SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ |जीवन के छेद । १४९/ अपरिग्रह आदि की जितनी भी साधनाएँ हैं, वे सब साधनाएँ मालूम होंगी, पर आस्रवों के छेदों को बंद नहीं कर सकेंगी। अतएव सबसे पहले मिथ्यात्व की वृत्ति को काटना आवश्यक है। गलत ढंग से सोचना, गलत तरीके से विचार करना, वस्तु को विपरीत रूप में समझना, और सत्य के प्रति अटल श्रद्धा न होना आदि-आदि जो गलत दृष्टिकोण हैं, वहीं मिथ्यात्व हैं, और मिथ्यात्व ही इस जीवन-नौका का सबसे बड़ा छेद है। __ भगवान् महावीर ने कहा-सबसे बड़े आदर्श पर ही चलो, किन्तु चलने से पहले अपने दृष्टिकोण को सही तौर पर स्थिर कर लो। एक यात्री चल पड़ा, और ऐसा बेतहाशा चला, कि पसीने से तर हो गया। जब उससे पूछा गया, कि कहाँ से आ रहे हो। तब वह कहता है—यह तो पता नहीं!' 'अरे भैया, कहीं से तो आ रहे हो।' 'हाँ, आ तो रहा हूँ, मगर नहीं मालूम कहाँ से आ रहा हूँ।' 'अच्छा, जा कहाँ रहे हो।' 'यह भी नहीं मालूम।' कहिए साहब, ऐसा यात्री मिलेगा, तो उसे यात्री कहेंगे या पागल। यह यात्रा नहीं भटकना है। जिसे अपने जीवन के आगे-पीछे का कुछ भी पता नहीं, जिसे अपने लक्ष्य का भी पता नहीं, अपनी प्रवृत्ति के उद्देश्य का भी ज्ञान नहीं, जो यह भी नहीं जानता, कि वह क्यों यात्रा कर रहा है, वह यात्रा नहीं है। अतएव भगवान् महावीर ने कहा, कि अनन्त-अनन्त काल से संसार में जो यात्राएँ की, जीवन को ऊँचाइयों पर ले जाने के लिए प्रवृत्तियाँ की, वे यदि सम्यग्दृष्टि को पाए बिना ही की गई हैं, तो वह साधनाएँ नहीं कहलायेंगी। वह तो केवल भटकना हुआ। सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर जीवन का आगा-पीछा और लक्ष्य दिखाई देने लगता है। आप सम्यग्दृष्टि से पूछेगे—'कहाँ से आ रहे हो। तो वह उत्तर देगा—'संसार से आ रहे हैं।' और फिर पूछेगे—'कहाँ जा रहे हो।' तो वह कहेगा—'जाना कहाँ है; उस परम अहिंसा के पार जाना है, परम सत्य के पार जाना है। मैं अभिमान के संसार से आ रहा हूँ, और नम्रता के द्वार पर जाना चाहता हूँ।' आप पूछेगे—अभी तक कहाँ भटक रहे थे?' वह कहेगा—'अभी तक काम, क्रोध, लोभ, लालच और वासनाओं के घर में भटक रहा था, अभी तक विकारों की गंदी गलियों में चक्कर काट रहा था। मैं संसार में घूम रहा था।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy