SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६ । उपासक आनन्द आपके नगर की भी मर्यादा है। साधु-समाज में भी मर्यादाएँ हैं। जीवन के चारों तरफ मर्यादाओं की दीवार खड़ी है। यदि हम मर्यादाओं का यथोचित पालन करते हुए चलेंगे, तो धरती के एक छोर से दूसरे छोर तक चले जाएंगे। कहीं पर भी अजनबी नहीं मालूम होंगे। जो जहाँ जाकर वहाँ की मर्यादाओं का पालन करता है, वह अजनबी मालूम नहीं होता, और शीघ्र ही वहाँ अपने साथी बना लेता है। पहली ही मुस्कराहट में वह दूसरों को अपना बना लेगा। जिसे मर्यादा का भाव नहीं है, वह जिस कुल में पैदा हुआ, उस कुल के भी वह योग्य नहीं हो सकता, उसके अनुरूप नहीं हो सकता। समस्त कार्यों में मर्यादा का ध्यान रखना आवश्यक है। पिता और पुत्र का सम्बन्ध अत्यन्त मधुर है। इतना मधुर कि इससे बढ़कर माधुर्य संसार के किसी अन्य सम्बन्ध में नहीं है। इसी तरह पिता-पुत्री, भाई-भाई, भाई-बहिन का सम्बन्ध भी मधुर है, फिर भी कोई व्यक्ति संयोग-वश पिता बन गया, किन्तु पिता की मर्यादाओं को वह नहीं जानता, तो वह क्या खाक पिता बना। किन्तु जो पिता, अपने पुत्र के साथ मर्यादा में चलता है, वह पिता हजारों वर्ष तक दुनिया में रोशनी देता है। वह पुत्र, जो अपने अन्दर पुत्रत्व का भाव रखता है, यह जानता है, कि पिता के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, वह आदर्श पुत्र गिना जाता है। पिता और पुत्र दोनों अपनी-अपनी मर्यादाओं का ध्यान रख कर चलेंगे, तो उनका जीवन अच्छी तरह चलेगा। रामायण आपके सामने है। राम को आप जीवन की सर्वोत्तम ऊँचाई पर चढ़ा हुआ देखते हैं। इसका कारण यही है, कि उन्होंने अपने पुत्रत्व का अच्छी तरह पालन किया था। जब देखा, कि पिता संकट में हैं, वचन-पूर्ति का प्रश्न आ गया है, और माता कैकयी ने वचन माँग लिया है, तब उन्होंने पिता की मर्यादा की रक्षा की और पिता की मर्यादा की रक्षा क्या की, अपने पुत्रत्व की मर्यादा की भी रक्षा की। दशरथ ने एक ओर तो पत्नी को वचन दे दिया, और दूसरी तरफ पुत्र प्रेम के कारण राम से वन जाने को भी नहीं कह सकते थे। किन्तु राम ने पिता के मुख पर उभरी हुई भावनाओं को पढ़ लिया, और समझ लिया, कि पिता किस दुविधा में पड़े हैं। — जहाँ आँख काम करने को तैयार हों, वहाँ कान का उपयोग क्यों किया जाए ? कान का दर्जा दूसरा है, और आँख का दर्जा पहला है। जब आँखों ने सब कुछ देख लिया, और मन ने उसे समझ लिया, तब फिर सुनने की आवश्यकता क्यों ? परोक्ष की अपेक्षा प्रत्यक्ष श्रेष्ठ है। राम को यह आज्ञा नहीं मिली, कि तुम वनवास के लिए चले जाओ। यह आज्ञा भी नहीं मिली, कि यहाँ रहना ठीक नहीं है, किन्तु राम ने पुत्रत्व की मर्यादा को -समझ लिया। वे समझ गए, कि पिता किस स्थिति में हैं, और किस संकट में पड़ गए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy