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________________ १४८ / उपासक आनन्द उन छेदों से पाप ही पाप और वासना ही वासना उमड़ी चली आ रही है। ऐसी नाव कैसे पार लगेगी। तुम्हारा शरीर भी तुम्हारे नियंत्रण में नहीं है। तुम्हारे हाथ, तुम्हारे पैर और कोई भी अंग तुम्हारे काबू में नहीं है। तुम अपनी असावधानी से कैसी-कैसी प्रवृत्तियाँ कर बैठते हो। कभी दूसरे की जिंदगी को खतरे में डाल देते हो, कभी उसे समाप्त कर देते हो, और कभी किसी को पीड़ा पहुँचाते हो। इस तरह तुम्हारा शरीर छिद्रों से भरा पड़ा है। तुम्हारा मन भी तुम्हारे वश में नहीं है। शरीर और वचन की प्रवृत्ति तो कुछ मर्यादित है, मगर तुम्हारा मन तो यहाँ बैठा-बैठा ही आकाश और पाताल के कुलावे मिलाता है। कितने छिद्र भरे हैं, उसमें। भगवान् ही जानें इतने छिद्रों के रहते तुम्हारी जीवन-नैया की क्या गति होने वाली है। ____ जीवन के छिद्र किस प्रकार बंद हो सकते हैं । यह बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। सच पूछो, तो इस प्रश्न के उत्तर में समग्र साधना का सार समा जाता है। अपनी दृष्टि को विशुद्ध बनाना, श्रावक और साधु के व्रतों को अंगीकार करना, प्रमाद का परिहार करना, कषाय की वृत्तियों को नष्ट करना और योगों की चंचलता का निरोध करना, जीवन के छिद्रों को रोकना है। जितनी-जितनी मात्रा में यह छिद्र बंद होते चले जाएँगे, आपकी नौका संसार-सागर के दूसरी ओर अग्रसर होती चली जाएगी। ___ पहले-पहले के गुणस्थानों के विकास में विलम्ब होता है, किन्तु आगे के गुणस्थान जब आते हैं, तो कितनी जल्दी तय किए जाते हैं। ज्यों ही प्रमत्त-संयत के गुणस्थान को छोड़ा, और अप्रमत्त-संयत का सातवाँ गुणस्थान आया, और ऊपर चढ़ने लगे, कि चुटकियों में गुणस्थानों की भूमिकाएँ लांघ ली जाती हैं। आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त भर की होती है। नाव के छेद-बंद हो गए, और नाव दुरुस्त हो गई, तो फिर क्या देर लगती है। शीघ्र ही केवल ज्ञान की दशा प्राप्त हो जाती है। फिर, वह दशा चाहे करोड़ वर्ष तक रहे, मगर उस दशा में नाव में छेद नहीं रहेंगे। जब तक नाव में छेद हैं, तभी तक वह नाव संसार सागर में टिकी है, मगर जैसे ही अप्रमत्त-भाव आया, कि फिर देर नहीं लगती। जीवन-नौका में सबसे बड़ा छेद मिथ्यात्व का है। इसे सबसे पहले बंद करना चाहिए। इस छेद को बंद न किया, और अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य आदि का पालन किया, तो भी नाव बीच सागर में ही डगमगाती रहेगी। शास्त्रकार कहते हैं, कि सम्यक्त्व के द्वारा मिथ्यात्व का छेद बंद न किया गया, तो अहिंसा ऊपर से अहिंसा मालूम होगी, मगर वह आस्रव को नहीं रोक सकेगी। सत्य मालूम होगा, किन्तु वह सत्य, असत्य के छेद को बंद नहीं कर सकेगा। इसी प्रकार अस्तेय, ब्रह्मचर्य और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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