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________________ ४६ । उपासक आनन्द । ने भी यही कहा है कि यह जहर है। जीवन की कला, विष को अमृत बना सकती है। ___आनन्द के पास बारह करोड़ का धन था, और चालीस हजार गायें थीं और इतने धन के साथ उसे बहुत बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त थी। अपने नगर में वह राजा के बराबर प्रतिष्ठित समझा जाता था। इतनी महान् प्रतिष्ठा किसे मिलती है ? उसके लिए यह गौरव की बात थी। मगर एक आनन्द था, कि इस जहर को पीकर हजम कर सका? वह हजम कर सका, इसी कारण उसे नशा नहीं चढ़ा। आनन्द अपने कर्तव्य को नहीं भूला। जब उसे मालूम हुआ, कि भगवान् पधारे हैं, तब क्या वह बैठा रहा? उसने इससे पहले भगवान के दर्शन नहीं किए थे। वह जैन नहीं बना था, फिर भी अपने साथियों से, नगर-निवासियों से उसने भगवान की महिमा सुनी और उसकी धार्मिक मनोवृत्ति होने के कारण उसकी भावना जागी। उसका मन सद्गुरु के चरणों की खोज में रहा था। अतएव श्रद्धा-शील भक्त आनन्द के हृदय में आनन्द की लहर पैदा हुई। वह उस लहर में बह गया, और भगवान के दर्शन करने, उनकी वाणी सुनने और उपासना करने के लिए तैयार हो गया। उसने सोचा__एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ, तं महाफलं . . . . . . . . . . . 'जाव गच्छामि ...... "जाव पन्जुवासामि; एवं संपेहेइ। इस प्रकार विचार करके उसने स्नान किया, और शुद्ध वस्त्र धारण किए। राज-सभा की वेष-भूषा अलग है, बिरादरी और सभा-सोसाइटी में जाने की वेष-भूषा अलग है, और धर्म-सभा की वेष-भूषा न्यारी है। धर्म-सभा में जाने के लिए सादगी एवं स्वच्छता परम आवश्यक है। ___आनन्द ने जो वस्त्र पहने, वे सादे और शुद्ध थे। वस्त्र शुद्ध कैसे होते हैं ? वस्त्रों में कोई काम, क्रोध, मोह, माया आदि तो होते नहीं, तो उनकी शुद्धता यही है, कि उनमें मैल न हो, कुत्सित व गंदे न हों और ऐसे न हों, कि पहन कर जाने पर लोगों को घृणा उत्पन्न हो, उनकी सुरुचि में गड़बड़ पैदा हो! मनुष्य को समाज में रहना है, तो उसे वस्त्र भी समाज के योग्य ही पहनने चाहिए। समाज के योग्य होने का अभिप्राय यह भी नहीं, कि तड़क-भड़क वाले हों। वस्त्र ऐसे भी न हों, कि जिन्हें पहन कर समाज में जाने पर अलग ही दिखाई दें। वस्त्र साधारण हों, मगर गंदे और मैले न हों। सुधर्मा स्वामी ने यहां तड़क-भड़क का वर्णन नहीं किया है, कि जो बिजली की तरह चमचमाते हों! वे यही कहते हैंकि ठीक थे, सादे थे और शुद्ध थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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