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________________ १०६ । उपासक आनन्द बोल रहा है। उसकी भावना का प्रवाह अपने आप बाहर निकल रहा है। उसका आनन्द भीतर नहीं समा रहा है, इसलिए वाणी के रूप में उमड़-उमड़ कर बाहर आ रहा है। यहाँ एक बार या दो बार का प्रश्न ही नहीं है। आत्मा की भाषा में तो आनन्द सरीखे भावनामय साधक ही इतना गहरा आनन्द अनुभव कर सकते हैं। जिसके हृदय में भावना की धारा ही नहीं बही; वह इस अमृत का आस्वादन नहीं कर सकता। इसके लिए बड़े भारी वैराग्य की आवश्यकता है, और जैनधर्म सबसे पहले यही प्रेरणा देने के लिए आया है, कि तूने अब तक जो पाया है, वह मिथ्या और निस्सार है, और उसने तेरे जीवन को बिगाडा ही है, सुधारा नहीं है। अब नींद से जाग और सँभल। उस वस्तु को पाने का प्रयत्न कर जिससे न केवल यही जीवन, वरन् भविष्य का जीवन भी पावन और उज्जवल बन जाए। अपना उत्थान और पतन अपने हाथ में ही है। ___ बड़े-बड़े सम्राट् लक्ष्मी के दास बने रहे, उनके सामने लक्ष्मी की झंकार होती रही, और वे अभिमान में फूले न समाए। जैनधर्म ने उनसे कहा—तुम अहंकार करते हो। शरीर पर कंकर-पत्थर लाद लिए हैं और सोचते हो, कि मैं बड़ा हूँ। धन मनुष्य के मन में अहंकार उत्पन्न करता है। समाज में कोई बड़ा आदमी गिना जाता है। वह अपने घर में या समाज में किसी से कोई कार्य करने को कहता है। जब उसकी इच्छा के अनुसार कार्य नहीं होता, तो उसे मलाल होता है और वह कहता है—'जानते हो, मैं कौन हूँ ?' . ___'हाँ-हाँ जानते हैं तुझे! और जैनधर्म कहता है—तुझे अपनी इस जिंदगी पर अभिमान है, पर जानता है, पिछली जिंदगियों में तू क्या-क्या रहा है? मैं तेरी पिछली जिंदगियों को भी जानता हूँ। कभी तू जूठन के टुकड़ों को भी तरसता रहा है, और आज इतना अभिमान है। कहता है, कि मैं बड़ा आदमी हूँ। मनुष्य की महानता अहंकार में नहीं, विनय-नम्रता में है। एक बड़े आचार्य ने कहा है। हम जानते हैं, तुम बड़े आदमी हो। मगर तुम्हारी वह जिंदगी भी रही है, कि तुम अपने साथियों के साथ बेर के रूप में थे। बेर पक गया और माली ने तोड़ लिया। डलिया में डाल कर बाजार ले गया। ग्राहक आने लगें। एक आया और दूसरा आया। एक ने कहा-बेर अच्छे नहीं हैं। देखू, नमूना। फिर उस बेर को मुँह में डाला, दाँतों से कुचला और खराब मालूम हुआ तो थू-थू करके थूक दिया। और बोला—मेरा तो मुँह खराब हो गया। जैनधर्म कहता है-अरे बड़े आदमी! तुम्हारी यह कीमत थी, एक समय, और आज कहते हो—जानते हो, मैं कौन हूँ? मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ, कि एक समय एक कानी कौड़ी की भी तो कीमत नहीं थी, तम्हारी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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