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________________ | प्रभु का पदार्पण । २५] वाणिज्य ग्राम नाम से अनुमान होता है, कि वहँ विशाल पैमाने पर व्यापार आदि का काम होता था, और राजा-महाराजाओं के यहाँ भी काम की कमी नहीं थी। परन्तु फिर भी लोग पहुँचे और राजा जितशत्रु भी पहुँचा। सब ने भगवान् के दर्शन किए। जिसे धर्म की लगन लग जाती है और धर्म के प्रति प्रेम उत्पन्न हो जाता है, वह हिसाब-किताब नहीं देखता, जहाँ सत्य मिलता है, अहिंसा मिलती है और वह चीज मिलती है, जो मनुष्य को भगवान् बना देती है, अनन्त-अनन्त काल के बन्धनों को काट देती है, वहाँ कौन आत्महितैषी न जाना चाहेगा ? ___ बड़ी बात श्रद्धा की है। जब श्रद्धा की ज्योति मन्द पड़ जाती है या जलती-जलती बुझ जाती है, तो अंधकार ही अंधकार फैल जाता है। जो श्रद्धाशील हैं, वे निरन्तर बढ़े चले जाते हैं और जो श्रद्धा को तोड़ देता है उसे बगल में बैठे हुए देवता का भी पता नहीं चलता। यह बात जैनधर्म के लिए नहीं, धर्म-मात्र के लिए है। किसी भी धर्म को यदि जीवित रखना है तो उसके प्रति श्रद्धा की भेंट आवश्यक है। श्रद्धा और प्रेम के अभाव में कोई भी धर्म जिन्दा नहीं रह सकता। अतएव जो अपने धर्म को जीवित रखना चाहता है, से अपने धर्म के प्रति नम्रतापूर्वक श्रद्धा की भेंट समर्पित करनी ही चाहिए। आपको भरत चक्रवर्ती का स्मरण है ? वे भगवान् ऋषमदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे। जब वह सिंहासन पर आसीन थे, उसी समय उन्हें समाचार मिला, कि उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई है ! ज्योतिषी पत्रा लेकर बैठ गए और ग्रह-नक्षत्रों की गणना कर उनका फलादेश बतलाते हुए कहने लगे-नवजात शिशु महान् सौभाग्यशाली है वह। और भरत जी अपने पुत्र का भविष्य सुन रहे हैं, कि दूसरी तरफ से समाचार मिलता है—आपकी आयुध-शाला में चक्र रत्न प्रकट हुआ है। उसकी पूजा करने पधारिए। तीसरी ओर से संवाद मिलता है. भगवान् आदिनाथ को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई। समवसरण लग रहा है। पुत्र-प्राप्ति का अपार हर्ष हृदय में समा नहीं रहा है, कि उसी समय चक्रवर्ती होने का संदेश देने वाला चक्ररत्न प्रकट होता है। भला इस हर्ष की कहीं सीमा है? कोई प्यादा हो और उसे जमादार बना दिए जाने की खबर मिले तो कितना प्रसन्न होता है, वह ? आज हजार कमाया और सूचना मिल जाए कि कल दस हजार और परसों लाख कमाओगे, तो हृदय कैसा बंदर की तरह नाचने लगता है। फिर भरत जी को तो पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ है और चक्रवर्त्तित्व भी मिला है। दुनियाँदारी के लिहाज से इससे बढ़कर और क्या बड़ा लाभ और सुख हो सकता, किसी को! तीर्थंकर का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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