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________________ १८४ । उपासक आनन्द सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई भी नहीं चाहता। इसीलिए निर्ग्रन्थ (जैन मुनि), घोर प्राणि-वध का सर्वथा परित्याग करते हैं। अज्झत्थं सव्वओ सव्वं दिस्स, पाणे पियायए। न हणे पाणिणो पाणे, भयवेराओ उवरए॥ भय और वैर से निवृत्त साधक, जीवन के प्रति मोह-ममता रखने वाले सब प्राणियों को सर्वत्र अपनी ही आत्मा के समान जानकर उनकी कभी भी हिंसा न करे। पुढवी-जीवा पुढो सत्ता, आउजीवा तहाअगणी। वाउजीवा पुढो सत्ता, तण-रुक्खा सबीयगा। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और तृण, बीज आदि वनस्पतिकाय-ये सब जीव अति सूक्ष्म हैं, ऊपर से एक आकार के दिखने पर भी सब का पृथक्-पृथक् अस्तित्व है। अहावरा तसा पाणा, एवं छक्काय आहिया। एयावये जीवकाए, नावरे कोई विज्जइ॥ उक्त पाँच स्थावरकाय के अतिरिक्त दूसरे त्रस प्राणी भी हैं। ये छहों षड्जीव निकाय कहलाते है। जितने भी संसार में जीव है, सब इन्हीं छह के अन्तर्गत है। इनके सिवाय और कोई जीव-निकाय नहीं है। सव्वाहिं अणुजुत्तीहिं, मइमं पडिलेहिया। सव्वे अक्कन्त दुक्खाय, अओ सव्वे न हिंसया॥ बुद्धिमान मनुष्य उक्त छहों जीव-निकायों का सब प्रकार की युक्तियों से सम्यग्ज्ञान प्राप्त करे और "सभी जीव दुःख से घबराते हैं" ऐसा जानकर उन्हें दुःख न पहुँचाये। एवं खु नाणिणो सारं, जंन हिंसइ किंचण। __ अहिंसा-समय घेव, एयावन्तं वियाणिया। ज्ञानी होने का सार ही यह है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। 'अहिंसा का सिद्धान्त ही सर्वोपरि है' मात्र इतना ही विज्ञान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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