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________________ | मा पडिबंध करेह । १३७॥ सकेगा। लेकिन जब कल का ही भरोसा नहीं है, और पल भर का भी विश्वास नहीं है, तो पच्चीस-पचास वर्ष की प्रतीक्षा का क्या अर्थ है। ऐसी स्थिति में आश्रमव्यवस्था की भी क्या उपयोगिता है। कहा है... काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। पल में परलय होयगी, बहुरि करेगा कब॥ जो कल करना चाहते हो, उसे आज ही करलो। कल का क्या पता है। जो घड़ी व्यतीत हो रही है, वह लौट कर नहीं आती। इन बन्धनों को कब तक बाँधे रहोगे। भगवान् महावीर ने तीस वर्ष की भरी जवानी में संसार का परित्याग किया। वे इस आश्रम-व्यवस्था के चक्कर मे फँसे रहते, तो पच्चीस वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम में, पच्चीस वर्ष गृहस्थाश्रम में और पच्चीस वर्ष वानप्रस्थाश्रम में, इस प्रकार पचहत्तर वर्ष, व्यतीत करने के पश्चात् कहीं साधु बनने का अवसर पाते, जबकि उनकी कुल आयु बहत्तर वर्ष की ही थी। कहो, ऐसी स्थिति में वे विश्व को अहिंसा और सत्य का अपूर्व प्रकाश किस प्रकार दे सकते थे। __मेरी बात सुनकर उस भाई ने कहा—आपकी बात तो यथार्थ लगती है। कौन जान सकता है, कि किसकी जिंदगी कितनी है? जीवन क्षण-भंगुर है। आज है कल नहीं। लुहार ने लोहे को गर्म किया, और लोहा लाल होकर आग में से निकला। लुहार पास बैठे हुए साथी से कहता है-जल्दी इस पर चोट लगा दे। ऐसे समय में साथी अगर हुक्का गुड़गुड़ाता हुआ कहे, कि तम्बाकू मजे पर आ रहा है, एक कश और लगा~-अभी चोट लगाता हूँ। तो, क्या यह उस साथी की बुद्धिमत्ता मानी जाएगी। जब तक वह हुक्का गुड़गुड़ाएगा, तब तक तो लोहा ठंडा पड़ जावेगा। फिर उस पर चोट लगाने से भी क्या परिणाम निकलेगा। लोहा जब गर्म हो, तभी उस पर चोट पड़नी चाहिए; तभी उससे इच्छानुसार चीज बनाई जा सकती है। इसी प्रकार जीवन में जब आन्तरिक प्रेरणा और स्फूर्ति की गर्मी हो, तभी कुछ न कुछ कर डालो। संकल्प की गर्मी आने पर अगर हुक्का गुड़गुड़ाने बैठ गए, तो जीवन ठंडा पड़ जाएगा, और फिर मामला खत्म है। भगवान् का मार्ग हमें यही शिक्षा देता है, कि शुभ-कार्य में ढील न करो। शुभस्य शीघ्रम्। नीतिकारों ने भी इसी बात की पुष्टि की है क्षिप्रमक्रियमाणस्य कालः पिबति तद्रसम् । कोई भी शुभ-कार्य जब चटपट और तड़ाक-फड़ाक नहीं कर लिया जाता है, तो काल उसका मजा बिगाड़ देता है। काल का व्यवधान पड़ जाने पर उस कार्य का रस चला जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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