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________________ जीवन के छेद । १५३ गया, किन्तु फिर तो वह देखने वाला अन्धकार में छटपटाने लगता है। वह अन्धकार मे रहेगा, क्योंकि उसे प्रकाश में आने का रास्ता नहीं मिल रहा है; किन्तु वह अन्धकार को अन्धकार तो समझने लगा है। प्रकाश की कल्पना उसे आ गई है। अन्धकार में रहता हुआ भी वह प्रकाश में आने के लिए तरसता है। वह अन्धकार करने वाली दीवारों को गिरा देना चाहता है। एक प्रकार की आत्माएँ वे हैं, जिन्हें प्रकाश का दर्शन ही नहीं हुआ है। वे अन्धकार ही अन्धकार में हैं, और उनका भविष्य भी अन्धकार में है। दूसरे प्रकार की आत्माएँ वे हैं, जिन्हें एक बार प्रकाश मिल चुका है। ऐसी आत्माएँ चाहे फिर अन्धकार में डूब जाएँ, मगर उनका भविष्य प्रकाशमय है। वे अन्त तक अन्धकार में नहीं रहेंगी, और एक दिन महाप्रकाशमय बन जाएंगी। जो अंधकार को पार करके प्रकाश में वर्तमान है, वे सम्यग्दृष्टि हैं। क्रोध किया, अभिमान किया, लोभ-लालच किया, और उसको अच्छा समझ लिया। भूल की और उसे अच्छा समझ लिया। यहाँ तक मिथ्यात्व की भूमिका रही, सम्यग्दृष्टि की भूमिका आने पर हिंसा हुई; मगर उसे अच्छा नहीं समझा गया। असत्य बोला गया; किन्तु उसे अच्छा नहीं समझा गया। इस प्रकार समकित के आने पर विचारों की भूमिका बदल जाती है, विचारों की भूमिका बदलने से जीवन बदल जाता है, और पापों का अनन्त-अनन्त भाग खत्म हो जाता है। ___ परिस्थिति से विवश होकर हिंसा करना और बात है, और हिंसा करते हुए प्रसन्न होना और बाद में भी प्रसन्न होना और बात है। सम्यग्दर्शन के आने पर भी हिंसा का पाप बन्द नहीं हो जाता, किन्तु उस हिंसा को अच्छा समझने का अनन्त पाप खत्म हो जाता है। इसी प्रकार सम्यग्दर्शन के आने पर भी असत्य बोला जाता है, किन्तु उस असत्य को अच्छा समझने का जो महान् पाप है, वह समाप्त हो जाता है। पाप को पाप समझना और न करने का संकल्प करना । जीवन का विकास इसी तरीके से होता है। इससे विपरीत यदि कोई मनुष्य विचार तो बदलता नहीं, और आचार बदलने का दिखावा करता है, तो उसका क्या मूल्य है। आचार से पहले विचार बदल जाना चाहिए। विचार करो, कि आपके सामने ये जो वृक्ष खड़े हैं, क्या बेचारे असत्य बोलते हैं। चोरी करते हैं। या परिग्रह रख रहे हैं। एक चींटी रेंगती हुई चलती है, तो क्या हिंसा हो रही है। एकेन्द्रिय जीव को भाषा ही प्राप्त नहीं है, तो वह असत्य बोलेगी ही कैसे। फिर उसे असत्य भाषण आदि का पाप क्यों लगता है। इसका उत्तर यही है, कि एकेन्द्रिय जीव भले असत्य नहीं बोलता; किन्तु असत्य बोलने की उसकी वृत्ति अभी तक टूटी नहीं है। असत्य की वृत्ति टूट जाना, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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