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|१३८ । उपासक आनन्द
मैंने रामकृष्णा परमहंस का जीवन चरित्र पढ़ा । उसमें लिखा था, कि उनके पास एक साधक आया। कहने लगा—मुझे संसार छोड़ना है। मैं आपसे दीक्षा लेना चाहता हूँ, और आपकी सेवा में ही रहना चाहता हूँ। मैं एक हजार की थैली लाया हूँ, और इस कमाई को भी आपके चरणों में अर्पण करना चाहता हूँ। आप इसका जो उपयोग करना चाहें, सो करें।
परमहंस ने कहा-मैं यह ठीक समझता हूँ, कि इस थैली को गंगा मैया की भेंट कर आओ।
साधक ने चकित होकर पूछा—गङ्गा मैया को। परमहंस ने दुहराया—हाँ, गङ्गा मैया को यह थैली अर्पण कर आओ।
बेचारा गङ्गा मैया की तरफ चला। गुरु की आज्ञा जो हुई थी! किसी तरह अनमने भाव से, गङ्गा के किनारे बैठ कर, उसने थैली का मुँह खोला, और उसमें से एक रुपया निकाला और फेंक दिया। फिर दूसरा निकाला, और उसे भी फेंक दिया। इस प्रकार एक-एक करके उसने सब रुपये फेंक दिए। खाली थैली लेकर परमहंस के पास आया और बोला—सारे रुपये गङ्गाजी में डाल आया हूँ।
परमहंस ने पूछा-बहुत देर लगी फेंकने में। इतनी देर क्यों लगी? मैंने एक-एक रुपया निकाला, और फेंका। इसी से देर हो गई। परमहंस बोले—तब तुम हमारे काम के नहीं हो।
साधक समझ रहा था—मैंने बड़ा त्याग किया है, और गुरुजी मुझ पर अत्यन्त प्रसन्न होंगे। किन्तु जब उसने गुरुजी का निर्णय सुना, तो भौंचक्का-सा रहा गया। वह प्रश्न-पूर्ण दृष्टि से गुरुजी की ओर देखने लगा।
परमहंस ने समझाया--जो काम तुम्हें एक बार में कर लेना चाहिए था, उसे तुमने हजार बार में किया। जितनी देर में एक रुपया फेंका, उतनी ही देर में शेष ९९९ रुपया भी फेंक सकते थे। फिर सब के सब एक साथ क्यों नहीं फेंक दिए। अभी तुम्हारी ममता मरी नहीं है। तुम जहर को जल्दी नहीं त्याग सकते। पूरी जागृति अभी नहीं आई है। जब तुमने माया को जहर समझ लिया, और उसे फेंकने चले तो रुक-रुक कर क्यों। जो रास्ता एक कदम में तय किया जा सकता है, उसे हजार कदम में क्यों तय किया जाए। तुम्हारे चित्त में अभी दुविधा है। इसी कारण तुमने रुपयों को फेंकने में देर की। देर करने वालों की यहाँ गुजर नहीं। ___ जब मैंने यह बात पढ़ी तो सोचा, कि भगवान् महावीर का संदेश वहाँ भी पहुंचा है।
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