की भावनामूलक स्थिति पर विचार करते हुए उन्हें तीन श्रेणियों में बाँटा है। वे कहते हैं "मन्द विषय ने सरलता, सह आज्ञा सुविचार। करुणा कोमलतादि गुण, प्रथम भूमिका धार। रोक्या शब्दादिक विषय, संयम साधन राग। जगत इष्ट नहिं आत्म थी, मध्य पात्र महाभाग्य। नहिं तृष्णा जीव्यातणी, मरण योग नहिं क्षोभ। महापात्र ते मार्गना, परम योग जित लोभ।" जिसकी विषयाशक्ति मन्द पड़ चुकी है, जो गुरु की आज्ञानुसार अपने को उपासना में एकरस बना चुका है, जिसमें दया-मृदुता आदि गुणों की सुलभता है, वह साधक प्रथम भूमिका में पहुंच चुका है। जिसने शब्द स्पर्श, रस आदि पंचेन्द्रिय के भोगों को भुला दिया है, मन की वृत्ति का निरोध जिसके लिए कठिन नहीं रह गया है, जिसको दृष्टि संसार से हटकर आत्मोन्मुखी हो चुकी है, वह महाभागी साधक मध्य भूमिका में है, ऐसा जानना चाहिए। फिर, जिसके हृदय से जीवन की तृष्णा और मरण का दुःख —दोनों ही मिट चुके हैं; जो जीवन-मृत्यु का विभेद भुला चुका है, वह योग-मार्ग की भूमिका में निश्चित रूप से सर्वोत्कृष्ट अधिकारी सिद्ध है। योग-साधकों को यह तथ्य सदा ही हृदय में रखना है, कि योग की क्रिया द्वैतवाद की भूमि से प्रारम्भ होती है और उसका अन्त अद्वैतवाद में होता है। द्वैत के अभाव में योग की भावना पनप ही नहीं सकती है। योग के प्रथम सोपान-ध्यान क्षेत्र में अद्वैतवादी साधक को भी द्वैत की धारणा अपनानी ही पड़ेगी। साध्य को अपने से पृथक रख कर ही कोई साधक अपनी क्रिया आगे बढ़ा सकता है। इतना ही क्यों, वह यदि अपने लिए साध्य भी सर्वथा समीप का और स्थूल चुने तो श्रेष्ठ है। निर्गुण की पूँजी प्रथम अवस्था में काम नहीं देगी। प्रथम अवस्था में निर्गुण को अपने ध्यान में स्थित करना असम्भव नहीं, तो अत्यन्त कठिन अवश्य है। साधक को ऐसे प्रयोग में विफलता ही मिलेगी। प्रबुद्ध साधक का ध्यान, साध्य रूप गुरु से प्रारम्भ होता है। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय जीवन और योग । १७१ इस प्रकार सगुण-उपासना का रहस्य साधनाभूमि में स्वयं स्पष्ट हो जाता है । ज्योंज्यों योग की भूमिका बदलेगी साधक स्वयं ही पिछली क्रियाओं को भुला देगा। भारतीयों के वर्तमान अशान्त जीवन में शान्ति संचार योग-भाव से ही संभव है । योग भारतीयों की पैतृक विभूति है, इससे लाभ उठाने के लिए उन्हें तत्पर हो जाना चाहिए। योग का आधार अपनाकर वे अपने को तो समझेंगे ही, प्राणिमात्र से उनका स्नेह-सम्बन्ध जुड़ जायेगा । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ QUIMINIMIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIITITZZ ध्यान-योग साधना IIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIL 38 योग-साधना ध्यान, चेतना की वह अवस्था है, जहाँ समग्र अनुभूतियाँ एक ही अनुभूति में विलीन हो जाती हैं। विचारों में सामंजस्य आ जाता है। परिधि टूट जाती है और भेद-रेखा मिट जाती है। जीवन और स्वतन्त्रता की इस अखण्ड अनुभूति में ज्ञाता और ज्ञेय का भेद मिट जाता है। इस अर्थ में मन की एकाग्रता ही ध्यान है। ध्यान और कुछ नहीं है, मन की किरणें जो इधर-उधर बिखर जाती हैं, उन्हें किसी एक विषय पर केन्द्रित कर देना ही ध्यान है। ध्यान आत्मा की एक शक्ति है, इस शक्ति की उपलब्धि मन की एकाग्रता से होती है। अतएव भारतीय दर्शनों में ध्यान की साधना को प्रत्येक शाखा ने महत्त्व दिया है। ध्यान की अद्भुत शक्ति मानव शरीर में कुछ केन्द्र इस प्रकार के हैं, जो चेतना के विभिन्न स्तरों को प्रकट करते हैं। जब मन नीचे के केन्द्रों पर अधिष्ठित होता है, तब काम, क्रोध एवं भय आदि विकार उसे घेर लेते हैं। उस स्थिति में शरीर अस्वस्थ हो जाता है, और मन अशांत। जब वह उन केन्द्रों को छोड़ कर ऊपर की भूमिकाओं पर जा पहुँचता है, तब जीवन के सूक्ष्म तथा शक्तिशाली तत्त्वों के साथ उसका सम्बन्ध जुड़ जाता है। विषयों से विरक्ति दूसरों से प्रेम भाव तथा निर्भयता आदि सात्विक गुणों की अभिव्यक्ति होने लगती है। उसके विचार तथा व्यवहार में एकरूपता तथा एकसूत्रता आ जाती है। मन के अन्तर्मुखी होने पर ही मनुष्य को शक्ति एवं शांति प्राप्त होती है। जब तक मनुष्य के मन में अपने भौतिक अस्तित्व की चिंता रहती है, तब तक उसे शांति एवं समाधि उपलब्ध नहीं हो सकती। विषय एवं विकारों से क्षुब्ध मन किसी भी विषय को ग्रहण करने में समर्थ नहीं होता। गंभीर विषय तो क्या, सामान्य से भी सामान्य विषय को वह पकड़ नहीं पाता। यही कारण है कि साधारण व्यक्ति विषम परिस्थिति में पड़कर अपने आपको खो बैठता है तथा उसका मानसिक सन्तुलन नष्ट हो जाता है। उस स्थिति में वह अपने को पागल से अधिक श्रेष्ठ मानने की स्थिति में नहीं रहता। मनुष्य के इस पागलपन को दर करने की विधि का नाम ही ध्यान है। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान-योग साधना । १७३ भारत में प्राचीन समय से ही ध्यान का प्रसार और प्रचार रहा है। भारत की प्रत्येक आध्यात्मिक परम्परा ने ध्यान को आत्म-साधना का मुख्य तत्व माना है। किन्तु उसकी परम्परा सदा कोलाहल से दूर एवं मौन रही है। जिस प्रकार एक प्रदीप दूसरे प्रदीप से प्रकाश प्राप्त करता है, उसी प्रकार इस आलोक को भी शिष्य गुरु से रहस्य के रूप में प्राप्त करता रहा है। वस्तुतः ध्यान आत्मा को आत्मा के द्वारा प्रज्वलित करने की प्रक्रिया है। ध्यान स्वयं को स्वयं में खोजने की एक दिव्य कला है। ध्यान भारत की एक प्राचीन तथा महत्त्वपूर्ण देन कही जा सकती है। यह अध्यात्म-साधना का मूल है। योग, तप और ध्यान भारतीय अध्यात्म-साधना के मुख्य रूप में तीन अंग हैं—योग, तप और ध्यान। वेदगत परम्परा का मूल आधार योग रहा है। उपनिषद्-कालीन ऋषियों ने निर्जन वनों में तथा नगर के निकट उपवनों में रहकर हजारों वर्षों तक जो अध्यात्म-साधना की थी, उसका सारतत्व योग है। इस प्रकार का एक भी उपनिषद् नहीं है, जिसमें स्थान-स्थान पर विभिन्न प्रकारों से योग-साधना के सम्बन्ध में कुछ न कहा गया हो। उपनिषदों में सर्वत्र जो योग-सूत्र बिखरे पड़े थे, उन सबको एकत्रित करना, बिखरी हुई सामग्री का समन्वय करना, यह कार्य महर्षि पतंजलि ने अपने योग-सूत्र में बड़ी ही सुन्दरता के साथ सम्पादित किया है। आगम-गत जैन-परम्परा के तीर्थंकर दीर्घकाल से अपनी अध्यात्म-साधना का मूल आधार तप को मानते रहे हैं। भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर तक चतुर्विंशति तीर्थंकरों ने तप की साधना के द्वारा कैवल्य-लब्धि की है। एक भी तीर्थंकर इस प्रकार का नहीं है, जिसने अपने साधना-काल में छोटा या बड़ा तप न किया हो। चरम तीर्थंकर दीर्घतपस्वी महावीर ने तप की चरम सीमाओं का स्पर्श किया था। मानव जाति के इतिहास में इतना बड़ा अन्य कोई दीर्घ तपस्वी दृष्टिगोचर नहीं होता। द्वादश वर्षों तक निरन्तर अपने आपको तप की ज्वालाओं में डाले रहना, कोई सामान्य बात नहीं है। भगवान् महावीर ने अपनी तप-साधना में जो प्रयोग किये थे, वे द्वादश हैं। द्वादश प्रकार का तप जैन परम्परा में प्रसिद्ध रहा है। अतः जैन साधना का मूल आधार ही तप रहा है। पिटक-गत परम्परा का मूल, ध्यान-साधना में रहा है। भगवान बुद्ध ने अपनी साधना का केन्द्र ध्यान को स्वीकार किया है। ध्यान-साधना ही बौद्ध-परम्परा की साधना का केन्द्र-बिन्दु प्राचीन काल से आज तक रहता चला आ रहा है। विषयविरागी बुद्ध ने विविध प्रकार के ध्यानों का प्रयोग स्वयं अपने जीवन में किया था, जिसका अनुकरण उनके परम्परागत शिष्यों ने किया। ध्यान की जो व्याख्या, ध्यान की WWW Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |१७४ | उपासक आनन्द | जो मीमांसा तथा ध्यान के जो भेद-प्रभेद बौद्ध-परम्परा में उपलब्ध हैं, वे अन्यत्र कहीं नहीं मिलेंगे। बुद्ध का विपश्यना ध्यान अत्यन्त प्रसिद्ध है। ध्यान के सम्बन्ध में बौद्धपरम्परा में पाली तथा संस्कृत भाषा में अनेक ग्रन्थ उपनिबद्ध हो चुके हैं। अत: बुद्ध ने