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________________ |३२ । उपासक आनन्द देव और देवी के बीच जो बात-चीत हई. उसे बैल की पत्नी सन रही थी। वे बातचीत करके आगे चले गए। स्त्री सोचने लगी-पति को आदमी बनाने वाली जड़ी है तो पास में ही, मगर नहीं मालूम वह कौन-सी है? इन्हें खिलाऊँ भी तो कौन-सी खिलाऊँ ? उसने इधर-उधर की घास इकट्ठी की और सोचा वह जड़ी भी इसमें होगी ही। उसने बैल को घास चराना शुरू किया और प्रतीक्षा करने लगी। थोड़े समय तक यही चक्कर चलता रहा। आखिर, वह जड़ी बैल ने खाली और बैल फिर आदमी बन गया। यह कहानी, कहानी तक ही सीमित है, किन्तु हरिभद्र सूरि ने एक विशेष बात समझाने के लिए यह कहानी कही है। हरिभद्र बड़े दार्शनिक माने जाते हैं। उनका साहित्य रोशनी देने वाला और धर्म के प्रति श्रद्धा बढ़ाने वाला है। उनके साहित्य के अध्ययन से मौलिक विचारों का सृजन होता है। वह कहते हैं, वह स्त्री यों ही बैठी रहती और सोचती रहती कि जड़ी मिल जाए तो क्या जड़ी मिल सकती थी? मगर उसने अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के निमित्त प्रयत्न किया और प्रयत्न करने में बुद्धि से भी काम लिया। वह उस जड़ी के रंग-रूप से वाकिफ न थी तो, उसने सोचा क्यों न यहाँ पर उगी हुई सभी प्रकार की घास बैल को खिलाऊँ। जब जड़ी इसी स्थान पर घास के बीच कहीं पर है तो, घास के साथसाथ वह जड़ी भी निश्चय ही बैल के मुँह में पहुँच जाएगी और मनुष्य-रूप होकर मेरा पति मुझको मिल जाएगा। और उसने यही किया भी-तो, अपने बुद्धि-युक्त परिश्रम का फल उसे मिला भी तुरन्त ही। घास के साथ मिलकर वह जड़ी उस बैल के मुँह में पहुँच गई और उस स्त्री के देखते ही देखते वह बैल अपने मनुष्य रूप में उसके सम्मुख खड़ा हो गया। तो, इसी प्रकार यह आत्मा भी अपने मूल रूप में ज्ञानमय होने पर भी, बैल के समान अज्ञान बनी हुई है। इसे अपने जीवन का कुछ पता नहीं है और जब पता नहीं है तो बैल ही है। अज्ञानता ही बैलपना है। अब आत्मा बैल से इन्सान बने, अज्ञानी से ज्ञानी बने तो कैसे बने ? तो, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया— 'सम्यक्त्व की जड़ी का सेवन करके।' 'परन्तु सम्यक्त्व कहाँ से मिले ?' 'गुरु से।' 'गुरु की खोज कहाँ की जाए ?' . 'जैसे घास-फूस में जड़ी की खोज की गई।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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