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________________ | प्रभु का पदार्पण । २७ भरत स्वयं भी कहाँ चाहते थे कि वे अन्य मनुष्यों से अपने आपको अलग समझें। मनुष्य-मात्र से अलग करने वाला तो चक्रवर्ती का पद था; परन्तु उसकी उपेक्षा करके वह तो श्रोता बनने चले, उस पद को अंगीकार करने चले, जो भगवान् के दरबार में मौजूद रहने वाले प्रत्येक प्राणी को प्राप्त था। भरत ने श्रोता-पद के महत्त्व को समझा तो चक्रवर्ती के पद और पुत्ररत्न से भी बढ़कर उसे माना। वास्तव में वह जानते थे—श्रोता बनकर आत्मा अनन्त-अनन्त गुण प्राप्त कर सकती है। अतएव वे चक्रवर्ती पद की परवाह न कर आत्मराज्य की खूबियों को प्राप्त करने के लिए गए। ___ भरत के हृदय में श्रद्धा थी। श्रद्धा न होती तो वे क्यों जाते? जिसे इतनी अटूट श्रद्धा प्राप्त है, वह भक्त भगवान् क्यों न बन जाएगा ? वास्तव में भरत भक्तों के लिए आदर्श हैं। उनकी इस अटूट लगन को हृदय में बसाकर कोई भी मनुष्य, मनुष्य से भक्त और भक्त से भगवान् बन सकता है। हाँ, तो वाणिज्यग्राम नगर में जब भगवान् महावीर पधारे तो चंपा के राजा कोणिक की तरह राजा जितशत्रु भी उनके सम्मुख उपस्थित हुआ। सबने भगवान् के चरणारबिन्द में पहुँचकर तीन बार प्रदक्षिणा की और स्तुति की-प्रभो! आप कल्याणमय हैं, मंगलमय हैं, दिव्यस्वरूप हैं, ज्ञानस्वरूप हैं। हे प्रभो! बार-बार मस्तक टेक कर हम आपके चरणों में वन्दना करते हैं, नमस्कार करते हैं और आपकी सेवा, शुश्रूषा करते हैं। ___ एक योजन का दायरा है। जिसे जहाँ जगह मिली, वहीं बैठ गया। राजा जितशत्रु भी एक जगह बैठ गया। भगवान् के चरण-मूल में बैठने का क्या महत्त्व है? शरीर से बैठ गए और मन दूर-दूर चक्कर काटता रहा तो उस बैठने का कोई मूल्य नहीं है। और शरीर से दूर बैठ कर भी जो प्रभु के चरणों में अपने मन को जोड़ देते हैं, वे कृतार्थ हो जाते हैं। यही तो प्रभु की सेवा है। अपने मन को महाप्रभु के चरणों में लीन कर दिया, तो आपने उनकी सेवा कर ली, सेवा में बैठने का अर्थ यही है। जितनी देर बैठो उतनी देर अपने स्वरूप की झाँकी लो। आत्मा की ग्रन्थियों को सुलझाओ। आत्मा के निगूढ़तम रहस्यों का उद्घाटन करने का प्रयास करो। ज्ञान की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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