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________________ |११६ । उपासक आनन्द । प्राण या आत्मा स्पष्ट रूप से हमारे सामने आ जाएगा। उसका इच्छानुरूप उसमें स्पष्ट रूप से लक्षित होगा। साधक की भूमिका सहज भाव में कितनी तैयार हुई, वह वाणी सुनने के पश्चात् अपने आप किस भूमिका पर आया है, उसके अन्तरंग में किस चीज का उल्लास उत्पन्न हुआ है, इसी चीज को जैनधर्म महत्त्वपूर्ण मानता है। इसीलिए भगवान् कहते हैं—'जहासुहं' जैसे सुख उपजे, वैसा करो। किन्तु मा पडिबंध करेह'-अर्थात् तुमने जो सोचा है, तुम्हारी आत्मा अपने आप जिस भूमिका पर पहुँची है, उसे करने में विलम्ब मत करो। क्षण भर का भी प्रमाद मत करो। विचार को आचार बनने दो। इसका अर्थ यह है, कि जैनधर्म के मूल में खींचतान नहीं है; बलात्कार नहीं है, दबाव नहीं है, आग्रह भी नहीं है, और किसी प्रकार का प्रलोभन भी नहीं है। जैनधर्म संघर्ष का धर्म नहीं है। वह धर्म के लिए भी जबर्दस्ती नहीं करता। वह धर्म-क्रिया के लिए भी सहज भाव का, स्वतः स्फूर्तः प्रेरणा का अनुमोदन करता है। अपने चित्त को अपनी योग्यता को परख लेने के बाद यदि कोई व्यक्ति श्रावक की भूमिका में आता है, तो भी ठीक है और यदि इससे भी बढ़ कर साधु की भूमिका में आता है, तो भी ठीक है। इन दोनों के अतिरिक्त यदि सिर्फ सम्यग्दृष्टि की भूमिका में ही आया तो भी ठीक है। प्रत्येक मनुष्य में जैनधर्म साधक का स्वागत करता है। वह महान् क्रान्ति और इन्कलाब की देन है, कि साधक अग्रसर होकर किसी भी भूमिका में आ जाए। आप किसी भी आगम का पारायण कर जाइए, सर्वत्र एक ही बात देखने को मिलेगी। भगवान् के पास छोटे बच्चे आए हैं, और उन्होंने किसी साधना को ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की है, तब भी भगवान् ने 'जहासुहं' कहा है, और बड़े-बड़े साधक आए हैं, तब भी यही कहा है। ऐसा कहते समय भगवान् ने साधक की अवस्था को कोई महत्त्व नहीं दिया है. यही कारण है, जो किसी वृद्ध से भी भगवान् ने यह नहीं कहा कि 'तुम बुड्ढे हुए हो, मगर अभी तक भी तुम्हारी इन्द्रियाँ शांत नहीं हुई हैं' क्यों वासनाओं की जिन्दगी में भटक रहे हो। छोड़ो न इन झंझटो को। ___मगर हमारे इस कथन का अर्थ यह नहीं है, कि भगवान् इस आशय का कभी प्रवचन ही नहीं करते थे, वासनाओं के त्याग का उपदेश ही नहीं देते थे। करते थे, पर इस सम्बन्ध में उनका उपदेश सामूहिक रूप में ही होता था। किसी व्यक्ति-विशेष को लक्ष्य करके उस पर दबाव नहीं डालते थे। भगवान् भोग के अवगुण और त्याग के गुण बतलाते थे, असंयम से होने वाले पतन और संयम से होने वाले उत्थान का मार्मिक और सारयुक्त शब्दों में चित्रण करते थे, और दुनिया की झंझटों को त्यागने की बात भी कहते थे; किन्तु वह वस्तु स्वरूप का यथार्थ निदर्शन होता था। व्यक्तिगत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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