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________________ इच्छा-योग- 'जहासुहं' ।११७ दबाव या जबर्दस्ती या प्रलोभन की पद्धति भगवान् ने कभी ग्रहण नहीं की । श्रमण, श्रावक, और सम्यग्दृष्टि की भूमिकाएँ और मर्यादाएँ उनके उपदेश में प्रतिबिम्बित होती थीं, किन्तु अमुक भूमिका को स्वीकार करो। यह भगवान् ने कभी किसी से नहीं कहा। भगवान् की वाणी श्रवण करने के अनन्तर साधक अपने लिए जो भूमिका तय कर रहा है, और जिस रूप में अपने मन से तैयार होकर आ रहा है, उसी के लिए भगवान् कह देते 'जहासुहं देवाणुप्पिया ।' इसका आशय यह है, कि जैन-धर्म एक विशाल और विराट धर्म है । वह मनुष्य की आत्मा के साथ चलता है, जबर्दस्ती करके नहीं चलता । धर्माचरण के विषय में सहज भाव और अन्तरंग की ही प्रेरणा होनी चाहिए। वहाँ आतंक, भय या लोकलज्जा के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। हमें जो पाठ मिल रहा है, उसमें इच्छा का निवेदन है; अतएव जैन-धर्म को दूसरे शब्दों में हम 'इच्छा - योग' कह सकते हैं। अपनी इच्छा से, पर - प्रेरणा या प्रतारणा के बिना धर्माचरण करने को जैन-धर्म विहित मानता है । जब आप प्रतिक्रमण करते हैं, और प्रतिक्रमण के पाठों का उच्चारण करते हैं तब एक जगह बोलते हैं 'इच्छामि खंमासमणो ! वंदिउं ।' अर्थात् हे क्षमा - श्रमण ! मैं आपको वन्दना करना चाहता हूँ, क्योंकि मेरे मन में वन्दना करने की इच्छा उत्पन्न हुई है। > स्पष्ट है कि यहाँ किसी प्रकार का दबाव नहीं है, तथा इच्छा के अतिरिक्त दूसरी कोई चीज नहीं है। समाज का भी कोई दबाव नहीं है । केवल सहज जागृति का ही भाव है। आचार्यों ने कहा है, कि एक तरफ साधक को अपनी इच्छा बतानी है, और दूसरी तरफ, जिसे वन्दना करना है, उस वन्दनीय की आज्ञा भी प्राप्त करनी है। आज्ञा प्राप्त करने का हेतु यह है, कि गुरु जिस स्थिति में हैं, साधक से वन्दना कराने में उन्हें कोई असुविधा तो नहीं है। उपासक गुरु के निकट पहुँचा, और गुरु सहज भाव में हुए, वन्दना ग्रहण करने की स्थिति में हुए तो बड़ी वन्दना करनी चाहिए, और वैसी स्थिति में हुए तो लघु-वन्दना से भी काम चल जाता है। ऐसा न हो, कि गुरु अस्वस्थ हों, और लम्बी वन्दना शुरू कर दी जाए। अतएव दोनों तरफ की इच्छा होनी चहिए। वन्दना करने वाले की भी और वन्दना को स्वीकार करने वाले की भी । इसी प्रकार 'इच्छामि ठामि काउस्सग्गं' के पाठ से जो कायोत्सर्ग किया जाता है, उसमें भी इच्छा का ही दर्शन होता है। 'इच्छाकारेण संदिसह भगवं' इस पाठ से भी इच्छा की ही आवाज आ रही है। इस प्रकार इन सब पाठों में इच्छा प्रदर्शन का यही महत्त्व है, कि साधना में अपनी भावनाओं की तैयारी ही मुख्य वस्तु है, जबर्दस्ती नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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