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________________ १५२ । उपासक आनन्द तो जीवन पूर्ण हो जाता है, और फिर कोई छेद नहीं रह जाता और वह छिद्र - रहित व सागर के किनारे लग जाती है । आस्रव को संवर से दूर किया जाता है। मगर जब हम इस दृष्टि से विचार करते हैं, तब सोचते हैं, कि इस अनादि भवभ्रमण का कारण विचार का न बदलना ही है। क्रोध का आना और चीज है, हिंसा करना, झूठ बोलना, लोभ-लालच होना, और अहंकार होना भी और चीज है, इन्हें अच्छा समझना और बुरा एवं हेय न समझना दूसरी चीज है। चौथे गुणस्थान की यही विशिष्टता है, कि उसका स्पर्श करने वाला हिंसा आदि को अच्छा समझना छोड़ देता है, वह उन्हें हेय समझने लगता है । वहाँ विचार और संकल्प का परिवर्तन हो जाता है । यह परिवर्तन कोई साधारण परिवर्तन नहीं है । अपनी मंजिल सेविरुद्ध दिशा में चलने वाला यात्री यदि अपनी दिशा बदल कर अनुकूल दिशा को ग्रहण करले, तो यह उसके लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात होगी। वह पहले भी चल रहा था, और अब भी चल रहा है; किन्तु पहले की चाल उसे लक्ष्य से दूर और दूरतर फेंकती जा रही थी, और अब वह लक्ष्य की ओर पहुँच रहा है । विरुद्ध दिशा में चलना बन्द कर देने पर यदि अनुकूल दिशा में गति न हो, तो भी कोई घाटे का सौदा नहीं है; क्योंकि ऐसा करने पर यदि लक्ष्य के समीप न पहुँचेगा तो कम से कम लक्ष्य से अधिक दूर तो नहीं हो जाएगा । सम्यग्दृष्टि प्राप्त हो जाने पर कम से कम इतना लाभ तो हो ही जाता है, कि मुक्ति के लक्ष्य से विरुद्ध दिशा में होने वाली गति रुक जाती है। लक्ष्योन्मुख हो जाता है। सम्यग्दृष्टि गुणस्थान की एक बड़ी यह महिमा मानी गई है, कि यदि जीवन में एक बार भी उसका स्पर्श हो जाए तो अनन्त संसार परीत हो जाता है, अर्थात् भवभ्रमण की अनन्तता मिट जाती है, और अधिक से अधिक अर्द्धपुद्गल - परावर्तन तक ही भ्रमण करना पड़ता है। एक अन्तर्मुहूर्त्त के लिए भी सम्यकत्व का प्रकाश मिल गया, और यदि वह गुम हो गया, तो भी वह दुबारा अवश्य मिलेगा, और आत्मा के समस्त बन्धनों को तोड़ कर फेंक देगा, तो मोक्ष प्राप्त करने का कारण बनेगा। अनादि काल से सदैव से अन्धकार ही अन्धकार में भटकने वाले आत्मा ने एक बार प्रकाश देख लिया —सूर्य की एक किरण क्षण भर के लिए उसके सामने चमक गई; यह क्या साधारण बात है। जिसने अन्धकार ही अन्धकार देखा है, और कभी प्रकाश नहीं देखा, उसके लिए अन्धकार ही सब कुछ है । वह अन्धकार को ही अपने जीवन की भूमिका मान रहा है। अन्धकार से उसे असन्तोष नहीं है, प्रकाश की उसे कल्पना ही नहीं, तो इच्छा होने का प्रश्न ही कहाँ है । किन्तु एक बार किसी दीवार में एक सूराख हो गया और सूर्य की सुनहरी किरण उसके सामने पहुँच गई, और चमचमाता हुआ प्रकाश उसने देख लिया। देखते ही भले वह प्रकाश अदृश्य हो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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