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________________ ११८ | उपासक आनन्द तैयारी ऊँची होगी, भावना ऊँची होगी, तो साधक ऊँचा जाएगा और नीची भावन होगी, तो नीचा जाएगा; किन्तु जो लड़खड़ाते हुए पैरों से ढकेल दिया गया है, वह जरूर लड़खड़ाता जाएगा। अपनी निज की योग्यता नहीं है—लोक-लज्जा ने आगे बढ़ा दिया है। तो जब तक मन में उच्च विचार नहीं हैं, शुभ संकल्प नहीं है, तब तव वह त्याग और तपस्या का महत्व नहीं समझेगा, उसमें कोई रस नहीं लेगा। कोई भी साधना क्यों न हो, जब तक वह भावनापूर्वक नहीं की जावेगी, साधक को उसमें रस नहीं आएगा। आचार्य कहते हैं __ यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भाव-शून्याः। बिना भावना के, बिना मन के की हुई कोई भी क्रिया फलप्रद नहीं होती। जैनधर्म यह नहीं पूछता, कि तूने क्या किया है। जैनधर्म का प्रश्न यह नहीं, कि तूने मास खमण किया है, या नवकारसी की है। वह तो यही पूछता है, कि तूने कैसे किया है। तू तपस्या के समय दो घड़ी भी भावनाओं में बहता रहा है या नहीं। यदि तू भावना में लीन रहा है, और अमृत के प्रवाह में बहता रहा है, तो तेरी दो घड़ी की तपस्या भी अच्छी है। महीने भर की तपस्या करके बैठ गया, और दो घड़ी के लिए भी शुभ संकल्प नहीं आए, तो उससे आत्मा का क्या उपकार हुआ। शक्ति को छिपाना मना है। तुममें जितनी शक्ति है, उसको छिपाने की चेष्टा मत करो। उसका उपयोग करो और उसका उपयोग करोगे, तो वह दिनों-दिन बढती जाएगी। किन्तु शक्ति से बढ़कर भी काम नहीं करना चाहिए। अपनी शक्ति के अनुसार जितना तप-त्याग कर सकते हो, अवश्य करो, और जो तुम्हारी शक्ति से बाहर है, उस पर स्पृहा का भाव रखो। उस पर श्रद्धा करो। कहा भी है— जं सक्कइ तं कीरइ, जं च ण सक्कड़ तस्स सद्दहणं। सद्दहमाणो जीवो, पावइ अजरामरं ठाणं जो शक्य है, करो। जो शक्य न हो, उस पर श्रद्धा न रखो उसे भी अपना कर्तव्य समझते रहो। इस प्रकार का श्रद्धा-शील साधक एक दिन अजर-अमर पद प्राप्त कर लेता है। आशय यह है, कि ईमानदारी के साथ अपनी शक्ति को तोलो और उसके अनुसार कार्य करो। शक्ति से ज्यादा नहीं, और कम भी मत करो। जिस साधक में शक्ति है, तैयारी है और ऊँचा संकल्प जाग उठा है, उसे उसकी अवहेलना भी नहीं करनी चाहिए, और किसी वासना से प्रेरित होकर, लोक-लाज या दबाव के कारण अपनी शक्ति से आगे भी कदम नहीं बढ़ाना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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