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महावीर-वाणी
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अहिंसा-सूत्र IIIIIIIII
तस्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं ।
अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमो॥ भगवान् महावीर ने अठारह धर्म-स्थानों में सबसे पहला स्थान अहिंसा का बतलाया है। सब जीवों पर संयम रखना अहिंसा है, वह सब सुखों की देने वाली मानी गई है।
जावन्ति लोए पाणा, तसा अदुवा थावरा।
ते जाणमजाणं वा, न हणे नो वि घायए। संसार में जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उन सबको-क्या जान में, क्या अनजान में न खुद मारे और न दूसरों से मरवाये।
सयं तिवायए पाणे, अदुवऽन्नेहिं घायए।
हणन्तं वाणुजाणाइ, बेरं वड्ढइ अप्पणो॥ जो मनुष्य प्राणियों की स्वयं हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है और हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है, वह संसार में अपने लिये वैर को ही बढ़ाता है।
जगनिस्सिएहिं भूएहि, तसनामेहिं थावरेहिं च।
नो तेसिमारभे दंड, मणसा वयसा कायसा चेव॥ संसार में रहने वाले त्रस और स्थावर जीवों पर मन से, वचन से और शरीर से-किसी भी तरह दण्ड का प्रयोग न करे।
सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउं न मरिजऊँ। तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गथा वज्जयंतिणं॥
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