SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ इच्छा-योग-'जहासुहे' ।१११] . जो बात भोजन के विषय में है, वही भजन के विषय में है। अन्तर केवल यह है, कि भोजन शरीर की खुराक है और भजन आत्मा की खुराक है। भजन का आशय यहाँ तप, त्याग, व्रत, नियम आदि सभी प्रकार के धर्माचरण से है। जैसे भोजन उतना ही करना उचित समझा जाता है, जितना हजम हो सकता हो, जितना करने की रुचि हो। पाचन-शक्ति और रुचि के अनुसार जो भोजन किया जाता है, उसका अच्छा रस बनता है। वह भोजन शरीर को बलिष्ठ बनाता है। भले ही वह थोड़ा हो, किन्तु लाभदायक ही होता है । किन्तु दूसरों को जबर्दस्ती से, अपनी पाचन-शक्ति से अधिक ढूँसा हुआ भोजन, अधिक तो क्या, थोड़ा भी लाभ नहीं पहुँचाता। यही नहीं, वह शरीर में रोग पैदा कर देता है, आर्तध्यान उपजाता है, और शरीर को दुर्बल बनाने का कारण साबित होता है। इसी प्रकार अरुचिपूर्वक, शक्ति से बढ़कर, बिना भावना के जबर्दस्ती से जो तपत्याग आदि किया जाता है, वह भी लाभकारी नहीं होता। वह आर्तध्यान उत्पन्न करता है, और आगे चलकर तपस्या की रुचि को नष्ट कर देता है। इस ढंग से की गई लम्बी तपस्या भी थोड़ी तपस्या के बराबर भी फलदायक नहीं होती। ___ आशय यह है, कि प्रत्येक धर्मक्रिया के साथ आन्तरिक भावना और इच्छा को जोड़ना जरूरी है। बिना भावना की क्रिया सफल नहीं होती। एक जगह कहा है घनं दत्तं वित्तं जिन-वचन मभ्यस्तमखिलं, क्रिया-काण्डं चण्डं रचितमवनौ सुप्तमसकृत्। तपस्तीज-तप्तं चरणमपि चीर्ण चिरतरम्, न चेत् चित्ते भाव स्तुषवपनवत्सर्वमफलम्। आपने सारा धन लुटा दिया, समस्त शास्त्रों को घोट-घोट कर कंठस्थ कर लिया, खूब क्रिया-काण्ड किया, भूमि पर शयन किया, कठोर तपश्चरण कियामहीनों तक भूखे रहे और लम्बे काल तक दूसरे प्रकार के चारित्र का पालन किया, किन्तु मन में भावना नहीं जागी है, इस सारे अनुष्ठान के पीछे आपकी रुचि नहीं है, इच्छा नहीं है और केवल दुनिया को दिखाने के लिए यह सब किया है तो सब कुछ निष्फल है। धान के छिलके बोने वाले किसान के भाग्य में, अन्त में निष्फलता ही वदी है, उसी प्रकार भावना और इच्छा के बिना क्रिया करने वाले के भाग्य में भी निष्फलता ही लिखी है। भाव-शून्य क्रिया, जड़ क्रिया है। उससे आत्म-कल्याण नहीं। मतलब यह है, कि कोई भी धर्म किया हो, और उसको करने वाला चाहे साधु हो या श्रावक हो, सब के लिए एक ही सिद्धान्त है। उसी सिद्धान्त से जैनधर्म ने अपना रास्ता तय किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy