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1९८ । उपासक आनन्द ।
आप सुनते रहते हैं, कि लोभ बुरा है, मोह बुरा है, और दान की बड़ी महिमा है। देखो शालिभद्र ने कैसा त्याग किया था। घर-घर से चीजें माँग-माँग कर खीर तैयार की गई थी। कहीं से दूध, कहीं से चावल ओर कहीं से दूसरी चीजें लाई गईं थीं। उस खीर के लिए उसने कितने आँसू बहाए, कितना रोया और पड़ा रहा और मचला। तब कहीं मुश्किल से खीर तैयार हो पाई थी। वह थाली में लेकर खाने को तैयार ही था, कि एक मुनि आ गए, महीने के उपवास का पारणा वाले संत आ गए। बच्चे के पास पहँचे, और सोचने लगे इसके घर की परिस्थिति बड़ी विचित्र है। वे हटने लगे। तब बालक ने आग्रह किया—लो, महाराज। थोड़ी तो ले ही लो। ___ बालक के आग्रह पर मुनि खीर लेने को तैयार हो गए। सोचा-बच्चे का मन नहीं तोड़ना चाहिए, इंकार नहीं करना चाहिए। उन्होंने पात्र निकाला और कहाबच्चे, थोड़ी-सी डालना।
बच्चे ने कहा हाँ, थोड़ी-सी तो है ही। इतना कह कर उसने पात्र के ऊपर जो थाली औंधाई तो सारी खीर पात्र में आ गई। बच्चे ने सोचा–संत हैं, कब-कब इनका आगमन होता है। लाभ पूरा मिला। अहोभाग्य है, कि आज दान देने के लिए सुपात्र मिला।
इस प्रकार उस बालक को देने से पहले और देने के बाद भी हर्ष हुआ, और जिस करनी से पहले और पीछे हर्ष की लहर होती है, वह सोना बन जाती है, और उसमें सुगंध आ जाती है। उस बालक ने तो कभी उपदेश नहीं सुना था। फिर यह कैसे हुआ। उस बालक के साथ उन लोगों की तुलना कीजिए जो शालिभद्र के गीत सुनते-- सुनते बुड्ढे हो जाएँगे, किन्तु जब दान का प्रश्न आएगा या स्वधर्मी की सहायता की बात आ जाएगी, तो जिन्दगी भर सुनी हुई शालिभद्र की कहानी मन को जरा भी प्रेरित नहीं करेगी। और कहने पर किया, तो क्या किया। जो कुछ करो अन्त:प्रेरणा से करो और करके हिसाब मत देखना। यही शालिभद्र की कथा सुनने की सार्थकता है।
श्रोता बनने से पहले मन की इतनी तैयारी आवश्यक है, कि जो कुछ सुना जाए उसे शक्ति भर आचरण में लाया जाए, और आचरण करते समय यह देखा जाए, कि ऐसा करने से दुनियाँ क्या कहेगी। मेरे परिवार वाले क्या कहेंगे। तभी श्रोता बनने का सच्चा आनन्द आएगा।
एक राजकुमार घोड़े पर सवार होकर, अस्त्र-शस्त्र से लैस और लाखों की कीमत के अपने आभूषण पहन कर सैर करने को चला। आगे बढा, तो देखा कि गांव के बाहर मन्दिर है, और वहाँ भीड़ लगी है। वह उसी ओर गया और पास पहुँच कर, घोड़े को पानी पिला कर पास ही एक वृक्ष से बांध दिया। खुद पानी पीकर छाया में
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