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________________ ६२ । उपासक आनन्द रहा है और अपने शरीर का श्रम जोड़ रहा है, तो समझना होगा कि उसे कर्मों को तोड़ने के रूप में त्याग और वैराग्य का मार्ग मिला है। हाँ, तो आनन्द पैदल चल रहा है। हो सकता है कि पैदल चलने का कारण उसका भक्तिभाव हो, फिर भी वह प्रभु के ध्यान में चल रहा है और उसने शरीर के श्रम को महत्त्व दिया है। ___हाथी पर चढ़ा हुआ व्यक्ति अगर सोचता है कि हाथी के पैर के नीचे दबकर जो कीड़ियाँ मर रही हैं, वे हाथी से मर रही हैं, मुझसे नहीं मर रही हैं। अतएव वह पाप हाथी को लगेगा, मुझे नहीं लगेगा, इसी प्रकार पालकी पर सवार होकर चलने वाला यदि सोचता है कि पालकी उठाने वालों को कीड़ी मारने का पाप लगेगा, मुझे नहीं लगेगा और यदि मैं पैदल चला और जीव-जन्तु मर गया तो उसका पाप मुझे लगेगा। अतएव पैदल न चलकर सवारी पर चलना ही धर्म के अनुकूल है। यह दृष्टि गलत है। इसके विपरीत दूसरा आदमी पैदल चल रहा है और नीची दृष्टि करके विवेकपूर्वक चल रहा है तो वह कर्मों को तोड़ता है। वास्तव में अपने पुरुषार्थ को महत्त्व देना चाहिए। आज यह स्थिति हो गई है कि भारत के गाँवों में, जहाँ बस-सर्विस चालू हो गई है, किसानों को दो-तीन कोस जाना होगा तो दो-चार घंटे बस के आने की प्रतीक्षा करेंगे और फिर जगह न मिली तो भेड़ों की तरह ठसाठस भरेंगे और मुसीबत झेलना कबूल करेंगे; परन्तु दो-तीन कोस तक पैदल नहीं जाएँगे। भारत की जनता इतनी पंगु बन गई है कि पैदल चलना उसे बड़ा भारी भार मालूम हो रहा है। इस पंगुता ने भारतीय जीवन को पतित कर दिया है। ___ एक आदमी को देवता मिले। उसने आदमी से कहा—तुम मुझे पैर दे दो तो मैं तुम्हें हाथी दे दूँ। हाथी ले लो, मजे की सवारी हो जाएगी। जिसके पास जरा भी विवेक-बुद्धि है, वह पैर देकर हाथी नहीं लेगा। मगर भाई, पुण्य के उदय से हाथी मिल रहा है। पैरों का भी मूल्य है। आखिरकार घर की जिंदगी तो पैरों से ही चलेगी। घर में हाथी पर सवार होकर तो कोई नहीं चल सकता ! हाथी तो तभी काम आ सकता है, जब कहीं दूर बाहर जाना हो। तो पैरों के बदले हाथी का कोई मूल्य नहीं है। किसी को जिंदगी भर मोटर या हाथी न मिले तो भी उसका काम बखूबी चल सकता है, और लाखों-करोड़ों का चलता ही है; किन्तु पैर गंवा कर हाथी पा लेने वाले की जिंदगी कितनी दुखमय हो जाएगी? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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