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________________ जीवन के छेद । १५१ आस्रव का मतलब वासनाएँ हैं, और वासनाओं से छुटकारा पा लेना संवर है। आस्रव संसार का कारण है। जन्म और मरण का कारण है, और संवर मोक्ष का कारण है, विश्व की समस्त अनन्त-अनन्त आत्माओं की सत्ता इन्हीं दो में , संसार और मोक्ष में, समाप्त हो जाती है। आचार्य हरिभद्र कहते हैं, कि यही जैनधर्म का सार है। इसके अतिरिक्त तुम्हें जो दिखलाई देता है, वह सब इसी का विस्तार है। चाहे आस्रव और संवर को समझ लो, चाहे चौदह पूर्वो को समझलो। ___ इस दृष्टिकोण से विचार करते हैं, तो मालूम होता है, कि यह आत्मा अनन्तअनन्त काल से यात्रा कर रही है, किन्तु यात्री को पता नहीं है, कि मैं कहाँ से आया हूँ और कहाँ जाना चाहता हूँ; उसे यह भी नहीं मालूम है, कि मैं क्या प्रवृत्ति कर रहा हँ ? सम्यग्दृष्टि समझता है, कि मैंने कहाँ-कहाँ अनन्त काल गुजारा है, और अब मुझे कहाँ जाना है। ___ आशय यह है कि, सबसे पहले मिथ्यात्व का छिद्र बंद करना है। इस छिद्र के बंद होते ही आत्मा को अपनी स्थिति और मर्यादा का भान हो जाता है। उसे अपने लक्ष्य का और मार्ग का पता चल जाता है, और तब वह दूसरे-दूसरे छिद्रों को बंद करने के लिए उद्यत हो जाती है। मिथ्यात्व का छिद्र बन्द हो जाने पर आत्मा का झुकाव जब त्याग और वैराग्य की ओर होता है, तब सबसे पहले उसे हिंसा का छिद्र बन्द करना पड़ता है। इसी कारण श्रावक के बारह व्रतों में पहला स्थान अहिंसा को मिला है। जीवन में हिंसा के, दूसरों को पीड़ा पहुँचाने के जो भाव हैं, वह भी एक पड़ा छेद है। अहिंसा की आराधना करके उस छेद को हमें बन्द कर देना है। यह अहिंसा संवररूप है। मिथ्यात्व का छेद–आस्रव बन्द होने पर चौथा सम्यग्दृष्टि गुणस्थान आता है। शास्त्र के अनुसार इस गुणस्थान की भूमिका विचारों का बदल जाना है, आचार यहाँ नहीं बदलता। आचार को बदल डालने की स्पृहा, और भावना उत्पन्न हो जाती है, पर आचार बदलता नहीं है। __ हमारे जीवन के दो अङ्ग हैं—विचार और आचार। इन्हीं दो में हमारा सारा जीवन ओत-प्रोत है। पहले विचार आता है, और फिर आचार होता है। विचार, आचार का संचालक है। हो सकता है, कि कोई आदमी किसी प्रकार की अक्षमता के कारण अपने विचार के अनुसार आचरण न कर सके, किन्तु विचार के बिना आचार नहीं होता, और यदि होता है, तो वह विवेकपूर्ण आचार नहीं कहलाता, और उससे लक्ष्य की सिद्धि नहीं होती। अतएव आचार से पहले विचार चाहिए और विचार के बाद आचार भी होना चाहिए। जब दोनों का जीवन में पूरी तरह समावेश हो जाता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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