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________________ ७८ । उपासक आनन्द ऐसा वर्णन नहीं आता, कि- तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करोमि, वंदामि, नम॑सामि जाव पज्जुवासामि । इन दोनों पाठों में जो अन्तर है, उसका आशय यह है, कि साधक या भक्त यह पाठ नहीं बोल रहा है; बल्कि उस साधक ने जिस ढंग से वंदन - नमस्कार किया है, उसे शास्त्रकार अपनी ओर से बतला रहे हैं। शास्त्रों में जिस रूप में पाठ आया है, वही रूप ठीक भी है; क्योंकि साधक ने भगवान् या संत के पास पहुँच कर क्या-क्या किया, यह वर्णन शास्त्रकार की ओर से किया जा रहा है। साधक जो किया करता है, वह करता ही है, कहता नहीं है; और शास्त्रकार उसे कहते हैं । आप किसी से मिलने जाते हैं, तो ज्यों ही वह दृष्टि गोचर होता है, आप अपने चेहरे पर प्रसन्नता का भाव झलकाते हैं, मगर यह तो नहीं कहते कि 'मैं प्रसन्नता का भाव झलका रहा हूँ। प्रसन्नता झलका कर आप यथायोग्य हाथ जोड़ते हैं, तब भी यह नहीं कहते—–'मैं हाथ जोड़ता हूँ।' फिर आप उससे कुशल-क्षेम पूछते हैं तो क्या यह कहते हैं कि 'मैं कुशल-क्षेम पूछता हूँ ।' और फिर बैठ जाते हैं। तब भी 'मैं बैठ रहा हूँ ।' ऐसा नहीं कहते । मतलब यह है, कि जो चेष्टाएँ की जाती हैं, उन्हें चेष्टा करने वाला कहता नहीं रहता है। उसका काम चेष्टाएँ करना है। -- जो साधक भगवान् के चरणों में पहुँचता है, वह तीन बार प्रदक्षिणा करता है, वन्दना करता है, नमस्कार करता है, और बैठ जाता है । यह सामान्य शिष्टाचार है। आनन्द भी यही शिष्टाचार व्यवहार में लाया है, और शास्त्रकार ने उसे शब्दों में बाँध दिया है। इसका अर्थ यह नहीं, कि आनन्द ने इस पाठ का उच्चारण किया है। 'तिक्खुत्तो' के पाठ में जो चीज है, वह मूल में करने की चीज थी, कहने की नहीं । किन्तु जब चरित्र का वर्णन आया, तब उस विधि का शब्दों में उल्लेख हुआ । जब शब्दों में उल्लेख हुआ तो आचार्यों ने 'करेइ' की जगह 'करेमि' 'वंदइ' की जगह 'वंदामि', 'नमंसइ' की जगह 'नमंसामि' और यावत् 'पज्जुवासइ' की जगह 'पज्जुवासामि' रूप दे दिया, और वह करने के साथ-साथ कहने की भी चीज बन गई। परन्तु जब यह पाठ अलग होता है, तभी यह रूपान्तर ठीक बैठता है । किसी चरित्र के वर्णन में यह रूपान्तर ठीक नहीं बैठ सकता । अतएव चरित्र के वर्णन में सभी शास्त्रों में वह पहले वाला 'करेइ' 'वंदइ' आदि पाठ ही आता है, और वही पाठ यहाँ आया है। सारांश यह है, कि यहाँ आनन्द के चरित्र - वर्णन में जो तिक्खुत्तो वाला पाठ है, वह शास्त्रकार का अपनी ओर से लिखा गया पाठ है। वह आनन्द के बोल नहीं हैं। आनन्द के बोल होते तो वह 'करेमि' आदि उत्तमपुरुष-सूचक बोलता, 'करेइ' आदि अन्य पुरुष-सूचक क्रियाएँ न बोलता । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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