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________________ More |१५० | उपासक आनन्द । आप नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव—इन चार गतियों को ही संसार समझते हैं, किन्तु जीवन की दृष्टि से देखें, तो हमारे अन्दर ही संसार है ! कहा है कामानां हृदये वासः संसार: परिकीर्तितः। हमारे अन्दर जो वासनाएँ हैं, वही संसार है। मनुष्य गति ही नहीं, किन्तु मनुष्यगति के निमित्त भी संसार है, और नरक ही नहीं किन्तु नरकगति के निमित्त भी संसार है। संवर और निर्जरा संसार के बाहर की चीजें हैं। ___ हम मनुष्य के संसार में रहते हैं। संसार को उतार कर फेंका नहीं जा सकता। आप कहते हैं, अमुक ने संसार को त्याग दिया। मगर उसने क्या त्याग दिया। वहाँ शरीर है, इन्द्रियाँ है, वस्त्र है, भोजन है, पानी है, फिर छोड़ क्या दिया है। तो संसार को छेड़ देने का अर्थ है, संसार के करणों को छोड़ देना। जिन कारणों से संसार का बन्धन होता है, उन कारणों को छोड़ दिया है। वास्तव में आस्रव ही संसार-बन्धन का कारण है। जब आस्रव छोड़ दिया, तो कहा जाता है, कि संसार छोड़ दिया। __इसलिए हम कहते हैं, कि सब से बड़ा संसार बाहर नहीं है, जो दिखाई दे रहा है, वह नहीं है। सबसे बड़ा संसार तो अन्दर ही छिपा है, जो दिखाई नहीं देता। बुरा बर्ताव, जो सबसे बड़ा जहर है, यही सबसे बड़ा संसार है। इसको निकाल कर फेंक दिया, तो संसार से अलग हो गए। ___ कितनी ही बार साधु का वेष पहन लिया, कितनी ही बार श्रावक कहलाए, ओघों और मुंहपत्तियों का मेरु-गिरि के समान ढेर कर दिया; किन्तु संसार की ओर से मोक्ष की ओर एक कदम भी नहीं बढ़ा; और अभव्य ने भी इतना ही जोर लगा दिया; मगर पहला गुण-स्थान नहीं छूटी। संसार की वासना नहीं छूटी। कपड़े बदल लिए तो क्या हो गया; ओघों-मुँहपत्तियों का ढेर लगा लिया, तो क्या प्रयोजन सिद्ध हो गया। यह सब खेल खेले जा सकते हैं, किन्तु जीवन को बदलने का खेल खेलना आसान नहीं । कपड़े बदले जा सकते हैं, किन्तु मन को बदलना ही महत्त्वपूर्ण बात है। मन को बदलना और वासनाओं से विमुख होना ही मोक्ष की ओर जाना है। एक बार आचार्य हरिभद्र से पूछा गया, कि जैनधर्म का निचोड़ सार क्या है। हजारों और लाखों ग्रन्थ नहीं पढ़े जा सकते और पढ़ें तो कहाँ तक पढ़ें ? पढ़ने की समाप्ति कहाँ है ? अतएव आप धर्म का सार बतला दीजिएगा—तब उन्होंने कहा आस्रवो भव-हेतुः स्थात् संवरो मोक्ष-कारणम्। इतीयमाहती दृष्टिरन्यदस्याः प्रपञ्चनम्॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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