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________________ | आनन्द का प्रस्थान | ५१|| लगेगा—तुम अन्न-खाना और पानी पीना भी छोड़ दो, तुम अन्न खाओगे तो हम क्या खाएँगे? तुम पानी पीओगे तो हम क्या पीएँगे? ___हाँ तो, इस प्रकार आनन्द जब रवाना हुआ, तो वह अकेला नहीं था। अच्छी खासी मनुष्यों की टोली उसके साथ थी, और वह आनन्द पूर्वक भगवान् के समवसरण की ओर जा रहा था। मन में प्रभु के स्वरूप का चिन्तन चल रहा था। .. कहाँ से इकट्ठी की आनन्द ने वह टोली ? जान पड़ता है, वह उसके परिवार की टोली होगी और उसमें उसके खास-खास मिलने-जुलने वाले, संगी-साथी और नौकर-चाकर होंगे। उसका परिवार बहुत बड़ा था। सबको प्रभु की सेवा में ले गया। ___घर में कोई आनन्द-उत्सव हो, और मिठाई बनी हो, तो सब परिवार एवं नौकरों-चाकरों को इकट्ठा करके ही खाया जाता है, अकेले नहीं। सब साथ बैठकर खाते हैं, तभी आनन्द आता है। कोई अच्छी चीज अकेले खाली तो जीभ को भले ही मिठास आ गई, किन्तु हृदय में मिठास पैदा नहीं होती। चीज की मिठास आ जाती है, परन्तु प्रेम और आनन्द की मिठास नहीं आती। साथ में बैठकर खाई हुई चीज की मिठास उस मिठास से हजार गुनी अधिक होती है। उस मिठास का मूल्य नहीं आंका जा सकता। जब आनन्द को मालूम हुआ, कि भगवान् महावीर पधारे हैं, तो उसने बहुतों से कहा—चलो! जीवन का संघर्ष तो सदा ही चलता रहेगा। किन्तु प्रभु का पदार्पण कब-कब होता है ? ऐसा सौभाग्य कब-कब मिलता है? यह कल्पवृक्ष घर के आंगन में आ गया है, और यह गङ्गा बार-बार आने वाली नहीं है। लोग दूर-दूर से जिनका दर्शन करने आते हैं; वह हमारे तो घर में ही पधार गए हैं। तो क्यों न सब के सब दर्शन करने चलें, और अपना जीवन सफल करें? ___ मैं समझता हूँ, आनन्द ने अपनी शान के लिए टोली नहीं बनाई होगी। फिर भी निश्चित रूप में कैसे कहा जा सकता है, कि उस समय आनन्द की मनोवृत्ति कैसी रही होगी ? किन्तु आनन्द का मन धर्मोल्लास से भरा है, ऐसी स्थिति में यह संभावना कम ही है, कि वह अपने यश के लिए इतनी बड़ी भीड़ लेकर चला होगा। अपने जीवन में यश तो उसने पाया था। ___जो भी हो, आनन्द जन-समूह के साथ प्रभु के दर्शन करने को चला, तो रास्ते में से भी वह दूसरे लोगों को अपना साथी बनाता चला होगा, और इस तरह उसके साथ एक बड़ा-सा जन-समुदाय इकट्ठा हो गया होगा.। जहाँ लड्डुओं की प्रभावना बँटती है, वहाँ कोई अकेला नहीं जाता, वरन् घर के तमाम बाल-बच्चों को साथ लेकर जाता है। एक इस हाथ की तरफ है और दूसरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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