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________________ [१३२ । उपासक आनन्द । किसी लड़के का बाप लड़के को किसी काम के लिए भेजना चाहता है। लड़के की इच्छा नहीं होती, तो वह कहता है- 'मैं वहाँ कैसे जाऊँगा ? कैसे बोलूँगा ? क्या कैसे करूँगा? मुझसे यह नहीं बनेगा। आप ही जाइए।' इस प्रकार वह इन्कार करता है। किन्तु पिता की आग-भरी आँखें देखकर और झिड़कियाँ सुनकर वह जाने को मजबूर होता है, चला भी जाता है, और नाकामयाब होकर लौटता है। अपना मुँह लटकाए हुए आता है, तो पिता कहता है—मैं तो पहले ही जानता था, कि रोता जाएगा, तो मरे की खबर लाएगा। आशा के आधार पर संसार चलता है। अब उस पिता से कोई पूछे कि तुम पहले ही जानते थे, तो लड़के को क्यों जाने को मजबूर किया। तुम स्वयं क्यों नहीं गए, जो मरे की नहीं, जिन्दे की खबर लाते। इसी प्रकार साधक के विषय में भी देखना चाहिए, कि वह काम करेगा या नहीं। करेगा तो कितना करेगा। जब यह नहीं देखा जाता, और जबर्दस्ती उस पर भार लाद दिया जाता है, तो वह अवसर आते ही लादे हुए भार को उतार कर फेंक देता है। परिणाम यह होता है, कि वह प्रतिज्ञा-भ्रष्ट होकर छल और कपट का सेवन करने लगता है। यह आप जानते ही हैं, कि प्रतिज्ञा न लेने की अपेक्षा प्रतिज्ञा लेकर उसे खण्डित कर देना कितना बड़ा पाप है। संकल्प को पूरा करना चाहिए। ___ अभिप्राय यह है, कि आप प्रेरणा अवश्य दें, प्रयत्न अवश्य करें, मगर साधक की इच्छा जगाने के लिए यह सब करें। उसकी इच्छा जाग जाए, तो आप उसे साधु, श्रावक या सम्यग्दृष्टि बनाएँ। इच्छा न जागे तो जबर्दस्ती न करें। जो साधक अपनी आन्तरिक, इच्छा से किसी व्रत, नियम या प्रतिज्ञा को ग्रहण करेगा, वह दृढ़तापूर्वक उसका पालन करेगा। फिर संसार की कोई भी शक्ति उसे उसके मार्ग से मोड़ नहीं सकेगी। भगवान् के इसी सन्देश को हम इच्छा-योग या इच्छा-धर्म कहते हैं। भगवान् महावीर ने एक ही छोटे-से वाक्य में दो महत्त्वपूर्ण संकेत प्रकट किए हैं। पहले 'जहासुहं' फिर देवाणुप्पिया और फिर 'मा पडिबंधं करेह'। 'जहासुहं' की व्याख्या की जा चुकी है। यहाँ 'मा पडिबंधं करेह' के सम्बन्ध में विचार करना है। शुभ काम में विलम्ब मत करो। ___ 'मा पडिबंधं करेह' का आशय है---जो तुमने सोचा है, सत्य के लिए जो सङ्कल्प किया है, उस पर अमल करने में विलम्ब न करो, लापरवाही न करो, आलस्य न करो। तुमने अपने विचारों में जो लक्ष्य बना लिया है, अपनी भावना, प्रेरणा या जागृति के अनुसार अपने लिए जो मार्ग निश्चित कर लिया है, उसके विषय में हम नहीं कहते, कि इतना नहीं, इतना करो, और अधिक करो; परन्तु यह अवश्य कहते हैं, कि उस लक्ष्य पर चलने में विलम्ब मत करो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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