अपने जीवन में जो सबसे बड़ी साधना की थी, वह ध्यान की साधना थी। बुद्ध को जिस सत्य की उपलब्धि हुई, वह ध्यान के द्वारा ही हुई। यही कारण है कि ध्यानविधा का विकास बौद्ध-परम्परा में सबसे अधिक हुआ है। योग-साधना और उसके प्रकार योग-साधना भारत की धरती की प्रधान साधना रही है। महर्षि पतंजलि ने अपने योगसूत्र में योग के आठ अंगों का वर्णन किया है—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। समाधि योग-साधना का फल है, और उसका साधन है ध्यान। शेष छह बातें ध्यान की पूर्व तैयारी हैं। महर्षि पतंजलि ने योग के द्वितीय अंग नियम में तप को स्वीकार कर लिया है। तप के अभाव में आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार और धारणा हो नहीं सकती। इसका अर्थ इतना ही है कि वैदिक-परम्परा में योग-साधना की मुख्यता है, और तप की गौणता रही है। इसके विपरीत जैन-परम्परा में मुख्यता प्रदान की है तप को और योग को गौण रूप में स्वीकार कर लिया गया है। जैन-परम्परा में योग की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि_मन, वचन और काय की क्रिया ही योग है। वह क्रिया दो प्रकार की हो सकती है—शुभ और अशुभ। अशुभ क्रिया पाप का कारण है और शुभ क्रिया पुण्य का। परन्तु, आगमों में एक अन्य महत्त्वपूर्ण शब्द का प्रयोग किया गया है, और वह शब्द है संवर। संवर में शुभ और अशुभ दोनों का निरोध हो जाता है। महर्षि पतंजलि ने भी चित्त की वृत्तियों के निरोध को ही योग कहा है। इसका इतना ही अर्थ होता है कि जैन-परम्परा में तप को महत्त्व देते हुए भी संवर शब्द से योग को स्वीकार कर लिया है। बौद्ध-परम्परा में यद्यपि ध्यान की प्रमुखता रही है, तथापि ध्यान के उपनियमों में योग को तथा तप को स्वीकार कर लिया गया है। बौद्धपरम्परा में भी संवर शब्द प्रायः इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। बुद्ध ने स्वयं अपने जीवन में तप किया था, और अन्त में ध्यान पर पहुँच गये। भगवान् महावीर ने ध्यान को तप का एक भेद स्वीकार करके उसे अपनी साधना का अंग बना लिया था। इस प्रकार भारतीय साधना के मुख्य तीन ही अंग हैं. योग, तप और ध्यान। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII अध्यात्म योग JTZZZZIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII भारतीय दर्शनों में योग-दर्शन एक अत्यन्त प्राचीन दर्शन है। योग-दर्शन में जीवन-साधना के सम्बन्ध में विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। भारतीय दर्शनों में व्यक्तित्व का विश्लेषण चार तत्वों में किया गया है. सर्वप्रथम आत्मा है, इसी को सच्चिदानन्द, परमात्मा, ब्रह्म और सिद्ध शब्दों द्वारा प्रकट किया जाता है। आत्मा, ज्ञान, सुख और शक्ति का पुंज है, किन्तु जब उसका सम्बन्ध बाह्य जगत के साथ होने लगता है, तब वे आत्मा की शक्तियाँ संकुचित अथवा अभिभूत हो जाती हैं। यह दूसरा तत्व है। सम्बन्ध जितना निविड़ होगा, उतनी ही शक्तियाँ अधिक अभिभूत रहेंगी। सांख्यदर्शन में इसको प्रकृति, वेदान्त में अविद्या, बौद्धदर्शन में तृष्णा, जैन दर्शन में मोहनीय कर्म, शैव दर्शन में पाश अथवा मल आदि शब्दों द्वारा प्रयुक्त किया गया है। इसी के फलस्वरूप परमात्मा या ब्रह्म जीव बना रहता है। तीसरा तत्व है, सूक्ष्म शरीर। इसमें सतरह तत्व हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, मन और अहंकार। चौथा तत्व है—स्थूल शरीर । यह हड्डी, माँस और रुधिर आदि सप्त धातुओं का बना है। इसके अतिरिक्त धन-सम्पत्ति, सामाजिक प्रतिष्ठा तथा परिवार आदि बाह्य तत्व भी हमारे व्यक्तित्व के घटक हैं। उनकी प्राप्ति के लिए जीवन में निरन्तर संघर्ष चलता रहता है। कहीं सफलता मिलती है, और कहीं विफलता। प्रत्येक घटना हमारे मन पर अच्छे या बुरे संस्कार छोड़ जाती है। उन संस्कारों को मिटाकर आत्मा को परिशुद्ध बनाना ही अध्यात्म योग का लक्षण है। यही कारण है कि हमारे भारतीय साहित्य में योग की विविध विधियाँ प्रचलित हैं। हठयोग मुख्यतया शरीर का उपचार करता है, उससे वात, पित्त एवं कफ आदि के विकार दूर होते हैं। जैन, योग, राग एवं द्वेष के निरोध पर बल देता है, जो कि मन की इच्छा रूप विकार है। अद्वैत वेदांत और सांख्य आदि दर्शन अज्ञान को दूर करने पर बल देते हैं। बौद्ध दर्शन में तृष्णा के निरोध पर बल दिया गया है। इस प्रकार भारत का योग घूमफिरकर आत्मा के शुद्धिकरण का उपाय बतलाता है। आत्मा को विशुद्ध बनाना ही भारतीय योग का एकमात्र लक्ष्य रहा है। चित्त की पाँच अवस्थाएँ भारतीय दर्शनों में यह एक चर्चा का विषय रहा है कि जब आत्मा अपने स्वभाव से निर्मल एवं निष्कलंक है, तब उसमें पाप कैसे और किधर से आ जाता है? इस सम्बन्ध में विभिन्न दर्शनों के विविध उत्तर हो सकते हैं। परन्तु, प्रस्तुत में हमें यह Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |१७६ । उपासक आनन्द | देखना है कि योग दर्शन इसके सम्बन्ध में क्या समाधान देता है। हमारा जीवन अत्यन्त जटिल है, उसकी जटिलता का कारण न आत्मा है, न शरीर तथा इन्द्रियाँ हैं, उसका मुख्य कारण है—मनुष्य का चित्त। चित्त यदि प्रसन्न है, तो सर्वत्र सुख एवं आनन्द ही है। चित्त यदि विषण्ण है, तो सर्वत्र दुःख एवं क्लेश ही है। अत: चित्त की साधना ही योग की मुख्य साधना मानी जाती है। योग में चित्त के ५ भेद किए गए हैं—मूढ, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध। मूढ चित्त तमोगुण प्रधान होता है। इस अवस्था में व्यक्ति अज्ञान तथा आलस्य से घिरा रहता है। यह अवस्था मुख्यतया पशु तथा कीट-पतंगों में पाई जाती है। अविक्षिप्त मनुष्य भी चित्त की इसी अवस्था में होते हैं। क्षिप्त चित्त में रजोगुण की प्रधानता रहती है, यह चित्त सदा चंचल बना रहता है। वह कभी इधर दौड़ता है, और कभी उधर। क्षिप्त चित्त किसी भी विषय में एक क्षण के लिये भी स्थिर नहीं हो पाता। विक्षिप्त चित्त वह है, जिसमें सत्व गुण प्रधान रहता है। यहाँ रज और तम दोनों गौण रूप से रहते हैं, किन्तु मुख्यता सत्व की रहती है। इस कारण मनुष्य की प्रवृत्ति धर्म, वैराग्य और त्याग में रमी रहती है। पर, बीच-बीच में रजोगुण चित्त को विक्षिप्त करता रहता है। इन तीन चित्तों वाले मनुष्य योग-साधना नहीं कर सकते। यदि उत्साहवश योग-साधना प्रारम्भ भी करते हैं, तो शीघ्र ही पथ-भ्रष्ट भी हो जाते हैं। चतुर्थ चित्त है—एकाग्र। इसका अर्थ है—मन का किसी एक विषय पर स्थिर होना। जब रजोगुण और तमोगुण का प्रभाव घट जाता है, तब चित्त इधर-उधर भटकना छोड़कर एक ही विषय पर स्थिर हो जाता है। पांचवाँ चित्त है-निरुद्ध। इसमें वह सर्वथा विकल्पों से शून्य हो जाता है। किसी भी विषय का चिंतन नहीं रहता। चित्त पर-स्वरूप में न जाकर स्वयं अपने स्वरूप में रुका रहता है। पाँच क्लेश अध्यात्म-योग का मुख्य विषय यह है कि हम अपने विघ्नों को तथा अपनी बाधाओं को दूर कैसे करें ? हमारे जीवन को प्रभावित करने वाले जो शुभ या अशुभ संस्कार हैं, उनके रहते हुए हम अपने लक्ष्य पर कभी नहीं पहुँच सकते। यदि कोई व्यक्ति कहीं दूर देश की यात्रा करने जाता है, तो यह आवश्यक है कि उसे अपने गन्तव्य पथ का पूरा ज्ञान होना चाहिए। उसे यह भी सोच लेना चाहिए, कि जिस पथ पर होकर मैं जाना चाहता हूँ, उस पथ में कहीं पर विषमता, अवरोध तथा विघ्न तो नहीं है। इन विघ्नों का परिज्ञान इसलिए आवश्यक है कि वह पथिक अपने पथ से विचलित होकर लक्ष्य भ्रष्ट न हो जाय। अध्यात्म योग में मुख्य रूप से यह बतलाया गया है कि अपने पथ पर अग्रसर होने से पूर्व यह विचार कर लो, कि इसमें कितने विघ्न और कितने अवरोध आ सकते हैं। अध्यात्म योग में उन विघ्न और अवरोधों Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म योग ।