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________________ आनन्द का प्रस्थान । ४० अभिप्राय यह है, कि वस्त्र ऐसे होने चाहिए, जो समाज में पहन कर जाने पर नं तो गंदगी और मलीनता के कारण कुरुचि पैदा करें और न ऐसे हों, कि अपनी तड़क-भड़क के कारण दूसरों के दिल में डाह और ईर्ष्या पैदा करें। आपके वस्त्रों को देखकर दूसरे लोग न घृणा से मुँह फेर लें और न यह सोचें, कि इन्होंने ऐसे वस्त्र पहने हैं, तो मैं भी ऐसे ही मूल्यवान वस्त्र बनवाऊँ। सौन्दर्य दूसरे के मन में असूया उत्पन्न करता है। ___कई लोग गंदे और मैले-कुचैले वस्त्र पहनते हैं, और ऐसा करने में वे अपने त्याग की उच्चता समझते हैं, और समझते हैं, कि साफ-सुथरे वस्त्र पहनने से हमारा त्याग नीचा हो जाएगा। उन्होंने वस्त्रों की मलीनता में ही अन्तःकरण की उज्जवलता समझ रखी है। मगर वस्त्रों की मलीनता आत्मा को निर्मल नहीं बना सकती। अतएव यह समझना गलत है, कि वस्त्रों के मैले होने से त्याग ऊँचा होता है, और वस्त्र साफ सुथरे हों, तो त्याग नीचा होता है ! स्वच्छता पाप नहीं। कभी-कभी ऐसा होता है, कि जिनके पास सम्पत्ति है, वे उसका उपयोग कर लेते हैं, परन्तु बेचारे गरीबों की तरफ उनका ध्यान नहीं जाता। वे नहीं सोचते, कि गरीबों पर मेरे बहुमूल्य वस्त्रों का क्या असर पड़ रहा है, और वे ऐसे वस्त्र कैसे बनवाएँगे? ऐसे लोग गरीबों के दिल में कांटा पैदा कर देते हैं। किन्तु अच्छा नागरिक वही है, जो समाज में फूल बनकर रहे, कांटा बनकर नहीं। जो फूल बनकर रहते हैं, उन्हें कहीं भी सभा-सोसाइटी में जाने का अधिकार है, और वे कहीं भी पहुँच सकते हैं। वे जहाँ कहीं पहुँचेंगे, अपने सादा रहन-सहन के कारण दूसरों के दिल में डाह पैदा नहीं करेंगे। इसके विपरीत, जो दूसरों की आँखों में खटकने वाले, गरीबों के अन्तःकरण में ईर्ष्या की आग जलाने वाले और खुद में अकड़ पैदा करने वाले वस्त्र पहनते हैं, ऐसे नागरिकों को सभा-सोसाइटी में जाने का अधिकार नहीं है। वे आग लगाने वाले हैं, आग बुझाने वाले नहीं। तो, होना यह चाहिए – हम आग बुझाने वाले हैं, हम आग लगाना क्या जानें। श्रीमंत की श्रीमंताई आग लगाने में नहीं है. आग बझाने में है। वे जहाँ कहीं जाएँगे, और वहाँ घृणा, द्रोह, डाह, ईर्ष्या और वैमनस्य की आग लगी होगी, तो वे उसे बुझाएँगे, तो जनता उनका सच्चा सम्मान करेगी, उनकी प्रशंसा करेगी और कहेगी—नहीं साहब, करोड़पति होकर भी कितना सादा रहन-सहन है, उनका। इस प्रकार वे आपके द्वारा आदर्श ग्रहण कर सकेंगे। आपको दूसरों के अनुकूल बनना चाहिए। बहिनो! तुम भी जब निकलो, तो तुम्हारी वेष-भूषा ऐसी हो, कि लोग कहने लगें करोड़पति घराने की बाई कितने सादे वस्त्र पहने है। और लोग अपने पुत्र, पौत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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