SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ | प्रभु का पदार्पण |१९|| चौबीसवें तीर्थंकर महावीर में अन्तर स्पष्ट करने के लिए जब यह अकेला विशेषण ही पर्याप्त है, तब इस विशिष्टता-द्योतक विशेषण के होते हुए भी 'श्रमण' जैसे सामान्य विशेषण को उनके नाम के आगे जोड़ने की ऐसी क्या विशेष आवश्यकता प्रतीत हुई ? जिसने भगवान् का पद पा लिया, इसके लिए 'श्रमण' जैसा सामान्य विशेषण प्रयोग में लाने की क्या आवश्यकता है ? - इस जिज्ञासा का समाधान यह है, कि भारतवर्ष के दर्शन-शास्त्रों में भगवान् के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की धारणाएँ हैं। कई दर्शन मानते हैं, कि भगवान् या ईश्वर नित्य-मुक्त होता है। अर्थात् जो भगवान है, वह सदा से ही भगवान् है। कोई भी आत्मा कितनी ही ऊँची साधना क्यों न करे, वह परमात्मा या ईश्वर का पद प्राप्त नहीं कर सकती। परमात्मा की जाति आत्मा से निराली है। जैसे जड़ कभी चेतन नहीं बन सकता, उसी प्रकार लाख-लाख प्रयत्न करके और जन्म जन्मान्तर में साधनाएँ करके भी आत्मा ईश्वर नहीं बन सकती। साधना का फल मुक्ति है, ईश्वरत्व नहीं। और जो ईश्वर है, उसे कभी कोई साधना नहीं करनी पड़ी। वह बिना ही साधना के सदा से ईश्वर है। __ अभिप्राय यह है, कि इस दृष्टिकोण के अनुसार आत्मा सदा आत्मा ही रहने वाली है और ईश्वरत्व को प्राप्त करना उसके वश में नहीं है। जैनधर्म इस दृष्टि को स्वीकार नहीं करता। जैनधर्म के अनुसार ईश्वरत्व किसी एक व्यक्ति के लिए 'रिजर्व' नहीं है। ईश्वरत्व एक पद है और अपनी योग्यता का विकास करके प्रत्येक आत्मा उसे पाने की अधिकारिणी है। जैनधर्म ने बिना किसी प्रकार का भेद किए, प्रत्येक आत्मा को ईश्वरत्व की प्राप्ति का अधिकार दिया है। जैन-दर्शन की यह विशिष्ट मान्यता यहाँ 'श्रमण' विशेषण से ध्वनित होती है। इसका अभिप्राय यह है, कि महावीर ने भगवान् का पद श्रमणत्व के द्वारा प्राप्त किया, साधना के द्वारा प्राप्त किया, वे सनातन ईश्वर नहीं, साधनाजनित ईश्वर या भगवान् थे। कहने को तो जैन लोग भी कहते हैं, कि चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन भगवान् महावीर का जन्म हुआ, किन्तु ऐसा कहना एक अपेक्षा-मात्र है। जैनदर्शन की गहराई में उतरें और तथ्य को खोजने चलें तो प्रतीत होगा, कि उस दिन केवल महावीर का जन्म हुआ, भगवान् महावीर का जन्म नहीं। भगवान् का जन्म तो तब हुआ, जब महावीर को भागवत्-दशा प्राप्त हुई, अर्थात् केवल दर्शन और केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। वह तिथि चैत्र शुक्ला त्रयोदशी नहीं, वैशाख शुक्ला दशमी थी। सार यह है, कि जैनधर्म के अनुसार श्रमण होने के बाद ही भगवान् बना जा सकता है। भगवान् के 'श्रमण' विशेषण से यही तथ्य सूचित किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy