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________________ प्रकाशकीय . . PAARADHA ..... .. 'सन्मति-ज्ञान-षीठ' के इस अनुपम तथा अमूल्य रत्न को पाठकों के कर-कमलों में अर्पित करते हुए मेरा अन्तर्मन हर्षोल्लास से भर रहा है, शरीर का रोम-रोम पुलकित हो रहा है। घरगृहस्थी में भी कुछ कर गुजरने की स्फूर्त चेतना को अनुप्राणित करने के कारण सन्मति-प्रकाशनों में इस नव्य-भव्य प्रकाशन का अपना एक अलग ही महत्व है-यह दिन के उजाले की तरह स्पष्ट प्रस्तुत प्रकाशन में श्रमण भगवान् महावीर के सर्वोपरि गृहस्थ साधक आनन्द श्रावक के जीवन की सजीव झलकियाँ हैं, जो गृहस्थ जीवन की तस्वीर पर अपना सीधा प्रकाश फैंकती हैं, और "हम तो गृहस्थी हैं, हम क्या कर सकते हैं ?"--इस प्रकार अपने-आप में उलझे हुए भ्रान्त मनमस्तिष्कों को कुछ देर ठहर कर सही दिशा में यह सोचने के लिये मजबूत करती हैं, कि "गृहस्थ जीवन भी स्वार्थी एवं लोकैषणाओं का खेल खेलने के लिए नहीं है। वहाँ तो जीवन की बागडोर को अपने मजबूत हाथों में संभाल कर रखना होता है, जीवन के प्रत्येक मोड़ पर संयम, विवेक तथा मर्यादा के प्रकाश की मशाल को आगे लेकर चलना पड़ता है। यह जीवन की ऐसी स्थिति है, जहाँ जीवन-वीणा के तारों को न एकान्त कसना ही होता है, और न एकदम ढीला ही छोड़ा जा सकता है। वहाँ तो जीवन की गाड़ी को ब्रेक लगाकर चलना होता है, जिससे वह चलने की जगह चल सके और रुकने की जगह रुक सके।" कितना अध्यात्म-चमत्कार से परिपूर्ण था, उस महान् गृहस्थ-साधक का जीवन; जो आज भी आगम के स्वर्णिम पृष्ठों पर अपनी पूर्ण आभा के साथ चमक रहा है। कवि श्री जी की तेजस्वी वाणी पर चढ़कर तो आनन्द के जीवन की रेखाओं का रूप-स्वरूप और भी उद्दीप्त हो उठा है। कवि श्री जी के सूक्ष्म चिन्तन, प्रतिभा पूर्ण विश्लेषण, प्रवाह-शील भाषण-शैली और ओजस्वी भाषा से उस महान् गृहस्थ कर्म योगी के जीवन का अन्तस्तत्त्व इतनी स्पष्टता के साथ उभर कर ऊपर आ गया है, कि हम उसे साफ तौर से देख-जान सकते हैं, और यथाशक्ति उन प्रकाशमयी किरणों को आत्मसात् कर अन्तर्जीवन का अन्धेरा मिटा सकते हैं। इन पृष्ठों में आनन्द श्रावक का शृंखला-बद्ध जीवन तो हमें न मिल सकेगा। यहाँ तो गहरे पानी में पैठकर जीवन के शिक्षात्मक एवं ग्रहणात्मक पहलुओं को लेकर कवि श्री जी के चिन्तन की इतनी गहरी डुबकियाँ लगाई हैं, कि देखते ही बनता है। आनन्द के जीवन की धारा से भगवान् महावीर की जादू-भरी वाणी से किस प्रकार एक नया मोड़ लिया, उस भरे-पूरे वैभव-विलास के बीच बैठकर भी किस प्रकार उस महान् गृहस्थ साधक ने अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण किया, मन को साधा और आत्मा को मांजा, और यह सब कुछ करते हुए भी किस तरह अपने पारिवारिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन के सन्तुलन को अडोल रखा, किस पटुता एवं सतर्कता के साथ सामाजिक दायित्वों का पूर्णत: निर्वहन किया—यही सब कुछ देखने को मिलेगा, हमें आनन्द की इन हलकी-सी जीवन झाँकियों में। अन्य प्रकाशनों की भाँति हमारा यह अद्वितीय प्रकाशन भी पाठकों के अन्तर्हदय में जीवन के आध्यात्मिक मूल्यों के प्रति निष्ठा और उच्चतर आकांक्षाओं की ऊर्जस्वल भावना को जगा सकेगाऐसा हमें पूर्ण विश्वास है। ८, जनवरी, १९५५ ओम प्रकाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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