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________________ | श्रोता आनन्द । ९१ एक-एक शब्द को ध्यानपूर्वक सुन रहा था। उसने एक-एक शब्द को ग्रहण करने का प्रयत्न किया—शब्द-शब्द का आशय समझने का प्रयत्न किया। इससे पता चलता है, कि श्रोता को सुनने के साथ-साथ विचार भी करना चाहिए। आपको भी श्रोता का पद प्राप्त है, और श्रोता का पद कोई छोटा-मोटा पद नहीं हैबड़ा महत्त्वपूर्ण पद है। गौतम गणधर भी पहले आपके पद में रहे हैं। वे भी भगवान् के श्रोता रहे हैं. उन्होंने भी भगवान् की वाणी श्रवण की है। इस पद में आप भी शामिल हैं, मैं भी शामिल हूँ, और कोई भी शामिल हो सकता है। किन्तु केवल सुनने भर के लिए श्रोता नहीं बनना चाहिए-चिन्तन करने, मनन करने और विचार करने के लिए ही श्रोता बनना उचित है। जो सुनकर चिन्तन-मनन करता है, वही अपना और अपने समाज एवं राष्ट्र का कल्याण कर सकता है। वह बुझी हुई चिनगारी नहीं, जलती हुई चिनगारी है। उसे ज्यों-ज्यों हवा मिलेगी, चमकती जाएगी और एक दिन वही चिनगारी दावानल का रूप ले लेगी। सुना हुआ सिद्धान्त एक चिनगारी है। उसे चिन्तन-मनन की हवा का झौंका मिलता है, तो उसका विस्तार होता जाता है, और विकास होता जाता है। विस्तृत और विकसित होकर वह श्रोता के जीवन का अंग बन जाता है। धीरे-धीरे मनुष्य अपने आप में पूर्ण हो जाता है। जब वे ही विचार वह दूसरों को देता है, तो उनमें भी जीवन-ज्योति उत्पन्न हो जाती है। __भरत चक्रवर्ती के विषय में मैं कह चुका हूँ। उनके सामने एक साथ तीन प्रश्न पैदा हुए—चक्ररत्न की पूजा करना, पुत्र का जन्मोत्सव मनाना और भगवान् की वाणी सुनना। मगर उन्होंने पहले के दो कार्यों की उपेक्षा करके भगवान् की वाणी सुनने को ही प्राथमिकता दी। भरत की दृष्टि में भगवान् का श्रोता बनने का जितना महत्त्व था, उतना चक्रवर्ती बनने का नहीं। भौतिक कार्य से आध्यात्म कार्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है। ____ भरत ने उसी समय यह निश्चय कर लिया। भरत का यह महत्त्वपूर्ण निर्णय हमसे यही कहता है, कि अगर एक ओर संसार भर की प्रतिष्ठा हो, सोने का सिंहासन मिलता हो, और दूसरी तरफ प्रभु की वाणी सुनने का सौभाग्य मिलता हो, तो जब हम प्रतिष्ठा और सिंहासन को ठुकरा कर भी प्रभु की वाणी सुनेंगे, तभी सच्चे श्रोता का पद पा सकेंगे। विना श्रवण किए जीवन का कल्याण नहीं होता। आमतौर पर क्या होता है महाराज आ गए हैं, तो चलो, थोड़ी देर के लिए हो आएँ। नहीं जाएँगे तो क्या कहेंगे। इस प्रकार की मनोवृत्ति से आए और मन को दूसरी जगह रखकर श्रोता बनकर आए। शरीर के साथ-साथ सिर तो आ गया, मगर मन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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