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पुण्य-पाप की गुल्विय । ६३ इन सब बातों पर विचार करेंगे, तो मालूम होगा कि जैनधर्म अनेकान्तवादी है और उसकी परिभाषाएँ बड़ी विचारपूर्ण हैं। उसकी पाप और पुण्य की व्याख्याएँ बड़े महत्त्व की हैं। हमें स्वयं अपने हाथों से काम करना चाहिए या दूसरों से कराना चाहिए, यह भी बड़ा विचारणीय प्रश्न है।
बहुत से लोगों को पैदल चलने में लज्जा आती है; किन्तु जहाँ उन्हें लज्जा आनी चाहिए, वहाँ तो आती नहीं, और जहाँ नहीं आनी चाहिए, वहाँ आती है ।
लज्जा आनी चाहिए हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार आदि पाप कर्मों को करते समय, सोन करके सत्कर्म में लोग लज्जा करते हैं।
आनन्द गाथापति के पास विशाल वैभव है। धन-सम्पत्ति की उसे कमी नहीं है। भरा-पूरा घर है। लेकिन उसके मन में इस बात की लज्जा नहीं है कि मैं भगवान् के दर्शन के लिए जाते समय पैदल क्यों चल रहा हूँ। आज के धनवानों की दशा उलटी हो रही है। ये शुभ काम के लिए पैदल जाने में लजाते हैं। पर आनन्द को देखो । वह किसी गली-कूचे से चुपके-चुपके नहीं जा रहा है। स्वयं शास्त्रकार कहते हैं कि वह धड़ल्ले के साथ नगर के बीच होकर जा रहा है। और अकेला नहीं, समूह के साथ जा रहा है। उसे पैदल चलने में लज्जा नहीं आई होती तो क्या इस रूप में वह निकलता ?
अगर आपको अपना कल्याण करना है, तो साधक की भाँति अपना जीवन व्यतीत करो। शुभ काम में लज्जा का अनुभव मत करो। अशुभ भावों को त्याग कर, भोग विलास की वृत्ति से अपने आप को अलग करके शुभ भावों को अपनाओ, इसी में मानव जीवन की महत्ता है।
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कुन्दन - भवन ब्यावर, अजमेर २२ -८-५०
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