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इच्छा-योग-'जहासुहं' ।१२१ मन में दुर्भावना की गंध मत रखो। वह सत्य कैसा जो कटुक हो । वह मधुर ही होना चाहिए, परन्तु तथ्य और पथ्य भी होना चाहिए, और निर्भय भाव से व्यक्त किया जाना चाहिए ।
इसी प्रकार कोई दरिद्र और भिखारी आया है, तो उस से भी उसी प्रेम और स्नेह से सत्य बात कहो । वहाँ यह विचार मत करो, कि इस दरिद्र को क्या उपदेश दूँ। अगर इसने धर्म को अंगीकार भी कर लिया, तो धर्म की क्या उन्नति होगी। राजा धर्म को अंगीकार कर लेगा तो प्रभावना होगी, परन्तु इस दरिद्र के साथ माथापच्ची करने से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा। यह समत्व योग है। सब समान हैं।
भगवान् महावीर कहते हैं, कि हमें धर्म को धन, वैभव या प्रभुत्व के काँटे पर नहीं तोलना है, हमें तो उसे स्नेह, प्रेम और भावना के काँटे पर तोलना है । अतएव गरीब के हृदय में भी अगर प्रेम की ज्योति जगी है, और सद्भावना उदित हुई है, उसकी आत्मा जागृति माँग रही है, तो उसे भी उसी प्रेम से उपदेश दो; किन्तु उपदेश पीछे किसी प्रकार का कड़वापन नहीं होना चाहिए।
धर्म आत्मा की खुराक है । वह जबर्दस्ती किसी के गले में ठूंसने की चीज नहीं है; बलात् किसी के मत्थे मढ़ देने की भी चीज नहीं है। तलवार धर्म का खून कर सकती है, धर्म चमका नहीं सकती। तलवार की चमक से धर्म में चमक नहीं पैदा हो सकती। जैनधर्म के हज़ारों वर्षों के लम्बे इतिहास के पन्ने में यही मनोभावना ओतप्रोत है । इसी कारण जैनधर्म का प्रचार करने के लिए कभी तलवार का उपयोग नहीं किया गया। धर्म अहिंसा एवं प्रेम में है। राग, द्वेष और घृणा में नहीं ।
उदायन आदि बड़े-बड़े सम्राट प्रभु के चरणों के सेवक रहे हैं, चन्द्रगुप् जैसे महान शक्तिशाली सम्राट भी जैनधर्म के अनुयायी हुए हैं। हेमचन्द्र के युग में कुमारपाल जैसे बलवान राजा भी भक्त हो गए हैं। जैनधर्म ऊँचे से ऊँचे महलों में भी रहा है, और बड़ी से बड़ी ताकतों में भी रहा है, मगर उसने कभी उस ताकत का प्रयोग नहीं किया। जैनधर्म का एकमात्र दृष्टिकोण यही रहा है, कि साधक सहज भाव से, अन्त: प्रेरणा से, उसे अंगीकार करे। वह तलवार के जोर पर नहीं चला, और न उसने चलना ही चाहा।
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जैन-धर्म इच्छा का धर्म है। जैन धर्म के अनुयायी चाहते, तो शक्ति का प्रयोग कर सकते थे। शंकराचार्य की तरह हमें भी शक्ति का प्रयोग करने से कौन रोक सकता था। मगर नहीं, ऐसा करना धर्म की आत्मा का घात करके उसके मुर्दे को गले लगाना है। जैनधर्म आत्मा की साधना और कल्याण के लिए है । वह प्रेम और स्नेह पर आधारित है, बलात्कार पर नहीं । जब तक हमारा यह आदर्श बना रहेगा, सौ में नहीं तो एक में ही सही, जैनधर्म अमर रहेगा । भय या दबाव से हजारों को भी
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