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________________ |१२० । उपासक आनन्द कहीं-कहीं आप पढ़ते हैं, कि धर्म के लिए खून किए गए और तलवारों के जोर पर धर्म-परिवर्तन कराया गया। वह तलवारें कहती थीं—तुम उस धर्म को छोड़कर इस धर्म को स्वीकार कर लो, अन्यथा हम तुम्हारी जिन्दगी का फैसला कर देंगी। अपने पड़ौसी धर्मों के इतिहास को पढ़ते हैं, तो मालूम होता है, कि उनका इतिहास चून से रंगा हुआ है और तलवारों की छाया में ही उन्होंने अपने पैर फैलाए हैं। न उन्होंने बुड्ढों की भावनाओं को देखा, न बच्चों की भावनाओं को। उस धर्म-परिवर्तन का रूप भी बड़ा उपहासास्पद रहा है। चोटी कटवाली तो इस्लाम धर्म के अनुयायी हो गए, और चोटी रखवा ली तो हिन्दू-धर्म के अनुयायी हो गए। जब धर्म का यह रूप बन गया, तो संसार में कुहराम मच गया। भारत के इतिहास को देखने पर आपको यही रूप मिलेगा। धर्म के नाम पर घोर हिंसा होती रही है। धर्म के इस काल्पनिक रूप के पीछे कितने अन्याय हए हैं। कैसे-कैसे भयंकर अत्याचार हुए हैं। उन अन्यायों और अत्याचारों की कहानियाँ आज भी रौंगटे खडे कर देती हैं। किन्तु जब हम कहते हैं, कि जैनधर्म के इतिहास में एक भी ऐसा प्रसंग नहीं है, एक भी खून का धब्बा कहीं नहीं लगा है, तो हमें महान् गौरव का अनुभव होता है। परिस्थितियों ने इजाजत दी, तो बढ़े भी और कभी रुके भी; किन्तु जब और जहाँ कहीं भी जैनधर्म की दुन्दुभि बजी, वहाँ सम्राटों की विशाल सेना से और तलवारों से नहीं बजी। जैनधर्म जहाँ कहीं पहुँचा, अहिंसा का जीवन-संदेश लेकर पहुँचा; मौत का वारंट लेकर नहीं पहुँचा। उसने जिससे कहा, यही कहा, कि यह अहिंसा का मार्ग है, करुणा का मार्ग है, और पसन्द हो तो इसे ग्रहण कर सकते हो। जैनधर्म ने राजा से भी यही कहा, और एक रंक से भी यही कहा। सबल से भी और निर्बल से भी यही कहा। भगवान् ने उपदेश दिया है जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ। जहा तुच्छस्स कत्थइ तहा पुण्णस्स कत्थइ। -आचारांग सूत्र अर्थात् राजा को जो उपदेश देते हो, वही रंक को भी दो, और रंक को जो उपदेश देते हो, वही राजा को दो। राजा को उपदेश देते समय यह भय मत लाओ, कि यह मांस खाता है, शराब पीता है, शिकार खेलता है, अथवा पर-स्त्रीगमन करता है, तो इन सब बातों की बुराई कैसे करूँ। करुंगा तो राजा नाराज हो जाएगा। इस प्रकार का भय मन में मत लाओ। जो सत्य है, जो तथ्य और पथ्य है, उसी का उपदेश दो। सिंहासन नाराज होता हो, या डराता हो, तो परवाह नहीं; परन्तु अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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