१७७ । को क्लेश कहा जाता है। बौद्ध परम्परा में नीवरण कहा गया है। जैन परम्परा में उन विघ्नों को परीषह और उपसर्ग कहा जाता है। साधना के पथ पर आगे बढ़ने वाले साधक के लिए यह एक प्रकार की चुनौती है, तथा उसके साहस और संकल्प की परीक्षा है। क्लेश का अर्थ है-मन को मलीन करने वाले संस्कार। इन्हें आवरण, अविद्या, कर्म तथा कंचुक आदि अनेक शब्दों द्वारा प्रकट किया जाता है। पाँच क्लेश इस प्रकार हैं—अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश। तम अथवा अविद्या का अर्थ है—अनात्मा एवं जड़ में आत्मा एवं चेतन की भ्रान्ति। वह चार प्रकार से हो सकती है—अनित्य को नित्य समझना। अपवित्र को पवित्र समझना। दुःख को सुख समझना और अनात्मा को आत्मा समझना। मोह या अस्मिता का अर्थ है...अपने स्वरूप को भूल जाना। अस्मिता का शब्दार्थ है. अहंकार, मैं हूँ, यह अनुभूति। साधना के क्षेत्र में देखा गया है कि व्यक्ति साधना करता है, उसे कुछ विभूतियाँ प्राप्त हो जाती हैं, तो अहंकार आ जाता है। वह उन्हें महत्त्व देने लगता है और आगे की साधना बन्द कर देता है। अतः साधक को सिद्धि और चमत्कार के चक्कर में न पड़कर अपनी साधना में सतत आगे बढ़ते रहना चाहिए। तीसरा क्लेश है..-राग। इस राग का मूल है मोह। इन्द्रियों के पाँच विषय हैं -शब्द, रस, रूप, गन्ध और स्पर्श। प्रत्येक के दिव्य और अदिव्य दोनों भेद होते हैं। इन सब विषयों में आसक्त होना राग है। मनुष्य के चित्त में जब मोह रहता है, तब उसे योग विभूतियों में आसक्ति होती है। उसमें राग के स्थान पर अहंकार की मुख्यता होती है। चतुर्थ क्लेश है द्वेष। इच्छापूर्ति न होने पर मन में एक प्रकार की जलन होती है, इसी को यहाँ द्वेष द्वारा प्रकट किया गया है। राग या अहंकार पर चोट लगने से द्वेष उत्पन्न होता है। गीता में कहा गया है कि कामात् क्रोधोऽभिजायते ! अर्थात् काम से क्रोध उत्पन्न होता है। पांचवाँ क्लेश है—अभिनिवेश। अहंकार तथा राग की पूर्ति होने पर भी मन में एक प्रकार का भय बना रहता है कि उपलब्ध संपदा नष्ट न हो जाय। इस प्रकार मन में चिन्ता का बना रहना ही अभिनिवेश कहा जाता है। इस प्रकार अध्यात्म योग में चित्त की पाँच अवस्थाओं का तथा इन पाँच क्लेशों का मुख्य रूप से वर्णन किया गया है। अध्यात्म योग अध्यात्म योग वह योग है, जिसमें आत्मा को केन्द्र बिन्दु बनाकर साधना के मार्ग का निर्देश किया गया है। भारतीय दर्शनों के चिन्तन का मुख्य आधार आत्मा ही रहा है। भारत के दर्शनशास्त्र को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है. आस्तिक दर्शन तथा नास्तिक दर्शन। वेद-परम्परागत षड् दर्शनों में एकमात्र योग दर्शन ही क्रियात्मक कहा जा सकता है। शेष पाँच दर्शन घूम-फिरकर आत्मा पर ही केन्द्रित Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ । उपासक आनन्द रहते हैं। केवल योग दर्शन में ही चित्तवृत्तियों का विश्लेषण उपलब्ध होता है जिन्हें सामान्य भाषा में नास्तिक दर्शन कहा जाता है, वे हैं— जैन, बौद्ध और चार्वाक । बौद्ध दर्शन में चित्तवृत्तियों का काफी विस्तार के साथ विश्लेषण किया गया है। जैन दर्शन के अनुसार मुख्य आत्मतत्व होते हुए भी उसके विकास के बाधक रूप में शुभ योग और अशुभ योग को स्वीकार किया गया है। इस विषय पर आचार्य हरिभद्र, आचार्य हेमचन्द्र तथा आचार्य शुभचन्द्र ने पर्याप्त प्रकाश डाला है। चार्वाक दर्शन आत्मा के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करता । अतः उसके यहाँ पर किसी भी प्रकार की साधना पद्धति को स्वीकार करने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता। इस प्रकार भारत के सभी अध्यात्मवादी दर्शनों ने आत्मा को केन्द्र मानकर उसकी साधना के प्रकार बतलाए हैं। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII उपासक-प्रतिमाएँ IA उपासकदशांग में आनन्द श्रावक का वर्णन करते हुए बताया है, कि उसने भगवान् महावीर से पाँच अणु-व्रत व सात शिक्षा-व्रत रूप बारह प्रकार के गृहस्थधर्म को स्वीकार किया एवं घर में रहकर बारह व्रतों का पालन करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत किए। पन्द्रहवें वर्ष के प्रारम्भ में उसे विचार आया कि मैंने जीवन का काफी हिस्सा गृहस्थ-जीवन में व्यतीत किया है। अब क्यों न गृहस्थी के झंझटों से मुक्त होकर श्रमण भगवान् महावीर से गृहीत धर्म-प्रज्ञप्ति स्वीकार कर अपना समय व्यतीत करूँ? ऐसा विचार कर उसने मित्रों आदि के समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का सारा भार सौंपा एवं सबसे विदा लेकर पौषध-शाला में जाकर पौषध ग्रहण कर श्रमण भगवान् महावीर से ली हुई धर्म-प्रज्ञप्ति स्वीकार कर रहने लगा। उसने उपासक-प्रतिमाएँ अंगीकार की, एवं एक-एक करके ग्यारह प्रतिमाओं की आराधना की। अन्त में मारणान्तिक संल्लेखना स्वीकार कर भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर समाधि-मरण प्राप्त किया एवं सौधर्म देव-लोक के सौधर्मावतंसक महाविमान के उत्तर-पूर्व में स्थित्त अरुण विमान में चार पल्योपम की स्थिति वाले देव के रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ की आयु पूर्णकर वह महाविदेह में मुक्त होगा। आनन्द के इस वर्णन में स्पष्ट उल्लेख है, कि उसने द्वादश श्रावक-व्रतों का पालन करते हुए जीवन के अन्तिम भाग में एकादश उपासक-प्रतिमाओं की भी आराधना की एवं संल्लेखना-पूर्वक मृत्यु प्राप्त की। ___ यहाँ प्रतिमा का अर्थ है प्रतिज्ञा-विशेष, व्रत-विशेष, तप-विशेष, अथवा अभिग्रह-विशेष। प्रतिमास्थित श्रावक श्रमणवत् व्रतविशेषों की आराधना करता है। कोशकार प्रतिमा शब्द के मूर्ति, प्रतिकृति, प्रतिबिम्ब, बिम्ब, छाया, प्रतिच्छाया आदि अर्थ देते हैं। चूँकि प्रतिमाओं की आराधना करने वाले श्रावक का जीवन श्रमण के सदृश होता है अर्थात् उसका जीवन एक प्रकार से श्रमण-जीवन की ही प्रतिकृति होता है। अत: उसके व्रतविशेषों को प्रतिमाएँ कहा जाता है। जिस प्रकार श्रावक के लिए श्रमण-जीवन की प्रतिकृति रूप एकादश उपासक-प्रतिमाओं का विधान किया गया है, उसी प्रकार श्रमण के लिए भी अपने से उच्च कोटि के साधक के जीवन की प्रतिकृति रूप द्वादश भिक्षु-प्रतिमाओं का विधान किया गया है। दशाश्रुतस्कन्ध में इन दोनों प्रकार की प्रतिमाओं—साधना-सोपानों का संक्षिप्त एवं सुव्यवस्थित वर्णन है। षष्ठ उद्देश में उपासक-प्रतिमाओं तथा सप्तम उद्देश में भिक्षु-प्रतिमाओं पर प्रकाश Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० । उपासक आनन्द डाला गया है। व्रतधारी श्रावक में प्रारम्भ की कुछ प्रतिमाएँ पहले से ही विद्यमान होती हैं। अतः उनके लिए उसे विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता। जिसे श्रावक के व्रतों के पालन का अभ्यास नहीं होता, उसे प्रथम प्रतिमा से ही प्रयत्नशील होना पड़ता है। प्रथम प्रतिमा में सम्यग्दृष्टि अर्थात् आस्तिक दृष्टि प्राप्त होती है। इसमें सर्वधर्मविषयक रुचि अर्थात् सर्वगुणविषयक प्रीति होती है। दृष्टि दोषों की ओर न जाकर गुणों की ओर जाती है। यह प्रतिमा दर्शनशुद्धि अर्थात् दृष्टि की विशुद्धता—श्रद्धा की यथार्थता से सम्बन्ध रखती है। इसमें गुणविषयक रुचि की विद्यमानता होते हुए भी शीलव्रत, गुणव्रत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि की सम्यक् आराधना नहीं होती। इसका नाम दर्शन-प्रतिमा है। द्वितीय प्रतिमा का नाम व्रत-प्रतिमा है। इसमें शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि तो सम्यक् रूप से धारण किये जाते हैं, किन्तु सामायिकव्रत एवं देशावकाशिकव्रत का सम्यक् पालन नहीं होता। तृतीय प्रतिमा का नाम सामायिक-प्रतिमा है। इसमें सामायिक एवं देशावकाशिक व्रतों की सम्यक् आराधना होते हुए भी चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा आदि के दिनों में पौषधोपवास-व्रत का सम्यक् पालन नहीं होता। चतुर्थ प्रतिमा में स्थित श्रावक चतुर्दशी आदि के दिनों में प्रतिपूर्ण पौषध-व्रत का सम्यक् रूप से पालन करता है। इसका नाम पौषध-प्रतिमा है। पांचवीं प्रतिमा का नाम है नियम-प्रतिमा। इसमें स्थित श्रमणोपासक निम्नोक्त पाँच नियमों का विशेष रूप से पालन करता है :-१. स्नान नहीं करना, २. रात्रिभोजन नहीं करना, ३. धोती की लांग नहीं लगाना, ४. दिन में ब्रह्मचारी रहना एवं रात्रि में मैथुन की मर्यादा करना, ५. एक रात्रि की प्रतिमा का पालन करना अर्थात् महीने में कम से कम एक रात कायोत्सर्ग अवस्था में ध्यानपूर्वक व्यतीत करना। छठी प्रतिमा का नाम ब्रह्मचर्य-प्रतिमा है क्योंकि इसमें श्रावक दिन की भांति रात्रि में भी ब्रह्मचर्य का पालन करता है। इस प्रतिमा में सब प्रकार के सचित्त आहार का परित्याग नहीं होता। ___ सातवी प्रतिमा में सभी प्रकार के सचित्त आहार का परित्याग कर दिया जाता है, किन्तु आरम्भ (कृषि, व्यापार आदि में होने वाली अल्प हिंसा) का त्याग नहीं किया जाता। इस प्रतिमा का नाम है सचित्त-त्यागप्रतिमा। आठवीं प्रतिमा का नाम आरम्भ-त्याग प्रतिमा है। इसमें उपासक स्वयं तो आरम्भ का त्याग कर देता है, किन्तु दूसरों से आरम्भ करवाने का परित्याग नहीं कर सकता। