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________________ मा पडिबंध करेह । १३३ इस प्रकार भगवान् का दूसरा नारा है-'देर मत करो।' जहाँ-जहाँ जहासुहं' आया है, वहाँ-वहाँ 'मा पडिबंधं करेह' अर्थात् 'देर मत करो' भी आया है। ____ यह भी महत्त्वपूर्ण आदर्श है। साधारणतया देखा जाता है, कि लोग सोच-विचार में ही अपना समय नष्ट कर देते हैं। राजस्थान में तो कहावत भी है- मारवाड़ मंसूबे डूबी। आज कोई निर्णय किया, और सोचा, कल कर लेंगे। जब कल आया, और फिर भी नहीं किया, तो फिर सोचा-कल कर लेंगे। इस प्रकार टालमटूल करते-करते अक्सर करने की भावना ही समाप्त हो जाती है, और फिर जिंदगी भी समाप्त हो जाती है। जिंदगी का कुछ भरोसा नहीं है, यह जानता हुआ भी मनुष्य भविष्य में करने की सोचता है। किन्तु जब मनुष्य बन कर ही न किया, तो क्या ऊँट या घोड़ा बन कर करेगा। मनुष्य जीवन को दुर्लभ कहा है। ___ आज तू सोने के सिंहासन पर बैठा है, और तुझे लक्ष्मी की झनकार सुनाई दे रही है। ऐसे समय कुछ करने का मौका आता है, तो कह देता है-कल करूँगा, फिर देखंगा, सोचूँगा। परन्तु कौन जानता है, तेरे भविष्य को। सम्भव है, तेरा सारा वैभव लुट जाए, और रोटियों का प्रश्न हल करना भी मुश्किल हो जाए। उस समय क्या करेगा। कौन जानता है, कि किस समय श्वांस रुक जाएगा। कब हृदय की धड़कन बन्द हो जाएगी। जीवन में जो शुभ सङ्कल्प जागृत हुआ है, उस पर अमल करने में विलम्ब करना, सोच-विचार में पड़े रहना और कल करूँगा या परसों करूँगा, कह कर टालमटूल करना, जैन-धर्म की प्रेरणा नहीं है। जैन-धर्म सन्देश देता है, कि जब तुम्हारे अन्तर में शुभ सङ्कल्प का उदय हो, तो अपनी योग्यता को जाँच लो, और जितना कर सकते हो, उतना, करने के लिए अविलम्ब कटिबद्ध हो जाओ। उसको करने में पल भर की भी देर मत करो। जिंदगी का कुछ भी पता नहीं है। आज मनुष्य का जीवन मिला है, अच्छी संस्कृति मिल गई है, शारीरिक अवस्था ठीक है, मानसिक स्थिति भी अच्छी है, वातावरण अनुकूल है, करने की भावना है, फिर भी अभी नहीं करते, तो कल का क्या भरोसा है। कौन कह सकता है, कि आँख की जो पलक खुली है, वह फिर झपेगी या नहीं। या झपी लगी, पलक फिर खुल सकेगी या नहीं। चलने को तैयार हुए और एक कदम रखा, किन्तु दूसरा कदम रख सकोगे या नहीं। जीवन क्षण-भंगुर है। इसका भरोसा करके किसी सत्कर्म को आगे के लिए टालना विचार-शीलता नहीं है। इसीलिए भगवान् ने कहासमयं गोयम मा पमायए। -उत्तराध्ययन www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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