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________________ | आस्तिक आनन्द ।११३| बाँट दिया। नौकरों को तनख्वाह दुगनी और तिगुनी कर दी। घोषणा करवा दी—मैं राजा बन गया हूँ, और जिसे जो चाहिए, सो ले ले। सारे नगर में हलचल मच गई। ___ इस प्रकार एक पहर समाप्त होने से पहले वह सिंहासन से नीचे उतर गया और बोला-हम अपने घर जाएँगे। जय-जयकार के साथ वह घर चला गया, और आनन्द में रहने लगा। एक पहर में ही उसने राजा का खजाना खाली कर दिया। वह करोड़ों का माल अपने साथ ले गया। ___ कालान्तर में दूसरे सेठ को भी घाटा लगा। वह भी राजा के पास पहुँचा, और राजा ने अपने वचन के अनुसार उसे भी एक पहर का राजा बना दिया। वह राजमहल में पहँच कर सोचने लगा-राजा बनना है तो शान के साथ ही बनना चाहिए। रौब के साथ सिंहासन पर बैठना चाहिए। उसने उबटन, स्नान आदि कराने के लिए नाई को बुलवाया। जब हजामत, उबटन और स्नान आदि से निवृत्त हो गया और सुन्दर से सुन्दर पोशाकें मँगवाईं। पोशाकों का ढेर हो गया, तो सोच-विचार में पड़ गया, कि कौन-सी पोशाक पहनूँ और कौनी-सी न पहनूँ। यह ठीक है। नहीं यह रद्दी है। और यह कैसी रहेगी। अच्छी तो है, मगर यह इससे भी अच्छी है। किन्तु यह भी ठीक है। इस प्रकार पोशाक का चुनाव करने में ही बहुत-सा समय निकल गया। आखिर एक पोशाक पहनकर और सजकर ज्यों ही वह सिंहासन पर बैठा, मंत्री ने घंटी बजाई, और सचूना दी, कि एक पहर का समय पूर्ण हो चुका है। अब आप यह पोशाक उतार दीजिए। राजा बोला—अरे भाई; मैं तो अभी बैठा हूँ। अरे, मैं तो अभी कुछ भी नहीं कर सका। मंत्री ने कहा यह तो पहले सोचने की बात थी। आप तो स्नान करने और सजने में ही रह गए। वेषभूषा से ही चिपट गए। आपका साथी तो चट उछलकर सिंहासन पर सवार हो गया था। उसने क्षण भर का भी विलम्ब नहीं किया था। इसी बीच जो माँगने वाले आए थे, इसने नौकरों को आदेश दिया, कि इन्हें जूत लगाओ। क्योंकि माँगने वालों को देने में उसने अपनी इज्जत की हतक समझी। जो भिखारी आए, उनसे कहा—भागो सामने से। मैं मौज करने के लिए राजा बना हूँ, तुम्हारे लिए राजा नहीं बना हूँ। इन सब कारणों से जब वह वापिस लौटा तो उसके जूते ही पड़ गए। लोगों ने चारों तरफ से उसे घेर लिया। कहा—लाओ, क्या लाए हो खजाने से। पहर भर के राजा बने थे, तो क्या किया इस बीच में ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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