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________________ |४८ । उपासक आनन्द । और पुत्री वगैरह को दृष्टान्त के रूप में तुम्हारा नाम लेकर शिक्षा दे सकें। इस प्रकार की जिंदगी को मैं महत्त्व की जिंदगी समझता हूँ। शास्त्रकार आनन्द के विषय में कहते हैं एवं संपेहेत्ता पहाए, सुद्दबेसाई..... . . . "जाव अघमरुग्घा चरणा लंकियसरीरे सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ। अर्थात्, इस प्रकार विचार कर आनन्द ने स्नान किया, शुद्ध और सादे वस्त्र धारण किये, और अल्प तथा मूल्यवान् आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया, और प्रभु के दर्शन के लिए अपने घर से निकल पड़ा । आनन्द ने जो वस्त्र पहने वे शुद्ध अर्थात् निर्मल थे। गंदे नहीं थे, समवसरण में जाने योग्य थे। मैंने कई गाँवों में देखा है, कि श्रावकों की मुखवस्त्रिका, आसन और पूंजनी आदि जो भी धर्मोपकरण होते हैं, इतने गंदे होते हैं कि सड़ते रहते हैं, बदबू देते हैं, और पता नहीं जब से लिए हैं, कभी भी स्वच्छ किए भी गए हैं या नहीं ? ऐसे उपकरणों को देख कर दूसरे लोग धर्म की अवहेलना करते हैं। उन्हें इस बात का भी ध्यान नहीं होता, कि गन्दगी से संमूर्छिम जीवों की उत्पत्ति होती है। उलटा, वे तो गंदगी रखने में धर्म समझते हैं। उनकी समझ में जहाँ जितनी गंदगी होगी, वहाँ उतना ही धर्म होगा! मगर लोगों ने यह गलत रास्ता अख्तियार कर रखा है। प्रायः धर्म के क्षेत्र में व्यवहार को और व्यवहार के क्षेत्र में धर्म को भुला दिया जाता है। किन्तु जब तक आत्मा शरीर से बिलकुल जुदा नहीं हो जाती, तब तक धर्म और व्यवहार भी एकदम अलग-अलग नहीं हो सकते। इस सचाई को हमें भूलना नहीं चाहिए। धर्म और व्यवहार अलग-अलग नहीं होते। आनन्द ने सादे और स्वच्छ वस्त्र तो पहने ही थे, साथ ही उसके पहनने का ढङ्ग भी अच्छा था। वस्त्र मिल गए, और साफ-सुथरे भी हुए, किन्तु उनके पहनने का ढङ्ग ठीक न हुआ, सलीका न हुआ, तो सब गुड़-गोबर हो गया। वस्त्र सादे हों, और स्वच्छ हों और उनको पहनने का सलीका भी हो, जिससे वे देखने वालों को भले लगें। यह भी एक कला है। इस कला के अभाव में, वस्त्रों में चाहे रत्न टांक दें, वे अच्छे नहीं लगेंगे। अतएव आनन्द ने सलीके के साथ वस्त्र धारण किये। वस्त्रधारण करने की भी एक कला होती है, एक ढंग होता है। आप कहेंगे, कि महाराज तो गृहस्थों की बातों में उलझ गए। अच्छा तो आगे चलता हूँ ; किन्तु भाई, आगे की बात भी संसार की ही है। वह है, कि आनन्द ने ऐसे गहने पहने जो वजन में हल्के; किन्तु कीमत में भारी थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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