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________________ वन्दना ।७९. आनन्द ने जिस पद्धति का अवलम्बन किया, वह भारतीय पद्धति है और बौद्धों में तथा वैदिक समाज में भी प्रचलित है। महान् पुरुष को नमस्कार करना चाहिए, और नमस्कार करने में सिर झुकाना चाहिए, यह सब जगह रिवाज है। महापुरुषों को नमस्कार करने से पुण्य का लाभ होता है। कई शब्द ऐसे हैं जिनके सम्बन्ध में हमारा यह ख्याल हो जाता है, कि इनका यही रूढ़ अर्थ है, और दूसरा अर्थ नहीं हो सकता। हमारे पड़ौसी सम्प्रदाय में भी वह शब्द प्रचलित हैं, और वहाँ उनका अर्थ कुछ दूसरा है, इस बात की कल्पना भी हममें से बहुतों को नहीं होती । उदाहरण के लिए एक 'पोषध' शब्द को ही लेलें । हमारे यहाँ उत्तराध्ययन सूत्र में नमि राजर्षि का अध्ययन है। नमि दीक्षा लेते हैं, और इन्द्र ब्राह्मण के वेश में उनकी परीक्षा लेने आता है । तब एक जगह इन्द्र कहता है : घोरासमं चइत्ताणं, अन्नं पत्थेसि आसमं । इहेव पोसहरओ, भवाहिं मणुयाहिवा ॥ - 'उत्तराध्ययन', ९ हे राजन् ! आप एक अच्छे गृहस्थ थे और गृहस्थावस्था में रहकर उन्नति कर सकते थे। गृहस्थाश्रम भी बड़ा आश्रम है। फिर इसका त्याग करके आप दूसरे आश्रम को क्यों स्वीकार कर रहे हैं ? गृहस्थाश्रम में ही रह कर 'पोषध' करो । यह एक पारिभाषिक शब्द है। 1 -- यहाँ 'पोषध' शब्द आया है। हमारे कुछ टीका-कारों ने जो साधारण नहीं, बड़े विद्वान गिने जाते हैं, और जिनकी बड़ी ख्याति, और प्रतिष्ठा है, 'पोषध करो' का अर्थ किया है कि तुम गृहस्थ धर्म में रहो, और तीन गुण-व्रतों, चार शिक्षा-व्रतों और पाँच अणुव्रतों का पालन करो और इस श्रावक-धर्म के द्वारा ही अपना कल्याण कर लो। पोषध (पोसह) शब्द को देखकर ही टीकाकारों ने समझ लिया, कि यहाँ जैन परम्परा का सम्बन्ध है, क्योंकि 'पोषध' शब्द जैन परम्परा में ही प्रचलित है। दूसरी परम्पराओं में वह सुनाई नहीं देता है। अतएव 'पोषध करो' का मतलब है गृहस्थधर्म का पालन करो । किन्तु इन्द्र के इस कथन के उत्तर में नमि राजर्षि कहते हैं : मासे मासे तु जो वालो, कुसग्गेण उ भुंजए। न सो सुक्खाय धम्मस्स, कर्ल अग्घइ सोलसिं ॥ _' उत्तराध्ययन' ९ जो बाल है, अज्ञानी है, जिसे धर्म का विवेक नहीं प्राप्त हुआ है, वह साधक, पोषध की तो बात ही क्या, यदि महीने-महीने की तपस्या करे और पारणा के दिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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