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________________ | प्रभु का पदार्पण । २१ करेंगे। पथभ्रष्ट करके ही रहेंगे। किन्तु छह-छह महीने के दारुण संघर्ष के पश्चात् अन्त में उस विराट् आत्मा के सम्मुख देवता को झख मार कर हार स्वीकार करनी पड़ी और वह महान् आत्मा विचलित नहीं हुई। महावीर जिस राह पर चल रहे थे, उससे एक कदम भी न मुड़े और पीछे मुड़ कर भी उन्होंने न देखा। फिर भी क्या उपसर्ग बन्द हो गए ? नहीं, वह बराबर जारी रहे और महावीर की प्रगति भी ज्यों की त्यों जारी रही। देवता नमस्कार करने को आए, तब भी उन्होंने नहीं देखा। इन्द्रों के मुकुट उनके चरणों में झुके, तब भी वे नहीं रुके और निरन्तर अविश्रान्त गति से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते ही चले गए। उन्हें न निन्दा रोक सकी, न प्रशंसा रोक सकी। न शोक और न दुःख रोक सके। आपत्तियाँ आईं, संकट भी आए, पर किसी से उनकी गति अवरुद्ध न हो सकी। इस प्रकार सत्कार, तिरस्कार, निन्दा, प्रशंसा, शोक और दुःखों की आग में से पार होकर उस महान् आत्मा ने परमात्म-पद प्राप्त किया। आज साधारण तथा साधु-जीवन में भी शोक की आग जलती रहती है। यश और प्रतिष्ठा की कामना की आग भी जलती रहती है। चारों तरफ से जय-जयकार होती है और अगर हम अपनी उस जय-जयकार को सुनने के लिए रुक जाते हैं, उसमें आनन्द का अनुभव करते हैं, तो समझ लीजिए, कि हमारे हृदय में से अभी वासना समाप्त नहीं हुई है और जब यह आग समाप्त नहीं हुई है, तो सत्य मानिए कि उस आग में संयम-साधना का समस्त फल जलकर भस्म हो जाता है। और वासना की भाँति शोक भी एक प्रकार की आग है। वह आग जब साधु को लग जाती है, तो वह बेचैन हो जाता है। दु:ख तो दुःख ही है और आपत्तियाँ भी आपत्तियाँ हैं। जब इन्सान दुःख की आग में जलता है, तब उसका धर्म-कर्म सब जल जाता है। नैतिकता और ईमानदारी के ऊँचे भाव जल कर खाक हो जाते हैं। कोई बिरले भाई के लाल ही इस आग में पड़ कर सकुशल और कंचन बनकर इस आग से बाहर निकलते हैं। जलती आग में एक लकड़ी डाल दो तो क्या वह आग में से यों की यों निकल आएगी ? आग में घास का तिनका डाल दो तो क्या वह निकल कर सही सलामत आता है ? वह खाक बनकर ही लौटता है। किन्तु जब सोने को आग में डालते हैं, तब वह और अधिक चमकता है। वह पहले की अपेक्षा अधिक सचाई, शुद्धि, विभूति और चमक-दमक लेकर बाहर निकलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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