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________________ | आनन्द का प्रस्थान | ४५/ मनुष्य संसार में आता है, और आँख खोलते ही दूध पीता है, और बढ़ता जाता है। राक्षस खून पीता है और गुलछर्रे उड़ाता है। उसे दूसरे का रक्त पीते समय तनिक भी दया नहीं आती। वह तो उसकी प्रकृति है। देवता अमृत पर जिया करते हैं। देव अमृत-प्रिय होते हैं। हाँ, तो मनुष्य दूध, राक्षस रक्त और देवता अमृत पीते हैं, किन्तु उस हलाहल जहर को कौन पीता है? उसे तो शिव-शंकर ही पीएँगे। वह शंकर, जो जगत को सुख-शान्ति देने को आए हैं। उसका कल्याण करने आए हैं। यह कथा तो एक अलंकार है, वस्तु स्थिति क्या है, इसी बात पर ध्यान दीजिए। आप तो अपने जीवन की कहानी पढ़िए, उस पर विचार कीजिए और जीवन के समुद्र का मन्थन कीजिए। जब समाज या राष्ट्र का मन्थन किया जाता है, तब पहले संघर्ष का जहर निकल कर सामने आता है। उसे पीकर भी मरना नहीं होगा। जो उसे पीकर मर गया, वह गया और जो उसे हजम कर गया, वह अमृत का भागी बन गया, अमर बन गया और शंकर बन गया। __ कई भाई उपवास में भी पारणा की चर्चा करते हैं। एक-दूसरे को पारणा के लिए आमंत्रण देते हैं और कहते हैं—मेरे यहाँ पारणा करना। इस प्रकार उपवास में भी पारणा की चर्चा चल पड़ती है; किन्तु ऐसा करना उचित नहीं। पारणा के दिन ही पारणा का स्मरण करना चाहिए। मगर जब उपवास में चर्चा चल पड़ती है, तब कहते हैं-मैं इतना दूध या घी पी सकता हूँ। मैं हलवा-कचौड़ी खाता हूँ। सब हज़म हो जाता है। दूसरा कहता है—पी तो जाओगे, किन्तु हजम भी कर सकोगे या नहीं ? घी पीने का मतलब यह नहीं, कि नाल की तरह मुँह में उड़ेल लिया। घी और दूध मर्त्यलोक का अमृत कहलाता है, किन्तु जब हजम नहीं होता, तो वही जहर बन जाता है। उपवास की अपेक्षा पारणा में अधिक संयम की आवश्यकता है। अभिप्राय यह है, कि मनुष्य जिसे हजम कर सकता है, वह अमृत हो जाता है, और जिसे हजम नहीं कर पाता, वह अमृत भी जहर का काम करता है। अमृत या जहर का मिलना या पीना बड़ी बात नहीं है, किन्तु उसे हजम कर पाना ही बड़ी बात है। विषपान करके उसे पचा लेना शंकर का ही काम है। धन जब हजम नहीं होता, तब वह भी नशा और जहर बन जाता है। हम भी कहते हैं, और हजारों अन्य परम्पराएँ भी इसे जहर कहती चली आई हैं। गुरु के गुरु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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