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________________ |२६ । उपासक आनन्द । पद तो आध्यात्मिक दृष्टि से उच्च है, किन्तु संसार के बड़े से बड़े वैभव के नाते तो चक्रवर्ती का पद ही सर्वोत्कृष्ट है। ___ इस तरह तीन तरफ से आनन्द-प्रद सूचनाएँ पाकर भरत को कितनी प्रसन्नता हुई होगी, आज यह कौन कह सकता है? परन्तु भरत सोचते हैं, यह संसार है और यहाँ पिता-पुत्र के नाते तो बनते रहते ही हैं। यह संसार के नाते अनादि काल से चले आ रहे हैं—बनते और बिगड़ते रहे हैं। तो इस नाते मैं भगवान् का दर्शन करने में ढील नहीं कर सकता। उस आत्मिक आनन्द को नहीं छोड़ सकता। और वह चक्र-रत्न, पजा न की जाएगी, तो रुष्ट होकर चला जाएगा। मगर क्या कर सकता हूँ ? प्रभु की उपासना का परित्याग तो उसके लिए भी नहीं कर सकता। वह रहे तो रहे और जाए तो जाए। भाग्य में है तो जाएगा कहाँ ? न होता तो आता ही कैसे? आया है तो दास बन कर आया है, गुलाम होकर आया है, और धर्म के प्रताप से ही तो आया है। जिस धर्म के प्रताप से चक्र-रत्न आया है, चक्र-रत्न के लिए क्या उसी धर्म का परित्याग कर दूँ ? नहीं, चक्र-रत्न के लिए भरत रुकने वाला नहीं ! ___ और भरत, पुत्र और चक्र-रत्न दोनों को छोड़कर, भगवान् के दर्शन के लिए पहुँचे। भगवान् के परमानन्द-दायक प्रवचन-पीयूष का पान करने के लिए पहँचे। उन्होंने चक्रवर्ती पद की अपेक्षा भगवान् की वाणी के श्रोता के पद को महत्त्वपूर्ण समझा। __ आपके विचार में कौन-सा पद महत्त्वपूर्ण है, यह आप जानें, मगर भरत ने तो चक्रवर्ती पद को ठुकरा कर श्रोता बनना ही श्रेयस्कर समझा, और वह त्वरा के साथ उस ओर चले तो; इसलिए नहीं कि जल्दी पहँचेंगे तो बैठने को सिंहासन मिलेगा? देर से जाएँगे, तो जमीन पर बैठना पड़ेगा? नहीं, वहाँ ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। भगवान् के दरबार में राजा-रंक में कोई भेद नहीं था। भगवान् का दरबार ही तो दुनियाँ भर में ऐसी एक जगह थी जहाँ मनुष्य-मात्र को समान दर्जा प्राप्त था; जहाँ मानव सब प्रकार के कल्पित भेद-भावों को भूलकर असली मानव के रूप में स्थान पाता था! आप तो यहाँ दरियाँ बिछा लेते हैं और कोई श्रीमन्त आजाएँ तो गलीचा बिछा देने से भी नहीं चूकते। पर भगवान् के दरबार में दुनियाँ के वैभव को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। जहाँ चक्रवर्ती सम्राट अपरिग्रही भिक्षु के चरणों में मस्तक झुकाता है, वहीं परिग्रह के प्रतिनिधि की पूजा की जाती है। ऐसा बे-मेल और परस्पर विरोधी व्यवहार बुद्धिमान् नहीं करते। इस विशाल भू-मण्डल में सर्वत्र अधर्म और असत्य की पूजा हो रही है और परिग्रह पुज रहा है। कम से कम धर्मस्थान तो इस मिथ्याचार से अछूते बने रहें। धर्मके लिए एक जगह तो टिकने को बाकी रहने दीजिए। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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