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________________ ३४ । उपासक आनन्द का दर्शन पाने की भावना लेकर, भगवान् महावीर के पास पहुँचा। उसने सोचाभगवान् का दर्शन करने से मुझे महान् फल की, तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होगी। आनन्द समझदार था और अपने जीवन को सुधारने का मार्ग तलाश कर रहा था। जब उसने सुना कि भगवान् आए हैं और हजारों आदमी उनके दर्शनों के लिए जा रहे हैं, तो सोचा—मैं भी जाऊँ। किन्तु उसके जाने का असली निमित्त यही था कि उसने भगवान् की महान् कीर्ति सुनी थी और इस समय उनके आगमन का समाचार पाकर उसके हृदय में गुदगुदी पैदा हो गई कि मैं भी जाऊँ, मैं भी दर्शन करूँ। वास्तव में, उस समय आनन्द को भगवान महावीर के आगमन के संवाद को सुनकर उसी प्रकार प्रसन्नता हुई, जैसे किसी भक्त को होनी चाहिए और उसने भगवान् के श्री चरणों में जाने का निश्चय कर लिया। उसने सोचा_भगवान् के दर्शन करने से उसे निश्चय ही अमोघ फल की, महान् फल की प्राप्ति होगी। राज्य-वैभव मिल जाना, धन-सम्पत्ति पा लेना और यहाँ तक कि स्वर्ग की प्राप्ति हो जाना भी सांसारिक फल मिलना कहलाता है। उसे फल कहा जा सकता है, महान् फल उसे नहीं कह सकते। महान फल उन सब फलों से निराला ही होता है। जब तक मनुष्य का अज्ञान-अंधकार नहीं मिटता, तब तक वह संसार में भटकता रहता है और शाश्वत शान्ति नहीं पा सकता। इस रूप में जन्म-मरण का मूल अज्ञान है और उस अज्ञान-अंधकार का मिट जाना, समीचीन दृष्टि मिल जाना और अपने स्वरूप को सम्यक् रूप से समझ लेना, यही मानव जीवन का महान् फल है। कोई फल प्राप्त हो, मगर उसकी सहायता से मनुष्य जीवन की सार्थकता हाथ न लगे-तो, वह फल महान् फल कैसे कहा जा सकता है ? जिस सफलता के गर्भ में घोर असफलता ही छिपी मुस्कराती हो तो वह क्षणिक सफलता कल्पित सफलता है, वास्तविक नहीं। असली सफलता तो वही है, जिसके पश्चात् असफलता का मुँह ही न देखना पड़े। संसार की बड़ी से बड़ी सफलताएँ क्षणिक हैं और यदि स्थायी हैं तो तभी तक जब तक मनुष्य इस शरीर में मौजूद रहता है, साँस बंद होने पर कोई भी सफलता उसके काम नहीं आती। अतएव उसे ज्ञानी पुरुष क्षुद्र सफलता कहते हैं। महान् पुरुष का समागम करने से ही महान् फल की प्राप्ति हो सकती है। इसीलिए आनन्द विचार करता है, कि प्रभु के दर्शन करने से मुझे महान् फल प्राप्त होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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