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________________ mes मा पडिबंध करेह ।१३१ एक आदमी बैठा है। आप उसे खड़ा करना चाहते हैं, और चलाना चाहते हैं, तो आप क्या करेंगे। आप उसे चलने के लिए कहेंगे, और कहेंगे कि भाई! पुरुषार्थ करो; बैठे रहने से काम नहीं चलेगा। प्रयत्न करने से काम सिद्ध हो जाएगा। इस प्रकार कहने से वह खड़ा हो जाए, और चलने लगे तो ठीक है। अगर वह खड़ा नहीं हो और पड़ा ही रहे, उठने की भावना उसके मन में जागे ही नहीं, तो आप क्या करेंगे? कदाचित् हाथ-पैर पकड़ कर और घसीट कर आप ले गए, तो उसका क्या अर्थ है। कहाँ तक घसीटेंगे, और कब तक घसीटेंगे। बलात्कार में धर्म नहीं है। भगवान का 'जहासहं' वाला इच्छा-मार्ग हमें यही सिखलाता है, कि आप प्रेरणा दीजिए, प्रयत्न कीजिए, साधक मिले, तो उसे समझाइए और सन्मार्ग पर चलने के लिए उसकी इच्छा जागृत कीजिए, जिससे वह स्वेच्छा से तैयार हो जाए। इतना करने पर भी इसकी इच्छा जागृत नहीं होती; भावना नहीं बनती तो, उसे रोते हुए और घसीटते हुए ले चलने का प्रयत्न मत कीजिए। उसकी प्रसुप्त चेतना को जागृत करें, यही धर्म है। इस प्रकार भगवान् का 'जहासुहं' का मार्ग हमें प्रेरणा देने और उसके लिए प्रयत्न करने से इन्कार नहीं करता। कल एक रूपक कहा था। फल पाने के इरादे से बच्चे पत्थर फेंकते हैं, और फेंकने के बाद प्रतीक्षा करते हैं, कि वह निशाने पर लगा या नहीं। निशाना चूक जाता है, और पत्थर नीचे आ जाता है, तो बालक निराश नहीं होते, वे फिर प्रयत्न करते हैं। फिर पत्थर मारते हैं, और फिर फल गिरने की प्रतीक्षा करते हैं। हमें भी जनता के प्रति यही व्यवहार करना है। हमें कोई भी मिले, एक आदमी मिले, चाहे अनेक मिलें, पूरा समाज मिले, चाहे पूरा राष्ट्र मिले, आप प्रयत्न करके देखिए, एक बार नहीं, अनेक बार। जब तक आपके प्रयत्न का कोई फल न निकले, तब तक, अपने प्रत्येक प्रयत्न के पश्चात् देखते भी चलिए, कि व्यक्ति, समाज या राष्ट्र के मन पर आपकी बात का प्रभाव पड़ा या नहीं। अगर नहीं, तो फिर प्रयत्न कीजिए—फिर, और फिर। जब आपका प्रयत्न सफल हो जाए, तो वहाँ से दूर हट जाइए, अन्यथा मोह का दुर्गुण आप में प्रवेश कर जाएगा, और परिग्रही हो जाएंगे। जब तक आप सफल-मनोरथ न हो जाएँ, तब तक आपका प्रयत्न सतत चालू रहना चाहिए, प्रेरणा देने के लिए, साधक की इच्छा को जगाने के लिए। घसीट कर ले जाने के लिए नहीं। जैनधर्म सत्कर्म करने की इच्छा को जगाने की इजाजत देता है, घसीटने की नहीं। भगवान् महावीर ने समग्र विश्व को यह महान् संदेश दिया, कि तुम्हें अपना मार्ग अपने आप तैयार करना है। जितना चल सकते हो, खुशी से चलो। रोते-रोते मत चलो। रोकर जाओगे, तो मरे की खबर लाओगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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