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________________ | समवसरण में प्रवेश । ६९/ लिए रावण जैसे महाबली योद्धा से भी जूझ पड़े। उस पर विजय प्राप्त की। अधर्म पर धर्म की विजय। ___इस रूप में हम देखते हैं, कि पत्नी के प्रति पति की जो मर्यादा है, उसका राम ने भलीभाँति पालन किया। इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य का जीवन मर्यादाओं में जकड़ा है। गृहस्थ को गार्हस्थिक मर्यादाओं का पालन करना है और साधु को भी साधुत्व की मर्यादाओं की रक्षा करनी है। जो अपनी मर्यादाओं का पालन करता है, वही सच्चा गृहस्थ है, और वही सच्चा साधु है। जिस देश में मर्यादा-शील गृहस्थ और साधु निवास करते हैं, वह देश धन्य है, वह महान् है। हाँ, तो हम विचार कर रहे थे, कि भगवान् के समवसरण में जाते समय भी मर्यादा का पालन किया जाता है। समवसरण में जाने की पाँच मर्यादाएँ हैं१. सचित्त वस्तुओं का त्याग कर जाना, २. शस्त्र तथा राज-चिह्न आदि का त्याग करना, ३. उत्तरासन करना अर्थात् गले में पड़े दुपट्टे का मुँह पर लगाना, ४. जहाँ से भगवान् दृष्टि-गोचर हों, वहीं से वाहन, छत्र, चामर और माला का त्याग कर हाथ जोड़ लेना और ५. मन को एकाग्र कर लेना, प्रभु के स्वरूप का चिन्तन करना। ___ इन पाँच अभिगमों या मर्यादाओं में पहली मर्यादा सचित वस्तु का त्याग है। फूलों की माला आदि सचित वस्तुएँ लेकर समवसरण में जाना मर्यादा के विरुद्ध है। इसी प्रकार कोई राजा-महाराजा आदि हो, तो वह छत्र-चामर या तलवार आदि वैभव-सूचक अचित्त द्रव्यों को लेकर भी समवसरण में न जाए। अभिप्राय यह है, कि राजा को राजा के रूप में नहीं, किन्तु भक्त के रूप में समवसरण में जाना चाहिए। प्रभु के दरबार में राजचिह्न नहीं धारण किए जाते, क्योंकि वे अहंकार के सूचक हैं। जहाँ अहंकार है, वहाँ प्रभु की पूजा नहीं हो सकती। इस प्रकार वैभव या अहंकार के चिह्न अचित्त द्रव्यों को छोड़कर ही समवसरण में प्रवेश किया जाता है, और सभी सचित्त द्रव्यों का तो त्याग करना ही पड़ता है। कारण, वहाँ अहिंसा का सबसे बड़ा देवता विराजमान होता है, जिसके अणु-अणु में मनुष्य से लेकर छोटे से छोटे एकेन्द्रिय प्राणियों के प्रति भी अनन्त-अनन्त करुणा का सागर उमड़ता रहता है। उनकी दृष्टि तो यह है, कि सचित्त पुष्प को भी तकलीफ नहीं पहुँचनी चाहिए। उसे भी कष्ट नहीं होना चाहिए। जहाँ ऐसी परिपूर्ण दया का झरना बह रहा हो, वहाँ फूलों की माला लेकर पहुँचना, मर्यादा का पालन नहीं कहा जा सकता। प्रभु के दरबार में पहुँचने के लिए प्रभु बनना तो संभव नहीं है, फिर भी प्रभु की भावनाओं का ख्याल तो रखना ही चाहिए। प्रभु की भक्ति करने चले, तो प्रभु की भावनाओं का कुछ अंश तो अपने जीवन में उतारना ही चाहिए। जो व्यक्ति भगवद् For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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