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपासक प्रतिमाएँ । १८१ नवी प्रतिमा धारण करने वाला श्रावक आरम्भ करवाने का भी त्याग कर देता हैं। इस अवस्था में वह उद्दिष्ट भक्त अर्थात् अपने निमित्त से बने हुए भोजन का परित्याग नहीं करता। इस प्रतिमा का नाम प्रेष्य-परित्याग-प्रतिमा है, क्योंकि इसमें आरम्भ के निमित्त किसी को कहीं भेजने-भिजवाने का त्याग होता है। आरम्भ-वर्धक परिग्रह का त्याग होने के कारण इसे परिग्रहत्याग-प्रतिमा भी कहते हैं। ___ दसवीं प्रतिमा में उद्दिष्ट भक्त का भी त्याग कर दिया जाता है। इस प्रतिमा में स्थित श्रमणोपासक उस्तरे से मुण्डित होता हुआ शिखा धारण करता है अर्थात् सिर को एकदम साफ न कराता हुआ चोटी जितने बाल सिर पर रखता है। इससे यह मालूम होता है, कि गृहस्थ के सिर पर चोटी रखने की रूढ़ प्रथा जैन-परम्परा में भी मान्य रही है। दसवीं प्रतिमा धारण करने वाले गृहस्थ को जब कोई एक बार अथवा अनेक बार बुलाता है, या एक अथवा अनेक प्रश्न पूछता है, तब वह दो ही उत्तर देता है। जानने पर कहता है, कि मैं यह जानता हूँ। न जानने की स्थिति में कहता है, कि मुझे यह मालूम नहीं। चूँकि इस प्रतिमा में उद्दिष्ट भक्त का त्याग अभिप्रेत होता है। अतः इसका नाम उद्दिष्ट-भक्तत्याग प्रतिमा है। ग्यारहवीं प्रतिमा का नाम श्रमण-भूत-प्रतिमा है। श्रमणभूत का अर्थ होता है, श्रमण के सदृश। जो गृहस्थ होते हुए भी साधु के समान आचरण करता है अर्थात् श्रावक होते हुए भी श्रमण के समान क्रिया करता है, वह श्रमणभूत कहलाता है। श्रमणभूतप्रतिमा-प्रतिपन्न श्रमणोपासक बालों का उस्तरे से मुण्डन करवाता है अथवा हाथ से लुंचन करता है। इस प्रतिमा में चोटी नहीं रखी जाती। वेष, भाण्डोपकरण एवं आचरण श्रमण के ही समान होता है। श्रमणभूत श्रावक मुनिवेष में अनगारव्रत आचारधर्म का पालन करता हुआ जीवनयापन करता है। सम्बन्धियों व जाति के लोगों के साथ यत्किंचित् स्नेह बन्धन होने के कारण उन्हीं के यहाँ से अर्थात् परिचित घरों से ही भिक्षा ग्रहण करता है। भिक्षा लेते समय वह इस बात का ध्यान रखता है, कि दाता के यहाँ उसके पहुँचने के पूर्व जो वस्तु बन चुकी होती है, वही वह ग्रहण करता है, अन्य नहीं। यदि उसके पहुंचने के पूर्व चावल पक चुके हों और दाल न पकी हो तो वह चावल ले लेगा, दाल नहीं। इसी प्रकार यदि दाल पक चुकी हो, और चावल न पके हों, तो वह दाल ले लेगा, चावल नहीं। पहुँचने के पूर्व दोनों चीजें बन चुकी हों, तो दोनों ले सकता है, और एक भी न बनी हो, तो एक भी नहीं ले सकता। __ प्रतिमाएँ गुणस्थानों की तरह आत्मिक विकास के बढ़ते हुए अथवा चढ़ते हुए सोपान हैं। अतः उत्तर-उत्तर प्रतिमाओं में पूर्व-पूर्व प्रतिमाओं के गुण स्वतः समाविष्ट होते जाते हैं। जब श्रावक ग्यारहवीं अर्थात् अंतिम प्रतिमा की आराधना करता है, तब Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ । उपासक आनन्द > उसमें प्रारम्भ से लेकर अन्त की समस्त प्रतिमाओं के गुण रहते हैं। इसके बाद अपनी शक्ति के अनुसार चाहे वह मुनिधर्म की दीक्षा ग्रहण कर सकता है, चाहे उसी प्रतिमा को धारण किये रह सकता है। इन प्रतिमाओं में से कुछ के लिए अधिकतम काल मर्यादा भी बतलाई गई है। उदाहरण के लिए पांचवीं प्रतिमा का अधिकतम काल पांच मास, छठी का छः मास यावत्, ग्यारहवीं का ग्यारह मास है । यह एक साधारण विधान है। साधक के सामर्थ्य के अनुसार इसमें यथोचित परिवर्तन भी हो सकता है। श्वेताम्बर व दिगम्बर- परम्परा - सम्मत-उपासक-प्रतिमाओं के क्रम तथा नामों में नगण्य अन्तर है। श्वेताम्बर - परम्परा में एकादश उपासक - प्रतिमाओं के नाम क्रमानुसार इस प्रकार मिलते हैं : १. दर्शन, २. व्रत, ३. सामायिक, ४. पौषध, ५. नियम, ६. ब्रह्मचर्य, ७. सचित्तत्याग, ८. आरम्भत्याग, ९. प्रेष्यपरित्याग अथवा परिग्रहत्याग, १०. उद्दिष्टभक्तत्याग, ११. श्रमणभूत । दिगम्बर परम्परा में इन प्रतिमाओं के नाम इस क्रम से मिलते हैं : १. दर्शन, २. व्रत, ३. सामायिक, ४. पौषध, ५. सचित्तत्याग, ६. रात्रिभुक्तित्याग, ७. ब्रह्मचर्य, ८. आरम्भत्याग, ९. परिग्रहत्याग, १०. अनुमतित्याग, ११. उद्दिष्टत्याग । उद्दिष्टत्याग के दो भेद होते हैं जिनके लिए क्रमशः क्षुल्लक और एलक शब्दों का प्रयोग होता है। ये श्रावक की उत्कृष्ट अवस्थाएँ होती हैं । श्वेताम्बर व दिगम्बर सम्मत प्रथम चार नामों में कोई अन्तर नहीं है । सचित्तत्याग का क्रम दिगम्बर- परम्परा में पांचवाँ है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में सातवाँ है। दिगम्बराभिमत रात्रि - भुक्तित्याग श्वेताम्बराभिमत पांचवीं प्रतिमा नियम के अन्तर्गत समाविष्ट है । ब्रह्मचर्य का क्रम श्वेताम्बर - परम्परा में छठा है, जबकि दिगम्बर- परम्परा में सातवाँ है । दिगम्बरसम्मत अनुमतित्याग श्वेताम्बरसम्मत उद्दिष्टभक्तत्याग के ही अन्तर्गत समाविष्ट हो जाता है, क्योंकि इस प्रतिमा में श्रावक उद्दिष्टभक्त ग्रहण न करने के साथ ही किसी प्रकार के आरम्भ का समर्थन भी नहीं करता । श्वेताम्बराभिमत श्रमण-भूतप्रतिमा ही दिगम्बराभिमत उद्दिष्टत्यागप्रतिमा है क्योंकि इन दोनों में श्रावक का आचरण भिक्षुवत् होता है। क्षुल्लक व एलक श्रमण के ही समान होते हैं। ★ डॉ मोहनलाल मेहता Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी ZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZZ अहिंसा-सूत्र IIIIIIIII तस्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं । अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमो॥ भगवान् महावीर ने अठारह धर्म-स्थानों में सबसे पहला स्थान अहिंसा का बतलाया है। सब जीवों पर संयम रखना अहिंसा है, वह सब सुखों की देने वाली मानी गई है। जावन्ति लोए पाणा, तसा अदुवा थावरा। ते जाणमजाणं वा, न हणे नो वि घायए। संसार में जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उन सबको-क्या जान में, क्या अनजान में न खुद मारे और न दूसरों से मरवाये। सयं तिवायए पाणे, अदुवऽन्नेहिं घायए। हणन्तं वाणुजाणाइ, बेरं वड्ढइ अप्पणो॥ जो मनुष्य प्राणियों की स्वयं हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है और हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है, वह संसार में अपने लिये वैर को ही बढ़ाता है। जगनिस्सिएहिं भूएहि, तसनामेहिं थावरेहिं च। नो तेसिमारभे दंड, मणसा वयसा कायसा चेव॥ संसार में रहने वाले त्रस और स्थावर जीवों पर मन से, वचन से और शरीर से-किसी भी तरह दण्ड का प्रयोग न करे। सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउं न मरिजऊँ। तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गथा वज्जयंतिणं॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ । उपासक आनन्द सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई भी नहीं चाहता। इसीलिए निर्ग्रन्थ (जैन मुनि), घोर प्राणि-वध का सर्वथा परित्याग करते हैं। अज्झत्थं सव्वओ सव्वं दिस्स, पाणे पियायए। न हणे पाणिणो पाणे, भयवेराओ उवरए॥ भय और वैर से निवृत्त साधक, जीवन के प्रति मोह-ममता रखने वाले सब प्राणियों को सर्वत्र अपनी ही आत्मा के समान जानकर उनकी कभी भी हिंसा न करे। पुढवी-जीवा पुढो सत्ता, आउजीवा तहाअगणी। वाउजीवा पुढो सत्ता, तण-रुक्खा सबीयगा। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और तृण, बीज आदि वनस्पतिकाय-ये सब जीव अति सूक्ष्म हैं, ऊपर से एक आकार के दिखने पर भी सब का पृथक्-पृथक् अस्तित्व है। अहावरा तसा पाणा, एवं छक्काय आहिया। एयावये जीवकाए, नावरे कोई विज्जइ॥ उक्त पाँच स्थावरकाय के अतिरिक्त दूसरे त्रस प्राणी भी हैं। ये छहों षड्जीव निकाय कहलाते है। जितने भी संसार में जीव है, सब इन्हीं छह के अन्तर्गत है। इनके सिवाय और कोई जीव-निकाय नहीं है। सव्वाहिं अणुजुत्तीहिं, मइमं पडिलेहिया। सव्वे अक्कन्त दुक्खाय, अओ सव्वे न हिंसया॥ बुद्धिमान मनुष्य उक्त छहों जीव-निकायों का सब प्रकार की युक्तियों से सम्यग्ज्ञान प्राप्त करे और "सभी जीव दुःख से घबराते हैं" ऐसा जानकर उन्हें दुःख न पहुँचाये। एवं खु नाणिणो सारं, जंन हिंसइ किंचण। __ अहिंसा-समय घेव, एयावन्तं वियाणिया। ज्ञानी होने का सार ही यह है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। 'अहिंसा का सिद्धान्त ही सर्वोपरि है' मात्र इतना ही विज्ञान है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी । १८५ संबुन्झमाणे उ नरे मइम, पावाउ अप्पाणं निवट्टएज्जा। हिंसप्पसूयाई दुहाई मत्ता, वेरानुबन्धीणि महब्भयाणि॥ सम्यग्बोध को जिसने प्राप्त कर लिया, ऐसा बुद्धिमान पुरुष हिंसा से उत्पन्न होने वाले वैर-वर्द्धक एवं महाभयंकर दु:खों को जानकर अपने को महापाप-कर्म से बचाये। समया सव्वभूएसु , सत्तु-मित्तेसु वा जगे। पाणाइ वायविरइ, जावज्जीवाए दुक्करं॥ संसार में प्रत्येक प्राणी के प्रति फिर भले ही वह शत्रु हो या मित्र-समभाव रखना, तथा जीवन पर्यन्त छोटी-मोटी सभी प्रकार की हिंसा का त्याग करना वास्तव में बड़ा ही दुष्कर है। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ZIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII सत्य-सूत्र निच्चकालअप्पमत्तेणं, मुसावायविवज्जणं। भासियव्वं हियं सच्चं, निच्चाऽऽउत्तेण दुक्करं॥ सदा अप्रमादी और सावधान रहकर, असत्य को त्याग कर, हितकारी सत्य वचन ही बोलना चाहिए। इस तरह सत्य बोलना बड़ा कठिन होता है। अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया। हिंसगं न मुसं बूया, नो वि अन्नं वयावए॥ अपने स्वार्थ के लिए अथवा दूसरों के लिए, क्रोध से अथवा भय से किसी भी प्रसंग पर दूसरों को पीड़ा पहुंचाने वाला असत्य वचन न तो स्वयं बोले, न दूसरों से बुलवाये। ३ मुसावाओ य लोगम्मि, सव्वसाहूहिं गरहिओ। अविस्सासो य भूयाणं, तम्हा मोसं विवज्जए॥ मृषावाद (असत्य) संसार में सभी सत्पुरुषों द्वारा निन्दित ठहराया गया है और सभी प्राणियों को अविश्वसनीय है, इसलिए मृषावाद सर्वथा छोड़ देना चाहिए। न लवेज्ज पुट्ठो सावज्जं, न निरटुं न मम्मयं। अप्पणट्ठा परट्ठा वा, उभयस्सन्तरेण वा॥ अपने स्वार्थ के लिए, अथवा दूसरों के लिए, दोनों में से किसी के भी लिए, पूछने पर पापयुक्त, निरर्थक एवं मर्मभेदक वचन नहीं बोलना चाहिए। तहेव सावज्जअणुमोयणी गिरा, ओतारिणी जा या परोवघायणी। से कोह लोह भय हास माणवो, न हासमाणो वि गिरं वएज्जा। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य-सूत्र । १८७ । श्रेष्ठ साधु पापकारी, निश्चयकारी और दूसरों को दुःख पहुँचाने वाली वाणी न बोले। श्रेष्ठ मानव इसी तरह क्रोध, भय और हास्य से भी पापकारी वाणी न बोर । हँसते हुए भी पाप वचन नहीं बोलना चाहिए। दिलु मियं असंदिद्धं, पडिपुण्णं वियं जियं। अयंपिरमणुब्बिग्गं, भासं निसिर अत्तवं॥ आत्मार्थी साधक को दुष्ट (सत्य), परिमित, असंदिग्ध, परिपूर्ण, स्पष्ट, अनुभूत, वाचालता-रहित, और किसी को भी उद्विग्न न करने वाली वाणी बोलनी चाहिए। भासाए दोसे य गुणे य जाणिया, तीसे य दुढे परिवज्जए सया। छसु संजए सामणिए सया जए, वएज्ज बुद्धे हियमाणुलोमियं॥ भाषा के गुण तथा दोषों को भलीभाँति जानकर दूषित भाषा को सदा के लिए छोड़ देने वाला, षट्काय जीवों पर संयत रहने वाला, तथा साधुत्व-पालन में सदा तत्पर बुद्धिमान साधक एक मात्र हितकारी मधुर भाषा बोले। सयं समेच्च अदुवा वि सोच्चा, भासेज्ज धम्मं हिययं पयाणं। जे गरहिया सणियाणप्पओगा, न ताणि सेवन्ति सुधीरधम्मा॥ श्रेष्ठ धीर पुरुष स्वयं जानकर अथवा गुरुजनों से सुनकर प्रजा का हित करने वाले धर्म का उपदेश करे। जो आचरण निन्द्य हों, निदान वाले हों, उनका कभी सेवन न करे। सवक्कसुद्धिं समुपेहिया मुणी, गिरं च दुटुं परिवज्जए सया। मियं अदुटुं अणुवीइ भासए, सयाण मज्झे लहइ पसंसणं॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ । उपासक आनन्द विचारवान मुनि को वचन-शुद्धि का भलीभाँति ज्ञान प्राप्त करके दूषित वाणी सदा के लिए छोड़ देनी चाहिए और खूब सोच-विचार कर बहुत परिमित और निर्दोष वचन बोलना चाहिए। इस तरह बोलने से सत्पुरुषों में महान प्रशंसा प्राप्त होती है। तहेव काणं काणे त्ति, पंडगं पंडगे त्ति वा। वाहियं वा वि रोगित्ति, तेणं चोरे त्ति नो वए॥ काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर कहना यद्यपि सत्य है, फिर भी ऐसा नहीं कहना चाहिए। (क्योंकि इससे उन व्यक्तियों को दुःख पहुँचता है।) ११ वितहं वि तहामुत्तिं, जं गिरं भासए नरो। तम्हा सो पुट्ठो पावेणं, किं पुण जो मुसं वए॥ जो मनुष्य भूल से भी मूलत: असत्य, किन्तु ऊपर से सत्य मालूम होने वाली भाषा बोल उठता है, जबकि वह भी पाप से अछूता नहीं रहता, तब भला जो जानबूझकर असत्य बोलता है, उसके पाप का तो कहना ही क्या ? तहेव फरुसा. भासा, गुरुभूओवघाइणी। सच्चा वि सा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो॥ जो भाषा कठोर हो, दूसरों को दुःख पहुँचाने वाली हो वह सत्य भी क्यों न हो नहीं बोलनी चाहिए। क्योंकि उससे पाप का आस्रव होता है। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII अस्तेय-सूत्र चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं। दत्तंसोहणमित्तं पि, उग्गहं से अजाइया॥ तं अप्पणा न गिण्हंति, नो वि गिण्हावए परं। अन्नं वा गिण्हावए पि, नाणुजाणंति संजया॥ सचेतन पदार्थ हो या अचेतन, अल्प-मूल्य पदार्थ हो या बहुमूल्य, और तो क्या, दाँत कुरेदने की सींक भी जिस गृहस्थ के अधिकार में हो उसकी आज्ञा लिये बिना पूर्णसंयमी साधक न तो स्वयं ग्रहण करते हैं, न दूसरों को ग्रहण करने के लिये प्रेरित करते हैं, और न ग्रहण करने वालों का अनुमोदन ही करते हैं। उड्ढं अहे य तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा। हत्थेहिं पाएहिं य संजमित्ता, अदिन्नमन्नेसु य नो गहेज्जा॥ ऊँची, नीची और तिरछी दिशा में जहाँ कहीं भी जो त्रस और स्थावर प्राणी हों उन्हें अपने हाथों से, पैरों से,-किसी भी अंग से पीड़ा नहीं पहुँचानी चाहिए। और दूसरों की बिना दी हुई वस्तु भी चोरी से ग्रहण नहीं करनी चहिए। तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य, जे हिंसति आयसुहं पडुच्च। जे लूसए होइ अदत्तहारी, ण सिक्खइ सेयवियस्स किंचि॥ जो मनुष्य अपने सुख के लिए त्रस तथा स्थावर प्राणियों की क्रूरतापूर्वक हिंसा करता है उन्हें अनेक तरह से कष्ट पहुँचाता है, जो दूसरों की चोरी करता है, जो आदरणीय व्रतों का कुछ भी पालन नहीं करता, (वह भयंकर क्लेश उठाता है)। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९०। उपासक आनन्द दन्तसोहणमाइस्स, अदत्तस्स विवज्जणं। अणवज्जेसणिज्जस्स, गिण्हणा अवि दुक्करं॥ दाँत कुरेदने की सींक आदि तुच्छ वस्तुएँ भी बिना दिये चोरी से न लेना, (बड़ी चीजों को चोरी से लेने की तो बात ही क्या?) निर्दोष एवं एषणीय भोजन-पान भी दाता के यहाँ से दिया हुआ लेना, यह बड़ी दुष्कर बात है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ब्रह्मचर्य-सूत्र १ विरई अबंभचेरस्स, कामभोग रसन्नुणा । उग्गं महव्वयं बंभ, धारेयव्वं सुदुक्करं ॥ काम भोगों का रस जान लेने वाले के लिए अब्रह्मचर्य से विरक्त होना और उग्र ब्रह्मचर्य महाव्रत का धारण करना, बड़ा ही कठिन कार्य है। २ अबंभचरियं घोरं, पमायं दुरहिट्ठियं । नायरन्ति मुणी लोए, भेयाययणवजिणो ॥ जो मुनि संयम घातक दोषों से दूर रहते हैं, वे लोक में रहते हुए भी दुःसेव्य, प्रमाद-स्वरूप और भयंकर अब्रह्मचर्य का कभी सेवन नहीं करते । ३ मूलमेयमहम्मस्य, महादोससमुस्स । तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंथा वज्जयन्ति णं ॥ यह अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है, महादोषों का स्थान है, इसलिए निर्ग्रन्थ मुनि मैथुन संसर्ग का सर्वथा परित्याग करते हैं। ४ विभूसा इत्थिसंसग्गो, पणीयं रसभोयणं । नरस्सअत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥ आत्म शोधक मनुष्य के लिये शरीर का श्रृंगार, स्त्रियों का संसर्ग और पौष्टिक स्वादिष्ट भोजन—सब तालपुट विष के समान महान भयंकर हैं। ५ न रुवलावण्णविलासहासं, न जंपियं इंगिय-पेहियं वा । इत्थीण चित्तंसि निवेस ता दडुं ववस्से समणे तवस्सी ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२। उपासक आनन्द । श्रमण तपस्वी स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, मधुर वचन, काम-चेष्टा और कटाक्ष आदि का मन में तनिक भी विचार न लाये, और न इन्हें देखने का कभी प्रयत्न करे। अदंसणं चेव अपत्थणं च, अचिंतणं चेव उकित्तणं च। इत्थीजणस्साऽऽरियज्झाणजुग्गं, हियं सया बंभवए रयाणं॥ स्त्रियों को रागपूर्वक देखना, उनकी अभिलाषा करना, उनका चिन्तन करना, उनका कीर्तन करना आदि कार्य ब्रह्मचारी पुरुष को कदापि नहीं करने चाहिए। ब्रह्मचर्य व्रत में सदा रत रहने की इच्छा रखने वाले पुरुषों के लिये यह नियम अत्यन्त हितकर है, और उत्तम ध्यान प्राप्त करने में सहायक है। ७ मणपल्हायजणणी, कामराग विवड्डणी। बंभचेर रओ भिक्खू, थीकहं तु विवज्जए॥ ब्रह्मचर्य में अनुरक्त भिक्षु को मन में वैषयिक आनन्द पैदा करने वाली तथा काम-भोग की आसक्ति बढ़ाने वाली स्त्री-कथा को छोड़ देना चाहिए। समं च संथवं थीहिं, संकहं च अभिक्खणं। बंभचेर रओभिक्खू, निच्चसो परिवज्जए॥ ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु को स्त्रियों के साथ बातचीत करना और उनसे बार-बार परिचय प्राप्त करना सदा के लिये छोड देना चाहिए। अंगपच्चंगसंठाणं, चारुल्लविय-पेहियं। बंभचेर रओ थीणं, चक्खुगिझं विवज्जए॥ ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु को न तो स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों की सुन्दर आकृति की ओर ध्यान देना चाहिए, और न आँखों में विकार पैदा करने वाले हाव भावों और स्नेहभरे मीठे वचनों की ही ओर। १० कूइयं रूइयं गीयं, हसियं थणियकन्दियं। बंभचेर रओ थीणं, सोयगिझं विवज्जए॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SEARRRRRRR R RR ब्रह्मचर्य-सूत्र (१९३ । ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु को स्त्रियों का कूजन (बोलना) रोदन, गीत, हास्य, सीत्कार और करुण क्रन्दन-जिसके सुनने पर विकार पैदा होते हैं-सुनना छोड़ देना चाहिए। हासं किडे रइं दप्पं, सहस्साऽवत्तासियाणि य। बंभचेर रओ थीणं, नाणुचिन्ते कयाइ वि॥ ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु स्त्रियों के पूर्वानुभूत हास्य, क्रीड़ा, रति, दर्प, सहसा-वित्रासन आदि कार्यों को कभी भी स्मरण न करे। १२ पणियं भत्तपाणं तु खिप्पं मयविवड्डणं। बंभचेर रओ भिक्खू, निच्चसो परिवन्जए॥ ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु को शीघ्र ही वासना वर्द्धक पुष्टिकारी भोजन-पान का सदा के लिए परित्याग कर देना चाहिए। धम्मलद्धं मियं काले, जत्तथं पणिहाणवं। नाइमत्तं तु भुजेज्जा, बंभचेर रओ सया॥ ब्रह्मचर्य-रत स्थिरचित्त भिक्षु को संयम-यात्रा के निर्वाह के लिए हमेशा धर्मानुकूल विधि से प्राप्त परिमित भोजन ही करना चाहिए। कैसी ही भूख क्यों न लगी हो, लालसावश अधिक मात्रा में कभी भी भोजन नहीं करना चाहिए। १४ जहा दवग्गी पउरिन्धणे वणे, समारुओ नोवसमं उवेइ। __ एविन्दियग्गी वि पगामभोइणो, न बंभयारिस्स हिताय कस्सई॥ जैसे बहुत अधिक ईंधन वाले जंगल में पवन से उत्तेजित दावाग्नि शान्त नहीं होती, उसी तरह मर्यादा से अधिक भोजन करने वाले ब्रह्मचारी की इन्द्रियाग्नि भी शान्त नहीं होती। अधिक भोजन किसी को भी हितकर नहीं होता। विभूसं परिवज्जेज्जा सरीर परिमडणं। बंभचेर रओ भिक्ख, सिंगारत्थं न धारए। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ । उपासक आनन्द ब्रह्मचर्य - रत भिक्षु को शरीर की शोभा और टीप-टाप का कोई भी श्रृंगार सम्बन्धी काम नहीं करना चाहिए। १६ सद्दे रुवे य गन्धे य, रसे कासे तहेव य । पंचविहे कामगुणे, निच्चसो परिवज्जए ॥ ब्रह्मचारी भिक्षु को शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श का - इन पाँच प्रकार के काम-गुणों को सदा के लिए छोड़ देना चाहिए। १७ दुज्जए कामभोगे य, निच्चसो परिवज्जए । कट्टणाणि सव्वाणि, वज्जेज्जा पणिहाणवं ॥ स्थिर चित्त, भिक्षु, दुर्जय काम-भागों को हमेशा के लिए छोड़ दे। इतना ही नहीं, जिनसे ब्रह्मचर्य में तनिक भी क्षति पहुँचने की सम्भावना हो, उन सब शंका स्थानों का भी उसे परित्याग कर देना चाहिए। १८ कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स । जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्सन्तगं गच्छइ वीयरागो ॥ देवताओं सहित समस्त संसार के दुःख का मूल एकमात्र काम-भागों की वासना ही है। जो साधक इस सम्बन्ध में वीतराग हो जाता है, वह शारीरिक तथा मानसिक सभी प्रकार के दुःखों से छूट जाता है। १९ देवदानवगन्धव्वा, जक्खरक्खसकिन्नरा | बंभारि नमसन्ति, दुक्करं जे करेन्ति ते ॥ जो मनुष्य इस भांति दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसे देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर आदि सब नमस्कार करते हैं। २० एव धम्मे धुवे निच्चे, सासए जिणदेसिए । सिद्धा सिज्झन्ति चाणेणं, सिज्झिस्सन्ति तहा परे ॥ यह ब्रह्मचर्य धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और जिनोपदिष्ट है। इसके द्वारा पूर्णकाल में कितने ही जीव सिद्ध हो गये हैं, वर्तमान में हो रहे हैं, और भविष्य में होंगे। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IIIIIIIIIIIIIIIII अपरिग्रह-सूत्र न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुतं महेसिणा।। प्राणीमात्र के संरक्षक ज्ञातपुत्र (भगवान् महावीर) ने कुछ वस्त्र आदि स्थूल पदार्थों को परिग्रह नहीं बतलाया है। वास्तविक परिग्रह तो उन्होंने किसी भी पदार्थ पर मूर्छा का—आसक्ति का रखना बतलाया है। धण-धन्न पेसवग्गेसु, परिग्गहविवज्जणं। सव्वारंभ-परिच्चाओ, निम्ममत्तं सुदुक्करं। पूर्ण संयमी को धन-धान्य और नौकर-चाकर आदि सभी प्रकार के परिग्रहों का त्याग करना होता है। समस्त पापकर्मों का परित्याग करके सर्वथा निर्ममत्व होना तो और भी कठिन बात है। बिडमुब्भेइमं लोणं, तेल्लं सप्पिं च फाणियं। न ते सन्निहिमिच्छन्ति, नायपुत्त-वओरया॥ जो संयमी ज्ञातपुत्र (भगवान् महावीर) के प्रवचनों में रत हैं, वे बिड़ और उद्भेद्य आदि नमक तथा तेल, घी, गुड़ आदि किसी भी वस्तु के संग्रह करने का मन में संकल्प तक नहीं लाते। जं पि वत्थं च पायं वा, कंबलं पायपुंछणं। तं पि संजमलज्जट्ठा, धारेन्ति परिहरन्ति य॥ परिग्रह विरक्त मुनि जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण अदि वस्तुएँ रखते हैं- काम में लाते हैं। (इनके रखने में किसी प्रकार की आसक्ति का भाव नहीं सव्वत्थुवहिणा बुद्धा, संरक्खण-परिग्गहे। अवि अप्पणो वि देहम्मि, नाऽऽयरन्ति ममाइयं॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |१९६ । उपासक आनन्द । ज्ञानी पुरुष, संयम-साधक उपकरणों के लेने व रखने में कहीं भी किसी भी प्रकार का ममत्व नहीं करते। और तो क्या, अपने शरीर तक पर भी ममता नहीं रखते। लोहस्सेस अणुप्फासो, मन्ने अन्नयरामवि। जे सिया सन्निहिकामे गिही, पव्वइए न से॥ संग्रह करना, यह अन्दर रहने वाले लोभ की झलक है। अतएव में मानता हूँ कि जो साधु मर्यादा-विरुद्ध कुछ भी संग्रह करना चाहता है, वह गृहस्थ है—साधु नहीं है। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ बुद्ध-वचन १ न हि वेरेन वेरानि, सम्मन्तीध कुदाचनं । अवेरेन च सम्मन्ति, एस धम्मो सन्नतमो ॥ वैर से वैर कभी शान्त नहीं होता । अवैर से ही वैर शान्त होता है। यही सनातन नियम है। 1 २ असारे सार - मतिनो सारे चासार-दस्सिनो । ते सारं नाधिगच्छंति, सम्मा संकम्प गोचरा ॥ सार को सार और असार को आसार समझने वाले, सच्चे संकल्पों में संलग्न मनुष्य सार को प्राप्त करते हैं। अप्पमादो अमत-पदं, घमादो मच्चुनो पदं । अप्पमत्ता न मीयन्ति, ये पमत्ता यथा मता ॥ अप्रमाद अमृत पद है, प्रमाद मृत्यु का पद । अप्रमादी मनुष्य मरते नहीं और प्रमादी मनुष्य मृत के समान होते हैं। ४ यथा भमरो पुष्पं, aण्णगन्धं अहेठमं । पलेति रस मादाय, एवं गामे मुनी चरे ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ । उपासक आनन्द जिस प्रकार फूल के वर्ण या गन्ध को बिना हानि पहुँचाये भ्रमर रस को लेकर चल देता है, उसी प्रकार मुनि गाँव में विचरण करे। ५ मासे मास कुसग्गेन, बालो भुञ्जेथ भोजनं । न सो संखत धम्मानं, कलं अग्घति सोलसिं ॥ यदि मूर्ख मनुष्य महीने-महीने भर केवल कुशा की नोंक से भी भोजन करे, तो भी वह धर्म के जानकारों के सोलहवें हिस्से के बराबर नहीं हो सकता। ६ जो सहस्सं सहस्सेन, संगामे मानुसे जिने । एकं च जयज्ज मत्तानं, स वे संगाम जुत्तमो ॥ एक मनुष्य संग्राम में लाखों मनुष्यों को जीत ले और दूसरा अपने-आपको जीत ले, यह दूसरा मनुष्य ही संग्राम-विजेता है। ७ अभिवादन - सीलस्स, निच्चं बद्धा य सेविनो । चत्तारो धम्मा वड्ढन्ति, आयु वण्णो सुखं बलं ॥ जो अभिवादन शील है, जो नित्य बड़ों की सेवा करता है, सुख तथा बल में अभिवृद्धि होती है। ८ सव्वे तसन्ति दण्डस्स, सव्वेसं जीवियं पियं। उत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय न घातये ॥ उसकी आयु, वर्ण, Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्ध-वचन | १९९ । सभी दण्ड से डरते हैं, सभी को जीवन प्रिय है। अतः सभी को अपने जैसा समझ-कर, न किसी को मारे, न मरवाए। यही है सच्ची अहिंसा। हीनं धम्मं न सेवेय्य, पमादेन न संवसे। मिच्छादिटुिं न सेवेय्य, न सिया लोक-वड्ढनो॥ पाप कर्म न करे, प्रमाद में न रहे। असत्य धारणा न रखे। संसार बढ़ाने वाला न बने। जयं वे पसवति, दुक्खं सेति पराजितो। उपसन्तो सुखं सेति हित्वा जय-पराजयं॥ जय से वैर पैदा होता है, पराजित दुःखी रहता है। जय और पराजय दोनों को छोड़कर शान्त व्यक्ति सुख से सोता है। ११ नत्थि राग समो अग्नि, नस्थि दोससमो कलि। नत्थि खन्ध समा दुक्खा, नत्थि सन्ति परं सुखं'। राग के समान अग्नि नहीं। द्वेष के समान मल नहीं। स्कन्धो के समान दुःख नहीं। शान्ति से बढ़कर सुख नहीं। १२ आरोग्य परमालाभा, संतुट्ठी परमं धनं। विस्सास परमा आती, निब्वाणं परमं सुखं॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VISITERATORS २००। उपासक आनन्द । नीरोग रहना परम लाभ है। संतुष्ट रहना परम धन है। विश्वास सबसे बड़ा बन्धु है। निर्वाण सबसे बड़ा सुख है। पियतो जायते सोको, पियतो जायते भयं। पियतो विप्पमुत्तस्स, नत्थि सोको कुतो भयं॥ प्रिय से शोक उत्पन्न होता है। प्रिय से भय होता है। जो प्रिय से मुक्त है, उसे शोक नहीं। कहाँ से भय होगा। १४ पेमतो जायते सोको, पेमतो जायते भयं। पेमतो विप्पमुत्तस्स, नत्थि सोको कुतो भयं॥ प्रेम से शोक उत्पन्न होता है। प्रेम से भय। जो प्रेम से मुक्त है, उसे शोक नहीं, उसे भय कहाँ। कामतो जायते सोको, कामतो जायते भयं। कामतो विष्ण-मुत्तस्स, नत्थि सोको कुतो भयं॥ भोग से शोक उत्पन्न होता है। भोग से भय। जो भोग से मुक्त है, उसे शोक कहाँ? भय कहाँ? अक्कोधेन जिने कोधं, असाधु साधुना जिने। जिने कदरियं दानेन, सच्चेन अलिक वादिन॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |बुद्ध-वचन । २०१ । क्रोध को अक्रोध से असाधुता को साधुता से कृपण को दान से और असत्य को सत्य से जीते। १७ अहिंसका ये मुनयो, निच्चं कायेन संबुता। ते यन्ति अच्चुतं ठानं, यस्थ गन्तवा न सोचते॥ जो मुनि अहिंसक है। जो शरीर से सदा संयत रहते हैं। वे उस पतन-रहित स्थान को प्राप्त होते हैं, जहाँ जाने पर शोक नहीं होता। १८ संतकायो संतवाचो, सन्त वा सुसमाहितो। जन्त लोकामि सो भिक्खु, उप सन्तोति वुच्चति॥ जिसका शरीर शान्त है, जिसकी वाणी शान्त है, जिसका मन शान्त है, जो समाधियुक्त है, जिसने लौकिक भागों को छोड़ दिया है, वह भिक्षु उपशान्त है। मेत्ता विहारी यो भिक्खु, __पसन्नों बुद्ध-सासने। अधिगच्छे पदं सन्तं, संखा रुप समं सन्तं॥ मैत्री भावना से विहार करता हुआ, जो भिक्षु बुद्ध के उपदेश में श्रद्धावान् है, वह सभी संस्कारों के शमन, सुख स्वरूप शान्त पद को प्राप्त करता है। २० धम्मारामो धम्म-रतो, धम्मं अनुविचिन्तयं। धम्मं अनुस्सरं भिक्खु, सद्धम्मा न परिहायति Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २०२। उपासक आनन्द धर्म में रमण करने वाला, धर्म में रत, धर्म का चिन्तन करने वाला, धर्म का अनुसरण करने वाला भिक्षु सच्चे धर्म से च्युत नहीं होता। यो मुख संजतो भिक्खु, मन्त भाणी अनुद्धतो। अत्थं धम्मं च दीपेति, मधुरं तस्य भासितं॥ जो वाणी का संयमी है, जो मनन करके बोलता है, जो उद्धत नहीं है, जो अर्थ और धर्म को प्रकट करता है, उस व्यक्ति का भाषण मधुर होता है। २२ चक्सुना संवरो साधु, साधु सोतेन संवरो। घाणेन संवरो साधु, साधु जि ह्वाय संवरो॥ आँख का संयम अच्छा है। कान का संयम अच्छा है। नाक का संयम अच्छा है। जीभ का संयम अच्छा है। २३ कायेन संवरो साधु, साधु वाचाय संवरो। मनसा संवरो साधु, साधु सब्बत्थ संवरो॥ शरीर का संयम अच्छा है। वाणी का संयम अच्छा है। मन का संयम अच्छा है। समस्त इन्द्रियों का संयम रखने वाला भिक्षु दुःखों से मुक्त होता है। २४ कायप्पकोपं रक्खेय्य, कायेन संवुतो सिया। काय दुच्चरितं हित्वा, कायेन सुचरितं चरे॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्ध-वचन । २०३ काय की चंचलता से बचा रहे। काय का संयम रखे। शरीर के दुश्चरित्र को छोड़कर शरीर से सदाचरण करे। २५ वचीप्पकोयं रक्खेय्य, वाचाय संबुतो सिया। वची दुच्चरितं हित्वा, __ वाचाय सुचरितं चरे॥ वाणी की चंचलता से बचे। वाणी का संयम रखे। वाणी का दुश्चरित्र छोड़कर, वाणी का सदाचरण करे। २६ मनोप्पकोपं रक्खेय्य, मनसा संबुतो सिया। मनो दुच्चरितं हित्वा, मनसा सुचरितं करे॥ मन की चंचलता से बचे। मन का संयम रखे। मन का दुश्चरित्र छोड़कर मन का सदाचरण करे। २७ कायेन संबुता धीरा, ___ अथो वाचाय संबुता मनसा संबुता धीरा, ते वे सुपरि संबुता॥ जो काय से संयत है। जो वाणी से संयत है। जो मन से संयत है, वे ही अच्छी तरह से संयत कहे जा सकते हैं। २८ न भजे पापके मित्ते, न भजे पुरिसाधमे। भजेथ मित्ते कल्याणे, भजेथ परि सुत्तमे॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ उपासक आनन्द न दुष्ट मित्रों की संगति करे। न अधम पुरुषों की संगति करे। अच्छे मित्रों की संगति करे, उत्तम पुरुषों की संगति करे । २९ कण्हं धम्मं विप्पहाय, सुक्कं भावेथ पण्डितो । ओका अनोकं आगम्म, विवेके यत्थ दूरमं ॥ पापकर्म को छोड़कर पण्डितजन शुभ कर्म करे। घर से बेघर होकर, दूर जाकर एकान्त सेवन करें। ३० गामे वा यदि वा रजे, निन्ने वा यदि वा थले । यत्थारहन्तो विहरन्ति, तं भूमिं रामणेय्यकं ॥ गाँव हो या जंगल, नीची भूमि हो या ऊँचा स्थल हो, जहाँ अर्हत् लोग विहार करते हैं, वही रमणीय भूमि है। ३१ रमणीयानि अरञ्जानि, यत्थ न रमते जनो । वीतरागा रमिस्सन्ति, न ते काम - गवेसिनो ॥ रमणीय वन जहाँ साधारण लोग रमण नहीं करते, वहाँ पर वीतराग रमण करते हैं, क्योंकि वह काम भोगों के पीछे, दौड़ने वाले नहीं होते । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ ...कृष्ण-गीता स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव । स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत् किम् ॥ इस प्रकार भगवान के वचनों को सुनकर अर्जुन ने पूछा, हे केशव ! समाधि में स्थित स्थिर बुद्धि वाले पुरुष का क्या लक्षण है ? और स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है ? कैसे बैठता है ? कैसे चलता है ? २ प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ उसके उपरान्त श्रीकृष्ण महाराज बोले, हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग देता है, उस काल में आत्मा से ही आत्मा में संतुष्ट हुआ स्थिर बुद्धिवाला कहा जाता है। ३ दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ तथा दुःखों की प्राप्ति में उद्वेग रहित है मन जिसका और सुखों की प्राप्ति में दूर हो गयी है स्पृहा जिसकी तथा नष्ट हो गये हैं राग, भय और क्रोध जिसके ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है । ४ यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ और जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ तथा अशुभ वस्तुओं को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है। ५ यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ । उपासक आनन्द और कछुआ अपने अंङ्गो को जैसे समेट लेता है, वैसे ही यह पुरुष जब सब और से अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से समेट लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है। विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवर्जं रसोऽप्यस्य पर दृष्टवा निवर्तते ॥ यद्यपि इन्द्रियों के द्वारा विषयों को न ग्रहण करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु राग नहीं निवृत्त होता और इस पुरुष का तो राग भी परमात्मा को साक्षात् करके निवृत्त हो जाता है। ७ यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः । इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥ और हे अर्जुन! जिससे कि यत्न करते हुए बुद्धिमान् पुरुष के भी मन को यह प्रमंथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ बलात्कार से हर लेती हैं। ८ तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः । वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ इसलिये मनुष्य को चाहिये कि उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे परायण, स्थित होवे, क्योंकि जिस पुरुष के इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसकी ही बुद्धि स्थिर होती है। ९ ध्यायतो विषयान्पुंसः विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते । सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ और हे अर्जुन! मन सहित इन्द्रियों को वश में करके मेरे परायण न होने से मन के द्वारा विषयों का चिन्तन होता है और विषयों को चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है और आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। १० क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृति - विभ्रमः । स्मृतिभ्रंशादबुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण-गीता । २०७ और क्रोध से अविवेक अर्थात् मूढ़भाव उत्पन्न होता है और अविवेक से स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है और स्मृति के भ्रमित हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि के नाश होने से यह पुरुष अपने श्रेय: साधन से गिर जाता है। ११ रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् । आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ परन्तु स्वाधीन अन्त:करण वाला पुरुष राग-द्वेष रहित अपने वश में की हुई इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ अन्त:करण की प्रसन्नता अर्थात् स्वच्छता को प्राप्त होता है। १२ प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते । प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥ और उस निर्मलता के होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले पुरुष की बुद्धि शीघ्र ही अच्छी प्रकार स्थिर हो जाती है। १३ नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना । न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ।। और हे अर्जुन! साधन रहित पुरुष के अन्तःकरण में श्रेष्ठ बुद्धि नहीं होती है और उस आयुक्त के अन्त:करण में आस्तिक भाव भी नहीं होता है और बिना आस्तिक भाव वाले पुरुष को शान्ति भी नहीं होती । फिर शान्तिरहित पुरुष को सुख कैसे हो सकता है। १४ इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते । तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥ क्योंकि जल में वायु नाव को जैसे हर लेता है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के बीच में जिस इन्द्रिय के साथ मन रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हरण कर लेती है। १५ तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८1 उपासक आनन्द । इससे हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ सब प्रकार इन्द्रियों के विषयों से वश में की हुई होती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर होती है। या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥ और हे अर्जुन! सम्पूर्ण भूतप्राणियों के लिये जो रात्रि है उस नित्य शुद्ध बोधस्वरूप परमानन्द में भगवत् को प्राप्त हुआ योगी पुरुष जागता है और जिस नाशवान् क्षणभंगुर सांसारिक सुख में सब भूतप्राणी जागते हैं, तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि है। १७ आपूर्यमाणमचल प्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्। तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥ और जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र के प्रति नाना नदियों के जल उसको चलायमान न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही जिस स्थिर बुद्धि पुरुष के प्रति सम्पूर्ण भोग किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं, वह पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, न कि भोगों को चाहने वाला। १८ विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः। ह निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति॥ क्योंकि जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममता रहित और अहंकार रहित, स्पृहारहित हुआ बर्तता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है। एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति । स्थित्वास्यानन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥ हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर मोहित नहीं होता है और अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपासक आनन्द चरम तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर के दश श्रावकों में अग्रणी थे। उनेक त्यागमय तथा तपोमय जीवन की सुन्दर झाँकी उपासक दशांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में अंकित है। राष्ट्र सन्त उपाध्याय अमरमुनि जी ने आनन्द श्रावक के जीवन पर विशद, व्यापक एवं विविध दृष्टिकोणों से प्रकाश डाला है, अपने प्रवचनों में, उसका ही मनोहर, सुन्दर संकलन प्रस्तुत पुस्तक में है। सम्पादक विजय मुनि शास्त्री