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________________ गुणिषु प्रमोदम् । ३३ देखने में आया है कि किसी-किसी साधक के अन्तरतर में स्वतः सम्यक्त्व की ज्योति प्रकाशमान होने लगती है, पर ऐसे साधक प्रायः कम होते हैं। और दूसरे प्रकार के साधक वे हैं, जो सम्यक्त्व की ज्योति प्राप्त करने के लिए इधर-उधर गुरु की खोज करते हैं। वे सोचते हैं कि किसी से मुझे जीवन के कल्याण की बात मिल जाए । यह सोच कर वह एक के पास जाते हैं, दूसरे के पास जाते हैं और तीसरे के पास भी जाते हैं और किसी भी सम्प्रदाय के ज्ञानी समझे जाने वाले के पास चले जाते हैं। उनकी सत्य की जिज्ञासा इतनी प्रबल हो उठती है कि वे यही सोचा करते हैं कि कहीं न कहीं से यथार्थ ज्ञान मैं प्राप्त करूँ तो, मेरी आत्मा को शान्ति मिले। तो, ऐसा करना घास खाने के समान है। सभी घास जड़ी नहीं है, परन्तु नहीं मालूम कि जड़ी कौन है और कहाँ है ? अतएव जड़ी खाने के लिए घास भी खाना पड़ता है। सद्गुरु की खोज में असद्गुरुओं के पास भी जाना होता है । जैसे घास खाते-खाते जड़ी हाथ लग जाती है, उसी प्रकार भटकते-भटकते सद्गुरु की भी प्राप्ति हो जाती है और जीवन आनन्दमय एवं कृतार्थ हो जाता है। आनन्द ऐसा ही उपासक था । सत्य के स्वरूप को समझने की उत्कण्ठा उसके हृदय में जागृत थी। वह सद्गुरु की तलाश में था। नगर में जो भी महान् गुणी आत्मा आएँ, उनका समागम किया जाए, उनकी वाणी सुनी जाए और ऐसा करते-करते कोई सच्चा गुरु मिल जाएगा तो मेरा जीवन उज्ज्वल हो जाएगा । आनन्द की ऐसी ही मनोवृत्ति थी । अचानक श्रमण भगवान् महावीर उसके ग्राम में पधारे। उनकी कीर्ति, यश और प्रतिष्ठा उसने सुनी, साथ ही उसने यह भी सुना कि उन्होंने तरुण अवस्था में समस्त राजकीय वैभव को ठोकर मार दी है, सोने के महलों को छोड़ दिया है और साधु बन गए हैं। सच्चे साधु बन कर उन्होंने बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ झेली हैं और जो कुछ प्राप्तव्य था उसे पा लिया है और जब उन्होंने जीवन्मुक्ति पाली तो जगत् का पथ-प्रदर्शन करने के लिए विचरने लगे हैं। उसने यह भी सुना कि उन्होंने यज्ञों की हिंसा के विरुद्ध साहस के साथ आवाज बुलंद की है। बड़े-बड़े पण्डित और राजामहाराजा उनके शिष्य बनते जा रहे हैं । इन्द्रभूति जैसे चार वेदों के पाठी असाधारण विद्वान उनके पास गए और उनके चरणों में पहुँचकर वापिस नहीं लौटे। आशय यह है कि भगवान् महावीर की जो ख्याति फैल रही थी, यह आनन्द के कानों तक भी पहुँची और उसके मन में हर्ष हुआ कि ऐसी महान् आत्मा इस नगर में आई है। भगवान् महावीर की यह ख्याति किसी भी जिज्ञासु और मुमुक्षु पुरुष को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए पर्याप्त थी । आनन्द भी इससे प्रेरित होकर और सत्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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