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अध्यात्म योग ।१७७ ।
को क्लेश कहा जाता है। बौद्ध परम्परा में नीवरण कहा गया है। जैन परम्परा में उन विघ्नों को परीषह और उपसर्ग कहा जाता है। साधना के पथ पर आगे बढ़ने वाले साधक के लिए यह एक प्रकार की चुनौती है, तथा उसके साहस और संकल्प की परीक्षा है। क्लेश का अर्थ है-मन को मलीन करने वाले संस्कार। इन्हें आवरण, अविद्या, कर्म तथा कंचुक आदि अनेक शब्दों द्वारा प्रकट किया जाता है।
पाँच क्लेश इस प्रकार हैं—अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश। तम अथवा अविद्या का अर्थ है—अनात्मा एवं जड़ में आत्मा एवं चेतन की भ्रान्ति। वह चार प्रकार से हो सकती है—अनित्य को नित्य समझना। अपवित्र को पवित्र समझना। दुःख को सुख समझना और अनात्मा को आत्मा समझना। मोह या अस्मिता का अर्थ है...अपने स्वरूप को भूल जाना। अस्मिता का शब्दार्थ है. अहंकार, मैं हूँ, यह अनुभूति। साधना के क्षेत्र में देखा गया है कि व्यक्ति साधना करता है, उसे कुछ विभूतियाँ प्राप्त हो जाती हैं, तो अहंकार आ जाता है। वह उन्हें महत्त्व देने लगता है
और आगे की साधना बन्द कर देता है। अतः साधक को सिद्धि और चमत्कार के चक्कर में न पड़कर अपनी साधना में सतत आगे बढ़ते रहना चाहिए। तीसरा क्लेश है..-राग। इस राग का मूल है मोह। इन्द्रियों के पाँच विषय हैं -शब्द, रस, रूप, गन्ध और स्पर्श। प्रत्येक के दिव्य और अदिव्य दोनों भेद होते हैं। इन सब विषयों में आसक्त होना राग है। मनुष्य के चित्त में जब मोह रहता है, तब उसे योग विभूतियों में आसक्ति होती है। उसमें राग के स्थान पर अहंकार की मुख्यता होती है। चतुर्थ क्लेश है द्वेष। इच्छापूर्ति न होने पर मन में एक प्रकार की जलन होती है, इसी को यहाँ द्वेष द्वारा प्रकट किया गया है। राग या अहंकार पर चोट लगने से द्वेष उत्पन्न होता है। गीता में कहा गया है कि कामात् क्रोधोऽभिजायते ! अर्थात् काम से क्रोध उत्पन्न होता है। पांचवाँ क्लेश है—अभिनिवेश। अहंकार तथा राग की पूर्ति होने पर भी मन में एक प्रकार का भय बना रहता है कि उपलब्ध संपदा नष्ट न हो जाय। इस प्रकार मन में चिन्ता का बना रहना ही अभिनिवेश कहा जाता है। इस प्रकार अध्यात्म योग में चित्त की पाँच अवस्थाओं का तथा इन पाँच क्लेशों का मुख्य रूप से वर्णन किया गया है।
अध्यात्म योग अध्यात्म योग वह योग है, जिसमें आत्मा को केन्द्र बिन्दु बनाकर साधना के मार्ग का निर्देश किया गया है। भारतीय दर्शनों के चिन्तन का मुख्य आधार आत्मा ही रहा है। भारत के दर्शनशास्त्र को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है. आस्तिक दर्शन तथा नास्तिक दर्शन। वेद-परम्परागत षड् दर्शनों में एकमात्र योग दर्शन ही क्रियात्मक कहा जा सकता है। शेष पाँच दर्शन घूम-फिरकर आत्मा पर ही केन्द्रित
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